बुधवार, 18 जनवरी 2012

!!शिष्टाचार और संस्कार में फर्क है।!

 शिष्टाचार का संबंध सिर्फ बाहर से और संस्कार का भीतर से जुड़ा हुआ है। इस समय ये दोनों ही बातें मानवीय जीवन में या तो कम हो रही हैं या फिर इनका स्वरूप बदलता जा रहा है। सारा शिष्टाचार धंधे का गुर बन गया है। हम उन्हीं के प्रति सभ्य हैं, जिनसे हमें कुछ मिलना है।

अकारण सहज होना, शिष्ट होना कमजोरी की निशानी है। शिष्टाचार सिर्फ इसलिए है कि व्यावसायिक संबंध बिगड़ न जाएं। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि शिष्टाचार का संबंध शरीर से है और संस्कार का भीतर से। इसीलिए आज के समय में लोग शरीर क्या कर रहा है, इसकी चिंता अधिक पालते हैं। भीतर जो हो रहा है, उसे कैसे ठीक किया जाए, इसकी फिक्र कम है।

खाते समय हम गिरा न दें, किसी से बात करते समय बॉडी लैंग्वेज ठीक रहे, किसी से वस्तु आदान-प्रदान करते समय आभार-धन्यवाद जरूर बोलें, भोजन का आमंत्रण दें, भोजन करवाएं, थाली कैसी सजी हो, खान-पान की वैरायटी, ऊपरी साफ-सफाई, मौके-दर-मौके उपहार भेंट करना, उपहारों की शानदार पैकिंग, ये सब शिष्टाचार हैं। एक दिन इनसे जुड़कर मनुष्य केवल शरीर पर ही टिका रहता है।

चूंकि वह जान जाता है कि शरीर जो कर रहा है, भीतर वैसा नहीं हो रहा और धीरे-धीरे इसी का आदी हो जाता है। यहीं से आदमी में बाहर कुछ, भीतर कुछ का भेद चलने लगता है। एक दिन हम दोनों को ही धोखा देने लगते हैं, शरीर को भी और आत्मा को भी। हमारी विनम्रता अहंकार का मुखौटा बन जाती है। हमारा क्रोध हमारे सिद्धांतों की प्रतिक्रिया हो जाती है और कुल मिलाकर हम अशांत बन जाते हैं और अपना नुक्सान करते है ......

!!जनेऊ धारण करने का बैज्ञानिक और सामाजिक वा धार्मिक महत्व !!

!!!जनेऊ पहनने से क्या लाभ ?

पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते। जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है। 

शौचविधि करनेसे पूर्व, जनेऊ दाहिने कानपर क्‍यों लपेटें ?

अपनी अशुद्ध अवस्था सूचित करनेके लिए यह कृति उपयोगी प्रमाणित होती है । हाथ-पैर धोकर, कुल्ला करनेके उपरांत जनेऊ कानसे हटाएं । इसका आधारभूत शास्त्रीय कारण यह है कि, शरीरके नाभिप्रदेशसे ऊपरका भाग धार्मिक क्रियाओंके लिए पवित्र है, जबकि उससे नीचेका भाग अपवित्र माना गया है ।

सारणी -


१. मलमूत्र-त्याग कहां न करें ? उसका आधारभूत शास्त्र क्या है ?

१.१ सडकपर मलमूत्र-त्याग क्‍यों न करें ?

शास्त्र : सडकपर मलमूत्र-त्याग करनेसे क्षेत्र रज-तमात्मक वायु-मंडलसे आवेशित होना तथा अनिष्ट शक्तियोंका संचार बढना : ‘सडकसे अनेक पथिक मार्गक्रमण करते हैं । मार्गपर मलमूत्र-त्याग जैसी रज-तमजन्य कृति करनेपर पथिक रज-तमात्मक वायुमंडलसे आवेशित होते हैं । ऐसेमें ये पथिक जिस क्षेत्रमें जाते हैं, उसे भी अपने संसर्गसे रज-तमसे प्रभावित करते हैं । इस प्रकार अनेक क्षेत्र दूषित हो जाते हैं; इसलिए सडकपर मलमूत्र-त्याग न करें । यह कृति समष्टि पापका मूल कारण है । ऐसे रज-तमात्मक क्षेत्रमें अनिष्ट शक्तियोंका संचार भी बढ जाता है, इससे सभीको कम-अधिक मात्रामें कष्ट भोगना पडता है ।’ - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ७.१२.२००७, दोपहर १२.५०)
सडकपर पडे मलमूत्रको न लांघनेका उपदेश भी क्या इसी कारणसे दिया जाता है ?
एक विद्वान : ‘लांघनेकी प्रक्रिया स्वयं वायुधारणात्मक (वायुधारणात्मक अर्थात् वायुतत्त्वसंबधी) क्रियासे संबंधित है, इसलिए इस वायुके सूक्ष्म-नादके प्रवाहकी ओर मूत्रके रज-तमात्मक स्पंदन तत्काल आकृष्ट होते हुए, वायुजन्य रिक्त स्थानमें समा जाते हैं । इसलिए मूत्र लांघनेवाले जीवके आस-पास रज-तमात्मक तरंगोंसे युक्त वायु-आवेशित क्षेत्र तैयार होता है । अनिष्ट शक्तियां भी वायुरूप होती हैं, इसलिए उनके निवासके लिए यह क्षेत्र पूरक है; अतएव सडकपर पडे मल-मूत्रको न लांघें ।’ (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २५.१२.२००७, सायं. ७.४५)

