शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

गरीब और गरीबी को मजाक बना दिया है सरकार ने

कांग्रेश सरकार का दावा  है की देश में गरीबी का अनुपात 37.2% से घटकर 21.9% पर हो गया है जबकि जमीनी हकीकत इन AC छाप नेताओं को पता नहीं है ये तो कहते है की 1 रूपये में 5 रुपये में 12 रूपये में खाना मिलता है पेट भर अब बताये जब इनका ये हाल है तो फिर तो इनके आकडे सही होगे ?

सरकार भले ही गरीबी घटाने का डंका पीट रही हो, लेकिन सच्चाई यह है कि गरीबी मापने के लिए उसके पास कोई ठोस पैमाना ही नहीं है। सरकार में ही अलग-अलग कमेटियां व संस्थाएं गरीबों का अलग-अलग आंकड़ा पेश करती रही हैं ।

हालत यह है कि पिछले एक दशक में तीन समितियां गरीबी मापने के तीन पैमाने बता चुकी हैं तो ऐसी दो रिपोर्टे आना अभी बाकी हैं। केंद्र सरकार ने गरीबों की संख्या का आकलन करने के लिए सुरेश तेंदुलकर कमेटी, एनसी सक्सेना समिति व अजरुन सेन कमेटी का अलग-अलग गठन किया। इनकी रिपोर्ट लगभग एक ही समय प्रस्तुत की गई। इनमें सभी कमेटियों ने गरीबों की संख्या का आकलन अपने-अपने पैमाने पर किया। इनमें प्रति व्यक्ति रोजाना की कैलोरी को आधार बनाया गया। इस कैलोरी आधार को समझना आम आदमी के लिए खासा मुश्किल है। इसके मुताबिक शहरी व्यक्ति को रोजाना 2100 और ग्रामीण क्षेत्र में 2400 कैलोरी का पैमाना था। लेकिन इस पर विवाद रहा। इसे भुखमरी का पैमाना तो माना जा सकता है, लेकिन गरीबी का नहीं। बाद में इसकी जगह भोजन, ईधन, बिजली, कपड़े और जूते को पैमाना माना गया। इन पैमानों पर सितंबर, 2011 में तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक देश में गरीबों की संख्या 37.2 फीसद बताई गई।

वहीं, एनसी सक्सेना कमेटी ने गरीबों की तादाद 70 फीसद बता डाली। बात यहीं नहीं रुकी। अजरुन सेन कमेटी ने तो गरीबों की संख्या 77 फीसद तक बताई। सेन कमेटी ने निष्कर्ष निकाला था कि देश की 80 फीसद आबादी 20 रुपये रोजाना पर जिंदगी बसर कर रही है। ऐसे में सरकार ने सबसे कम गरीब बताने वाली तेंदुलकर समिति की सिफारिश को मंजूर कर लिया। लेकिन इस पर हंगामा मचा तो सरकार ने गरीबों की संख्या का निर्धारण करने वाला फार्मूला सुझाने के लिए सी रंगराजन कमेटी का गठन कर दिया। अब इस समिति की रिपोर्ट 2014 में आने वाली है ।

कुल मिलाकर देखा जाए तो सरकार सिर्फ और सिर्फ गरीबी और गरीबो को मजाक बना कर रख दिया है ।

! सनातन धर्म और मूर्ति पूजा !

हिन्दू धर्म को सनातन धर्म कहा जाता है, जिसका अर्थ है सदा से अर्थात सृष्टि से आरंभ से चला आने वाला धर्म सत्युग (सतयुग) में धर्म ही सबका शासक था।

