मंगलवार, 18 मार्च 2014

आज कि नारी वासना पूर्ति की माध्यम रह गई ?

आज के युवाओ में एक सब्द बहुत सुनने को मिलता है '' मैं उससे  बहुत प्यार करता हु '' जबकि हकीकत में युवको को प्यार सब्द का मतलब ही नहीं पता  है । ज्यादातर युवक अपनी अश्लील भावनाओं को प्रेम की पवित्रता का नाम देकर  अपनी अतृप्त वासना को छुपाने का प्रयास मात्र करता है ।वासना के गंदे कीड़े जब पुरुष मन की धरातल पर रेंगने लगते है तब वह बहसी,दरिंदा हो जाता है ।अपनी सारी संवेदनाओं को दावँ पर रख बस जिस्म की प्यासी भूख को पूरा करने के लिए किसी हद तक गुजर जाता है।जब तक अपनी इच्छानुसार सब कुछ ठीक होता है तब तक वह प्रेम का पुजारी बना होता है।पर जैसे ही उसे विरोध का साया मिलता है वह दरिंदगी पर उतर जाता है।वासना के कुकृत्यों में लिप्त होकर जिस्मानी भूखों के लिए किसी नरभक्षी की तरह स्त्री के मान,मर्यादा और इज्जत को रौंदता रौंदता वह समाज,परिवार और संस्कारों को ताक पर रख बस वही करता है,जो करवाती है उसकी वासना ।
 

              हमारी संस्कृति में और हमारे धर्मग्रंथों में स्त्री को जो सम्मान मिला है।वो आज बस इतिहास के पन्नों में ही सीमट कर रह गया है।क्या स्त्री की संरचना बस पुरुष की काम और वासना पूर्ति के लिए हुई है।वो जननि है,वही हर संरचना की मूलभूत और आधारभूत सता है।पर क्या अब वही ममतामयी पवित्र स्त्री का आँचल बस वासनामय क्रीड़ा का काम स्थल बन गया है।आज समाज में स्त्री को बस वस्तु मात्र समझ कर निर्जीव वस्तुओं की तरह उनका इस्तेमाल किया जा रहा है।क्या यही है वजूद आज के समाज में स्त्री का।स्त्री पुरुषों को जन्म देकर उनका पालन पोषण कर के उन्हें इसलिए इस लायक बना रही है कि कल किसी परायी स्त्री के अस्मत को लूटों।इन घिनौने कार्यों की पूर्ति के लिए स्त्री का ऊपयोग क्या उसे वासना का परिचायक भर नहीं बना दिया है आज के समाज में। हद की सीमा तब पार हो जाती है जब बाप के उम्र का कोई पुरुष अपनी बेटी की उम्र की नवयौवना के साथ अपने हवस की पूर्ति करता है और अपनी मूँछों को तावँ देते हुये अपनी मर्दांगनी पर इठलाता है।लानत है ऐसी मर्दांगनी पर जो अपनी नपुंसकता को अपनी वासना मयी हवस से दूर करने की कोशिश करता है।क्यों आज भी आजादी के कई वर्षो बाद भी जब पूरा देश स्वतंत्र है।हर व्यक्ति अपनी इच्छानुसार अपना जीवन यापन करने के लिए तत्पर है।पर जहाँ बात आती है स्त्री के सुरक्षा की सभी आँखे मूँद लेते है।