१.२ जोती हुई भूमिपर मलमूत्र-त्याग क्‍यों न करें ?

शास्त्र : जोती हुई भूमिपर मलमूत्र-त्याग करनेसे भूमिके शक्तिरूपी चेतनातत्त्वका हरण होते हुए भूमि अनुपजाऊ बनती है : ‘जोती हुई भूमिमें सुप्त शक्तिरूपी भूगर्भ तरंगें कार्यरत होती हैं । इन तरंगोंके उत्सर्जनसे वह विशिष्ट वायुमंडल भूगर्भतरंगोंसे आवेशित होता है । ये भूगर्भतरंगें बीजमेंसे निकलनेवाले अंकुररूपी पोषणके लिए पूरक होती हैं (अर्थात् अंकुरके लिए पोषक होती हैं ) । भूगर्भतरंगोंसे आवेशित क्षेत्रको ही ‘उपजाऊ भूमि’ की संज्ञा दी जाती है । ऐसी भूमिमें मलमूत्र-त्याग जैसी अपवित्र कृति न करें । इस कृतिके कारण भूमिसे संलग्न रज-तमात्मक तरंगोंका वायुमंडल निर्माण हो जाता है, जिससे भूमिकी सात्त्विकता घटते हुए वह बंजर बनती है व अनिष्ट शक्तियोंके आक्रमणसे प्रभावित हो सकती है । जोती हुई भूमिपर मलमूत्र-त्याग करनेसे भूमिके शक्तिरूपी चेतनातत्त्वका ही क्षय हो जाता है ।

१.३ बमीठेके आस-पास मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : बमीठेपर मलमूत्र-त्याग करनेसे बमीठेकी ‘भूमितरंगें उत्सर्जन’ की क्षमता कम होना : बमीठेमें विद्यमान नागदेव, शिवरूपी कनिष्ठ गणदेवताओंसे संबंधित होते हैं । बमीठेके छिद्ररूपी वायुविजन (वायुसंचार) से भूमितत्त्वसे संबंधित तरंगें फुवारेके समान वायुमंडलमें प्रक्षेपित होती रहती हैं । इन तरंगोंसे उस विशिष्ट वायुमंडलसे जानेवाले जीवके प्राणदेहकी शुद्धि होती है । बमीठेके स्थानपर मलमूत्र-त्यागने जैसी अपवित्र कृति करनेसे, बमीठेकी ‘भूमितरंगें उत्सर्जन’ की क्षमता कम होती है; क्योंकि किसी भी स्थानपर रज-तमका संक्रमण जडत्वनिर्मितिका मूल कारण होता है । इसलिए विशिष्ट घटकमें विशिष्ट स्तरपर शक्तिस्वरूप तरंगें प्रक्षेपित करनेकी क्षमता अपने-आप कम हो जाती है । अतएव, यथासंभव ऐसी पापजन्य कृतिसे बचना ही उचित है ।

