सोमवार, 19 जून 2017

RSS और स्वतंत्रता संग्राम : तथ्य एवं मिथ्या प्रचार


जिस तरह नई दुल्हन चूड़ी की आवाज़ अधिक करती है, नए नए मुल्ले या पंडित की आवाज़ तेज ही होती है, उसी तरह हाल ही में बुद्धिजीवी होने का एक नया चलन पैदा हो गया है, और वह है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके नेताओं के बारे में झूठ फैलाना, झूठा प्रचार करना!
अक्सर सेकुलर बुद्धिजीवियों के मुँह और कलम से आपने सुना-पढ़ा होगा कि, “बताओ, RSS ने आज़ादी के आन्दोलन में क्या किया?”... “अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में RSS तो चुप्पी साधे बैठा था...” इत्यादि.
कहा गया है कि “हेडगेवार, स्वतंत्रता सेनानी, एक स्वयंसेवक थे और उन्हें खिलाफत आन्दोलन में उनकी भूमिका के लिए एक वर्ष की सजा हुई थी, और वे आख़िरी बार स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल हुए थे. (1919-1924) जबकि वर्ष 1930 में, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शुरुआत करने के पांच वर्ष के बाद महात्मा गांधी द्वारा आरम्भ किए गए वन सत्याग्रह के चित्रों में उन्हें देखा जा सकता है. वर्ष 1930 में जब संघ केवल पांच वर्ष का ही था, तो कॉंग्रेस ने घोषणा की कि वह 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाएगी, क्योंकि एक ही वर्ष पहले कॉंग्रेस ने वर्ष 1929 तक पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने का संकल्प पारित किया था. इसके बाद डॉ. हेडगेवार ने सभी संघ पदाधिकारियों को लिखा था:
“....कॉंग्रेस ने स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य घोषित किया है और कॉंग्रेस कार्यकारी समिति ने घोषणा की है कि 26 जनवरी 1930 को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा. हम सबके लिए आह्लादित होना बहुत ही स्वाभाविक है क्योंकि यह अखिल भारतीय राष्ट्रीय इकाई अपने स्वतंत्रता के लक्ष्य के एकदम नज़दीक आ गयी है. इसलिए यह हमारा उत्तरदायित्व है कि उस संस्था के साथ कार्य करें, जो उद्देश्य को हासिल करने की तरफ कदम उठा रही हैं..”. आरएसएस की सभी शाखाओं को शाम को छः बजे इकट्ठा होने के लिए आदेश दिए गए और राष्ट्रीय ध्वज को नमन किया, जो उस समय केसरिया रंग का ध्वज था. स्वतंत्रता क्या है? और कैसे इसके लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है? शाखाओं में चर्चा का मूल बिंदु यही था. चूंकि हमने कॉंग्रेस के इस लक्ष्य को स्वीकार कर लिया है, तो पार्टी को इसके लिए बधाई देनी चाहिए. इस कार्यक्रम की रिपोर्ट हमें भेजी जानी चाहिए”.... (सन्दर्भ :- डॉ. हेडगेवार का 21 जनवरी 1930 को लिखा गया पत्र, राकेश सिन्हा, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग, 2015 पृष्ठ 95)
जो सेकुलर बुद्धिजीवी केसरिया ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज पुकारे जाने की आलोचना करते हैं, उन्हें याद दिला जरूरी है कि एक ही वर्ष उपरांत अर्थात अप्रेल 1931 में, कॉंग्रेस कार्यकारी समिति ने एक ध्वज समिति को नियुक्त किया था, जिसमें मौलाना आज़ाद भी सम्मिलित थे, और इसी समिति ने निम्न शब्दों के साथ राष्ट्रीय ध्वज के रूप में केसरिया ध्वज को स्वीकारने की अनुशंसा की थी. “....हमें लगता है कि ध्वज को विशेष, कलात्मक, आयताकार और असाम्प्रदायिक होना चाहिए. इस बारे में हमारा विचार एकदम स्पष्ट है कि हमारे राष्ट्रीय ध्वज का एक ही रंग होना चाहिए. अगर कोई एक ऐसा रंग है जो भारत को एक पूर्ण रूप से बाँध सकता है, जो सभी भारतवासियों में एकता के भाव को उत्पन्न कर सकता है और जो एक प्राचीन परम्परा से जुड़ा हुआ है तो वह है केसरिया रंग....”. लेकिन जैसे-जैसे गांधी-नेहरू का प्रभाव कांग्रेस पर बढ़ता गया, केसरिया ध्वज तिरंगे में बदलता चला गया.
यह बात सही है कि एक संगठन के रूप में संघ ने कभी भी खुद को आन्दोलनकारी राजनीति से बहुत अधिक नहीं जोड़ा. कॉंग्रेस के अधिकतर आन्दोलन से संघ दूर ही रहा, बल्कि साथ ही संघ ने हिन्दू महासभा के आन्दोलन में भाग नहीं लिया. यहाँ तक कि जब हिन्दू महासभा ने निज़ाम के खिलाफ आन्दोलन की शुरुआत की तो, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इस आन्दोलन में भाग लेने से इनकार कर दिया. पुणे से हिन्दू महासभा के एक सदस्य, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस कदम से बहुत ही क्रोधित हुए. उनका नाम था नाथूराम विनायक गोडसे. वे आरएसएस को हिन्दू ऊर्जा को गलत दिशा में मोड़ने के लिए हमेशा कोसते थे. हालांकि उनके मन में संघ के लिए, और वीर सावरकर के लिए मन में बहुत आदर था. 8 अप्रेल 1940 को पुणे में आरएसएस के एक प्रमुख नेता भानुराव देशमुख ने हिन्दू महासभा के अतिवादी तत्वों को जबाव दिया कि :- “सबसे पहले तो मैं इन खुराफाती हिन्दुओं को यह कहना चाहूंगा, कि आरएसएस न तो हिन्दुओं की कोई सेना है और न ही हिन्दू महासभा की सैन्य शाखा है. संघ का कार्य हिन्दू राष्ट्रवादियों को सही अर्थों में बनाना है....”. यह नोट करना बहुत ही रोचक होगा कि हालांकि कॉंग्रेस और हिन्दू महासभा के व्यक्तिगत नेता, आरएसएस के अनुशासन, उसमें अस्पृश्यता के न होने और इसके द्वारा दी जा रही सेवाओं के लिए उसकी प्रशंसा करते थे और दोनों ही संगठन संघ को अपने नियंत्रण में करना चाहते थे. जब संघ ने कांग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों के ही इशारे पर चलने से इंकार कर दिया, तो दोनों ही संगठनों ने संघ पर साम्प्रदायिक और हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगा दिया.
