सोमवार, 28 अगस्त 2017

क्या गौवध वेद सम्मत है ?


भारतीय दर्शन के वेदों में ऐसे यज्ञों का कई बार जिक्र आया है जिनमे पशुओं की आहुति दी जाती है ,ऐसा सप्रमाण कर्मकांडीयों द्वारा प्रचारित एवं प्रचलित किया जाता है । किन्तु मेरा अन्तर्मन इसे स्वीकारने के लिए बिल्कुल भी तैयार नही । आजकल गौहत्या, गौमांस भक्षण को लेकर टीवी पर विद्वान धर्म गुरुओं के मध्य बहस चल रही थी कि प्राचीन धर्म शास्त्रों में गौमांस भक्षण तो ऋषि मुनियों द्वारा स्वीकार रहा है । अनेक क्लिष्ट भाषा मे श्लोक उच्चारित किये गए और उनका अर्थ बताया गया कि "अग्निसोमीय पशु" को यज्ञ के निमित्त बलि देकर उसका प्रसाद गृहण करने का जिक्र तो वेदों में बहुत अच्छी तरह मिलता है । मेरे आश्चर्य का ठिखाना नही रह जब वैदिक धर्म के सबसे बड़े प्रचारक आदि शंकराचार्य तक को इस पशुबलि खासकर "अग्निसोमीय" पशु अर्थात बैल की बलि का समर्थक बताया गया । जब बात शंकराचार्य तक चली गयी तो इसके लिए कांची कामकोटिपीठ शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी से विचार लेना अपेक्षित हुआ एंकर ने अपने संवाददाता के द्वारा उन्हें जोड़ा और उनसे पूँछा कि केंद्र की वर्तमान सरकार गोवध पर प्रतिबंध के नाम पर सत्ता में आई है और आज इस चुनावी वायदे से पीछे हटकर उल्टा गौरक्षकों को गुंडा कह रही है ।
इस बारे में आपके क्या विचार हैं तो शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी ने कहा कि वेदों में गोवध का विधान होते भी ऐसी मांग कैसे की जा सकती है ?" उनका इतना कहना था कि गौमांस भक्षण के पक्षकारो के चेहरे खिल उठे और वे इतने हावी हो गए कि राष्ट्रवादी टी वी चैनल ने जिस लक्ष्य से यह डिबेट रखी वो पूरी तरह ध्वस्त हो गयी अतः बाध्य होकर उसे एक लंबा ब्रेक लेना पड़ा । लेकिन मेरे मन मष्तिष्क में एक भंयकर द्वंद्ध उठ खड़ा हुआ और मुझे आधुनिक विश्वामित्र राजर्षि देवी सिंह जी महार साहब का वो उद्बोधन जो उन्होंने अप्रैल 2014 झाकड़ा(अलवर) में दिया था सहसा स्मरण हो उठा । मेरे पास उनके उस उद्बोदन की वीडियो रिकॉर्डिंग थी अतः मैंने पुनः इसे ध्यानपूर्वक सुना जिसमे उनका कहना था कि "समाज आज जितना पतित हुआ यह तो कुछ भी नही बल्कि आज से कोई 2500 वर्ष पूर्व तो इससे कहीं अधिक पतित हो चुका था । आज हम कितने ही संस्कारहीन हो गए हों किन्तु किसी भी धर्म के ठेकेदार के कहने पर हम गौमांस नही खा सकते ,गौहत्या नही कर सकते किन्तु उस समय कर्मकांडी पंडो गाँवों से हजारों गौवंश एकत्रित करवाकर यज्ञ के नाम पर उनकी निर्मम हत्या कर प्रसाद के रूप में क्षत्रियों सहित समस्त प्रजा को खिलाते थे और कहते थे कि जो गौमांस नही खाये वो आर्य नही है जैसे आजकल कुछ ठाकर कहते है कि बकरा न