१.४ गौशालामें मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : गौशालामें मलमूत्र-त्याग करनेसे सत्त्वगुणवर्धक तरंगोंके प्रक्षेपणसे, वायुमंडल शुद्ध रखनेवाला पवित्र क्षेत्र अपवित्र बनना : गौशालामें विद्यमान गोमूत्र, गोबर व गायकी वायुरूपी हुंकार तथा उसका प्रत्यक्ष देवताजन्य अस्तित्व, इन घटकोंके कारण, वह स्थान सत्त्वगुणवर्धक तरंगोंके प्रक्षेपणसे वायुमंडल निरंतर शुद्ध रखनेमें कारणभूत होता है । गोमूत्र व गोबरसे प्रक्षेपित सूक्ष्म-वायु, देहकी प्राणवायुके गतिमान संचार हेतु पूरक होती है । अतएव, जिस स्थानपर गौशाला होती है, वहांके जीवोंका स्वास्थ्य तथा मन सदैव ही उत्तम स्थितिमें रहता है और जीवन भी आनंदमय बनता है । इसलिए ऐसे पवित्र क्षेत्रमें रज-तमको आमंत्रण देनेवाली मलमूत्र-त्याग जैसी कृति निषिद्ध मानी गई है ।

१.५ जलमें मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : जलमें मलमूत्रके त्यागसे जलका संग्रह अशुद्ध बनना और जलकी ओर ब्रह्मांडकी रज-तमात्मक तरंगें आकृष्ट होनेसे संपूर्ण वायुमंडल अशुद्ध होना : जल सर्वसमावेशक है । जलके स्रोतको शुद्ध व पवित्र रखनेसे उसकी ओर ब्रह्मांडमंडलसे आकृष्ट देवताओंकी सात्त्विक पंचतत्त्वात्मक तरंगोंका लाभ उस परिसरमें रहनेवाले अनेक जीवोंको प्राप्त होता है । इससे उनके देह तथा वायुमंडलकी भी शुद्धि होती है ।
जलमें मलमूत्र-त्याग करनेसे, जलका संग्रह अशुद्ध बनता है । इससे उसकी ओर ब्रह्मांडकी रज-तमात्मक तरंगोंका आकर्षण आरंभ होते हुए, संपूर्ण वायुमंडल अशुद्ध बनता है । ऐसी कृति समष्टि जीवनमें अनेक विघातक रोगोंको आमंत्रित करती है । वह जल पीनेसे जलके साथ देहमें अनिष्ट शक्तियोंके प्रवेशकी भी आशंका रहती है ।

१.६ जलाशयसे दस हाथ दूरतक मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : जलाशयसे दस हाथ दूरतक मलमूत्र-त्याग करनेसे वायुमंडल दूषित होकर संपूर्ण परिसर अशुद्ध बनना व इससे अनेक अनिष्ट शक्तियोंका इस परिसरमें आकर जलस्रोतको काली शक्तिसे युक्त बनाना : जलाशयसे दस हाथ दूरतकका परिसर अधिक आर्द्रतायुक्त होता है । इसलिए वह सूक्ष्मदृष्टिसे वायुमंडलमें होनेवाले सभी प्रकारके पंचतत्त्वात्मक तरंगोंके उत्सर्जनके लिए पोषक होता है । इस आर्द्रतायुक्त वायुमंडलके आधारपर अनेक दिव्यात्मा उस विशिष्ट नदीके तटपर साधना करते हैं, इसके साथ ही कुछ पितर भी इस परिसरमें रहकर साधना करते हैं । इसलिए यथासंभव नदीके तटपर अथवा किसी भी सरोवरके तटपर मलमूत्रादिका त्याग न करें; क्योंकि इससे वायुमंडल दूषित बनता है और रज-तमात्मक तरंगोंका प्रक्षेपण सर्वत्र तीव्र गतिसे होता है । इससे संपूर्ण परिसर अशुद्ध बनता है । अतएव अनेक अनिष्ट शक्तियां इस परिसरमें आकर जलके इस स्रोतको ही काली शक्तिसे युक्त बनाती हैं । ऐसे दूषित जलसे सभीको अनिष्ट शक्तियोंका कष्ट होनेकी आशंका रहती है ।

१.७ जीर्ण देवालयमें मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : जीर्ण देवालयमें मलमूत्र-त्याग करनेसे रज-तमात्मक तरंगों व वायुका उत्सर्जन होना तथा इससे पवित्र वायुमंडल अपवित्र बनना : जीर्ण’ अर्थात् अतिशय पुरातन । ऐसे देवालयमें कालांतरसे उस विशिष्ट देवताका शक्तिरूपी वायुमंडल, भूमंडलसे ही घनीभूत हो जाता है । जीर्ण देवालयके भग्न अवशेषोंसे, ऊर्ध्व वायुमंडलसे बाहर उत्सर्जित देवताजन्य चेतना यद्यपि कम हो जाती है, तब भी उस विशिष्ट देवताके कनिष्ठरूपी पृथ्वी व आप तत्त्वोंसे संबंधित अस्तित्वरूपी शक्तिस्वरूप वायुमंडल, भूमंडलसे घनीभूतताके स्तरपर सुप्तरूपमें विद्यमान रहते हैं । इसलिए वह एक पवित्र वायुमंडल ही होता है । ऐसे पवित्र स्थानपर रज-तमात्मक तरंगें व वायुके उत्सर्जन हेतु कारणभूत मलमूत्र-त्याग जैसी कृति करनेसे वहां विद्यमान पवित्र वायुमंडल अपवित्र बनता है तथा यह एक पापजन्य कर्म होता है ।

