शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

! सनातन धर्म और मूर्ति पूजा !

हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहा जाता है, जिसका अर्थ है सदा से अर्थात सृष्टि से आरंभ से चला आने वाला धर्म सत्युग (सतयुग) में धर्म ही सबका शासक था।

न राज्यं नैव राजसीन्न दण्डो नैव दाण्डिक:
धर्मेणैव प्रजा: सर्वारक्ष्यन्ते स्व परस्परमद् ।। (म.मा.)
तब सारी प्रजा धर्म से ही एक दूसरे की रक्षा करती थी, सब लोहोके धर्म में संलग्न होने से कहीं भी अन्याय का नाम निशान नहीं था । किसी का भी मन अधर्म की ओर प्रवृत्त नहीं होता था ऐसी परिस्थिति में किसी नियामक राजा की आवश्यकता नहीं थी ।
        वस्तुत: समस्त जगत एकमात्र धर्म के बल पर ही सुरक्षित और सुस्थिर रहतहै । धर्म विश्व की प्रतिष्ठा है । धर्म शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से है ।
1. धनानि स्त्रोतीनि धर्म-अर्थात जो धर्म प्राणियों को सुखी करने के लिये सब प्रकार से धन धान्य आदि की वृष्टि करता है वह धर्म है ।
2. धारयते इत धर्म: अर्थात जो धर्म पालन पोषण आदि के द्वारा प्राणियों को सब प्रकार से आप्यायित करता हुआ सबको धारण किये रहता है उसे धर्म कहते हैं ।
धर्म में अपार शक्ति है, वह सदा सत्य रूप में है, धर्म सात्रात ईश्वर का सांसारिक रूप है, मनु ने धर्म के दस लक्षमण इस प्रकार बताये हैं ।
घृति: क्षमा दमोडस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। (मनु 6/92)
अर्थात धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना (न्याय पूर्ण जीवन) शरीर के अंदर बाहर की पवित्रता, इंद्रियों पर नियंत्रण, विवेक बुद्धि (सद्बुद्धि) विद्या, सत्य, अक्रोध, इन सबको जिस आध्यात्मिक उर्जा के माध्यम से पाने के लिए मनुष्य ने एक मार्ग खोज निकाला उसे हम अपने अपने धर्म में मूर्ति पूजा कहते हैं। मूर्ति पूजा का संबंध ईश्वर से है । ईश्वर का वास्तविक स्वरूप हम नहीं जानते । हमने अपने धर्म के माध्यम से ही उसे पहचाना उसकी आरादना की, अपना दु:ख सुख उसे ही सुनाया । उसी ने हमारी मनोकामनाएं पूर्ण की । असंख्य मंदिरों में भगवान की सुन्दर प्रतिमाओं (मूर्तिओं) को देखकर हम अपने ईश्वर के आगे नतमस्तक हो गये । हमारे मन के विश्वास को उस अदृश्य शक्ति ने बनाये रखा। अपना आशीर्वाद दिया । अपने धर्म पर किये गये अटूट आस्था का ही परिणाम है कि लोग मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि में अपनी श्रद्धा से उस सर्वशक्तिमान ईश्वर(सबका मालिक एक) के दर्शनार्थ जाते रहते हैं ।
        सनातन धर्म ने हमें ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य कर्म से निवृत होकर पूजा पाठ कर्म करने के लिये प्रेरित किया। आज विश्व के विभिन्न भागों में सनातन धर्मावलंबियों की संख्या लगभग 95 करोड़ से अधिक है। सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसकी धार्णिक सहिष्णुता है । सनातन धर्म सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: के सिद्धांत पर खड़ा है । सनातन धर्म ने देवी देवताओं की पूजा के लिए हमें अपनी इच्छा पर छोड़ दिया है । हम जिसे चाहे उस देवी देवता की आराधना करें, मूर्ति पूजा करें ।
          मूर्ति पूजा के तथ्यों की यदि संक्षिप्त विवेचना की जाय तो मूर्ति पूजा का श्रीगमेश वैदिक सभ्यता से ही माना गया है क्योंकि इसी युग में आध्यात्मिक चिन्तन का उदय हुआ , जिसे वेदान्त कहा गया। तभी अवतारवाद का भी वेद में मंत्र आया प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते (यजु. 31/19) इन्द्रो मायाभि: पुरूरूप ईयते (ऋगवेद सं. 6/47/18) इन्हीं मंत्रों के अनुाद रूप में भगवत गीता में कहा गया है-
अजोडपि सन अव्ययात्मा भूतानामीश्वरोडपि सन
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायमा (4/6)
परमात्मा का विविध प्रकार से पृथ्वी में प्रकट होना ही अवतार है । भगवत गीता में ही धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर भगवान के अवतार को सिद्ध किया है ।
यदा यदा कि धर्मस्य ग्लानिर्भवाते भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।
परित्राणाय सादूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।।
अर्थात -धर्म का ह्रास, अधर्म का अभ्युत्थान होने पर सत्पुरूषों की सुरक्षा और दुराचारी दुर्जनों के विनाश एवं धर्म के संस्थापन के लिए पृथ्वी पर भगवान का अवतार होता है।
यह सत्य है कि हर कोई अपने धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए उस प्रभु के सहारे है जो अदृश्य
है। हमारे चिन्तन में सर्वत्र ईश्वरदर्शन करना ही सर्वोपरि है।
ईशावास्यमिदं सर्वे यत्किं च जगत्यां जगत
सनातन धर्म कहता है कि हम सब ईश्वर के अंश है और सभी को मानवता का भाव रखकर एक दूसरे से स्नेह रखते हुए प्रभु स्मरण करना चाहिए स्वंय भगवान कहते हैं -


    ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम (भगवतगीता 4/11) जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं भी उसको उसी प्रकार भजता हूं। मूर्ति पूजा के साथ हमारा भगवान के सात जन्म से लेकर मृत्यु तक का घनिष्ठ एवं अटूट संबंध है। आवश्यकता है प्रभु के प्रति समर्पित होने और यह मानने की कि मेर ेतो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई मीराबाई की भांति ऐसी अनन्य निष्ठा (दृढ़भाव) हो जाने पर फिर प्रभु की कृपा स्वत: ही बरसने लगती है । संत तुलसीदास जी ने इसी संदर्भ में कहा जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी मूर्ति के भेदों की यदि विवेचना की जाय तो ये आठ प्रकार की है। शैली, दारूमयी, लौही, लेप्या, लेख्या, सैकती, मनोमयी और मणिमयी, इन आठ भेदों के भी दो प्रतक से भेद है चला एवं अचला चला मूर्ति वे हैं जो पिटारी आदि में रखकर सर्वत्र ले जायी जा सकती है । उनमें आवाहन विसर्जन के सात अथवा आवाहन विसर्जन के बिना दोनों प्रकार से पूजा की जा सकती है। अचला मूत्रियां वे हैं जिनमें इष्टदेव का आवाहन और प्राण प्रतिष्ठा करके उन्हें किसी मंदिर में स्थापित किया जाता है। उनकी नियमित पूजा में रोज आवाहन विसर्जन की आवश्यकता नहीं रह जाती है ।
मूर्ति पूजा का इतिहास यह कहता है कि आज से 5000 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता से मूर्ति पूजा प्रारंभ हुई । सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारत भूमि में एक नई सभ्यता का उदय हुआ जिसे इतिहासकारों ने वैदिक सभ्यता कहा। इस सभ्यता की जानकारी का मुख्य स्त्रोत वैदिक साहित्य है। वैदिक सभ्यता के संबंध में प्राथमिक स्त्रोत व जानकारी ऋग्वेद पर आधारित है। यह वेद देवताओं की स्तुति में बने भावपूर्ण श्लोकों का संग्रह है । वैदिक सभ्यता को इतिहसकारों ने दो भागों या कालखण्डों में विभाजित किया है। ऋग्वेद के रचनाकाल 1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. को ऋग्वैदिक काल तथा अन्य वेदों सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के रचनाकाल 1000 ई. पू. से 600 ई. पू. को उत्तर वैदिक काल कहा है । भारत में सर्वप्रथम आर्यो ने सप्त सिंधु या सात नदियों के प्रदेश में निवास किया । यही पर ऋग्वेद की रचना हुई । उत्तर वैदिक काल को बौद्धिक चिंतन एवं ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना जाता है। आध्यात्मिक संस्कृत का विकास इसी काल में हुआ।
यदि मूर्ति पूजा के संदर्भ में विश्व की विभिन्न सभ्यताओं का विश्लेषण किया जाय तो यही ज्ञात होता है कि प्रत्येक सभ्यता के लोग धार्मिक भावनाओ से जुड़े हुए थे और ईश्वर पर उनका विश्वास था। कई सभ्यताओं में मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला, मदिर निर्माण कला काफी विकसित थी । भारत में प्राचीन मंदिरों एवं उत्खनन में पाई गई मूर्तियों की सुरक्षा भारतीय पुरतत्व विभाग ने ली है ।
मूर्ति पूजा के तथ्यों पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि आस्था एवं भावना को उभारने के लिये व्यक्ति को मूर्ति चित्र सदैव प्रतीकारात्मक रूप में चाहिये। आराध्य की मूर्ति की पूजा करके मनुष्य का उसके सात मनोवैज्ञानिक संबंध स्थापित हो जाता है। मन को स्थिर रखने के लिये साधक को मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है मूर्ति में ही वह असीम सत्ता का दर्शन करना चाहता है। भगवान की भव्य मूर्ति के दर्शन से मन को एकाग्र करने में सहजता होती है ।
प्रत्येक मूर्ति में शक्ति निहित होती है । मंदिर में स्थापित की जाने वाली सभी मूर्तियो की वैदिक मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा के उपरान्त वह मूर्ति शक्ति से परिपूर्ण समझी जाती है। अथर्ववेद (2/13/4) में प्रार्थना है हे भगवान आइए और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइए। आपका यह शरीर इस पत्थर की मूर्ति में समाहित हो जाए । वास्तुशास्त्र के अंतर्गत भी उत्तर ईशान कोण में पूजा स्थल अथवा मंदिर की स्थापना हेतु उत्तम स्थान बताया गया है। प्राय: भवन निर्माण में सभी लोग इसी दिशा में अपना पूजा स्थल बनाते हैं ताकि घर में ईश्वर की कृपा से सुख शांति और समृद्धता बनी रहे। अन्तत: यही कहना होगा कि उपासना और ध्यान की उच्च स्तरीय साधना के लिए मूर्ति पूजा से श्रेष्ठ कोई अन्य साधना है ही नहीं।

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