शनिवार, 8 जुलाई 2017

राजा पुरु (पोरस) और सिकंदर

"सिकंदर में तुम्हे आखिरी मौका देता हूँ, आओ हम दोनों अकेले युद्ध करते है, अगर में हार गया तो मेरा सारा राज्य तुम्हारा, ओर तुम हार गए तो भारत भूमि की तरफ तुम आंख उठाकर नही देखोगे , क्यो की अगर मेरी सेना को मैने युद्ध के आदेश दे दिए, तो तुम्हारा महानाश निश्चित है । " --राजा पोरस
लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि, इस बूढ़े राजा के द्वंद को स्वीकार करने की हिम्मत भी युवा सिकंदर में ना हुई । और अपना महानाश करवा बैठा ।। सिन्धु नदी के इस पर तो वापस आ गया किन्तु दुबारा वापस लौट नही पाया ।।
आइए जानते है अब पूरी घटना ---
भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारी हमेशा ही लड़खड़ाते हुए ही वापस दौड़े, एक दुःसाहस भारत पर आक्रमण करने का सिकंदर ने भी कर दिया , उसने भारत की सीमाओं के साथ छेड़खानी की , ओर जीवन का सबसे कटुतम स्वाद चखा, ओर दुर्गति होने के कारण वो अपने प्राण ही गंवा बैठा । किन्तु दुर्भाग्य देखिये, भारत की अजय संतान पोरस पर उसकी विजय का वर्णन करते हुए वामपंथी थकते नही । असत्य का घोर इतिहास भारतीय इतिहास में इसलिए पैठ गया है, क्यो की जितने भी महान संघर्ष के इतिहास लिखे, यूनानियों ने ही लिखे । ओर यह तो सर्वज्ञात है कि घोर पराजयों से अपना मुँह काला करने वाले भी अपने पराभवो के विजय के आवरण में छद्म रूप से प्रस्तुत करते है । यही बात सिकन्दर के भारत के वीर हिन्दू पुरषों से भिड़ंत में हुई है । राम_पुरोहित
सिकंदर महान..... जैसा की पुकारा जाता है , ईशा पूर्व 356 में जन्मा था । वह मेसेडोनिया के राजा फिलिप द्वितीय ओर एपिरोड की शाहजादी ओलिम्पियस का पुत्र था । अपनी राजनीतिक बुद्धिमता के लिए फिलिप तो प्रख्यात था, किन्तु सिकन्दर की माता असंस्कृत, अशिक्षित, अशोभन , एक अभिचारिणी स्त्री थी ।
सिकन्दर जब 15 वर्ष का हो गया, तो उसकी शिक्षा दीक्षा के लिए प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू को नियुक्त किया गया । सिकंदर का अदम्य साहस और निरंकुश व्यवहार अरस्तू के दर्शन से वश में नही आया । सिकन्दर को लोगो को पीड़ा पहुंचाकर आनन्द आता था । एक बार जब उसका पिता राज्य की राजधानी में अनुपस्थित था, तो उसने सैनिक टुकड़ियां लेकर पहाड़ी क्षेत्रों के विद्रोह को दबाने के लिए उन ओर चढ़ाई कर दी ।
लगभग इसी समय उनके परिवार में पारिवारिक कलह चल रहा था, उन लोगो ने पृथक हो जाने का निर्णय किया । रानी ओलम्पियस राजमहल छोड़ के चली गयी, अपने उद्दंड स्वभाव के कारण सिकन्दर अपनी माँ के साथ ही गया । कुछ समय पश्चात फिलिप की हत्या कर दी गयी । इसमे सिकन्दर का हाथ था, इस बात से इनकार नही किया जा सकता । इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई की भी हत्या करवा दी, ओर खुद राजा बन बैठा ।