बोस और हेडगेवार संघ के राजनीतिक रूप से सीधे न जुड़े होने के बावजूद संघ किसी भी राजनीतिक आन्दोलन की मदद करने को हमेशा तैयार रहता था, बशर्ते यदि भारत के कल्याण के लिए कार्य कर रहा हो, और वह उनकी मदद अपने कैडर देकर या उन्हें तमाम सुविधाएं प्रदान करने के द्वारा करता था. त्रिलोकनाथ चक्रवर्ती (1889–1970) एक बंगाली क्रांतिकारी और स्वतंत्रता संग्रामी थे. वे हेडगेवार जी से मिले जिन्होंने उनसे वादा किया कि संघ उन्हें भविष्य के आंदोलनों के लिए अपने कैडर प्रदान करेगा. (सन्दर्भ :- सत्यव्रत घोष, रेमेम्बरिंग अवर रेवोल्युश्नरीज़, मार्क्सिस्ट स्टडी फोरम 1994 पृ.57). संघ ने क्रांतिकारी राजगुरु की भी मदद की थी जब वे निर्वासन में थे. छिछले स्तर की राजनीति करने वाले कई कांग्रेसी नेताओं ने वर्ष 1934 में यह संकल्प पारित किया कि उनके सदस्य, आरएसएस के सदस्य नहीं बन सकते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. कंचनमोय मजूमदार बताते हैं कि कांग्रेस के द्वारा इस प्रकार की घोषणा जारी होने के बाद सुभाष बोस ने हेगडेवार को कई बार सन्देश भेजा और शायद यह सशस्त्र विद्रोह के लिए था. ‘मॉडर्न रिव्यू’ (मार्च 1941) के अनुसार डॉ. हेगडेवार की मृत्यु 51 वर्ष की आयु में हाई ब्लड प्रेशर के कारण नागपुर में हुई थी. उनकी मृत्यु से एक दिन पहले ही सुभाष चन्द्र बोस उनसे मिलना चाहते थे.
हेडगेवार के बाद आए गुरूजी गोलवलकर राजनीति में हेगडेवार से अलग प्रवृत्ति के थे. जहां एक तरफ डॉ. हेगडेवार कलकत्ता आधारित क्रांतिकारी समूह अनुशीलन समिति से आए थे, तो वहीं गोलवलकर ने आध्यात्मिक प्रेरणा स्वामी अखंडानन्द से ली थी. स्वामी जी को मानवता के प्रति उनकी सेवाओं के लिए जाना जाता है. गोलवलकर जी के गुरु श्री रामकृष्ण के सीधे शिष्य थे. वे अकाल में एक मुस्लिम लड़की की स्थिति से बहुत ही विचलित हो गए थे और उन्होंने अपनी तीर्थयात्रा छोड़कर उसी गाँव में सेवा करने का प्रण ले लिया था. गोलवलकर ने राजनीति छोड़ दी थी. वे संघठन निर्माण में विश्वास रखते थे. यह वह समय था जब देश के परिदृश्य की राजनीति बदल रही थी. विभाजन की धमकी अब हकीकत बनने लगी थी. भारत छोडो आन्दोलन के साथ ही पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल के क्षेत्रों के हिन्दुओं और सिक्खों के भाग्य भी खटाई में पड़ गए थे.
विभाजन की स्थिति में, जिसमें कांग्रेस के तमाम नेताओं के प्रयासों के बावजूद पश्चिमी पंजाब के हिन्दू और सिख और पूर्वी बंगाल में हिन्दुओं और सिखों की स्थिति बहुत ही दुखदायी होने वाली थी और उनकी रक्षा करना बहुत जरूरी था. तो गुरूजी गोलवलकर को संगठन के विस्तार की आवश्यकता महसूस हुई. चूंकि संघ की निंदा करने वाले यह बात करते हुए नहीं थकते, कि गोलवलकर यह मानते थे कि अंग्रेजों के पास संघ पर प्रतिबन्ध लगाने का कोई कारण नहीं होना चाहिए. गुरूजी गोलवलकर के एक वक्तव्य को तोड़ मरोड़ कर 1942 के आन्दोलन के संबंध में न केवल पहले, बल्कि आज तक लिखा जा रहा है, जैसे द वायर में लिखा है “वर्ष 1942 में कई लोगों के दिल में यह था कि संघ निष्क्रिय लोगों का एक संघठन है, उनकी बातें बेकार हैं... न केवल बाहरी बल्कि हमारे वोलंटियर भी इसी तरह की बात करते हैं...” मगर यह वाक्य दो महत्वपूर्ण वाक्यों को छोड़ देता है, कि “इस समय भी संघ का नियमित कार्य चालू है. संघ ने सीधे तौर पर कुछ न करने का फैसला किया है.” संघ की परिचालन टीम ने कुछ भी सीधे न करने का फैसला लिया था. ब्रिटिश खुफिया रिपोर्ट का भी यह कहना था कि उन्हें कोई भी ऐसा सबूत नहीं मिला, जिससे यह साबित हो कि संघ संघटन के रूप में 1942 के आन्दोलन में जुड़ा था. और न ही पुलिस को कोई ऐसा सबूत मिला जिससे यह पता चला कि संघ कार्यालय में अंग्रेजों के खिलाफ कोई भाषण दिया जाता है. संघ की शुरू से यही कार्यशैली थी, कि वे जनता के बीच चुपचाप काम करते थे और कभी भी खुलकर सामने नहीं आते थे. जनता के बीच से निकलने वाले जन-नायकों की मदद करना और उन्हें हरसंभव संसाधन उपलब्ध करवाना संघ की पहचान तब भी था, और आज भी स्थिति वही है.