१.८ यज्ञवेदी व भस्मके स्थानपर मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : यज्ञवेदी व भस्मके निकट मलमूत्र-त्याग करनेसे उस विशिष्ट स्थानमें विद्यमान पवित्र वायुमंडल अशुद्ध होना : भस्म व यज्ञवेदीके स्थानपर तेजरूपी सुप्त शक्तिस्वरूपी वायुमंडल, विशिष्ट रिक्त स्थानमें घनीभूत रहता है । इस स्थानपर रज-तमात्मक तरंगों तथा वायुके उत्सर्जन हेतु कारणभूत मलमूत्र-त्याग जैसी कृति करनेसे उस विशिष्ट स्थानमें विद्यमान पवित्र वायुमंडल अशुद्ध हो सकता है । यह एक पापजन्य कर्म बनता है ।’ - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ७.१२.२००७, दोपहर १२.५०)

१.९ अग्नि, सूर्य, चंद्र, जल, ब्राह्मण व गायके समक्ष मलमूत्र-त्याग न करें ।

शास्त्र : अग्नि, सूर्य, चंद्र, जल, ब्राह्मण व गाय जैसे मांगलिक तथा तेजवर्धक घटकोंके समक्ष मलमूत्र-त्याग जैसी कृति करना महापातक माना जाना : ‘अग्नि दिव्य तेजका, सूर्य प्रत्यक्ष अथवा प्रकट तेजका, चंद्र शीतल तेजका, जल सर्वसमावेशक पवित्र कार्यरूपी पंचतत्त्वात्मक तेजका, ब्राह्मण ब्रह्मतेजका तथा गाय तेजतत्त्वदर्शक देवत्वरूपी प्रवाहका प्रतीक है । अतएव ऐसे मांगलिक व तेजवर्धक घटकोंके समक्ष मलमूत्र-त्याग जैसी कृति करना महापातक माना गया है । मलमूत्रादि विसर्जनसे प्रक्षेपित सूक्ष्म रज-तमयुक्त तरंगों तथा वायुके कारण, इन तेजदायी घटकोंसे युक्त परिसर दूषित बनानेका पातक लगनेकी संभावना अधिक होती है । इसलिए ऐसी पापजन्य कृति न करें ।’ - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ७.१२.२००७, दोपहर ३.०३ व ३.११)
(यात्रा, आपत्काल इत्यादि कारणोंसे सडक इत्यादि स्थानोंपर मलमूत्र-त्याग करना ही पडे, तो उस समय देवतासे क्षमा मांगकर उनसे प्रार्थना कर, नामजप करते हुए वह कर्म करें । - संकलनकर्ता)

२. मलमूत्र-त्याग कैसे करें ? उसका आधारभूत शास्त्र क्या है ?

२.१ शरीरपर वस्त्र धारण किए हुए व मस्तकपर वस्त्र लपेटे हुए मलमूत्रका त्याग करें ।

शास्त्र : मलमूत्र विसर्जनकी रज-तमात्मक तरंगोंका शरीरसे सीधा संपर्क न हो, इस हेतु मस्तक व शरीर वस्त्रसे ढकना आवश्यक : ‘मलमूत्र-त्याग रज-तमदर्शक प्रक्रिया है । उससे रज-तमात्मक तरंगोंका सीधे शरीरसे संपर्क न हो, इस हेतु मस्तक व शरीर वस्त्रसे ढकना उचित होता है । मस्तकपर वस्त्र धारण करना, ब्रह्मरंध्रको कुछ मात्रामें सुरक्षित रखनेमें सहायक है । वस्त्रके माध्यमसे दिनभरमें होनेवाले रज-तमात्मकरूपी आक्रमणोंसे जीवकी थोडी-बहुत रक्षा हो सकती है ।’ - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ११.१२.२००७, दोपहर १.४३)