खायें तो काहे का राजपूत । उस विषम और धर्म के नामपर चल रहे इस पाखण्ड के विरुद्ध भी क्षत्रिय राजकुमारों ने विद्रोह किया कि यह धर्म नही हो सकता यह तो अधर्म है । इस महा पाखण्ड का जो सबसे सशक्त विद्रोह किया वो किया राजकुमार सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने । उन्होंने कहा कि यदि गौमांस खाने से ही कोई आर्य बनता तब तो कुत्ते, कौवे, चील एवं गिद्धादि सभी हिंसक पशु पक्षी आर्य हो गए । कर्मकांडी पंडो ने कहा ऐसा तो वेद सम्मत है तब गौतम बुद्ध ने कहा" ऐसे वेदों को मैं नही मानता ।"
इसका अर्थ यह हुआ कि 2500 वर्ष पूर्वतक तो गौमांस भक्षण प्रचलित हो चुका था किंतु इसका विरोध निरन्तर रहा और सम्भवतः बौद्ध प्रभाव के कारण गौमांस भक्षण बंद हुआ । 2500 वर्ष पहले भी धर्म के ये तथाकथित ठेकेदार गौमांस भक्षण को वेद सम्मत बता रहे थे और आज भी शंकराचाय जयेंद्र सरस्वती जी उसे वेद सम्मत बता रहे है । में चूंकि वेदों के प्रति पूर्ण आस्थावान हूँ और गौतम बुद्ध के प्रति पूर्ण सम्मान होने पर भी में उनकी तरह यह नही कह सकती कि "मैं नही मानती वेदों को" अतः मैंने वेदों के उन श्लोकों की तह में जाने का प्रयास किया कि आखिर विवाद की जड़ कहाँ है ? अबतक में वेदों के सबसे बड़े व्याख्याकार आदि शंकराचार्य को ही मानती रही हूँ अतः उनके शंकरभाष्य के
'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' वेदांतदर्शन (१,१,१) की खोजकर पढ़ा जिसमे उन्होंने लिखा है-"यथा च हृदयाद्यवदानाना मानन्तर्य नियम:"
अर्थात जैसे हृदयादि के अवदान अर्थात छेदन में आनन्तर्यक्रम का नियम है । क्या नियम बताया देखें:-
हृदयस्याग्रेश्वद्यति अथ जिह्वाया अथ वक्ष: (तै.सं.) अर्थात प्रथम उस अग्निसोमीय यज्ञ के पशु के हृदय का, फिर जिह्वा का, फिर वक्ष:स्थल का छेदन करे । ये वाक्य अग्निषोमीय यज्ञ में श्रुत है ।" 
इसका अर्थ हुआ कि वास्तव: आदि शंकराचार्य जी भी यह उदाहरण देकर यज्ञ में पशु वध को विधि सम्मत मानते थे ?
इसी प्रकार आसुरी प्रवृति के लोगों ने अपनी प्रकृति के अनुरूप यज्ञ, श्राद्ध, मधुपर्क आदि में मांसादि का विधान बतला दिया:-
" मधुपर्के तथा यज्ञे पित्र्यदैवत्वकर्मणि ।
अत्रैव पशवो हिंस्या: नान्यत्रेत्यब्रवीत् मनु: ।।
इस प्रकार के श्लोकों में यज्ञ पशुहिंसा तथा यज्ञशेष के रूप में मांसभक्षण को विधिसम्मत घोषित कर दिया जबकि मीमांसा शास्त्र में 'अपि वा दानमात्रं स्यात् भक्षशब्दानभिसम्बन्धात्' (मी. 10 !7! 15) इत्यादि सूत्रों म् यज्ञ में पशुओं के दनमात्र का विधान है, हिंसा का नही ।