ब्रिटिश खुफिया रिपोर्ट के अनुसार पुणे में संघ के एक प्रशिक्षण शिविर में 27 अप्रेल 1942 को गोलवलकर ने उन लोगों की निंदा की, जो निहित स्वार्थवश अंग्रेजी सरकार की मदद कर रहे थे. 28 अप्रेल 1942 को उन्होंने घोषणा की कि चाहे कुछ भी हो जाए, संघ अपने क़दमों से पीछे नहीं हटेगा और उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे देश की सेवा करने के लिए हमेशा तैयार रहें और देश हित में कुर्बानी भी दें. (सन्दर्भ :- No.D. Home Pol. (Intelligence) Section F. No. 28 Pol). गृह विभाग की एक और रिपोर्ट जबलपुर में होने वाले संघ के सम्मेलन में अंग्रेज विरोधी माहौल को दिखाती है, जिसमें यह दावा किया गया है कि संघ का उद्देश्य था अंग्रेजों को भारत से बाहर करने का और इस बात को कई वक्ताओं द्वारा दोहराया गया. अच्युत पटवर्धन, नाना पाटिल और अरुणा आसफ अली भारत छोडो आन्दोलन के कुछ मुख्य चेहरे थे जो अपने संघर्ष के दौरान संघ के महत्वपूर्ण नेताओं के घरों में रुके थे. कई क्रांतिकारियों को संघ से बहुत जरूरी संसाधन सहायता मिली थी. अरुणा आसफ अली ने, लाला हंसराज गुप्ता के घर पर शरण ली थी और नाना पाटिल की रक्षा पंडित दामोदर सत्वलकर ने की थी... जबकि गुरूजी भाऊसाहेब देशमुख और बाबासाहेब आप्टे के घर पर रुके थे.
16 अगस्त 1942 को महाराष्ट्र में चिमूर में संघ के कई नेताओं ने प्रत्यक्ष रूप से भारत छोडो आन्दोलन में भाग लिया था जिसका परिणाम अंग्रेजों द्वारा दमन था. दादा नायक जो चिमूर की संघ की शाखा के प्रमुख भी थे, उन्हें अंग्रेजों द्वारा मृत्यु दंड दिया गया था. हिन्दू महासभा नेता डॉ. एनबी खरे ने इस मामले को अधिकारियों के समक्ष उठाया. रामदास रामपुरे एक और संघ के नेता को अंग्रेजों के द्वारा गोली मारी गया थी. गोपनीय रिपोर्ट में इन दोनों नेताओं को इन विद्रोहों के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था. जिनमें से एक थे दादा नायक जो हालिया अवरोधों के पीछे काफी हद तक थे और दूसरे थे संत तुकडोजी महाराज जो संघ से जुड़े थे, और जिन्हें चिमूर में हिंसा के लिए जिम्मेदार माना गया था. बाद में संत तुकडोजी महाराज विश्व हिन्दू परिषद के एक सह संस्थापक बन गए थे. संत तुकडोजी महाराज को, संत गाडगे महाराज के साथ देखा जा सकता है... दोनों ही सामाजिक सुधारक थे. तुकडोजी महाराज संघ के साथ जुड़े हुए थे और उन्हें अंग्रेजों ने निशाना बनाया था, वे न केवल भक्ति गीत गाते थे बल्कि वे अंग्रेजों के खिलाफ भी एक आन्दोलन का हिस्सा थे. वे स्वच्छता की आवश्यकता के लिए भी भजन गाते थे. यदि कोई इसे संघ का योगदान नहीं माने, तो न सही.
एक और झूठ बहुत ही ज्यादा फैलाया जाता है, कि अंग्रेजों को गुरु गोलवलकर ने कभी भी भारत की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया. जबकि हकीकत में संघ के प्रमुख के रूप में, उन्होंने हिन्दू समाज की समस्याओं के लिए बाहरी संस्थाओं और यहाँ तक कि संघ पर सीधे आरोप नहीं लगाया. उदाहरण के लिए, धर्मांतरणों के मामलों में उन्होंने मुस्लिमों और ईसाइयों पर आरोप लगाने से मना किया. इस संदर्भ में उनका कहना था कि हमारे कई स्वयंसेवक अपनी कमियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार मानते हैं. कुछ राजनीतिक स्थितियों पर तो कुछ ईसाइयों और मुस्लिमों की गतिविधियों पर आरोप लगाते हैं. मैं अपने कार्यकर्ताओं से आग्रह करूंगा कि वे अपने दिमाग से ये सभी बातें हटाएं और अपने लोगों और धर्मों के लिए सही रूप में कार्य करें, जरूरतमंदों की मदद करें और जहाँ भी वे किसी को गिरा हुआ देखें, उनकी मदद करें. [Bunch Of Thoughts, P.277]
जब नेहरु के द्वारा संघ पर लगाया हुआ प्रतिबन्ध टिक नहीं पाया, और उसे उठा लिया गया तो गुरूजी ने नेहरू से क्रोधित अपने कार्यक्रताओं से कहा “अपने मन में उन लोगों के लिए कडवाहट न आने दो, जिन्होनें तुम्हारे साथ अन्याय किया है. अगर दांत जीभ को काटेंगे तो क्या हम दांतों को बाहर खींच लेंगे? यहाँ तक कि जिन्होनें अन्याय किया है वे भी हमारे ही लोग हैं, तो हमें भुलाना आना चाहिए. वायर के लेख ने गुरु गोवलकर के विचारों को बंगाल के अकाल से जोड़ा है. यहाँ यह याद रखना जरूरी है कि बंगाल के अकाल के दौरान डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो हिन्दू महासभा के नेता और संघ के नज़दीकी थे, वे कई राहत केन्द्रों के माध्यम से अकाल से लड़ रहे थे. मधुश्री मुखर्जी ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी की दर्द को बहुत ही मुखर रूप में बताया है. अंग्रेजी इतिहासकार जेम्स हार्टफील्ड ने इस बात को इंगित किया है कि मुखर्जी ने किसानों को इस बात के लिए मजबूर किया कि वे अपनी फसल को सरकारी दलालों को न भेजें, और कहा कि अधिकारियों ने सारा अनाज सेना के लिए और निर्यात के लिए ले लिया है. उन्होंने यह भी बताया कि बोस के कई समर्थक श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा संचालित राहत केन्द्रों में काम कर रहे थे.