न राज्यं नैव राजसीन्न दण्डो नैव दाण्डिक:
धर्मेणैव प्रजा: सर्वारक्ष्यन्ते स्व परस्परमद् ।। (म.मा.)
तब सारी प्रजा धर्म से ही एक दूसरे की रक्षा करती थी, सब लोहोके धर्म में संलग्न होने से कहीं भी अन्याय का नाम निशान नहीं था । किसी का भी मन अधर्म की ओर प्रवृत्त नहीं होता था ऐसी परिस्थिति में किसी नियामक राजा की आवश्यकता नहीं थी ।
        वस्तुत: समस्त जगत एकमात्र धर्म के बल पर ही सुरक्षित और सुस्थिर रहतहै । धर्म विश्व की प्रतिष्ठा है । धर्म शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से है ।
1. धनानि स्त्रोतीनि धर्म-अर्थात जो धर्म प्राणियों को सुखी करने के लिये सब प्रकार से धन धान्य आदि की वृष्टि करता है वह धर्म है ।
2. धारयते इत धर्म: अर्थात जो धर्म पालन पोषण आदि के द्वारा प्राणियों को सब प्रकार से आप्यायित करता हुआ सबको धारण किये रहता है उसे धर्म कहते हैं ।
धर्म में अपार शक्ति है, वह सदा सत्य रूप में है, धर्म सात्रात ईश्वर का सांसारिक रूप है, मनु ने धर्म के दस लक्षमण इस प्रकार बताये हैं ।
घृति: क्षमा दमोडस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।। (मनु 6/92)
अर्थात धैर्य, क्षमा, मन पर नियंत्रण, चोरी न करना (न्याय पूर्ण जीवन) शरीर के अंदर बाहर की पवित्रता, इंद्रियों पर नियंत्रण, विवेक बुद्धि (सद्बुद्धि) विद्या, सत्य, अक्रोध, इन सबको जिस आध्यात्मिक उर्जा के माध्यम से पाने के लिए मनुष्य ने एक मार्ग खोज निकाला उसे हम अपने अपने धर्म में मूर्ति पूजा कहते हैं। मूर्ति पूजा का संबंध ईश्वर से है । ईश्वर का वास्तविक स्वरूप हम नहीं जानते । हमने अपने धर्म के माध्यम से ही उसे पहचाना उसकी आरादना की, अपना दु:ख सुख उसे ही सुनाया । उसी ने हमारी मनोकामनाएं पूर्ण की । असंख्य मंदिरों में भगवान की सुन्दर प्रतिमाओं (मूर्तिओं) को देखकर हम अपने ईश्वर के आगे नतमस्तक हो गये । हमारे मन के विश्वास को उस अदृश्य शक्ति ने बनाये रखा। अपना आशीर्वाद दिया । अपने धर्म पर किये गये अटूट आस्था का ही परिणाम है कि लोग मंदिरों, गुरूद्वारों, मस्जिदों, गिरजाघरों आदि में अपनी श्रद्धा से उस सर्वशक्तिमान ईश्वर(सबका मालिक एक) के दर्शनार्थ जाते रहते हैं ।
        सनातन धर्म ने हमें ब्रह्ममुहूर्त में उठकर नित्य कर्म से निवृत होकर पूजा पाठ कर्म करने के लिये प्रेरित किया। आज विश्व के विभिन्न भागों में सनातन धर्मावलंबियों की संख्या लगभग 95 करोड़ से अधिक है। सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता उसकी धार्णिक सहिष्णुता है । सनातन धर्म सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया: के सिद्धांत पर खड़ा है । सनातन धर्म ने देवी देवताओं की पूजा के लिए हमें अपनी इच्छा पर छोड़ दिया है । हम जिसे चाहे उस देवी देवता की आराधना करें, मूर्ति पूजा करें ।
          मूर्ति पूजा के तथ्यों की यदि संक्षिप्त विवेचना की जाय तो मूर्ति पूजा का श्रीगमेश वैदिक सभ्यता से ही माना गया है क्योंकि इसी युग में आध्यात्मिक चिन्तन का उदय हुआ , जिसे वेदान्त कहा गया। तभी अवतारवाद का भी वेद में मंत्र आया प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते (यजु. 31/19) इन्द्रो मायाभि: पुरूरूप ईयते (ऋगवेद सं. 6/47/18) इन्हीं मंत्रों के अनुाद रूप में भगवत गीता में कहा गया है-
अजोडपि सन अव्ययात्मा भूतानामीश्वरोडपि सन
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायमा (4/6)
परमात्मा का विविध प्रकार से पृथ्वी में प्रकट होना ही अवतार है । भगवत गीता में ही धर्म की रक्षा के लिए पृथ्वी पर भगवान के अवतार को सिद्ध किया है ।
यदा यदा कि धर्मस्य ग्लानिर्भवाते भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।
परित्राणाय सादूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।।
अर्थात -धर्म का ह्रास, अधर्म का अभ्युत्थान होने पर सत्पुरूषों की सुरक्षा और दुराचारी दुर्जनों के विनाश एवं धर्म के संस्थापन के लिए पृथ्वी पर भगवान का अवतार होता है।
यह सत्य है कि हर कोई अपने धर्म की रक्षा और अधर्म के विनाश के लिए उस प्रभु के सहारे है जो अदृश्य
है। हमारे चिन्तन में सर्वत्र ईश्वरदर्शन करना ही सर्वोपरि है।
ईशावास्यमिदं सर्वे यत्किं च जगत्यां जगत
सनातन धर्म कहता है कि हम सब ईश्वर के अंश है और सभी को मानवता का भाव रखकर एक दूसरे से स्नेह रखते हुए प्रभु स्मरण करना चाहिए स्वंय भगवान कहते हैं -