साहसी तो यह था ही, धीरे धीरे इसने अपने राज्य का विस्तार करना प्रारम्भ किया । ईरान तक यह जीतते जीतते आ पहुंचा, जहां तहां इसने विजय प्राप्त की उस क्षेत्र में इसने आग लगवा दी, तहस - नहस कर दिया । ईरान आते ही इसे नोसेना भी मिल गयी । अब यह इतना शक्तिशाली हो गया, की खुद को ही सर्वशक्तिमान समझ बैठा , यहां तक कि खुद को ईश्वर का देवदूत समझ बैठा ।
ईरान में नोसेना मिली, इसके बाद इसने सीरिया को घेरा वहां विजय प्राप्त की । बाद में गाजा पर अधिकार कर यह मिस्र में जा घुसा , इधर ईरान ने खुद को दुबारा स्वतंत्र घोसित कर दिया । ज्यो ही इसने मेसोपोटामिया पर किया, ईरान की सेना इसके सामने आकर खड़ी हो गयी । भयंकर कालिक नरसंघार हुआ, ईरान की सेना दुबारा भाग खड़ी हुई ।
इसके बाद पहाड़ी क्षेत्रों को रौंदता हुआ सिकन्दर अफगानिस्तान आ पहुंचा । अब उसे अपनी जीतो पर घमंड होने लगा था । वह स्वम् को अर्धेस्वर समझने लगा था, ओर अपने को पूजन का अधिकारी समझ बिना ना नुकुर किये ही अप्रतिरोधिक समर्पण चाहता था ।
सिकंदर ने बसंत ऋतु के आस पास हिंदुकुश के पार पहुंचा । ओर सम्पूर्ण बैक्ट्रिया अपने अधीन कर लिया । किन्तु ज्यो ही उसकी सेना सिन्दू नदी के पार पहुंची, भारत के पठानों ( जो कि उस समय हिन्दू थे ) ने उनका जबरदस्त सामना किया । यह पठान उस समय भारत की बाह्य सीमा की रक्षा करते थे । लेकिन सिकंदर का यह पूर्ण सामना नही कर सके, ओर यह सिंधु नदी पार कर ही गया ।
इसमे इसकी सहायता भारत के प्रथम देशद्रोही " कुमार आंभी ने की । आंभी की राजधानी तक्षशिला हुआ करती थी । चेमार से लगते हुए पोरस का शाशन था, जो कश्मीर तक आकर खत्म होता था । राजा आंभी का पोरस से पुराना बैर था , अतः उसने सिकंदर को मदद कर पोरस से बदला लेने की पूरी पूरी चेष्ठा की । इसने सिकंदर को पूरा आश्वाशन दिया, की जब वो पोरस पर आक्रमण करेगा । पोरस अब अकेला पड़ गया था । जिसको सिकन्दर का सामना करना था । राजा आम्भी ने हर तरह से सिकन्दर की सहायता भी की ।
पारस्परिक वर्णनों में कोई तिथियां उपलब्ध नही है, किन्तु सिंधु नदी के ऊपर एक स्थायी पुल बना दिया गया, ओर सिकंदर की सेना भारत मे प्रवेश कर गयी । आक्रमकसेन ने अटक के उत्तर में 16 मिल पर पड़ाव डाला । सिकंदर के पास 20,000 पैदल ओर 25000 अश्व सेना थी । जो कि पोरस की सेना से कहीं अधिक सेना थी । सिकन्दर की सहायता आम्भी ओर ईरान के सेनिको ने भी की ।
महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के सप्तम भाग के पृष्ठ 539 पर लिखा है की सिकंदर ओर पोरस की सेनाओं के मध्य परस्पर संघर्ष चेनाब नदी के तट पर हुआ था । किन्तु क्रटिक्स लिखता है कि सिकन्दर झेलम नदी के दूसरी ओर पड़ाव डाले पड़ा था । पोरस के सैनिक उस द्वीप में तैरकर पहुंचे । उन लोगो ने उसपर यूनानी सेनिको पर घेरा डाल लिया, ओर अग्रिम दल पर हमला बोल दिया । उन्होंने अनेक यूनानी सेनिको को मार डाला । मृत्यु से बचने के लिए अनेक यूनानी सैनिक नदी में कूद पड़े, ओर वही डूब कर मर गए ।