राजनीति से आगे बढ़कर काम करने की उनकी क्षमता तब शिखर पर पहुँची जब चीनी आक्रमण के दौरान उन्होंने सरकार की आलोचना के स्थान पर उनके साथ खड़े होने की घोषणा की. महाभारत का उदाहरण देते हुए कहा “हम सौ और पांच हैं.” चीनी हमले पर नेहरू की गलतियों को बताने वाले धारावाहिक को रोकने से बुद्धिजीवी और इतिहासकार सीताराम गोयल, संघ के आलोचक बन गए. हालांकि चीन से युद्ध के समय और उसके बाद RSS ने जो सेवाएं भारतीय सेना को दीं, उसने नेहरू को संघ के प्रति विचार बदलने पर विवश कर दिया. प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि वे अपने देश की एक अंगुल भर जमीन भी नहीं देंगे, और उन्होंने संघ को गणतंत्र दिवस की परेड में बुलाया था.
संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान RSS ने अपना अधिकाँश कार्य स्वतन्त्र रूप से और परदे के पीछे रहकर चलाया. क्रांतिकारियों को मानव संसाधन की आपूर्ति की तथा हिन्दू महासभा के अतिवादी रवैये से खुद को दूर रखा. यह कहना एकदम साफ़ झूठ है कि संघ ने अंग्रेजों के खिलाफ तटस्थता बनाए रखी, ऐसा कोई सबूत या तथ्य कहीं नहीं मिलता है. 1930 में ही हेडगेवार जी द्वारा स्वतंत्रता की तारीख संबंधी कांग्रेस के प्रस्ताव को खुला समर्थन दिया गया... परन्तु वास्तविकता यह थी कि कांग्रेस और उसके तत्कालीन नेता, संघ की, सुभाषचंद्र बोस की, गुरूजी गोलवलकर की बढ़ती शक्ति से घबराए हुए थे, इसलिए मिथ्या प्रचार करके इन्हें बदनाम करना जरूरी था... आज भी ऐसा ही हो रहा है... लेकिन तमाम षड्यंत्रों के बावजूद उस समय भी संघ आगे बढ़ता गया... आज भी ऐसा ही हो रहा है.
Written by मूल लेखक : अरविन्दन नीलकंदन
अनुवाद - सोनाली मिश्र
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संदर्भ:
- Dina Nath Mishra, RSS: Myth and Reality, Vikas Publishing House, 1980
- Kavita Narawane, The Great Betrayal, 1966-1977, Popular Prakashan, 1980
- C.P.Bhishikar, Shri Guruji, Pioneer of a new era, Sahitya Sindhu Prakashana, Bangalore, 1999
- Kanchanmoy Mojumdar, Saffron versus green: communal politics in the Central --Provinces and Berar, 1919-1947, Manohar, 2003
- James Heartfield, Unpatriotic History of the Second World War , London, Zer0 Books, 2012
- Rakesh Sinha, Builders of Modern India: Dr. Keshav Baliram Hedgewar, Publications Division, 2015
साभार -- desiCNN

भारतीय मुस्लिमों के हिन्दू पूर्वज : इस्लामी अत्याचारों की गाथा


हाल ही में एक फोरम पर किसी युवा मित्र ने पूछा कि कश्मीर में मारे जा रहे आतंकियों का उपनाम "भट", "बट", "वानी", "गुरू" किस तरह से है? इसी प्रकार देश के कई भागों में मुस्लिम गुर्जर, मुस्लिम जाट तथा "पटेल" उपनाम वाले मुसलमान कैसे पाए जाते हैं? असल में उसे यह जानकारी नहीं थी कि 99 प्रतिशत "भारतीय मुसलमानों" के पूर्वज हिन्दू थे।
आज भी उनके उपनाम और व्यवसाय वही हैं, जो वे चार-पाँच-दस पीढी पहले किया करते थे, इसीलिए कई स्थानों पर मुस्लिमों के केवल उपनाम ही नहीं, बल्कि नाम भी हिन्दुओं से मिलते-जुलते देखे गए हैं... फिर सवाल उठता है कि ये लोग स्वधर्म को छोड़ कर कैसे मुसलमान हो गये? अधिकांश हिन्दू मानते हैं कि उनको तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया गया अर्थात् वे स्वेच्छा से मुसलमान नहीं बने। मुसलमान इसका प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि इस्लाम का तो अर्थ ही शांति का धर्म है, बलात धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं है। यदि किसी ने ऐसा किया अथवा करता है तो यह इस्लाम की आत्मा के विरुद्ध निंदनीय कृत्य है। अधिकांश हिन्दू मुसलमान इस कारण बने कि उन्हें अपने दम घुटाऊ धर्म की तुलना में समानता का सन्देश देने वाला इस्लाम उत्तम लगा।
इस लेख में हम इस्लमिक आक्रान्ताओं के अत्याचारों को सप्रमाण देकर यह सिद्ध करेंगे की भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे एवं उनके पूर्वजों पर इस्लामिक आक्रान्ताओं ने अनेक अत्याचार कर उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन के लिए विवश किया था। अनेक मुसलमान भाइयों का यह कहना हैं कि भारतीय इतिहास मूलत: अंग्रेजों द्वारा रचित हैं। इसलिए निष्पक्ष नहीं है। यह असत्य है। क्यूंकि अधिकांश मुस्लिम इतिहासकार आक्रमणकारियों अथवा सुल्तानों के वेतन भोगी थे। उन्होंने अपने आका की अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना एवं बुराइयों को छुपाकर उन्होंने अपनी स्वामी भक्ति का भरपूर परिचय दिया हैं। तथापि इस शंका के निवारण के लिए हम अधिकाधिक मुस्लिम इतिहासकारों के आधार पर रचित अंग्रेज लेखक ईलियट एंड डाउसन द्वारा संगृहीत एवं प्रामाणिक समझी जाने वाली पुस्तकों का इस लेख में प्रयोग करेंगे।