    ये यथा मां प्रपधन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम (भगवतगीता 4/11) जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं भी उसको उसी प्रकार भजता हूं। मूर्ति पूजा के साथ हमारा भगवान के सात जन्म से लेकर मृत्यु तक का घनिष्ठ एवं अटूट संबंध है। आवश्यकता है प्रभु के प्रति समर्पित होने और यह मानने की कि मेर ेतो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई मीराबाई की भांति ऐसी अनन्य निष्ठा (दृढ़भाव) हो जाने पर फिर प्रभु की कृपा स्वत: ही बरसने लगती है । संत तुलसीदास जी ने इसी संदर्भ में कहा जाकि रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी मूर्ति के भेदों की यदि विवेचना की जाय तो ये आठ प्रकार की है। शैली, दारूमयी, लौही, लेप्या, लेख्या, सैकती, मनोमयी और मणिमयी, इन आठ भेदों के भी दो प्रतक से भेद है चला एवं अचला चला मूर्ति वे हैं जो पिटारी आदि में रखकर सर्वत्र ले जायी जा सकती है । उनमें आवाहन विसर्जन के सात अथवा आवाहन विसर्जन के बिना दोनों प्रकार से पूजा की जा सकती है। अचला मूत्रियां वे हैं जिनमें इष्टदेव का आवाहन और प्राण प्रतिष्ठा करके उन्हें किसी मंदिर में स्थापित किया जाता है। उनकी नियमित पूजा में रोज आवाहन विसर्जन की आवश्यकता नहीं रह जाती है ।
मूर्ति पूजा का इतिहास यह कहता है कि आज से 5000 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता से मूर्ति पूजा प्रारंभ हुई । सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भारत भूमि में एक नई सभ्यता का उदय हुआ जिसे इतिहासकारों ने वैदिक सभ्यता कहा। इस सभ्यता की जानकारी का मुख्य स्त्रोत वैदिक साहित्य है। वैदिक सभ्यता के संबंध में प्राथमिक स्त्रोत व जानकारी ऋग्वेद पर आधारित है। यह वेद देवताओं की स्तुति में बने भावपूर्ण श्लोकों का संग्रह है । वैदिक सभ्यता को इतिहसकारों ने दो भागों या कालखण्डों में विभाजित किया है। ऋग्वेद के रचनाकाल 1500 ई. पू. से 1000 ई. पू. को ऋग्वैदिक काल तथा अन्य वेदों सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद के रचनाकाल 1000 ई. पू. से 600 ई. पू. को उत्तर वैदिक काल कहा है । भारत में सर्वप्रथम आर्यो ने सप्त सिंधु या सात नदियों के प्रदेश में निवास किया । यही पर ऋग्वेद की रचना हुई । उत्तर वैदिक काल को बौद्धिक चिंतन एवं ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना जाता है। आध्यात्मिक संस्कृत का विकास इसी काल में हुआ।
यदि मूर्ति पूजा के संदर्भ में विश्व की विभिन्न सभ्यताओं का विश्लेषण किया जाय तो यही ज्ञात होता है कि प्रत्येक सभ्यता के लोग धार्मिक भावनाओ से जुड़े हुए थे और ईश्वर पर उनका विश्वास था। कई सभ्यताओं में मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला, मदिर निर्माण कला काफी विकसित थी । भारत में प्राचीन मंदिरों एवं उत्खनन में पाई गई मूर्तियों की सुरक्षा भारतीय पुरतत्व विभाग ने ली है ।
मूर्ति पूजा के तथ्यों पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि आस्था एवं भावना को उभारने के लिये व्यक्ति को मूर्ति चित्र सदैव प्रतीकारात्मक रूप में चाहिये। आराध्य की मूर्ति की पूजा करके मनुष्य का उसके सात मनोवैज्ञानिक संबंध स्थापित हो जाता है। मन को स्थिर रखने के लिये साधक को मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है मूर्ति में ही वह असीम सत्ता का दर्शन करना चाहता है। भगवान की भव्य मूर्ति के दर्शन से मन को एकाग्र करने में सहजता होती है ।
प्रत्येक मूर्ति में शक्ति निहित होती है । मंदिर में स्थापित की जाने वाली सभी मूर्तियो की वैदिक मंत्रों से प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा के उपरान्त वह मूर्ति शक्ति से परिपूर्ण समझी जाती है। अथर्ववेद (2/13/4) में प्रार्थना है हे भगवान आइए और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइए। आपका यह शरीर इस पत्थर की मूर्ति में समाहित हो जाए । वास्तुशास्त्र के अंतर्गत भी उत्तर ईशान कोण में पूजा स्थल अथवा मंदिर की स्थापना हेतु उत्तम स्थान बताया गया है। प्राय: भवन निर्माण में सभी लोग इसी दिशा में अपना पूजा स्थल बनाते हैं ताकि घर में ईश्वर की कृपा से सुख शांति और समृद्धता बनी रहे। अन्तत: यही कहना होगा कि उपासना और ध्यान की उच्च स्तरीय साधना के लिए मूर्ति पूजा से श्रेष्ठ कोई अन्य साधना है ही नहीं।

