शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

भारत की डूबती अर्थव्यवस्था, हम और आप ?

भारत के प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री भले ही अर्थशास्त्री हों लेकिन वे भी इन दिनों अर्थव्‍यवस्‍था की हालत ठीक करने का उपाय नहीं खोज पा रहे हैं। डॉलर के मुकाबले रुपया नीचे गिरने का नोज नया रिकॉर्ड बना रहा है। गुरुवार २२ अगस्त २०१३ को  एक डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की कीमत 65 तक पहुंच गई। हाल के महीनों में डालर के मुकाबले रुपए में सबसे अधिक गिरावट देखी जा रही है। पिछले दो माह के दौरान ही डालर की तुलना में रुपया करीब 15 प्रतिशत से ज्यादा गिर चुका है। इसके बावजूद ऐसी कोई तस्वीर सामने नहीं आ रही कि रुपए का गिरना कहां जाकर रुकेगा। जानकार तो यहां तक कह रहे हैं कि डालर-रुपया की विनिमय दर 70 रुपए का स्तर भी छू ले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

रुपए की गिरावट से अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे प्रभाव से पीएम, वित्त मंत्री, वित्त मंत्रालय के आला अधिकारी से लेकर रिजर्व बैंक के गवर्नर सभी उलझन में हैं। इसके बावजूद उन्हें राह नहीं सूढ रही है कि रुपए को कैसे मजबूती दी जाए। सरकार की ओर से बार-बार कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था पहले की तरह मजबूत है और 1980 या 1990 के हालात पैदा होने का खतरा नहीं है। रुपए में गिरावट भले ही अस्थायी दौर हो लेकिन अर्थव्यवस्था की जो हालत है उसे लेकर सरकार के उपाय और आश्वासन घरेलू और बाहरी निवेशकों में विश्वास पैदा करने में नाकाम साबित हो रहे हैं।
         
                सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को ही राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिए कितनी उधारी की जरूरत पड़ेगी। कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता है। राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में काफी बढ़ोत्तरी से होता है। राजकोषीय घाटे की भरपाई आमतौर पर केंद्रीय बैंक ( भारत में रिजर्व बैंक) से उधार लेकर की जाती है या इसके लिए छोटी और लंबी अवधि के बॉन्ड के जरिए पूंजी बाजार से फंड जुटाया जाता है। विदेशी मुद्रा भंडार घटकर महज इतना रह गया है कि वह सात महीने का ही काम चला सकता है जबकि 2007-08 में यह मुद्रा भंडार डेढ़ साल की आयात जरूरत पूरी करने के लिए काफी था।
            भारत का राजकोषीय घाटा 2007-2008 में 3.5 फीसदी था जो बढ़कर 2011-12 में 5.8 फीसदी हो गया था। एक आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, केन्द्र सरकार पर कुल कर्ज 44.69 करोड़ रूपए है जो जीडीपी का 50 फीसदी के करीब है। केंद्र का लक्ष्य सरकारी घाटे को इस वित्तीय वर्ष में 4.8 फीसद तक करना है लेकिन ऐसा होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 2.63 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया था जो 2013-14 के बजट अनुमान का 48.4 फीसदी है। वर्ष 2012-13 की अप्रैल-जून तिमाही में राजकोषीय घाटा बजट अनुमान का 37.1 प्रतिशत था। 
         रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने हबाल ही में वित्त वर्ष 2013-14 की ऋण एवं मौद्रिक नीति की घोषणा करते हुए कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बढता चालू खाता घाटा सबसे बड़ा और पहला खतरा बन रहा है। यह ऐतिहासिक रूप से उच्चतम पर बना हुआ है। आरबीआई के अनुसार चालू खाता घाटा जीडीपी का 2.5 प्रतिशत होना चाहिए जो कि अनुमानित 5.2 प्रतिशत पर बना हुआ हुआ है। इससे पूंजी के आंतरिक स्रोतों पर दबाव पड़ता है और बाजार तरलता के संकट की ओर बढ़ता है। आने वाले समय में भी सरकार के घाटे से उबरने के आसार नहीं नजर आ रहे हैं   आइए जानते हैं कि इसकी क्या वजहें है-
               