भारत पर 7वीं शताब्दी में मुहम्मद बिन क़ासिम से लेकर 18वीं शताब्दी में अहमद शाह अब्दाली तक करीब 1200 वर्षों में अनेक आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं पर अनगिनत अत्याचार किये। धार्मिक, राजनैतिक एवं सामाजिक रूप से असंगठित होते हुए भी हिन्दू समाज ने मतान्ध अत्याचारियों का भरपूर प्रतिकार किया। सिंध के राजा दाहिर और उनके बलिदानी परिवार से लेकर वीर मराठा पानीपत के मैदान तक अब्दाली से टकराते रहे। आक्रमणकारियों का मार्ग कभी भी निष्कंटक नहीं रहा अन्यथा सम्पूर्ण भारत कभी का दारुल इस्लाम (इस्लामिक भूमि) बन गया होता। आरम्भ के आक्रमणकारी यहाँ आते, मारकाट -लूटपाट करते और वापिस चले जाते। बाद की शताब्दियों में उन्होंने न केवल भारत को अपना घर बना लिया अपितु राजसत्ता भी ग्रहण कर ली। इस लेख में हम कुछ आक्रमणकारियों जैसे मौहम्मद बिन कासिम,महमूद गजनवी, मौहम्मद गौरी और तैमूर के अत्याचारों की चर्चा करेंगे।
मौहम्मद बिन कासिम
भारत पर आक्रमण कर सिंध प्रान्त में अधिकार प्रथम बार मुहम्मद बिन कासिम को मिला था।उसके अत्याचारों से सिंध की धरती लहूलुहान हो उठी थी। कासिम से उसके अत्याचारों का बदला राजा दाहिर की दोनों पुत्रियों ने कूटनीति से लिया था।
1. प्रारंभिक विजय के पश्चात कासिम ने ईराक के गवर्नर हज्जाज को अपने पत्र में लिखा-'दाहिर का भतीजा, उसके योद्धा और मुख्य मुख्य अधिकारी कत्ल कर दिये गये हैं। हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया है, अन्यथा कत्ल कर दिया गया है। मूर्ति-मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। अजान दी जाती है। [i]
2. वहीँ मुस्लिम इतिहासकार आगे लिखता है- 'मौहम्मद बिन कासिम ने रिवाड़ी का दुर्ग विजय कर लिया। वह वहाँ दो-तीन दिन ठहरा। दुर्ग में मौजूद 6000 हिन्दू योद्धा वध कर दिये गये, उनकी पत्नियाँ, बच्चे, नौकर-चाकर सब कैद कर लिये (दास बना लिये गये)। यह संख्या लगभग 30 हजार थी। इनमें दाहिर की भानजी समेत 30 अधिकारियों की पुत्रियाँ भी थी[ii]।
महमूद गजनवी
मुहम्मद गजनी का नाम भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वी राज चौहान को युद्ध में हराने और बंदी बनाकर अफगानिस्तान लेकर जाने के लिए प्रसिद्द है। गजनी मजहबी उन्माद एवं मतान्धता का जीता जागता प्रतीक था।
1. भारत पर आक्रमण प्रारंभ करने से पहले इस 20 वर्षीय सुल्तान ने यह धार्मिक शपथ ली कि वह प्रति वर्ष भारत पर आक्रमण करता रहेगा, जब तक कि वह देश मूर्ति और बहुदेवता पूजा से मुक्त होकर इस्लाम स्वीकार न कर ले। अल उतबी इस सुल्तान की भारत विजय के विषय में लिखता है-'अपने सैनिकों को शस्त्रास्त्र बाँट कर अल्लाह से मार्ग दर्शन और शक्ति की आस लगाये सुल्तान ने भारत की ओर प्रस्थान किया। पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचकर उसने उस नगर के बाहर अपने डेरे गाड़ दिये[iii]।
2. मुसलमानों को अल्लाह के शत्रु काफिरों से बदला लेते दोपहर हो गयी। इसमें 15000 काफिर मारे गये और पृथ्वी पर दरी की भाँति बिछ गये जहाँ वह जंगली पशुओं और पक्षियों का भोजन बन गये। जयपाल के गले से जो हार मिला उसका मूल्य 2 लाख दीनार था। उसके दूसरे रिश्तेदारों और युद्ध में मारे गये लोगों की तलाशी से 4 लाख दीनार का धन मिला। इसके अतिरिक्त अल्लाह ने अपने मित्रों को 5 लाख सुन्दर गुलाम स्त्रियाँ और पुरुष भी बख्शे [iv]।
3. कहा जाता है कि पेशावर के पास वाये-हिन्द पर आक्रमण के समय महमूद ने महाराज जयपाल और उसके 15 मुख्य सरदारों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया था। सुखपाल की भाँति इनमें से कुछ मृत्यु के भय से मुसलमान हो गये। भेरा में, सिवाय उनके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, सभी निवासी कत्ल कर दिये गये। स्पष्ट है कि इस प्रकार धर्म परिवर्तन करने वालों की संखया काफी रही होगी[v]।
4. मुल्तान में बड़ी संख्या में लोग मुसलमान हो गये। जब महमूद ने नवासा शाह पर (सुखपाल का धर्मान्तरण के बाद का नाम) आक्रमण किया तो उतवी के अनुसार महमूद द्वारा धर्मान्तरण का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ[vi]। काश्मीर घाटी में भी बहुत से काफिरों को मुसलमान बनाया गया और उस देश में इस्लाम फैलाकर वह गजनी लौट गया[vii]।