ऐसा कहा जाता है कि सिकंदर ने झेलम नदी को एक घनी अंधेरी रात में नावों द्वारा हरनपुर से ऊपर 60 मिल की दूरी पर तेज कटाव के पास पर किया । पोरस के अग्रिम दल का नेतृत्व उसका पुत्र कर रहा था । भयंकर मुठभेड़ में वह मारा गया । कहा जाता है कि इन दिनों भयंकर वर्षा हो रही थी, ओर उसके हांथी दलदल में फंस गए । किन्तु यूनानी लेखकों द्वारा लिखे गए इतिहास को सूक्ष्म द्रष्टि से पढ़ा जाए, तो ज्ञात होता है पोरस की गजसेना ने भयंकर तबाही फैला दी थी । ओर सिकन्दर की शक्तिशाली फ़ौज को तहस नहस कर डाला था ।
एरियान लिखता है कि भारतीय युवराज ने सिकन्दर को घायल कर दिया था, ओर उसके घोड़े बुसे फेल्स को मार डाला ।
लेकिन जस्टिन नाम का एक इतिहासकार लिखता है कि जैसे ही युद्ध प्रारम्भ हुआ, पोरस ने भयंकर नाश का आदेश दे दिया ।।
अनावश्यक रक्त पात को रोकने के लिए पोरस ने उदारतावश ने केवल सिकंदर से अकेले ही निपट लेने का प्रस्ताव रखा । सिकंदर ने उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया । आगे जो हुआ , वह उसके मरने तक के आघात के नीचे ढेर हो गया । " धड़ाम" से युद्ध भूमि में नीचे गिर जाने से उसे शत्रुओं से घिर जाने का भय उतपन्न हुआ, किन्तु उसके अंगरक्षक किसी तरह उसे बचाकर ले गए ।
पोरस के हांथीयो द्वारा यूनानी सेनिको में उतपन्न आतंक का वर्णन करते कर्टिनेर लिखता है " इन पशुओं ने भयंकर आतंक उतपन्न कर दिया था , कर उनकी प्रतिध्वनि हिने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ो को भयातुर कर देती थी , जिससे बिगड़कर वे भाग खड़े होते थे, बल्कि घुड़सवारों के ह्रदय को भी दहला देती थी । इसने इनके वर्गों में ऐसी भगदड़ मचाई की विजयो के यह शिरोमणि अब ऐसे स्थान की खोज में लग गए, जहां उन्हें शरण मिल सके । अब चिड़चिड़े होकर सिकन्दर ने अपने सेनिको को यह आज्ञा दी कि जैसे भी इन हांथीयो पर प्रहार करें , ओर इसका परिणाम यह हुआ कि वे दुबारा पैरो तले रौंदे गए ।
सर्वादिक ह्रदय विदारक दृश्य तो वह था जब वह स्थूल चरम पर अपनी सूंड पर यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था , ओर अपने ऊपर वायुमंडल में अधर हिलाता था । ओर उसको आरोही के पास पहुंचा देता था, जहां वह इसका सिर धड़ से अलग कर देता था । इस प्रकार ही सारा दिन व्यतीत होता रहा , ओर युद्ध चलता रहता ।
डियोडोरिस सत्यापन करता है " विशालकाय हाथियों में अपार बल था , ओर वे अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुए , उन्होंने पैरो तले अनेक यूनानी सेनिको की हड्डी पसलियों का कचूमर बना दिया था । हाथी इन सेनिको को सूंड से पकड़ लेते, ओर जोर से भूमि पर पटक मारते, वे अपने विकराल गजदन्तो से यूनानी सेनिको को गोद - गोद कर मार डालते थे । "