बुधवार, 17 जुलाई 2013

!तब भूख से मरते थे और अब खा कर मरते है !



अभी तक भारत के बच्चे भूख और कुपोषण से मर रहे थे लेकिन अब तो वे खाना खाकर मर रहे हैं। बिहार में जहरीला मिड डे मील खाकर 22 बच्चों की मौत हो गई। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का दम भरने वाले भारत के लिए यह घटना शर्मनाक है।

कुपोषण देश के माथे पर कलंक 
लाख कोशिशों के बाद भी हम कुपोषण का दाग नहीं धो पाए हैं। कुपोषण की गंभीर समस्या के कारण प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पड़ा था कि यह पूरे देश के लिए शर्मनाक है। भूख और कुपोषण संबंधी एक रिपोर्ट जारी करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए सरकार केवल बाल विकास योजनाओं के भरोसे नहीं रह सकती।

भारत में 42 फीसदी बच्चे कुपोषित

दुनिया के 10 करोड़ कुपोषित बच्चों में से सबसे ज्यादा एशिया में हैं। खासतौर पर भारत में। हालांकि अफ्रीका की स्थिति इस मामले में एशिया से भी बुरी है। नदीं फाउंडेशन और सिटीजन अलाएंज मैलन्यूट्रिशन नामक संगठन की ओर से जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आज भी 42 फीसदी से ज्यादा बच्चे कम वजन के हैं। एक सर्वे के मुताबिक कुपोषण से होने वाली बीमारियों के कारण हर रोज तीन हजार बच्चे काल के ग्रास बन रहे हैं।