5. उतबी के अनुसार जहाँ भी महमूद जाता था, वहीं वह निवासियों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करता था। इस बलात् धर्म परिवर्तन अथवा मृत्यु का चारों ओर इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि अनेक शासक बिना युद्ध किये ही उसके आने का समाचार सुनकर भाग खड़े होते थे। भीमपाल द्वारा चाँद राय को भागने की सलाह देने का यही कारण था कि कहीं राय महमूद के हाथ पड़कर बलात् मुसलमान न बना लिया जाये जैसा कि भीमपाल के चाचा और दूसरे रिश्तेदारों के साथ हुआ था[viii]।
6. 1023 ई. में किरात, नूर, लौहकोट और लाहौर पर हुए चौदहवें आक्रमण के समय किरात के शासक ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसकी देखा-देखी दूसरे बहुत से लोग मुसलमान हो गये। निजामुद्दीन के अनुसार देश के इस भाग में इस्लाम शांतिपूर्वक भी फैल रहा था, और बलपूर्वक भी`[ix]। सुल्तान महमूद कुरान का विद्वान था और उसकी उत्तम परिभाषा कर लेता था। इसलिये यह कहना कि उसका कोई कार्य इस्लाम विरुद्ध था, झूठा है।
7. हिन्दुओं ने इस पराजय को राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लिया। अगले आक्रमण के समय जयपाल के पुत्र आनंद पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। फरिश्ता लिखता है कि 30,000 खोकर राजपूतों ने जो नंगे पैरों और नंगे सिर लड़ते थे, सुल्तान की सेना में घुस कर थोड़े से समय में ही तीन-चार हजार मुसलमानों को काट कर रख दिया। सुल्तान युद्ध बंद कर वापिस जाने की सोच ही रहा था कि आनंद पाल का हाथी अपने ऊपर नेपथा के अग्नि गोले के गिरने से भाग खड़ा हुआ। हिन्दू सेना भी उसके पीछे भाग खड़ी हुई[x]।
8. सराय (नारदीन) का विध्वंस- सुल्तान ने (कुछ समय ठहरकर) फिर हिन्द पर आक्रमण करने का इरादा किया। अपनी घुड़सवार सेना को लेकर वह हिन्द के मध्य तक पहुँच गया। वहाँ उसने ऐसे-ऐसे शासकों को पराजित किया जिन्होंने आज तक किसी अन्य व्यक्ति के आदेशों का पालन करना नहीं सीखा था। सुल्तान ने उनकी मूर्तियाँ तोड़ डाली और उन दुष्टों को तलवार के घाट उतार दिया। उसने इन शासकों के नेता से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। अल्लाह के मित्रों ने प्रत्येक पहाड़ी और वादी को काफिरों के खून से रंग दिया और अल्लाह ने उनको घोड़े, हाथियों और बड़ी भारी संपत्ति मिली[xi]।
9. नंदना की विजय के पश्चात् सुल्तान लूट का भारी सामान ढ़ोती अपनी सेना के पीछे-पीछे चलता हुआ, वापिस लौटा। गुलाम तो इतने थे कि गजनी की गुलाम-मंडी में उनके भाव बहुत गिर गये। अपने (भारत) देश में अति प्रतिष्ठा प्राप्त लोग साधारण दुकानदारों के गुलाम होकर पतित हो गये। किन्तु यह तो अल्लाह की महानता है कि जो अपने महजब को प्रतिष्ठित करता है और मूति-पूजा को अपमानित करता है[xii]।
10. थानेसर में कत्ले आम- थानेसर का शासक मूर्ति-पूजा में घोर विश्वास करता था और अल्लाह (इस्लाम) को स्वीकार करने को किसी प्रकार भी तैयार नहीं था। सुल्तान ने (उसके राज्य से) मूर्ति पूजा को समाप्त करने के लिये अपने बहादुर सैनिकों के साथ कूच किया। काफिरों के खून से, नदी लाल हो गई और उसका पानी पीने योग्य नहीं रहा। यदि सूर्य न डूब गया होता तो और अधिक शत्रु मारे जाते। अल्लाह की कृपा से विजय प्राप्त हुई जिसने इस्लाम को सदैव-सदैव के लिये सभी दूसरे मत-मतान्तरों से श्रेष्ठ स्थापित किया है, भले ही मूर्ति पूजक उसके विरुद्ध कितना ही विद्रोह क्यों न करें। सुल्तान, इतना लूट का माल लेकर लौटा जिसका कि हिसाब लगाना असंभव है। स्तुति अल्लाह की जो सारे जगत का रक्षक है कि वह इस्लाम और मुसलमानों को इतना सम्मान बख्शता है[xiii]।
11. अस्नी पर आक्रमण- जब चन्देल को सुल्तान के आक्रमण का समाचार मिला तो डर के मारे उसके प्राण सूख गये। उसके सामने साक्षात मृत्यु मुँह बाये खड़ी थी। सिवाय भागने के उसके पास दूसरा विकल्प नहीं था। सुल्तान ने आदेश दिया कि उसके पाँच दुर्गों की बुनियाद तक खोद डाली जाये। वहाँ के निवासियों को उनके मल्बे में दबा दिया अथवा गुलाम बना लिया गया। चन्देल के भाग जाने के कारण सुल्तान ने निराश होकर अपनी सेना को चान्द राय पर आक्रमण करने का आदेश दिया जो हिन्द के महान शासकों में से एक है और सरसावा दुर्ग में निवास करता है[xiv]।
12. सरसावा (सहारनपुर) में भयानक रक्तपात- सुल्तान ने अपने अत्यंत धार्मिक सैनिकों को इकट्ठा किया और द्गात्रु पर तुरन्त आक्रमण करने के आदेश दिये। फलस्वरूप बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये अथवा बंदी बना लिये गये। मुसलमानों ने लूट की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जब तक कि कत्ल करते-करते उनका मन नहीं भर गया। उसके बाद ही उन्होंने मुर्दों की तलाशी लेनी प्रारंभ की जो तीन दिन तक चली। लूट में सोना, चाँदी, माणिक, सच्चे मोती, जो हाथ आये जिनका मूल्य लगभग तीस लाख दिरहम रहा होगा। गुलामों की संख्या का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक को 2 से लेकर 10 दिरहम तक में बेचा गया। द्गोष को गजनी ले जाया गया। दूर-दूर के देशों से व्यापारी उनको खरीदने आये। मवाराउन-नहर ईराक, खुरासान आदि मुस्लिम देश इन गुलामों से पट गये। गोरे, काले, अमीर, गरीब दासता की समान जंजीरों में बँधकर एक हो गये[xv]।