२.२ लघुशंका व शौचविधि करनेसे पूर्व, जनेऊ दाहिने कानपर लपेटें ।

शास्त्र :
  • अपनी अशुद्ध अवस्था सूचित करनेके लिए यह कृति उपयोगी प्रमाणित होती है । हाथ-पैर धोकर, कुल्ला करनेके उपरांत जनेऊ कानसे हटाएं । इसका आधारभूत शास्त्रीय कारण यह है कि, शरीरके नाभिप्रदेशसे ऊपरका भाग धार्मिक क्रियाओंके लिए पवित्र है, जबकि उससे नीचेका भाग अपवित्र माना गया है ।
  • आदित्य, वसु, रुद्र, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम, अनिल इत्यादि सभी देवताओंका वास दाहिने कानमें होता है । इसलिए दाहिने कानको दाहिने हाथसे केवल स्पर्श करनेसे आचमनका फल (आचमनसे अंतर्शुद्धि होती है ।) मिलता है । ऐसे पवित्र दाहिने कानपर यज्ञोपवीत रखनेसे अशुचिता नहीं होती ।
  • ‘दाहिने कानसे जनेऊ लपेटनेके कारण जनेऊके ब्रह्मतेजका स्पर्श कानकी रिक्तिसे होता है । इससे जीवकी दाहिनी नाडी कार्यरत होती है तथा अल्पावधिमें जीवके चारों ओर तेजोमय तरंगोंका संरक्षणात्मक वायुमंडल बनता है । लघुशंका व शौचविधि जैसी रज-तमात्मक कृति करते समय अल्पावधिमें संरक्षणात्मक स्तरपर कार्य करनेवाली सूर्य नाडीको जागृत करने हेतु जनेऊ दाहिने कानपर लपेटते हैं ।
  • जनेऊ कमरके मंडलको स्पर्श करता है । लघुशंका व शौचविधि जैसी क्रियाओंमें देहमें रज-तमात्मक तरंगोंके रूपांतरणात्मक (रूपांतरस्वरूप) परिवर्तनके कारण कमरमंडल अशुद्ध बनता है । इस अशुद्धताके संसर्गसे जनेऊकी पवित्रता कम होती है । इसपर उपायस्वरूप, लघुशंका व शौचविधिके समय जनेऊ दाहिने कानपर लपेटनेका विधान है ।’
                                        - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ११.१२.२००७, दोपहर २.१९)

२.३ काल, दिशा व मलमूत्र-त्याग

पहली विचारधारा : मलमूत्र-त्याग करते समय दिन व संध्या समयमें उत्तरकी ओर तथा रात्रिमें दक्षिणकी ओर मुख करें ।
  • उत्तर दिशाकी सर्वसमावेशक घनीभूतकारी शक्तिधारणामें मलमूत्र-त्याग कर्मकी रज-तमात्मक तरंगोंका विलीनीकरण संभव : ‘उत्तरकी ओर गुरुधारणा वास करती है । यह धारणा सर्वसमावेशक है, इसलिए किसी भी प्रकारकी पापयुक्त धारणाको स्वाभाविकरूपसे स्वयंमें समाविष्ट करती है । इसी धारणाको ‘जनकधारणा’ अथवा ‘पितृधारणा’ भी कहते हैं । प्रातःकालसे संध्याकालतक धीरे-धीरे रज-तमकी अधिकता बढती जाती है । घटनाकी विशिष्ट क्रियाका उत्थापन कर, उससे विशिष्ट घटककी रज-तमात्मक धारणाको विसर्जन प्रक्रियाकी ओर ले जानेवाली तरंगें, इस कालावधिमें उत्तर दिशामें उत्तेजित स्थितिमें रहती हैं । अतएव इस कालमें इस विसर्जनात्मक प्रवाही जनकधारणामेंं अपने मलमूत्रादि-त्यागरूपी रज-तमात्मक कर्मको पापमुक्त करने हेतु, उत्तर दिशाकी ओर मुख कर विशिष्ट धारणाको साक्षि मानकर किया जाता है । इन प्रहरोंमें सभी दिशाओंमेंसे उत्तरधारणा अधिक मात्रामें घनीभूतकारी शक्तिधारणा दर्शाती है । इसलिए इस कर्मकी सभी रज-तमात्मक तरंगोंका इस धारणामें विलीनीकरण संभव होता है ।
  • वायुमंडलमें विद्यमान अधिकतम यमतरंगोंद्वारा रज-तमात्मक तरंगोंको घनीभूत कर स्वयंमें समाविष्ट किया जाना : रात्रि-प्रहरमें वायुमंडलमें यमतरंगोंकी अधिकता होती है । इस प्रहरमें यमदिशा रज-तमात्मक तरंगोंको अधिक मात्रामें घनीभूत कर, अपने-आपमें समाविष्ट कर सकती है । इसीलिए कहा गया है कि, ‘रात्रिके समय मलमूत्र-त्यागका कर्म दक्षिण दिशाको साक्षि मानकर करें ।’
    रात्रि-प्रहरमें पूर्व, पश्चिम व उत्तर दिशाओंके माध्यमसे कुछ दिव्यात्मा विशिष्ट सत्त्व-रजात्मक कार्यकारी तरंगोंके माध्यमसे दिशामंडलोंकी रक्षा करते हैं । इसलिए उन दिशाओंमें मलमूत्र-त्याग जैसी कृति करना पापयुक्त धारणाका लक्षण बनता है।’
                      - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ७.१२.२००७, सायं. ६.५९)
दूसरी विचारधारा : दक्षिणकी ओर मुख कर मलका व उत्तरकी ओर मुख कर मूत्रका त्याग करें ।
प्राङ्‍मुखोऽन्‍नानि भुञ्‍ञीत्तोच्‍चरेद्दक्षिणामुख: |
उदङ्‍मुखो मूत्रं कुर्यात्‍प्रत्‍यक्‍पादावनेजनमिति ||