                 केंद्र सरकार के खाद्य सुरक्षा विधेयक को लागू करने के फैसले से सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ेगा। बड़ी आबादी को सस्ती दरों पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए सरकार को पहले महंगे दामों पर अनाज खरीदना होगा और फिर इसके बाद इसे सब्सिडाइज रेट पर बेचा जाएगा। डीबीएस बैंक ने अनुमान जाहिर किया था कि इस विधेयक के लागू होने के बाद चालू वित्त वर्ष में सरकार का राजकोषीय घाटा 4.8 प्रतिशत के अनुमानित लक्ष्य से आधा प्रतिशत और आगे बढ़ सकता है। इससे डंवाडोल चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए और समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। 
           सिंगापुर स्थित इस ब्रोकरेज फर्म ने एक रिपोर्ट में कहा था, ‘इस साल राजकोषीय घाटा तय लक्ष्य से कम से कम आधा प्रतिशत ऊपर जा सकता है।’ रिपोर्ट में कहा गया है कि सब्सिडी बिल बढ़कर जीडीपी के 2.3 प्रतिशत तक पहुंच सकता है जो 1.9 प्रतिशत के लक्ष्य से काफी ऊपर है। सब्सिडी बिल में बढ़ोतरी की मुख्य वजह व्यापक स्तर पर खाद्य सब्सिडी होगी। राजकोषीय मोर्चे पर रुपये में गिरावट और बाद में कच्चे तेल में तेजी, आग में घी डालने जैसा काम करेगी। मंत्रिमंडल ने खाद्य सुरक्षा विधेयक को लागू करने के लिए अध्यादेश लाने का निर्णय किया है। खाद्य सुरक्षा विधेयक के जरिए देश की दो तिहाई आबादी को 1 से 3 रुपये प्रति किलो की दर पर हर महीने 5 किलो खाद्यान्न का कानूनी अधिकार मिल जाएगा। इसके अलावा  जानिए, अगले साल होने वाले चुनाव क्या असर डालेंगे अर्थव्यवस्था पर-
              2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों से भी सरकारी खजाने पर कमरतोड़ बोझ पड़ेगा। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अगले साल मार्च से पहले ही चुनावों की घोषणा हगो सकती है। ऐसे में अर्थव्यवस्था के तब तक वांछित लक्ष्य पाने की उम्मीद कम है। अर्थव्यवस्था तब तक बढ़ते राजकोषीय घाटे की भरपाई भी कर लेगी तो आने वाले समय में इन चुनावों से सरकारी खजाने पर बड़ा बोझ पड़ेगा। चुनावों के पास आने से पहले सरकार ने लोकलुभावनी नीतियों के तहत ही खाद्य सुरक्षा विधेयक लागू किया है। इसके अलावा आने वाले महीनों में सरकार की ओर से कुछ और ऐसी घोषणाएं हो सकती हैं जो चुनावों के मद्देनजर की जाएं। लेकिन इसका बुरा असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा और राजकोषीय घाटा आने वाले समय में और बढ़ता दिखाई दे सकता है। 
अगले साल फरवरी में अंतरिम बजट पेश किया जाना है। नियमों के तहत आम चुनाव से पहले सरकार महज लेखानुदान बजट पेश कर सकती है। निवेशकों को यह इंतजार थोड़ा लंबा लग सकता है और मुमकिन है कि वे निवेश के लिए कहीं और बेहतर बाजार तलाशने में जुट जाएं। खतरा सिर्फ निवेशकों का ही नहीं बल्कि और भी बड़ा है। जैसे-जैसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें पढ़ेंगी वैसे ही सरकार का घाटा बढ़ेगा, जानिए कैसे-
        