क्या आज शक्ति रुपा स्त्री इतनी कमजोर हो गयी है जिसे सुरक्षा की जरुरत है।क्या उसका वजूद जंगल में रह रहे किसी कमजोर पशु सा हो गया है,जिसे हर पल यह डर बना रहता है कि कही उसका शिकार ना हो जाये।पर आज इस जंगलराज में शिकारी कौन है ? वही पुरुष जिसको नियंत्रण नहीं है अपनी कामुक भावनाओं पर और यह भी पता नहीं है कि कब वो इंसान से हैवान बन जायेगा।
स्त्री की कुछ मजबूरियाँ है जिसने उसे बस वासना कि पूर्ति के लिए एक वस्तुमात्र बना दिया है।मजबूरीवश अपने ह्रदय पर पत्थर रख बेचती है अपने जिस्म को और निलाम करती है अपनी अस्मत को।पर वो पहलू अंधकारमय है।वह वासना का निमंत्रण नहीं है अवसान है।वह वासनामयी अग्न की वो लग्न है,जो बस वजूद तलाशती है अपनी पर वजूद पाकर भी खुद की नजरों में बहुत निचे तक गिर जाती है।स्त्री बस वासना नहीं है,वह तो सृष्टि है।सृष्टि के मूल कारण प्रेम की जन्मदात्री है।स्त्री से पुरुष का मिलन बस इक संयोग है,जो सृष्टि की संरचना हेतु आवश्यक है।पर वह वासनामयी सम्भोग नहीं है।
हवस के सातवें आसमां पर पुरुष खुद को सर्वशक्तिमान समझ लेता है पर अगले ही क्षण पिघल जाता है अहंकार उसका और फिर धूल में ही आ मिलता है उसका वजूद।वासना से सर्वकल्याण सम्भव नहीं है पर हाँ स्वयं का सर्वनाश निश्चित है।वासना की आग में जलता पुरुष ठीक वैसा ही हो जाता है जैसे लौ पर मँडराता पतंगा लाख मना करने पर भी खुद की आहुति दे देता है।बस यहाँ भावना विपरीत होती है।वहाँ प्रेममयी आकर्षण अंत का कारक होता है और यहाँ वासनामयी हवस सर्वनाश निश्चित करता है।स्त्री को बस वासना की पूर्ति हेतु वस्तुमात्र समझना पुरुष की सबसे बड़ी पराजय है।क्योंकि ऐसा कर वो खुद के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा बैठता है अनजाने में।अपनी हवस की पूर्ति करते करते इक रोज खुद मौत के आगोश में समा जाता है।
जरुरी है नजरिया बदलने की।क्योंकि सारा फर्क बस सोच का है।समाज भी वही है,लोग भी वही है और हम भी वही है।पर यह जो वासना की दरिंदगी हममें समा गयी है वो हमारी ही अभद्र मानसिकता का परिचायक है ।स्त्री सुख शैय्या है,आनंद का सागर है।बस पवित्र गंगा समझ कर गोते लगाने की जरुरत है ना कि उसकी पवित्रता को धूमिल करने की।जिस दिन स्त्री का सम्मान वापस मिल जायेगा उसे।उसी दिन जग के कल्याण का मार्ग भी ढ़ूँढ़ लेगा आज का पुरुष जो 21वीं सदी में पहुँच तो गया है पर आज भी कौरवों के दुशासन की तरह स्त्री के चिरहरण का कारक है।