झेलम के नजदीक सिकंदर की अधिकांश यूनानी सेना मारी गयी । सिकंदर ने अनुभव कर लिया, यदि में ओर लड़ाई जारी रखूंगा, तो अपना सम्पूर्ण नाश करवा बैठूंगा । अतः उसने युद्ध बन्द कर देने के लिए पोरस से प्रार्थना की । लेकिन पोरस ने सिकंदर को बंदी बनाकर कारगार में डाल दिया ।
कहा जाता है की सिकंदर की पत्नी ने पोरस को पत्र लिखा कि " पोरस उसे बहन समझ उसके सुहाग की रक्षा करे, ओर सिकंदर का वध ना करे। " एक हिन्दू अब कैसे उसका वध करता , यही हिन्दू की महानता होती है ।
सिकंदर ने युद्ध बन्द करने के लिए पोरस को कहा था कि " श्रीमान पोरस ! मुझे क्षमा कर दीजिए, मेने आपकी शूरता ओर सामर्थ्य शिरोधार कर ली है । अब इन कष्ठ को में ओर अधिक नही सह पाऊंगा । दुःखी ह्रदय हो अब में अपना जीवन समाप्त करने का इरादा कर चुका हूं । में नही चाहता कि मेरे सैनिक मेरे ही समान विनष्ट हो । में वह अपराधी हूँ, जिसने अपने ही सेनिको को कालके मुँह में धकेल दिया है । किसी राजा को यह शोभा नही देता की वह अपने सेनिको को इस प्रकार मृत्यु के मुख में धकेल दे । सिकंदर ने अपने कुछ राज्य भी पोरस को दे दिए ।
सिकंदर का सामर्थ्य प्राचीन भारत के हिन्दू वीरो के लोहे जैसे जिगर के आगे टकरा के चूर चूर हो चुका था । उसकी सेना ने आगे युद्ध करने से बिल्कुल साफ इंकार कर दिया था । उसकी पत्नी के निवेदन के कारण पोरस ने सिकंदर को रिहा कर दिया । किन्तु वापस लौटते समय पठानों को पोरस समझा नही सका । पठानों ने लौटते हुए सिकन्दर की सेना पर आक्रमण कर दिया, ओर सरपर भयंकर वार कर कर के सिकन्दर को भारत की भूमि में ही मार डाला ।
जब सिकंदर की सेना वापस लौटी, तो सिकंदर का शव लेकर ही लोटी ।
( नोट - चन्द्रगुप्त मौर्य का सिकन्दर से कोई लेना देना नही था । इनके काल मे ही कम से कम 1000 सालो के ऊपर का फर्क है )

यहूदी और मुसलमान, कौन है पहलवान ?

विश्व की कुल आबादी में से यहूदियों की संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है, जिसमें से लगभग 70 लाख अमेरिका में रहते हैं, 50 लाख यहूदी एशिया में, 20 लाख यूरोप में और बाकी कुछ अन्य देशों में रहते हैं… कहने का मतलब यह कि इज़राईल को छोड़कर सभी देशों में वे “अल्पसंख्यक” हैं। दूसरी तरफ़ दुनिया में मुस्लिमों की संख्या लगभग दो अरब है जिसमें से एक अरब एशिया में, 40 करोड़ अफ़्रीका में, 5 करोड़ यूरोप में और बाकी के सारे विश्व में फ़ैले हुए हैं, इसी प्रकार हिन्दुओं की जनसंख्या लगभग सवा अरब है जिसमें लगभग 80 करोड़ भारत में व बाकी के सारे विश्व में फ़ैले हुए हैं… इस प्रकार देखा जाये तो विश्व का हर पाँचवा व्यक्ति मुसलमान है, प्रति एक हिन्दू के पीछे दो मुसलमान और प्रति एक यहूदी के पीछे सौ मुसलमान का अनुपात बैठता है… बावजूद इसके यहूदी लोग हिन्दुओं या मुसलमानों के मुकाबले इतने श्रेष्ठ क्यों हैं? क्यों यहूदी लोग इतने शक्तिशाली हैं?