           रुपए की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गिरने से कच्चा तेल बढ़ी हुई कीमतों में मिल रहा है। कमजोर रुपये की सबसे ज्यादा मार पेट्लियम पदार्थों पर ही पड़ रही है। देश में पेट्रोलियम पदार्थो की जितनी खपत है, उसका 80 फीसदी भारत को आयात करना पड़ता है। पेट्रोलियम मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक डालर के मुकाबले रुपए के कमजोर होने से इस क्षेत्र की कंपनियों पर एक साल में 8200 करोड़ रुपए का अधिभार बढ़ जाता है। इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आईओसी) के निदेशक (वित्त) पी.के. गोयल ने बताया कि कमजोर रुपए से इस वर्ष अप्रैल से जून तक 840 करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। अब नुकसान और होगा क्योंकि रुपया 64 के पार जा चुका है। लेकिन महंगी कीमतों में मिले कच्चे माल के बावजूद पेट्रोल को छोड़ कर अन्य पेट्रोलियम उत्पादों को तेल कंपनियां सरकार द्वारा तय कीमतों पर ही बेच सकती हैं। हालांकि इस प्रक्रिया में घाटे की भरपाई सरकार करती है लेकिन सब्सिडी कब मिलेगी, इसका कोई पता नहीं होता। 
             वैसे भी चुनाव पास आने की वजह से सरकार की ओर से तेल कंपनियों पर दाम न बढ़ाने या न्यूनतम बढ़ाने का दबाव होगा। ऐसे में खरीद और बिक्री रेट में होने वाले अंतर को भी सरकार को ही भरना होगा। इससे आने वाले समय में सरकार की जेब पर और बोझ पड़ सकता है और यह अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक होगा।वैश्विक अर्थव्यवस्था की पतली हालत के कारण देश में विदेशी पूंजी का प्रवाह भी मंद है। इससे अर्थव्यवस्था में तरलता का संकट भी बन रहा है। इसे दूर करने के लिए निवेश का माहौल बनाने की जरूरत है। इसके साथ ही घटता निवेश भी अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम है। आरबीआई गर्वनर डी सुब्बाराव ने कहा है कि विकास दर को पटरी पर लाना निवेश के बिना संभव नहीं है। लेकिन देश में निवेश का माहौल बिगड़ रहा है। बीते समय में कारोबारी भरोसा डगमगाया है। व्यापार में सुस्ती से निवेश की धारणा भी कमजोर बनी हुई है। ऋणदाता और कर्ज लेने वाले दोनों ही जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं हैं। आरबीआई ने सरकार से निवेश के अनुकूल बनाने का अनुरोध किया है। रिजर्व बैंक ने उच्च मुद्रास्फीति को भी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए जोखिम वाला तत्व बताया है और कहा कि आपूर्ति बढ़ाकर इस पर काबू पाने का प्रयास करना चाहिए। आरबीआई ने मौद्रिक उपायों के माध्यम से मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की कोशिश की है, लेकिन खाद्य वस्तुओं की कीमतों का दबाव दिख रहा है। न्यूनतम समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी, वेतन में लगातार वृद्धि से मुद्रा स्फीति के और बढ़ने का खतरा है।
                
                        1991 का समय भारतीय अर्थव्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव के तौर पर याद किया जाता है। देश के सामने मुंह बाए खड़े संकट से निपटने के लिए सरकार ने तब निवेश, विदेश पूंजी, औद्योगीकरण के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोल दिए थे। लेकिन इस समय संकट पहले से काफी बड़ा है। आईएमएफ ने भी चेतावनी दी है कि भारत और चीन में 2008 के बाद ग्रोथ में आने वाली गिरावट भविष्य के खतरे का संकेत है। आईएमएफ ने ग्रोथ में आई इस गिरावट को तकनीकी विकास के धीमे होने से जोड़ा है। इसके मुताबिक भारत लगभग उसी जाल में फस रहा है (मध्यम आय जाल), जिसमें पहले लैटिन अमेरिकी देश और बाद में दक्षिण-पूर्व एशियाई देश फंसे थे। 1997-98 में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों पर आया आर्थिक संकट मुख्त तौर पर विदेशी भुगतान संकट था। जिसके चलते इन देशों को अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना पड़ा था। जायदाद की कीमतें घटने के कारण बैंकों इत्यादि पर संकट तो आया ही, रोजगार के अवसर भारी मात्रा में कम हुए। इसका असर भारत पर पड़ सकता था, लेकिन भारत इससे लगभग अछूता रहा और उसके बाद इसकी ग्रोथ रेट भी पहले से ज्यादा बढ़ गई। 1998 के बाद 2011-12 तक भारत में औसत ग्रोथ रेट 7 प्रतिशत को भी पार कर गई थी। तब भारत इसलिए बच पाया, क्योंकि रुपया पूंजी खाते पर परिवर्तनीय नहीं था। हालांकि, तत्कालीन सरकार रुपए को पूर्णतया परिवर्तनीय बनाने की कोशिश में थी। लेकिन इस आर्थिक संकट के चलते और विभिन्न एजेंसियों की चेतावनी के कारण सरकार को इसे टालना पड़ा था। वहीं दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से विदेशी मुद्रा का इसलिए भारी रूप से वापस लौटी क्योंकि उनकी करेंसियां पूर्णतया परिवर्तनशील थीं। भारत में रुपया पूर्णतया परिवर्तनशील नहीं था और अभी भी काफी हद तक नियंत्रण में है। भारत के बचने का दूसरा कारण विदेशी विनिमय दर पर रिर्जव बैंक का काफी नियंत्रण था। तीसरे, हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात आधारित नहीं थी और देश में घरेलू मांग में वृद्घि के फलस्वरूप हमारे उद्योगों की ग्रोथ तेज थी। एक कारण विदेशी ऋण-जीडीपी अनुमात बहुत कम होना भी था। उस समय भारत पर विदेशी ऋण 100 अरब डालर के आसपास ही था। 2008 में अमेरिकी संकट से भी भारत काफी हद तक बचा रहा, जिसका मूल कारण यह था कि देश शेष दुनिया पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं था। आज देश में विदेशी मुद्रा भंडार, जो कभी तीन साल के आयातों के लिए काफी थे, अब घटकर मात्र 6 महीनों के आयात के लिए ही है। इसलिए संकट पहले से ज्यादा है
            