रामचरित मानस कि चौपाइयों से कष्ट निवारण


 जाने रामायण की किन चौपाइयों से दूर होती हैं
घर या काम-काज की कौन-कौन सी परेशानियां?

1. सिरदर्द या दिमाग की कोई भी परेशानी दूर करने के लिए-
हनुमान अंगद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे।।
2. नौकरी पाने के लिए -
बिस्व भरण पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत जस होई।।
धन-दौलत, सम्पत्ति पाने के लिए -
जे सकाम नर सुनहि जे गावहि।सुख संपत्ति नाना विधि पावहि।।
3. पुत्र पाने के लिए -
प्रेम मगन कौसल्या निसिदिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।

4. शादी के लिए -
तब जनक पाइ वशिष्ठ आयसु ब्याह साजि संवारि कै।
मांडवी श्रुतकीरति उर्मिला, कुँअरि लई हँकारि कै॥

5. खोई वस्तु या व्यक्ति पाने के लिए -
गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।।
6. पढ़ाई या परीक्षा में कामयाबी के लिए-
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥
मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥

7. जहर उतारने के लिए -
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।
8. नजर उतारने के लिए -
स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।।
9. हनुमानजी की कृपा के लिए -
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपनें बस करि राखे रामू।।
10. यज्ञोपवीत पहनने व उसकी पवित्रता के लिए -
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।

11. सफल व कुशल यात्रा के लिए -
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा। ह्रदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
12. शत्रुता मिटाने के लिए -
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥
13. सभी तरह के संकटनाश या भूत बाधा दूर करने के लिए -
प्रनवउँ पवन कुमार,खल बन पावक ग्यान घन।
जासु ह्रदयँ आगार, बसहिं राम सर चाप धर॥

14. बीमारियां व अशान्ति दूर करने के लिए -
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहूहिं नहि ब्यापा॥
15. अकाल मृत्यु भय व संकट दूर करने के लिए -
नाम पाहरु दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहि बाट।।

बुधवार, 12 मार्च 2014

लाल आतंक पर लगाम कब ?