13. सोमनाथ का पतन- अल-काजवीनी के अनुसार 'जब महमूद सोमनाथ के विध्वंस के इरादे से भारत गया तो उसका विचार यही था कि (इतने बड़े उपसाय देवता के टूटने पर) हिन्दू (मूर्ति पूजा के विश्वास को त्यागकर) मुसलमान हो जायेंगे[xvi]।दिसम्बर 1025 में सोमनाथ का पतना हुआ। हिन्दुओं ने महमूद से कहा कि वह जितना धन लेना चाहे ले ले, परन्तु मूर्ति को न तोड़े। महमूद ने कहा कि वह इतिहास में मूर्ति-भंजक के नाम से विखयात होना चाहता है, मूर्ति व्यापारी के नाम से नहीं। महमूद का यह ऐतिहासिक उत्तर ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि सोमनाथ के मंदिर को विध्वंस करने का उद्देश्य धार्मिक था, लोभ नहीं। मूर्ति तोड़ दी गई। दो करोड़ दिरहम की लूट हाथ लगी, पचास हजार हिन्दू कत्ल कर दिये गये[xvii]। लूट में मिले हीरे, जवाहरातों, सच्चे मोतियों की, जिनमें कुछ अनार के बराबर थे, गजनी में प्रदर्शनी लगाई गई जिसको देखकर वहाँ के नागरिकों और दूसरे देशों के राजदूतों की आँखें फैल गई[xviii]।
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मौहम्मद गौरी
मुहम्मद गौरी नाम नाम गुजरात के सोमनाथ के भव्य मंदिर के विध्वंश के कारण सबसे अधिक कुख्यात है। गौरी ने इस्लामिक जोश के चलते लाखों हिन्दुओं के लहू से अपनी तलवार को रंगा था।
1. मुस्लिम सेना ने पूर्ण विजय प्राप्त की। एक लाख नीच हिन्दू नरक सिधार गये (कत्ल कर दिये गये)। इस विजय के पश्चात् इस्लामी सेना अजमेर की ओर बढ़ी-वहाँ इतना लूट का माल मिला कि लगता था कि पहाड़ों और समुद्रों ने अपने गुप्त खजानें खोल दिये हों। सुल्तान जब अजमेर में ठहरा तो उसने वहाँ के मूर्ति-मंदिरों की बुनियादों तक को खुदावा डाला और उनके स्थान पर मस्जिदें और मदरसें बना दिये, जहाँ इस्लाम और शरियत की शिक्षा दी जा सके[xix]।
2. फरिश्ता के अनुसार मौहम्मद गौरी द्वारा 4 लाख 'खोकर' और 'तिराहिया' हिन्दुओं को इस्लाम ग्रहण कराया गया[xx]।
3. इब्ल-अल-असीर के द्वारा बनारस के हिन्दुओं का भयानक कत्ले आम हुआ। बच्चों और स्त्रियों को छोड़कर और कोई नहीं बक्शा गया[xxi]।स्पष्ट है कि सब स्त्री और बच्चे गुलाम और मुसलमान बना लिये गये।
Islam in India
तैमूर लंग
तैमूर लंग अपने समय का सबसे अत्याचारी हमलावर था। उसके कारण गांव के गांव लाशों के ढेर में तब्दील हो गए थे।लाशों को जलाने वाला तक बचा नहीं था।
1. 1399 ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है। 'हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें[xxii]।
2. कश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में दस हजार लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया[xxiii]।
3. दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया।पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया[xxiv]।'
4. दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संखया एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है- 'इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजक काफिर कत्ल कर दिये गये[xxv]।
इसी प्रकार के कत्लेआम, धर्मांतरण का विवरण कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्लतुमिश, ख़िलजी,तुगलक से लेकर तमाम मुग़लों तक का मिलता हैं। अकबर और औरंगज़ेब के जीवन के विषय में चर्चा हम अलग से करेंगे। भारत के मुसलमान आक्रमणकारियों बाबर, मौहम्मद बिन-कासिम, गौरी, गजनवी इत्यादि लुटेरों को और औरंगजेब जैसे साम्प्रदायिक बादशाह को गौरव प्रदान करते हैं और उनके द्वारा मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदों व दरगाहों को इस्लाम की काफिरों पर विजय और हिन्दू अपमान के स्मृति चिन्ह बनाये रखना चाहते हैं। संसार में ऐसा शायद ही कहीं देखने को मिलेगा जब एक कौम अपने पूर्वजों पर अत्याचार करने वालों को महान सम्मान देते हो और अपने पूर्वजों के अराध्य हिन्दू देवी देवताओं, भारतीय संस्कृति एवं विचारधारा के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण न हो।
(नोट- इस लेख को लिखने में "भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूर्वज मुसलमान कैसे बने" नामक पुस्तक, लेखक पुरुषोत्तम, प्रकाशक हिन्दू राइटर फोरम, राजौरी गार्डन, दिल्ली का प्रयोग किया गया है।)

प्रखर राष्ट्रवादी साईट desiCNN  से साभार ...आदरणीय Suresh Chiplunkar जी...