                        - आपस्तम्बधर्मसूत्र, १.११.३१.१
अर्थ : पूर्वकी ओर मुख कर अन्न ग्रहण करें । दक्षिणकी ओर मुख कर मलका व उत्तरकी ओर मुख कर मूत्रका त्याग करें तथा पश्चिमकी ओर मुख कर पैर धोएं ।
  • मल-त्याग : दक्षिण दिशा अशुभ कर्मको समाविष्ट करती है । मल जडत्वदर्शक अशुभ धारणासे संबंधित है, इसलिए वह यमतरंगोंसे युक्त व जडत्वधारणासे संलग्न वायुमंडलमें विशिष्ट स्थानपर ही त्यागनेसे वायुमंडलकी विशिष्ट स्तरकी शक्तितरंगोंका भ्रमणात्मक संतुलन नहीं बिगडता ।
  • मूत्र-त्याग : उत्तर दिशा अशुभ कर्मका लय करती है । रज-तमात्मक तरंगोंके संक्रमणमें मलकी तुलनामें मूत्र अधिक सूक्ष्म व संवेदनशील है, इसलिए वह अपना प्रभाव वायुमंडलमें अल्पावधिमें अधिक परिणामकारकरूपसे अंकित कर सकता है । अतएव गुरुधारणाके लिए पूरक, अर्थात् सभीको ‘अपना’ कहकर स्वयंमें उस विशिष्ट पदार्थका लय साधनेवाली उत्तर दिशाकी ओर मुख कर मूत्रका त्याग करते हैं ।
    विशिष्ट दिशाकी ओर मुख कर, विशिष्ट तरंगोंके स्पर्शके स्तरपर (स्पर्शके माध्यमसे) विशिष्ट कर्म करनेसे पापमार्जन व पुण्य-प्राप्तिमें सहायता मिलती है ।’
                                                           - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २.६.२००७, दोपहर १.५९)