अप्रैल मई 2014 के लोकसभा चुनाव में  फिर से बस्तर में वोट गिरेंगे, इस इलाके में देश के सभी बड़े नेता अपनी सभाएं करने कि तैयारी  कर रहे होगे लेकिन सभी इस तथ्य से मुंह मोड़े हुए हैं कि बस्तर संभाग के कोई 182 मतदान केंद्र  ऐसे हैं जिसमे पिछली बार मतदान केंद्रों के स्थान बदले फिर भी वहां वोट नहीं पड़े । कई जगह तो शून्य मतदान हुआ और बाकी में दस से भी कम । प्रशासन भी आशंकित है कि इस बार भी उन स्थानों पर वोट पड़ेंगे कि नहीं । आने वाले दिनों जिन गांवों में कोई भी सियासी दल नहीं पहुंच पायेगा , वहां नक्सली जुलूस निकालगे,आम सभा करेगे और जनता को बतायेगे  कि सरकार व पुलिस उन पर अत्याचार करती है, सो मतदान का बहिष्कार करें । उनकी सभाओं में खासी भीड़ भी पहुंचेगी ।नक्सलवाद की आग में झुलस रहे छत्तीसगढ़ में भी लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज गई है । वैसे तो राज्य का लगभग तीन चौथाई हिस्सा नक्सल हिंसा से प्रभावित है, लेकिन महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उ.प्र., झारखंड और उड़ीसा की सीमाओं के करीबी बस्तर को नक्सलियों की गढ़ या आश्रय स्थल है और ऐसा माना जाता है ।  विडंबना है या फिर कोई सोची-समझी साजिश, वहां पर हिंसा व प्रतिहिंसा कोई चुनावी मुद्दा है ही नहीं। हां यह तय है कि गोलियों के बीच पलायन,, विस्थापन, डर और आशंकाओं ने वहां के बहुल निवासी जनजातियों की बोली, संस्कृति, लोक-रंग सभी पर विपरीत असर डाला है । शायद सत्ता के रास्ते में इन मानवीय संवेदनाओं के कोई मायने नहीं है, सो प्रशासन को चिंता है कि किस तरह नक्सल प्रभावित इलाकों में वोट गिर जाएं और नेताओं की योजना है कि किसी भी तरह ‘उनके वोट’ बटन दबा जाएं। कोई मांग कर रहा है कि उंगली पर स्याही का निशान लगाने के कानून से यहां मुक्ति दे दी जाए, लेकिन कहीं कोई भी दल यह नहीं कह रहा है कि वह इलाके में शांति के लिए पहल करेगा ।
             पुलिश पर इतना बड़ा हमला पहले भी हुआ था जैसा कि अभी कल हुआ है पर मुल्क की राजनीतिक बिरादरी पर नक्सलियों का इतना बड़ा हमला इसके पहले भी हुआ था इसी बस्तर के जीरम घाटी में , जिसमें विद्याचरण शुक्ल से ले कर महेन्द्र कर्मा व नंदलाल पटले तक कई कद्दावर कांग्रेसी नेता मारे गए। उसकी जांच एनआईए के पास है, लेकिन नतीजा वहीं ढाक के तीन पात है। हालांकि इससे पहले चंद्रबाबू नायडू, खुद महेन्द्र कर्मा व नंदलाल पटेल ऐसे हमलों से बच चुके थे। इसके बावजूद सरकारी योजना, केंद्र व राज्य दोनो की; नरसंहार से ज्यादा नहीं रही- नरसंहार अपने ही लोगों का – चाहे वे सरकारी बंदूक लिए हों या फिर सरकारी सिपाहियों से लूटी गईं। सिलसिला अनंत है, यह समझे बगैर कि ना तो लाल सलाम से आदिवासियों का भला हो रहा है और ना ही कोबरा या ग्रेहाउंड के खूंखार कमांडो से। दोनों तरफ बेहद गरीब परिवार से आए लोगों के हाथों में असलहे हैं जो निरूद्देश्य एक दूसरे पर ताने हुए हैं ।
        पिछले साल मई को ही बस्तर के बीजापुर जिले के अर्सपेटा गांव में रात साढ़े नौ बजे सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए आठ ‘‘आतंकवादियों’’ की घटना को याद कर लें, इनमें ‘‘तीन आतंकवादी’’ दस साल से कम उम्र के बच्चे थे, इन आतंवादियों के हाथों में कोई हथियार नहीं थे। सारा गांव अपने घर वालों की लाशें लिए दो दिनों तक थाने को घेरे रहा। यह खबर किसी अखबार के पहले पन्ने पर नहीं आई, टीवी चैनलों के लिए तो इसके कोई मायने ही नहीं थे। आप यह कतई ना समझें कि सुरक्षा बलों की नृशंसता को सामने रख कर नक्सलियों के कायराना हमले को मेरे द्वारा न्यायोचित ठहराया जा सकता है ।
यदि अरण्य में नक्सली समस्या को समझना है तो बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर भी गौर करना जरूरी होगा। दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी हैं, जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं, इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेशी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। इसके साथ ही एक और चौंकाने वाला आंकड़ा गौरतलब है कि ताजा जनगणना बताती है कि बस्तर अंचल में आदिवासियों की जनसंख्या ना केवल कम हो रही है, बल्कि उनकी प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। सनद रहे  2001 की जनगणना में यहां आबादी वृद्धि की दर 19.30 प्रतिशत थी । सन 2011 में यह घट कर 8.76 रह गई है। चूंकि जनजाति समुदाय में कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियां हैं ही नहीं, सो बस्तर, दंतेवाडा, कांकेर आदि में शेष देश के विपरीत महिला-पुरूष का अनुपात बेहतर है। यह भी कहा जाता है कि आबादी में कमी का कारण हिंसा से ग्रस्त इलाकों से लोगों का बड़ी संख्या में पलायन है। ये आंकडे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि आदिवासियों के नाम पर बने राज्य में आदिवासी की सामाजिक हालत क्या है ? यदि सरकार की सभी चार्जशीटों को सही भी मान लिया जाए तो यह हमारे सिस्टम के लिए शोचनीय नहीं है कि आदिवासियों का हमारी व्यवस्था पर भरोसा नहीं है और वे हथियार के बल पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए मजबूर हैं जो कि इन आदिवासियो कि  बहुत बड़ी भूल है अधिकार हथियार से नहीं मिल सकते है ।पर  इतने दमन पर भी सभी राजनीतिक  दल मौन हैं और यही नक्सलवाद के लिए खाद-पानी है ।
     अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की सात साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं – सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है – राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों – ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययोजना का कहीं अता पता नहीं है। बस जब कोई हादसा होता है तो सशस्त्र बलों को खूनखराबे के लिए जंगल में उतार दिया जाता है, लेकिन इस बात पर कोई जिम्मेदारी नहीं तय की जाती है कि एक हजार नक्सली हथियार ले कर तीन घंटों तक गोलियां चलाते हैं, सड़कों पर लैंड माईन्य लगाई जाती हैं और मुख्य मार्ग पर हुई इतनी बड़ी योजना की खबर किसी को नहीं लगती है ।क्यों ? कहा है हमारा खुपिया बिभाग , क्या ये सिर्फ मोटी तनखाह लेकर खर्राटे लेने के लिए है ?  भारत सरकार ''मिजोरम और नगालैंड'' जैसे छोटे राज्यों में शांति के लिए हाथ में क्लाशनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। कश्मीर का उग्रवाद सरेआम अलगाववाद का है और तो भी सरकार गाहे-बगाहे हुर्रियत व कई बार पाकिस्तान में बैठे आतंकी आकाओं से शांतिपूर्ण हल की गुफ्तगूँ करती रहती है, फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश से आए हुए हैं। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग हैं जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं, जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इसकी कोशिशें क्यों नहीं की गईं। याद करें 01 जुलाई 2010 की रात को आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के जंगलों में महाराष्ट्र की सीमा के पास सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी के सदस्य चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद और देहरादून के एक पत्रकार हेमचंद्र पांडे को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। पुलिस का दावा था कि यह मौतें मुठभेड़ में हुई जबकि तथ्य चीख-चीख कर कह रहे थे कि इन दोनों को 30 जून को नागपुर से पुलिस ने उठाया था। उस मामले में सीबीआई जांच के जरिए भले ही मुठभेड़ को असली करार दे दिया गया हो, लेकिन यह बात बड़ी साजिश के साथ छुपा दी गई कि असल में वे दोनों लोग स्वामी अग्निवेश का एक खत ले कर जा रहे थे, जिसके तहत शीर्ष नक्सली नेताओं को केंद्र सरकार से शांति वार्ता करना था। याद करें उन दिनों तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने अपना फैक्स नंबर दे कर खुली अपील की थी कि माओवादी हमसे बात कर सकते हैं। उस धोखें के बाद नक्सली अब किसी भी स्तर पर बातचीत से डरने लगे हैं। इस पर निहायत चुप्पी बड़ी साजिश की ओर इशारा करती है कि वे कौन लोग हैं जो नक्सलियों से शांति वार्ता में अपना घाटा देखते हैं । यदि आंकड़ों को देखें तो सामने आता है कि जिन इलाकों में लाल-आतंक ज्यादा है, वहां वही राजनीतिक दल जीतता है जो वैचारिक रूप से माओ-लेनिन का सबसे मुखर विरोधी है ।हालाकि ईसके अपवाद भी हो सकते है । 
                 एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के सरंक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग । बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख । नक्सल आंदोलन के जवाब में ''जातीय सेनाओ '' का स्वरूप कितना बदरंग हुआ और इसकी परिणति बिहार में कई जगह देखने को मिल चुकी है बिहार में माओवादियो और जातीय सेनाओ कि नृशंसता सबके सामने है। बंदूकों को अपनो पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देश नहीं बनाया जा सकता। तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोशिश करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे। कोई नक्सलियों के हाथों मारे गए अपने नेताओं की राख से वोट कबाड़ना चाहता है तो कोई सलवा जुडुम या सुरक्षा बलों की तत्परता की दुहाई दे कर, लेकिन इस रक्तपात के अंत की बात कहीं हो नहीं नहीं रही है । आज ही अपने गृहमंत्री शुसील कुमार सिंदे  ने बयान दिया है ''हमले का बदला लिया जायेगा '' जाहिर है कि उनकी बात महज खोखले बयान से ज्यादा नहीं है । क्या कर रही थी कांग्रेश कि सरकार पिछले कई दशको से ? 