प्रख्यात वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन एक यहूदी थे, प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिगमण्ड फ़्रायड, मार्क्सवादी विचारधारा के जनक कार्ल मार्क्स जैसे अनेकों यहूदी, इतिहास में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं जिन्होंने मानवता और समाज के लिये एक अमिट योगदान दिया है। बेंजामिन रूबिन ने मानवता को इंजेक्शन की सुई दी, जोनास सैक ने पोलियो वैक्सीन दिया, गर्ट्र्यूड इलियन ने ल्यूकेमिया जैसे रोग से लड़ने की दवाई निर्मित की, बारुच ब्लूमबर्ग ने हेपेटाइटिस बी से लड़ने का टीका बनाया, पॉल एल्हरिच ने सिफ़लिस का इलाज खोजा, बर्नार्ड काट्ज़ ने न्यूरो मस्कुलर के लिये नोबल जीता, ग्रेगरी पिंकस ने सबसे पहली मौखिक गर्भनिरोधक गोली का आविष्कार किया, विल्लेम कॉफ़ ने किडनी डायलिसिस की मशीन बनाई… इस प्रकार के दसियों उदाहरण गिनाये जा सकते हैं जिसमें यहूदियों ने अपनी बुद्धिमत्ता और गुणों से मानवता की अतुलनीय सेवा की है।
पिछले 105 वर्षों में 129 यहूदियों को नोबल पुरस्कार मिल चुके हैं, जबकि इसी अवधि में सिर्फ़ 7 मुसलमानों को नोबल पुरस्कार मिले हैं, जिसमें से चार तो शान्ति के नोबल हैं, अनवर सादात और यासर अराफ़ात(शांति पुरस्कार??) को मिलाकर और एक साहित्य का, सिर्फ़ दो मेडिसिन के लिये हैं। इसी प्रकार भारत को अब तक सिर्फ़ 6 नोबल पुरस्कार मिले हैं, जिसमें से एक साहित्य (टैगोर) और एक शान्ति के लिये (मदर टेरेसा को, यदि उन्हें भारतीय माना जाये तो), ऐसे में विश्व में जिस प्रजाति की जनसंख्या सिर्फ़ दशमलव दो प्रतिशत हो ऐसे यहूदियों ने अर्थशास्त्र, दवा-रसायन खोज और भौतिकी के क्षेत्रों में नोबल पुरस्कारों की झड़ी लगा दी है, क्या यह वन्दनीय नहीं है?
मानव जाति की सेवा सिर्फ़ मेडिसिन से ही नहीं होती, और भी कई क्षेत्र हैं, जैसे पीटर शुल्ट्ज़ ने ऑप्टिकल फ़ायबर बनाया, बेनो स्ट्रॉस ने स्टेनलेस स्टील, एमाइल बर्लिनर ने टेलीफ़ोन माइक्रोफ़ोन, चार्ल्स गिन्सबर्ग ने वीडियो टेप रिकॉर्डर, स्टैनली मेज़ोर ने पहली माइक्रोप्रोसेसर चिप जैसे आविष्कार किये। व्यापार के क्षेत्र में राल्फ़ लॉरेन (पोलो), लेविस स्ट्रॉस (लेविस जीन्स), सर्गेई ब्रिन (गूगल), माइकल डेल (डेल कम्प्यूटर), लैरी एलिसन (ओरेकल), राजनीति और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में येल यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष रिचर्ड लेविन, अमरीकी सीनेटर हेनरी किसींजर, ब्रिटेन के लेखक बेंजामिन डिज़रायली जैसे कई नाम यहूदी हैं। मानवता के सबसे बड़े प्रेमी, अपनी चार अरब डॉलर से अधिक सम्पत्ति विज्ञान और विश्व भर के विश्वविद्यालयों को दान करने वाले जॉर्ज सोरोस भी यहूदी हैं। ओलम्पिक में सात स्वर्ण जीतने वाले तैराक मार्क स्पिट्ज़, सबसे कम उम्र में विंबलडन जीतने वाले बूम-बूम बोरिस बेकर भी यहूदी हैं। हॉलीवुड की स्थापना ही एक तरह से यहूदियों द्वारा की गई है ऐसा कहा जा सकता है, हैरिसन फ़ोर्ड, माइकल डगलस, डस्टिन हॉफ़मैन, कैरी ग्राण्ट, पॉल न्यूमैन, गोल्डी हॉन, स्टीवन स्पीलबर्ग, मेल ब्रुक्स जैसे हजारों प्रतिभाशाली यहूदी हैं।