२.४ उकडूं बैठकर मलमूत्र-त्याग करें ।

शास्त्र :
  • ‘उकडूं बैठनेसे बननेवाली मुद्राके कारण अधोगामी दिशामें प्रवाहित कटिबंधकी उत्सर्जक वायु कार्यरत होती है तथा देहके अधोगामी प्रवाहके बलपर देहके मलमूत्रादि उत्सर्जित घटकोंको तत्काल बाहरकी दिशामें ढकेलकर कटिबंधका रिक्त स्थान स्वच्छ हो पाता है ।’ - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २९.१०.२००७, दिन ९.४६)
  • शौचक्रियाके समय देहकी विशिष्ट मुद्राके कारण उपपंचप्राणोंको आधार मिलनेसे कष्टदायक वायु मलमूत्रद्वारा बाहर निकलकर देहमें विद्यमान काली शक्ति (कष्टदायक शक्ति) नष्ट होना : ‘भारतीय संस्कृतिमें बताई गई शौचपद्धतिके कारण देहमें निर्माण हुए कष्टदायक घटकोंका ३० प्रतिशत विघटन होता है । शौचक्रियाके समय देहकी विशिष्ट मुद्राके कारण उपपंचप्राणोंको आधार प्राप्त होता है । इससे कष्टदायक वायु मलमूत्रद्वारा बाहर निकलती है । इसी प्रकार देहके सूक्ष्म-शुद्धिचक्र भी चक्राकार दिशामें घूमना आरंभ करता है । इससे जीवके देहमें विद्यमान काली शक्ति नष्ट होती है ।’ - एक ज्ञानी (श्री. निषाद देशमुखके माध्यमसे, १९.६.२००७, दोपहर ३.५१)
पुरुषोंद्वारा खडे होकर मूत्रत्याग न करनेका आधारभूत शास्त्र :
  • ‘खडे रहनेकी मुद्राके कारण देहकी रज-तमात्मक ऊर्जाका संचय धीरे-धीरे पैरोंकी दिशामें होता है और यह ऊर्जा उसी स्थानपर घनीभूत होना आरंभ होती है । इससे पातालसे प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदन पैरोंसे तत्काल देहमें प्रवेश कर सकते हैं ।
  • खडे रहकर मूत्रत्याग करनेकी प्रक्रियासे भूमिपर मूत्रकी धाराके आघातसे भूमिसे संलग्न काली शक्तिका प्रवाह जागृत स्थितिमें आता है । इससे जीवका संपूर्ण देह ही रज-तमसे आवेशित हो जाता है ।’
                            - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, २९.१०.२००७, दिन ९.४६)

२.५ लघुशंका व शौचविधिके समय मौन-पालन करें ।

शास्त्र : ‘मौनके माध्यमसे जीवकी मध्यमा वाणी जागृत स्थितिमें आती है, जिससे अंतर्मुखतामें वृद्धि होती है । इससे जीवके शरीरके चारों ओर संरक्षणात्मक कवच बने रहनेकी कालावधि बढ जाती है । इस प्रक्रियाके कारण लघुशंका व शौचविधि जैसी रज-तमात्मक कृति करते हुए, वायुमंडलसे अनिष्ट शक्तियोंके संभावित आक्रमणोंसे जीवकी रक्षा होती है ।’ - एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळके माध्यमसे, ११.१२.२००७, दोपहर २.१९)

३. मल-मूत्रत्यागके उपरांत इंद्रिय जलसे धोएं ।

शास्त्र : शौचके उपरांत जलका प्रयोग करनेसे शौचके पृथ्वीतत्त्वसे संबंधित रज-तमयुक्त कण शीघ्र नष्ट होना : ‘शौचद्वारा निकलनेवाले त्याज्य पदार्थ पृथ्वीतत्त्वसे संबंधित व रज-तमयुक्त होते हैं । टिश्यू पेपरमें सात्त्विकता नहीं रहती तथा वह पृथ्वीतत्त्वसे संबंधित है । इसलिए टिश्यू पेपरके उपयोगसे शौचके पृथ्वीतत्त्वसे संबंधित रज-तमयुक्त कण नष्ट नहीं होते । जल सात्त्विक है तथा उसमें आपतत्त्वयुक्त सात्त्विकता और चैतन्य रहता है । शौचके उपरांत जलका उपयोग करनेसे शौचके पृथ्वीतत्त्वसे संबंधित रज-तमयुक्त कण शीघ्र नष्ट होनेमें सहायता मिलती है ।’ - ईश्वर (कु. मधुरा भोसलेके माध्यमसे, २८.११.२००७, रात्रि ११.१५)
(कहां शौच स्वच्छ करने हेतु ‘टिश्यू पेपर’ का उपयोग करना सिखानेवाली निकृष्ट पश्चिमी संस्कृति और कहां आध्यात्मिक दृष्टिसे उचित पदार्थ ‘जल’ का उपयोग करनेकीr पद्धति सिखानेवाली महान हिंदु संस्कृति ! - संकलनकर्ता)

४. फ्रांसीसी वैज्ञानिकके शोधका निष्कर्ष - मूत्रत्यागकी हिंदुओंकी पद्धति उत्तम व स्वास्थ्यप्रद