आखिर लोग हिंसा को समाप्त करने के स्थाई हल के लिए बातचीत का रास्ता क्यों नहीं खोलना चाहते ? 

आखिर चुनावों में इतने गंभीर मसले पर कोई भी दल अपनी स्पष्ट नीति क्यों नहीं रखता ?

 शायद सभी को वहां का  खूनखराबा अपने लिए मुफीद ही लगता है ?

शनिवार, 8 मार्च 2014

महिला दिवस पर देश विदेश की सभी महिलाओ को शुभ कामनाये

आज महिला दिवस है , हम सभी मित्र बड़े जोर सोर से सोसल नेट्वर्किंग साइटों में महिलाओ का सम्मान करते हुए ,उनको पुचकारते हुए , खासकर ''कूल डूड'' टाइप अपनी गर्ल फ्रेंड  को इम्प्रेश करने में कुछ ज्यादा ही नैतिकवान दिखाने का प्रयास कर रहे है , मैं भी सोचा चलो मैं भी अपनी जननी (स्त्री) पर कुछ कह दू ।

           मित्रो दरअसल महिला और पुरुष दोनों के दिमाग की सरंचना अलग होती है इसलिए दोनों के सोचने का तरीका भी अलग - अलग होता हैं , अगर छोटे लड़के और लड़कियों को खेलते देखे तो आप गौर करेंगे कि जहा लडको को पसंद होती है कार,बन्दूक या ऐसे ही और तरह के खिलोने जिनसे वो अपनी. प्रभुता /उच्चता दिखा सके , वही लड़किया खेलती मिलेंगी घर- गुडियो से,  इस से पता चलता है कि जहाँ लड़कियाँ शुरू से ही रिश्तों-नातो को जीवन में प्रमुखता से लेती है वही लड़के अपने को.ही  सिद्ध करने पर बल देते हैं और यही से दोनों की  सोच में फरक होना शुरू हो जाता हैं । इस से आगे देखे तो पाएंगे कि पुरुष जहा किसी भी कार्य को छोटे-छोटे टुकड़े में विभाजित कर फिर छोटे-छोटे टुकडो  पर अपना ध्यान केंद्रित कर उनको हल करने की सोचता है और उनको हल भी करता है, वही स्त्री किसी भी कार्य/ समस्या को समग्र  रूप से देखती है वो उसे टुकडो में विभाजित नहीं कर पाती  अगर इसको समझने कि कोशिश करे तो उसके लिए मै उधारण दूँगा मित्रता का जहा महिलाए मित्र को मित्र की तरह ही देखती हैं वो उसे स्त्री और पुरुष के नाते नहीं देखती वही पुरुष मित्र को बहुत जल्दी स्त्री और पुरुष में विभाजित कर देता हैं फिर उसके बाद वो जहा आकर्षित होता हैं वही अपने ध्यान को केंद्रित कर देता हैं और इसको आप सबने अच्छे से यहाँ महसूस भी किया होगा, एक और विषय हैं ''प्यार'' इसमें भी बहुत आसानी से दोनों की सोच में फरक देखा जा सकता हैं जहा स्त्री के लिए प्यार का मतलब प्यार ही हैं वो उसे ''विभाजित'' नहीं करती जबकि पुरुष उसे तुरंत रूमानी और जिस्मानी प्यार में विभाजित कर देता है रूमानी को वो एक तरफ रख देता है और फिर उसके बाद प्यार के मायने अक्सर उसके लिए जिस्मानी हो जाते हैं और उसकी नज़रे उसी तरह से फिर देखने लगती हैं जिस से महिलायों को काफी परेशानी का सामना भी करना पड़ता हैं । तो इन  सब के चलते