18 जून. 1576 को हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध मचा हुआ था| युद्ध जीतने को जान की बाजी लगी हुई. वीरों की तलवारों के वार से सैनिकों के कटे सिर से खून बहकर हल्दीघाटी रक्त तलैया में तब्दील हो गई| घाटी की माटी का रंग आज हल्दी नहीं लाल नजर आ रहा था| इस युद्ध में एक वृद्ध वीर अपने तीन पुत्रों व अपने निकट वंशी भाइयों के साथ हरावल (अग्रिम पंक्ति) में दुश्मन के छक्के छुड़ाता नजर आ रहा था| युद्ध में जिस तल्लीन भाव से यह योद्धा तलवार चलाते हुए दुश्मन के सिपाहियों के सिर कलम करता आगे बढ़ रहा था, उस समय उस बड़ी उम्र में भी उसकी वीरता, शौर्य और चेहरे पर उभरे भाव देखकर लग रहा था कि यह वृद्ध योद्धा शायद आज मेवाड़ का कोई कर्ज चुकाने को इस आराम करने वाली उम्र में भी भयंकर युद्ध कर रहा है| इस योद्धा को अपूर्व रण कौशल का परिचय देते हुए मुगल सेना के छक्के छुड़ाते देख अकबर के दरबारी लेखक व योद्धा बदायूंनी ने दांतों तले अंगुली दबा ली| बदायूंनी ने देखा वह योद्धा दाहिनी तरफ हाथियों की लड़ाई को बायें छोड़ते हुए मुग़ल सेना के मुख्य भाग में पहुँच गया और वहां मारकाट मचा दी| अल बदायूंनी लिखता है- “ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मान के पोते रामशाह ने हमेशा राणा की हरावल (अग्रिम पंक्ति) में रहता था, ऐसी वीरता दिखलाई जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है| उसके तेज हमले के कारण हरावल में वाम पार्श्व में मानसिंह के राजपूतों को भागकर दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण लेनी पड़ी जिससे आसफखां को भी भागना पड़ा| यदि इस समय सैयद लोग टिके नहीं रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार हो जाती|" 

राजपूती शौर्य और बलिदान का ऐसा दृश्य अपनी आँखों से देख अकबर के एक नवरत्न दरबारी अबुल फजल ने लिखा- "ये दोनों लश्कर लड़ाई के दोस्त और जिन्दगी के दुश्मन थे, जिन्होंने जान तो सस्ती और इज्जत महंगी करदी|"


हल्दीघाटी (Haldighati Battle) के युद्ध में मुग़ल सेना के हृदय में खौफ पैदा कर तहलका मचा देने वाला यह वृद्ध वीर कोई और नहीं ग्वालियर का अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्य का पुत्र रामशाह तंवर Ramshah Tomar था| 1526 ई. पानीपत के युद्ध में राजा विक्रमादित्य के मारे जाने के समय रामशाह तंवर Ramsa Tanwar मात्र 10 वर्ष की आयु के थे| पानीपत युद्ध के बाद पूरा परिवार खानाबदोश हो गया और इधर उधर भटकता रहा| युवा रामशाह (Ram Singh Tomar) ने अपना पेतृक़ राज्य राज्य पाने की कई कोशिशें की पर सब नाकामयाब हुई| आखिर 1558 ई. में ग्वालियर पाने का आखिरी प्रयास असफल होने के बाद रामशाह चम्बल के बीहड़ छोड़ वीरों के स्वर्ग व शरणस्थली चितौड़ की ओर चल पड़े|


मेवाड़ की वीरप्रसूता भूमि जो उस वक्त वीरों की शरणस्थली ही नहीं तीर्थस्थली भी थी पर कदम रखते ही रामशाह तंवर का मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने अतिथि परम्परा के अनुकूल स्वागत सत्कार किया. यही नहीं महाराणा उदयसिंह ने अपनी एक राजकुमारी का विवाह रामशाह तंवर के पुत्र शालिवाहन के साथ कर आपसी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता प्रदान की| कर्नल टॉड व वीर विनोद के अनुसार उन्हें मेवाड़ में जागीर भी दी गई थी| इन्हीं सम्बन्धों के चलते रामशाह तंवर मेवाड़ में रहे और वहां मिले सम्मान के बदले मेवाड़ के लिए हरदम अपना सब कुछ बलिदान देने को तत्पर रहते थे|


कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी के युद्ध में रामशाह तोमर, उसके पुत्र व 350 तंवर राजपूतों का मरना लिखा है| टॉड ने लिखा- "तंवरों ने अपने प्राणों से ऋण (मेवाड़ का) चूका दिया|" तोमरों का इतिहास में इस घटना पर लिखा है कि- "गत पचास वर्षों से हृदय में निरंतर प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा का अंतिम प्रकाश-पुंज दिखकर, अनेक शत्रुओं के उष्ण रक्त से रक्तताल को रंजित करते हुए मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के निमित्त धराशायी हुआ विक्रम सुत रामसिंह तोमर|" लेखक द्विवेदी लिखते है- "तोमरों ने राणाओं के प्रश्रय का मूल्य चुका दिया|" भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी व इतिहासकार सज्जन सिंह राणावत एक लेख में लिखते है- "यह तंवर वीर अपने तीन पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह व प्रताप सिंह के साथ आज भी रक्त तलाई (जहाँ महाराणा व अकबर की सेना के मध्य युद्ध हुआ) में लेटा हल्दीघाटी को अमर तीर्थ बना रहा है| इनकी वीरता व कुर्बानी बेमिसाल है, इन चारों बाप-बेटों पर हजार परमवीर चक्र न्योछावर किये जाए तो भी कम है|"


तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक "राजस्थान के सूरमा" में लिखते है- "अपनों के लिए अपने को मरते तो प्राय: सर्वत्र सुना जाता है, लेकिन गैरों के लिए बलिदान होता देखने में कम ही आता है| रामशाह तंवर, जो राजस्थान अथवा मेवाड़ का न राजा था और न ही सामंत, लेकिन विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में इस वीर पुरुष ने जिस कौशल का परिचय देते हुए अपना और वीर पुत्रों का बलिदान दिया वह स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है|"


जाने माने क्षत्रिय चिंतक देवीसिंह, महार ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा- "हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप यदि अनुभवी व वयोवृद्ध योद्धा रामशाह तंवर की सुझाई युद्ध नीति को पूरी तरह अमल में लेते तो हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय कुछ और होता| महार साहब के अनुसार रामशाह तंवर का अनुभव और महाराणा की ऊर्जा का यदि सही समन्वय होता तो आज इतिहास कुछ और होता|"


धन्य है यह भारत भूमि जहाँ रामशाह तंवर Ramshah Tanwar जिन्हें रामसिंह तोमर Ramsingh Tomar, रामसा तोमर Ramsa Tomar आदि नामों से भी जाना जाता रहा है, जैसे वीरों ने जन्म लिया और मातृभूमि के लिए उच्चकोटि के बलिदान देने का उदाहरण पेश कर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श प्रेरक पैमाना पेश किया| 

साभार..... ज्ञान दर्पण ब्लॉग