इसका दूसरा पहलू यह है कि हिटलर द्वारा भगाये जाने के बाद यहूदी लगभग सारे विश्व में फ़ैल गये, वहाँ उन्होंने अपनी मेहनत से धन कमाया, साम्राज्य खड़ा किया, उच्च शिक्षा ग्रहण की और सबसे बड़ी बात यह कि उस धन-सम्पत्ति पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखी, तथा उसे और बढ़ाया। शिक्षा का उपयोग उन्होंने विभिन्न खोज करने में लगाया। जबकि इसका काला पहलू यह है कि अमेरिका स्थित हथियार निर्माता कम्पनियों पर अधिकतर में यहूदियों का कब्जा है, जो चाहती है कि विश्व में युद्ध होते रहें ताकि वे कमाते रहें। जबकि मुस्लिमों को शिक्षा पर ध्यान देने की बजाय, आपस में लड़ने और विश्व भर में ईसाईयों से, हिन्दुओं से मूर्खतापूर्ण तरीके से लगातार सालों-साल लड़ने में पता नहीं क्या मजा आता है? यहूदियों का एक गुण (या कहें कि दुर्गुण) यह भी है कि वे अपनी “नस्ल” की शुद्धता को बरकरार रखने की पूरी कोशिश करते हैं, अर्थात यहूदी लड़के/लड़की की शादी यहूदी से ही हो अन्य धर्मावलम्बियों में न हो इस बात का विशेष खयाल रखा जाता है, उनका मानना है कि इससे “नस्ल शुद्ध” रहती है (इसी बात पर हिटलर उनसे बुरी तरह चिढ़ा हुआ भी था)।
इस लेख के पहले भाग का मकसद सिर्फ़ यहूदियों का गुणगान करना नहीं है, बल्कि यह सोचना है कि आखिर यहूदी इतने शक्तिशाली, बुद्धिमान और मेधावी क्यों हैं? ध्यान से सोचने पर उत्तर मिलता है – “शिक्षा”। इतनी विशाल जनसंख्या और दुनिया के सबसे मुख्य ऊर्जा स्रोत पेट्रोल पर लगभग एकतरफ़ा कब्जा होने के बावजूद मुसलमान इतने कमजोर और पिछड़े हुए क्यों हैं? ऑर्गेनाईज़ेशन ऑफ़ इस्लामिक कॉन्फ़्रेंस यानी OIC के 57 सदस्य देश हैं, उन सभी 57 देशों में कुल मिलाकर 600 विश्वविद्यालय हैं, यानी लगभग तीस लाख मुसलमानों पर एक विश्वविद्यालय। अमेरिका में लगभग 6000 विश्वविद्यालय हैं और भारत में लगभग 9000। सन् 2004 में एक सर्वे किया गया था, जिसमें से टॉप 500 विश्वविद्यालयों की सूची में मुस्लिम देशों की एक भी यूनिवर्सिटी अपना स्थान नहीं बना सकी। संयुक्त राष्ट्र से सम्बन्धित एक संस्था UNDP ने जो डाटा एकत्रित किया है उसके मुताबिक ईसाई बहुल देशों में साक्षरता दर 90% से अधिक है और 15 से अधिक ईसाई देश ऐसे हैं जहाँ साक्षरता दर 100% है। दूसरी तरफ़ सभी मुस्लिम देशों में कुल साक्षरता दर 40% के आसपास है, और 57 मुस्लिम देशों में एक भी देश या राज्य ऐसा नहीं है जहाँ की साक्षरता दर 100% हो (हमारे यहाँ सिर्फ़ केरल में 90% के आसपास