अब यह बहुत उलझन का की बात हो गयी कि वेदों में यज्ञ में पशु वध और वो भी अग्निसोमीय पशु जिसका सीधा अर्थ होता है बैल की हिंसा और फिर यज्ञशेष के रूप में मांसभक्षण का विधान है ? मुझे लगता है वैदिक धर्म के सबसे बड़े व्याख्याकार ही कहीं कहीं चूक कर गए । सम्भव है महाभारत के युद्ध समस्त ज्ञानवान क्षत्रियों के इस लोक से चले जाने के बाद और चन्द्र वंश एवं नागवंश की करीब 2500 वर्ष लम्बे चले युद्ध के समय धर्मद्रोहियों ने वेदों के श्लोकों के साथ कोई छेड़छाड़ की हो और उस दूषित शास्त्रों को आधार मान शंकराचार्य जी ने शंकरभाष्य में मांशभक्षण एवं बैल एवं गाय की यज्ञ के नाम पर हत्या को वेदसम्मत घोषित कर दिया हो । या फिर यह भी सम्भव है कि आदि शंकराचार्य जी भी संस्कृत का मूल ज्ञान न रखते हों और उपलब्ध अर्थो के आधार पर ही व्याख्या कर दी हो । एक और भी बात तत्कालीन पिस्थिति में परिलक्षित होती है कि कुमारिल भट्ट से पूर्व बौद्ध प्रभाव इतना जबरदस्त था कि वैदिक मत को कोई मानने वाला ही नही बचा था अधिकांश क्षत्रिय राजपरिवार बौद्ध या जैन मत अपना चुके थे । अतः वैदिक मत की पुनः स्थापना के लिए बौद्ध और जैन मत के एकदम विपरीत धार्मिक अनुष्ठान और अनुयायियों की आवश्यकता रही होगी । चूंकि बौद्ध और जैन दोनों ही मत क्षत्रिय राजकुमारों ने जीवहिंसा विशेषतौर से गोवंश की हत्या जो यज्ञ एवं यज्ञशेष के नाम पर की जा रही थी के विरुद्ध आरम्भ किये गए थे अतः आदि शंकराचार्य जी ने पुनः पशुबलि को वेद सम्मत सिद्ध कर दिया हो । बात कुछ भी रही हो किन्तु मैं एक क्षत्राणी हूँ, और निरीह प्राणियों और विशेषतौर से गौ जैसे संपूण धर्म के प्रतीक पशु की हत्या को चाहें आदि शंकराचार्य जी शंकरभाष्य मे उचित ठहराये या आज के कांची के जयेन्द्र सरस्वती ,मैं मानने को तैयार नही । तो मुझे अब यह शोध करना ही होगा कि कहाँ पर चूके यह धर्ममूर्ति ? वेद के किस श्लोक के अर्थ से इन्हें प्रमाण मिल गया । क्योंकि वेद मेरे ही महान पूर्वजों की तपस्या के परिणाम है । जब भगीरथ माँ गंगा को धरती पर लाये तब ही गंगा जी ने कहा दिया कि जिस पात्र में मदिरापान या मांसभक्षण होगा वो मेरे जल से 3 कोटि मतलब करोड़ बार साफ करने से भी पवित्र नही हो सकता तो वो शरीर जिसमे मदिरा या मांशभक्षण हो गया कभी पवित्र हो ही नही सकता । अतः वेद के किसी श्लोक या कोई एक शब्द का कुअर्थ जिव्हा के स्वाद के लिए अवश्य किसी धर्मद्रोही ने विगत 5000 वर्ष के भीतर किया है । क्योंकि ज्ञान के सूर्य भीष्म, साक्षात ईश्वर श्री कृष्ण ने मदिरापान एवं मांशभक्षण को एकदम धर्म विरुद्ध घोषित किया है । और में आदि शंकराचार्य जी ज्ञानी मानती हूं किन्तु भीष्म या श्री कृष्ण की तुलना में कहीँ कोई स्थान नही दे सकती । वैसे वे श्लोक और शब्द मुझे इन्ही धर्म शास्त्रों में मिल गए हैं जिनके गलत अर्थ से पशुहिंसा को वेदसम्मत घोषित करने का पाप किया गया है ।