महिलायों का दायरा बहुत बढ़ जाता है क्योकि वो किसी भी उस चीज को विभाजित नहीं कर पाती जहा उसे कोई निर्णय लेना होता  हैं इसलिए ज्यादातर फिर वो  भ्रमित भी हो जाती  है उसे पता तो होता है कि यह सही है या गलत पर शायद उसके पास  उसको साबित करने के लिए ,विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण की कुछ  कमी होती है क्योकि अभी तक महिलाए घरों में परदे में रहती थी इसलिए दुनिया को ज्यादा देखने /समझने का  मौका नहीं मिलता था पर अब यह बदलता जा रहा है महिलाए भी दुनिया को जानना  समझना चाहती है और इस तरफ बढ़ भी रही हैं आप सब महिलाए जो इस वक्त मेरे लेख को पढ़ रही हैं...वो सब इस बात का प्रमाण है महिलायों के विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण के बारे में इसलिए भी कहा जाता है क्योकि  लड़कियाँ जहा साहित्य में ज्यादा रूचि दिखाती हैं और वही पुरुष ज्यादातर गणित विषय को अपनाते है  कहा जाता है कि  लड़कियों की गणित में रूचि कम होने की  वजह से वो चीजों को छोटे टुकडो में विभाजित कर अपना ध्यान उन पर केंद्रित नहीं कर पाती और गणित में कम रूचि की वजह से ही विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया नहीं कर पाती पर आज के जमाने में यह परिस्तिथि भी बदल रही है और काफी महिलाये भी अब गणित में रूचि लेने लगी है और अब विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण भी रखती है इसीलिए काफी बड़े-बड़े पदों पर भी कार्यरत थी और है जैसे नैना किदवई  इंदिरा नूयी  नीलम धवन ,चंदा कोचर आदि तो वर्त्तमान में किरण वेदी , मीरा कुमार , मायावती ,ममता बनर्जी ,जयललिता आदि पर फिर भी यह संख्या अभी बहुत ही कम हैं । पर शायद अभी इस क्षेत्र में अनुभव भी कम हैं इसलिए जब भी ऐसी परिस्थितिया उत्पन्न होती हैं तब स्त्री को  कुछ नहीं सूझता  कि  वो क्या करे और वो अपने परिजन पुरुषों की तरफ उन समस्याओ के समाधान के लिए भी देखती है  पर पुरुष सोचता है कि महिलायों की  समझ  बहुत कम है और वो उसको अपने से काफी निम्न समझने लगता है और कभी-कभी कुछ पुरुष इसलिए उसकी तौहीन भी करते  हैं पर यह सत्य से बहुत परे हैं क्योकि स्त्रियों का सोच-विचार का दायरा जैसे ऊपर लिखा वो अलग है वो समग्र है वो किसी भी समस्या को अपने और अपने परिवार के फायदे-नुक्सान को सोचते हुए निर्णय लेने की कोशिश करती हैं वही पुरुष के लिए पहले उसकी अपनी उपलब्धि है फिर अपना फायदा उसके बाद बाकी लोग.आते हैं इसलिए वो बाकि लोगो के बारे में ज़रा देर से सोच पाता है और यही सोच स्त्री को पुरुष से अलग करती हैं क्योकि यह दोनों की सोच में बुनियादी फर्क हैं ।