भूख और कुछ तारीखें

1966 में भारत ने खाद्यान की उपलब्धता बढ़ाने के लिए हरित क्रांति की शुरूआत की। 1975 में गरीबी हटाओ का नारा देने के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने बीस सूत्री कार्यक्रम शुरू किया। 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने भूख और गरीबी से लड़ने के लिए समेकित विकास कार्यक्रम शुरू किया। 1995 में स्कूलों में मिड डे मिल योजना शुरू हुई ताकि गरीब परिवारों को भूख से लड़ने में मदद मिल सकें। 2000 में राजग सरकार ने निर्धन परिवारों को 35 किलो अनाज प्रतिमाह देने के लिए अंत्योदय योजना शुरू की। 2001 में रोजगार और खाद्य सुरक्षा के लिए राजग सरकार ने सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना शुरू की। 2013 में कुपोषण की समस्या को दूर करने के लिए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून लाया। जब खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम लागू हो जाएगा तब यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम होगा। इस योजना पर एक लाख 25 हजार करोड़ रूपए खर्च होंगे। इस योजना से 67 फीसदी लोगों को सस्ते दाम पर अनाज मिलेगा।

हर 8वां व्यक्ति भूखा .हो रहा भारत निर्माण ?

गरीबी उन्मूलन के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य हासिल करने के बावजूद विश्व में 1.2 अरब लोग अब भी गरीबी में जीन को विवश हैं और हर आठवां व्यक्ति भूखे पेट सोता है। संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 1990 से लेकर 2015 तक अत्यंत गरीबों यानी एक डालर प्रतिदिन पर गुजारा करने वाले लोगों की संख्या आधी करने का लक्ष्य रखा था। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य 2013 पर संयुक्त राष्ट की हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा खराब स्थिति उप सहारा अफ्रीकी देशों की है। यहां की आधी आबादी रोज मात्र 1.25 डालर पर जीवन यापन कर रही है। यह अकेला ऎसा क्षेत्र हैं जहां 1990 से 2010 के बीच अत्यंत गरीबों की संख्या बढ़ी है। यहां वष्ाü 1990 में कंगाली की हालत में जीने वालों की संख्या 29 करोड़ थी और 2010 में यह बढ़कर 41 करोड़ 40 लाख हो गई।

लक्ष्य हासिल करने के मामले में दक्षिण एशिया में सबसे खराब स्थिति भारत की है जबकि चीन असाधारण प्रगति के सबसे आगे है। भारत को छोडकर दक्षिण एशिया के सभी देशों ने अत्यंत गरीबों की संख्या आधी करने के लक्ष्य को समय से पहले ही हासिल कर लिया है। हालांकि संयुकत राष्ट्र को उम्मीद है कि भारत भी तय समय में लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। वर्ष 1990 में चीन में अत्यंत गरीबी की दर 60 प्रतिशत थी जबकि भारत में 1994 में यह 49 प्रतिशत थी। वर्ष 2005 में भारत में यह दर मात्र 42 प्रतिशत पर पहुंची जबकि इसी वर्ष चीन में यह 16 प्रतिशत पर आ गई। वर्ष 2010 में भारत में यह दर 33 प्रतिशत पर पहुंची जबकि चीन में यह कम होकर 12 प्रतिशत रह गई।

विकासशील देशों में अत्यंत गरीबों का प्रतिशत 1990 के 47 प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2010 में घटकर 22 पर आ गया है। संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों की बदौलत इन देशों के करीब 70 करोड़ लोगों को कंगाली की स्थिति से बाहर निकाला जा चुका है। अंतरराष्ट्रीय संस्था के अनुसार सबसे ज्यादा गरीबी उन देशों में हैं जहां शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति खराब होने के कारण रोजगार की स्थिति चिंताजनक है तथा प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो गए हैं या जहां संघर्ष, कुशासन और भ्रष्टाचार व्याप्त है।

शनिवार, 13 जुलाई 2013

मोदी का पूरा इंटरव्यू इस प्रकार है:








भाजपा चुनाव समिति का अध्यक्ष बनने के बाद पहली बार मोदी ने कोई इंटरव्यू दिया है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स को अपने गांधीनगर स्थित सरकारी आवास पर इंटरव्यू देते हुए उन्होंने कहा कि मैं पैदाइशी राष्ट्रवादी हिंदू हूं। सवाल-जवाब के दौरान पत्रकार ने जब पूछा कि क्या आपको 2002 में जो हुआ, उस पर पछतावा है? तो मोदी ने कहा कि यदि आप कार ड्राइव कर रहे हों, या पिछली सीट पर ही बैठे हों और कार के नीचे कुत्ते का बच्चा आकर मर जाए तो दुख होगा ही। आखिर हम इंसान हैं। 

सवाल : असली मोदी कौन, हिंदू नेता या कारोबार समर्थक मुख्यमंत्री? 
मोदी ने कहा : मैं देशभक्त हूं। राष्ट्रभक्त हूं। मैं जन्म से हिंदू हैं। इस तरह मैं हिंदू राष्ट्रवादी हूं। जहां तक काम के प्रति जुनूनी जैसी बातें हैं, तो ये उनकी हैं जो ये कह रहे हैं। इसलिए दोनों का कोई विरोध नहीं है। यह एक ही है। 
 
प्रश्न : लोग आपको अब भी 2002 के दंगों की नजरों से देखते हैं, क्या झुंझलाहट नहीं होती? 
उत्तर : लोगों को आलोचना का अधिकार है। यहां हर किसी का अपना दृष्टिकोण है। मुझे परेशानी तब होती, जब मैंने कुछ गलत किया होता। झुंझलाहट तब होती, जब आप सोचते हैं कि मैं पकड़ा गया। 
 
प्रश्न : 2002 में जो कुछ हुआ उस पर आपको अफसोस है? 
उत्तर : भारत का सुप्रीम कोर्ट दुनिया में अच्छी अदालत के तौर पर जाना जाता है। सुप्रीम कोर्ट के बनाए विशेष जांच दल (एसआईटी) की रिपोर्ट में मुझे पूरी तरह क्लीनचिट दी गई। इससे अलग एक बात... कोई भी व्यक्ति जो कार ड्राइव कर रहा हो और हम पीछे बैठे हों। कुत्ते का एक छोटा बच्चा पहिए के नीचे आ जाए तो दुख होगा कि नहीं? जरूर दुख होगा। मैं मुख्यमंत्री हूं या नहीं, लेकिन मैं एक इंसान हूं... यदि कहीं कुछ बुरा होता है तो यह स्वाभाविक है कि बुरा लगेगा। 
 
प्रश्न : लेकिन क्या आप समझते हैं कि 2002 में आपने सही किया? 
उत्तर : बिलुकल। ईश्वर ने जितनी बुद्धि दी, जो भी मेरा अनुभव था और उन परिस्थितियों में जो संभव था वह मैंने किया। एसआईटी ने भी यही कहा। 
 
प्रश्न : भारत को सेकुलर लीडर चाहिए? 
उत्तर : जरूर... लेकिन सेकुलरिज्म की परिभाषा क्या हो? मेरे लिए धर्मनिरपेक्षता है इंडिया फस्र्ट। मेरी पार्टी की फिलॉसफी है ‘सभी के लिए न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं’। 
 
प्रश्न : अल्पसंख्यकों से वोट कैसे मांगेंगे? 
उत्तर : हिंदुस्तान के नागरिक वोट करते हैं। हिंदू और मुस्लिम, मैं इसे बांटने के पक्ष में नहीं हूं। मैं इस पक्ष में भी नहीं हूं कि हिंदू और सिख को बांटा जाए। सभी नागरिक, वोटर मेरे देश के लोग हैं। धर्म आपके लोकतांत्रिक प्रकिया का हिस्सा नहीं होना चाहिए। 
 
प्रश्न : विरोधी कहते हैं आप तानाशाह हैं, समर्थक कहते हैं निर्णायक नेता हैं। असली मोदी कौन है? 
उत्तर : आप खुद को नेता कहते हैं तो आपको निर्णायक होना होगा। आप निर्णायक हैं तो आपके नेता बनने की संभावना अधिक है। लोग उनसे निर्णय चाहते हैं। तभी वह नेता स्वीकार्य होता है। यह गुण है, इसे बुरा नहीं मानना चाहिए। दूसरी बात यह है कि यदि कोई व्यक्ति तानाशाह है तो वह कई वर्षों तक सरकार कैसे चला सकता है। 
 
सवाल : सहयोगी आपको विवादित मानते हैं? 
 