'फ्रांसीसी वैज्ञानिक कहते हैं, ‘खडे होकर लघुशंका करनेपर मूत्रकी बूंदें पैरोंपर गिरती हैं और नीचेके भागमें बिखरती हैं । बैठकरलघुशंकाकरनेकी हिंदुओंकी प्रथा अत्यंत उत्तम व स्वास्थ्यप्रद है । लघुशंकाके उपरांत इंद्रिय धोनी चाहिए । उसे न धोनेपर मूत्र सूखनेके उपरांत वहां मूत्रके सूक्ष्म-कण निर्माण होते हैं तथा वे रोगका कारण बनते हैं ।’
लघुशंकाकी हमारी पारंपरिक पद्धतिका यूरोपियन वैज्ञानिक पूर्ण समर्थन करते हैं । तब भी वे खडे होकर ही लघुशंका करते हैं । उनकी देखादेखी हिंदु भी खडे होकर ही लघुशंका करते हैं । गोरोंका अंधानुकरण करनेमें हम अपने-आपको धन्य समझते हैं । कल यदि गोरे लोग नीचे बैठकर लघुशंका करने लगे, तो हम भी वैसा ही करेंगे और उसे प्रगति कहेंगे !’ - गुरुदेव डॉ. काटेस्वामी जी द्वारा रचित 

यह भी पढ़े -----यज्ञोपवीत (जनेऊ) एक संस्कार है. इसके बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है. यज्ञोपवीत धारण करने के मूल में एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि भी है. शरीर के पृष्ठभाग में पीठ पर जाने वाली एक प्राकृतिक रेखा है जो विद्युत प्रवाह की तरह कार्य करती है. यह रेखा दाएं कंधे से लेकर कटि प्रदेश तक स्थित होती है. यह नैसर्गिक रेखा अति सूक्ष्म नस है. इसका स्वरूप लाजवंती वनस्पति की तरह होता है. यदि यह नस संकोचित अवस्था में हो तो मनुष्य काम-क्रोधादि विकारों की सीमा नहीं लांघ पाता.

अपने कंधे पर यज्ञोपवीत है इसका मात्र एहसास होने से ही मनुष्य भ्रष्टाचार से परावृत्त होने लगता है। यदि उसकी प्राकृतिक नस का संकोच होने के कारण उसमें निहित विकार कम हो जाए तो कोई आश्यर्च नहीं है. इसीलिए सभी धर्मों में किसी न किसी कारणवश यज्ञोपवीत धारण किया जाता है. सारनाथ की अति प्राचीन बुद्ध प्रतिमा का सूक्ष्म निरीक्षण करने से उसकी छाती पर यज्ञोपवीत की सूक्ष्म रेखा दिखाई देती है. यज्ञोपवीत केवल धर्माज्ञा ही नहीं बल्कि आरोग्य का पोषक भी है, अतएव एसका सदैव धारण करना चाहिए. शास्त्रों में दाएं कान में माहात्म्य का वर्णन भी किया गया है. आदित्य, वसु, रूद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में होने के कारण उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है. यदि इसे पवित्र दाएं कान पर यज्ञोपवीत रखा जाए तो अशुचित्व नहीं रहता.

यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत.

अर्थात अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है. अपनी अशुचि अवस्था को सूचित करने के लिए भी यह कृत्य उपयुक्त सिद्ध होता है. हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके जनेऊ कान पर से उतारें.

इस नियम के मूल में शास्त्रीय कारण यह है कि शरीर के नाभि प्रदेश से ऊपरी भाग धार्मिक क्रिया के लिए पवित्र और उसके नीचे का हिस्सा अपवित्र माना गया है. दाएं कान को इतना महत्व देने का वैज्ञानिक कारण यह है कि इस कान की नस, गुप्तेंद्रिय और अंडकोष का आपस में अभिन्न संबंध है. मूत्रोत्सर्ग के समय सूक्ष्म वीर्य स्त्राव होने की संभावना रहती है. दाएं कान को ब्रह्मसूत्र में लपेटने पर शुक्र नाश से बचाव होता है. यह बात आयुर्वेद की दृष्टि से भी सिद्ध हुई है. यदि बार-बार स्वप्नदोष होता हो तो दाएं कान ब्रह्मसूत्र से बांधकर सोने से रोग दूर हो जाता है. बिस्तर में पेशाब करने वाले लड़कों को दाएं कान में धागा बांधने से यह प्रवृत्ति रूक जाती है.

किसी भी उच्छृंखल जानवर का दायां कान पकडऩे से वह उसी क्षण नरम हो जाता है. अंडवृद्धि के सात कारण हैं.

मूत्रज अंडवृद्धि उनमें से एक है. दायां कान सूत्रवेष्टित होने पर मूत्रज अंडवृद्धि का प्रतिकार होता है. इन सभी कारणों से मूत्र तथा पुरीषोत्सर्ग करते समय दाएं कान पर जनेऊ रखने की शास्त्रीय आज्ञा है.

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