है)। साक्षरता के पैमाने के अनुसार ईसाई देशों में लगभग 40% साक्षर विश्वविद्यालय तक पहुँच जाते हैं जबकि मुस्लिम देशों में यही दर सिर्फ़ 2% है। मुस्लिम देशों में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर 230 वैज्ञानिक हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 4000 और जापान में 5000 है। मुस्लिम देश अपनी कुल आय (GDP) का सिर्फ़ 0.2 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करते हैं, जबकि ईसाई और यहूदी 5% से भी ज्यादा।
एक और पैमाना है प्रति 1000 व्यक्ति अखबारों और पुस्तकों का। पाकिस्तान में प्रति हजार व्यक्तियों पर कुल 23 अखबार हैं, जबकि सिंगापुर जैसे छोटे से देश में यह संख्या 375 है। प्रति दस लाख व्यक्तियों पर पुस्तकों की संख्या अमेरिका में 2000 और मिस्त्र में 20 है। उच्च तकनीक उत्पादों के निर्यात को यदि पैमाना मानें पाकिस्तान से इनका निर्यात कुल निर्यात का सिर्फ़ 1.5 प्रतिशत है, सऊदी अरब से निर्यात 0.3% और सिंगापुर से 58% है।
निष्कर्ष निकालते समय मुसलमानों की बात बाद में करेंगे, पहले हमें अपनी गिरेबान में झाँकना चाहिये। 1945 में दो अणु बम झेलने और विश्व बिरादरी से लगभग अलग-थलग पड़े जापान और लगभग हमारे साथ ही आजाद हुए इज़राइल आज शिक्षा के क्षेत्र में भारत के मुकाबले बहुत-बहुत आगे हैं। आजादी के साठ सालों से अधिक के समय में भारत में प्राथमिक शिक्षा का स्तर और स्कूलों की संख्या जिस रफ़्तार से बढ़ना चाहिये थी वह नहीं बढ़ाई गई। आधुनिक शिक्षा के साथ संस्कृति के मेल से जो शिक्षा पैदा होना चाहिये वह जानबूझकर नहीं दी गई, आज भी स्कूलों में मुगलों और अंग्रेजों को महान दर्शाने वाले पाठ्यक्रम ही पढ़ाये जाते हैं, बचपन से ही ब्रेन-वॉश करके यह बताने की कोशिश होती है कि भारतीय संस्कृति नाम की कोई बात न कभी थी, न है। शुरु से ही बच्चों को “अपनी जड़ों” से काटा जाता है, ऐसे में पश्चिम की दुनिया को जिस प्रकार के “पढ़े-लिखे नौकर” चाहिये थे वैसे ही पैदा हो रहे हैं, और यहाँ से देश छोड़कर जा रहे हैं।
भारत के लोग आज भी वही पुराना राग अलापते रहते हैं कि “हमने शून्य का आविष्कार किया, हमने शतरंज का आविष्कार किया, हमने ये किया था, हमारे वेदों में ये है, हमारे ग्रंथों में वो है, हमने दुनिया को आध्यात्म सिखाया, हमने दुनिया को अहिंसा का संदेश दिया, हम विश्व-गुरु हैं… आदि-आदि। हकीकत यह है कि गीता के “कर्म” के सिद्धान्त को जपने वाले देश के अधिकांश लोग खुद ही सबसे अकर्मण्य हैं, भ्रष्ट हैं, अनुशासनहीन और अनैतिक हैं। लफ़्फ़ाजी को छोड़कर साफ़-साफ़ ये नहीं बताते कि सन् 1900 से लेकर 2000 के सौ सालों में भारत का विश्व के लिये और मानवता को क्या योगदान है? जिन आईआईएम और आईआईटी का ढिंढोरा पीटते हम नहीं थकते, वे विश्व स्तर पर कहाँ हैं, भारत से बाहर निकलने