इसलिए अगर इन तथ्यों को ध्यान में रखकर आपस  में बात की जाती हैं तो कोई संदेह नहीं कि  दोनों आपस में एक अच्छा  सामंजस्य स्थापित  करने में सफल हो सकेंगे पर  पुरुष अभी भी इस चीज को नहीं समझा या समझ कर भी मानने को तैयार नहीं होगा तो अपने को नुक्सान में ही पायेगा  जैसा मैंने ऊपर भी लिखा कि महिलाए अब बदल रही हैं   उनमे निर्णय लेने कि क्षमता भी आती जा रही हैं उनमें  समग्र देखने की क्षमता तो है ही इसलिए अब अच्छी प्रबंधन कर्मी भी बनती जा रही हैं आम जिंदगी में भी देखे तो महिलाए घर और दफ्तर का काम ज्यादा आसानी से कर पाती हैं .जबकि  पुरुष सिर्फ दफ्तर का काम करके थक जाता है कुछ और उन्हें बोला जाये तो झुंझला जाता है और अपनी शारीरिक श्रेष्टता की वजह से काबू पाने की कोशिश करता हैं ।

         अब शारीरिक श्रेष्ठता पर आते हैं  यह भी कुछ तो ठीक हैं  पर ज्यादा पुरुष की बनायीं हुई चीज हैं क्योकि वास्तविक तौर पर  .शारीरिक शक्ति से ज्यादा मानसिक शक्ति मायने रखती हैं और पुरुष ने इस मामले में भी  स्त्री की मानसिक शक्ति को अपने अनुरूप किया हुआ हैं उसने इसके लिए  अपने ग्रंथो का सहारा लिया हुआ हैं जहा स्त्री या तो पुरुष के पीछे चलने वाली हैं  जैसे सीता, उर्मिला , रुक्मणि  आदि उनका नाम हमेशा पुरुष के  साथ ही आता हैं जैसा पुरुष ने कह दिया वैसा उन्होंने कर दिया  या फिर संहार का रूप दिखाया जाता हैं  जब उनके प्रति मुश्किलों की  अति हो  जाती हैं तब वो ऐसा रूप धर लेती हैं तब उनके साथ कोई पुरुष नहीं होता और घर चलाने के लिए हमेशा पहला रूप ही अच्छा माना गया  यह हम सब आज भी देखते हैं  हमेशा यही कहा जाता हैं कि सीता की तरह अपनी ससुराल में रहना यह कह कर लड़की को कभी विदा नहीं किया जाता कि ससुराल में दुर्गा बनकर रहना तो महिलाए  को सीता की क्षवि  में ही स्वीकारा  गया दुर्गा वाला रूप आज तक पसंद नहीं किया गया लेकिन दुर्गा को पूजा जाता हैं तो यह सिर्फ महिलाओ का नियंत्रण में रखने के लिए कभी किया गया होगा पर अगर असल में में देखे तो आम तौर पर आम स्त्री का रूप इन दोनों के कही बीच में होता हैं जहा वो जो उसको चाहते हैं उनके साथ सीता बनकर बात करती हैं जो परेशांन  करते हैं उनके साथ दुर्गा वाला रूप भी अख्तियार कर लेती हैं कहने का मतलब है कि आज वो पुरुष की  तरह कर्ता ही हैं इसलिए अब उसकी शक्ति को पहचानना और उसको एक इंसान की  तरह मान देना समय की जरूरत भी हैं और उचित भी है ।
अब समापन पर यही कहना चाहुगा कि सिर्फ आज ही महिला दिवस नहीं बनाये बल्कि रोज रोज महिला दिवस मनाये ,पर मनाने का तरीका बदल दे “नारी को सम्मान से ज्यादा सहयोग दे ,उन्हें जीवन का सम्पूर्ण सुखो का भोग करने दे ”।
मेरी माता जी
मित्रो मेरे जीवन में कई महिलाओ का बहुत प्रभाव रहा है पर सबसे अधिक प्रभाव मेरी माँ का रहा है माता जी का डॉट भरा प्यार -स्नेह और सीख आज भी काम आती है । पर मेरे जीवन में, मैं मेरी पत्नी के प्रभाव को नकार नहीं सकता हु जीवन के पथ पर पत्नी का अतुलनीय सहयोग रहा है उसी का परिणाम है कि आज मैं पत्नी जी के कारण आपने आपको बहुत सुखी और समृद्ध मानता हु । 
मेरी पत्नी श्री मती रेणू सिंह बाघेल

बुधवार, 5 मार्च 2014

हमारे हिस्से का पानी पी रहा है पाकिस्तान


मित्रो केंद्र के उदासीनता का एक और उदाहरण देखिये ।
 



इंदिरा गांधी नहर परियोजना द्वार पंजाब से राजस्थान को भले ही एक साल में आठ मिलियन एकड़ फीट (एमएएफ) पानी मिल रहा हो लेकिन बीते दस सालों में पाकिस्तान इससे कहीं अधिक पानी पी गया। बल्कि यूं कहें कि हमने उसे पानी दिया है । आंकड़ों के मुताबिक 2002-03 से 2013-14 तक 8.8 एमएएफ पानी पंजाब के फिरोजपुर हैड से बहकर पाकिस्तान चला गया । इतने पानी से पाकिस्तान भारत से सटी सीमा में खेती कर रहा है।

जबकि हमें दोहरी मार पड़ रही है ,2006 तक पानी का लीकेज कम था लेकिन बीते चार सालों में पानी पाकिस्तान अधिक जा रहा है इन बीते चार साल में राजस्थान । 2011-12 में तो 20 लाख क्यूसेक से अधिक पानी पाकिस्तान जा चुका है। सिर्फ इतना ही नहीं। भारत से पाकिस्तान गए पानी के बदले पाकिस्तान भारत सरकार से मुआवजा भी मांगता है और केन्द्र सरकार इसका भुगतान करने के लिए बाध्य है । इससे भारत को दोहरी मार पड़ रही है।

जबकि पानी की कमी से इंदिरा गांधी नहर परियोजना के द्वितीय चरण की तीन लाख हैक्टेयर भूमि तक एक बूंद पानी नहीं पहुंच सका । अभी भी यह तय नहीं है कि यहां कब तक पानी पहुंचेगा मगर पाकिस्तान की पौ-बारह जारी है ।


केंद्र सरकार जब तक नहीं हटती है तब तब इस देश की दुर्दशा इसी तरह चलती रहेगे ।

कांग्रेश भगाओ - देश बचाओ । मोदी लाओ - देश बचाओ ॥