     काले धन से भारतीय अर्थव्यवस्था को जो नुकसान पहुंचा है उसका सही अनुमान लगाना तो मुश्किल है क्योंकि काले धन की सही-सही मात्रा का पता नहीं लगाया जा सकता है। काले धन के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले एक दशक में करीब 123 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। अकेले वर्ष 2010 में 1.6 अरब डॉलर की अवैध राशि देश से बाहर गई है। यह खुलासा वाशिंगटन स्थित शोध संगठन ‘ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी’ (जीएफआई) की रिपोर्ट से हुआ है। रिपोर्ट में भारत को आठवां सबसे बड़ा ऐसा देश बताया गया है, जहां से सबसे अधिक अवैध पूंजी बाहर गई है। इस मामले में भारत का स्थान चीन, मेक्सिको, मलेशिया, सऊदी अरब, रूस, फिलीपीन्स तथा नाइजीरिया के बाद आता है।
           हाल ही में कोबरा पोस्ट ने खुलासा किया था कि कुछ बड़े निजी बैंक काला धन नकद लेते हैं और उसे बीमा और सोने में निवेश करते हैं। ये बैंक काले धन को अपनी निवेश योजनाओं में डालते हैं। इसके लिए वे रिजर्व बैंक की शर्तो का उल्लंघन करते हुए बिना पैन कार्ड के ही खाता खोला जाता है। इस हवाला कारोबार में बैंक काला धन देने वाले ग्राहकों की पहचान गुप्त रखते हैं और जरूरत के हिसाब उनके अकाउंट खोले और बंद किए जाते हैं। रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि बैंक ग्राहकों को अवैध नगदी रखने के लिए लॉकर देता है, जिसमें करोड़ों रुपये कैश रखे जाते हैं। इसके साथ ही बताया गया है कि काले धन को विदेश भेजने में भी बैंक मदद करता है। बैंकों के मैनेजमेंट जानबूझ कर सुनियोजित तरीके से इनकम टैक्स ऐक्ट, फेमा, रिजर्व बैक के मानदंडों, केवाईसी के नियमों, बैंकिंग ऐक्ट, प्रिवेंशन ऑफ मनी लाउन्ड्रिंग ऐक्ट (पीएमएलए) की धज्जियां उड़ा रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार कावेधन को लेकर गंभीर नजर नहीं आ रही है।
        गहरे संकट में फंसे रुपए को मजबूती दो तरह से मिल सकती है। एक तो भारतीय निर्यात को बढ़ाया जाए और विदेशी निवेशक भी देश की प्रगति के हिस्सेदार बनें। लेकिन मौजूदा समय में दोनों ही मोर्चों पर कुछ खास नहीं हो रहा है। रुपए की कमजोरी को थामने के लिए रिजर्व बैंक के उपायों से देश का उद्योग जगत भी खासा नाराज है। उद्योग प्रमुखों का कहना है कि रिजर्व बैंक ने विदेश में निवेश के लिए जो पूंजी सीमाएं लगाई हैं, उससे देश 80 के दशक की तरफ लौट सकता है। तब भारतीय कंपनियों का विदेशों में निवेश शून्य था। आर्थिक जानकारों का कहना है कि हाल में देखा जाए तो सरकार ने घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की दिशा में खास प्रयास नहीं किए हैं। जब तक घरेलू अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूती नहीं मिलेगी वर्तमान माहौल से निजात पाना मुश्किल है। देश में विदेशी निवेश को फिर से आकर्षित करना है तो पहले घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत करना होगा, जो फिलहाल पिछले एक दशक के निचले स्तर पर है। विदेशी निवेश का प्रवाह बढ़ाने में तभी सफलता मिलेगी जब घरेलू अर्थव्यवस्था मजबूत होगी। विदेशी निवेश का जुड़ाव मूल तौर पर अर्थव्यवस्था की मजबूती से है। इसलिए जरुरी है कि सरकार जब तक अर्थव्यवस्था को कुछ साल पहले की स्थिति में लाने की दिशा में कदम उठाए

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