के बाद ही युवा प्रतिभाएं अपनी बुद्धिमत्ता और मेधा क्यों दिखा पाती हैं? लेकिन हम लोग सदा से ही “शतुरमुर्ग” रहे हैं, समस्याओं और प्रश्नों का डटकर सामना करने की बजाय हम हमेशा ऊँची-नीची आध्यात्मिक बातें करके पलायन का रास्ता अपना लेते हैं (ताजा उदाहरण मुम्बई हमले का है, जहाँ दो महीने बीत जाने बाद भी हम दूसरों का मुँह देख रहे हैं, मोमबत्तियाँ जला रहे हैं, गाने गा रहे हैं, हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं, भाषण दे रहे हैं, आतंकवाद के खिलाफ़ शपथ दिलवा रहे हैं, गरज यह कि “कर्म” छोड़कर सब कुछ कर रहे हैं)। हमारी मूल समस्या यह है कि “राष्ट्र” की अवधारणा ही जनता के दिमाग में साफ़ नहीं है, साठ सालों से शिक्षा प्रणाली भी एक “कन्फ़्यूजन” की धुंध में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज तक हम “हिन्दू” नहीं बन पाये हैं, यानी जैसे यहूदी सिर्फ़ और सिर्फ़ यहूदी है चाहे वह विश्व के किसी भी कोने में हो, जबकि हम ब्राह्मण हैं, बनिये हैं, ठाकुर हैं, दलित हैं, उत्तर वाले हैं, दक्षिण वाले हैं, सब कुछ हैं लेकिन “हिन्दू” नहीं हैं। हालांकि मूलभूत शिक्षा और तकनीकी के मामले में हम इस्लामिक देशों से काफ़ी आगे हैं, लेकिन क्या हम उनसे तुलना करके खुश होना चाहिये? तुलना करना है तो अपने से ज्यादा, अपने से बड़े से करनी चाहिये…
संक्षेप में इन सब आँकड़ों से क्या निष्कर्ष निकलता है… कि मुस्लिम देश इसलिये पिछड़े हैं क्योंकि वे शिक्षा में पिछड़े हुए हैं, वे अपनी जनसंख्या को आधुनिक शिक्षा नहीं दिलवा पाते, वे “ज्ञान” आधारित उत्पाद पैदा करने में अक्षम हैं, वे ज्ञान को अपनी अगली पीढ़ियों में पहुँचाने और नौनिहालों को पढ़ाने की बजाय हमेशा यहूदियों, ईसाईयों और हिन्दुओं को अपनी दुर्दशा का जिम्मेदार ठहराते रहते हैं। सारा दिन अल्लाह और खुदा चीखने से कुछ नहीं होगा, शिविर लगाकर जेहादी पैदा करने की बजाय शिक्षा का स्तर बढ़ाना होगा, हवाई जहाज अपहरण और ओलम्पिक में खिलाड़ियों की हत्या करवाने की बजाय अधिक से अधिक बच्चों और युवाओं को शिक्षा देने का प्रयास होना चाहिये। सारी दुनिया में इस्लाम का ही राज होगा, अल्लाह सिर्फ़ एक है, बाकी के मूर्तिपूजक काफ़िर हैं जैसी सोच छोड़कर वैज्ञानिक सोच अपनानी होगी। सभी मुस्लिम देशों को खुद से सवाल करना चाहिये कि मानव जीवन और मानवता के लिये उन्होंने क्या किया है? उसके बाद उन्हें दूसरों से इज्जत हासिल करने की अपेक्षा करना चाहिये। इजराईल और फ़िलीस्तीन के बीच चल रहे युद्ध और समूचे विश्व में छाये हुए आतंकवाद के मद्देनज़र बेंजामिन नेतान्याहू की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि “यदि अरब और मुसलमान अपने हथियार रख दें तो हिंसा खत्म हो जायेगी और यदि यहूदियों ने अपने हथियार रख दिये तो इज़राइल खत्म हो जायेगा…”।