उत्तर : इस बारे में अब तक मेरी पार्टी या मेरे सहयोगी दलों में से किसी का भी औपचारिक बयान न मैंने सुना है और न ही पढ़ा है। मीडिया में ऐसी बातें आती होंगी। लेकिन यदि आप किसी का नाम बताएं तो मैं इस सवाल का जवाब दे सकता हूं। 
 
प्रश्न : आपकी पार्टी के लोग ही कहते हैं कि आप धु्रवीकरण करते हैं? 
 
उत्तर : यदि अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन के बीच ध्रुवीकरण न हो तो लोकतंत्र कैसे काम करेगा? यह होना ही है। यह लोकतंत्र की बुनियादी प्रवृत्ति है। यदि सब लोग एक ही दिशा में जाने लगे तो क्या आप इसे लोकतंत्र कहेंगे? 
 
सवाल : कहा जाता है आप आलोचना पसंद नहीं करते। 
 
उत्तर : मैं हमेशा कहता हूं कि लोकतंत्र की ताकत ही आलोचना है। यदि आलोचना नहीं है तो इसका मतलब है कि लोकतंत्र नहीं है। और यदि आप बढऩा चाहते हैं तो आलोचना को जरूर आमंत्रित करिए। और मैं उन्नति चाहता हूं, मैं आलोचनाओं को आमंत्रित करता हूं। लेकिन मैं आरोपों के खिलाफ हूं। आलोचना और आरोपों के बड़ा फर्क है। आलोचना के लिए आपको रिसर्च करना होगा। घटनाओं की तुलना करनी होगी। लेकिन आरोप लगाना आसाना है। लोकतंत्र में आरोप हालात बेहतर नहीं करते। इसलिए मैं आरापों के खिलाफ हूं। लेकिन आलोचना आमंत्रित करता रहता हूं। 
 
सवाल : जनमत सर्वेक्षणों में आप अधिक लोकप्रिय बताए जा रहे हैं, कैसे? 
 
उत्तर : 2003 के बाद से कई सर्वे हुए। लोगों ने मुझे सबसे बेहतर मुख्यमंत्री चुना। सबसे अच्छे मुख्यमंत्री के तौर पर सिर्फ गुजरात के लोगों ने नहीं चुना, राज्य के बाहर लोगों ने भी वोट दिए। एक बार तो मैंने इंडिया टुडे समूह के अरुण पुरी को चिट्ठी भी लिखी। मैंने उनसे कहा हर बार मैं ही विजेता होता हूं। इसलिए अगली बार से गुजरात को छोड़ दिया जाए। ताकि किसी और को भी जीतने का अवसर मिले। नहीं तो मैं ही जीतता रहूंगा। कृपया मुझे प्रतियोगिता से बाहर करिए। 
 
सवाल : यदि आप प्रधानमंत्री बने तो किस नेता का अनुकरण करेंगे? 
 
उत्तर : पहली बात तो ये कि मेरी लाइफ की एक फिलॉसफी है मैं कभी कुछ बनने के सपने नहीं देखता। मैं कुछ करने के सपने देखता हूं। मुझे रोल मॉडल से प्रेरणा लेने के लिए मुझे कुछ बनने की जरूरत नहीं है। यदि मैं वाजपेयी से कुछ सीखना चाहूंगा तो मैं उसे फौरन गुजरात में अमल में लाऊंगा। इसके लिए मुझे दिल्ली के सपने देखने की जरूरत नहीं है। यदि मुझे सरदार पटेल की कोई बात अच्छी लगेगी तो मैं उसे गुजरात में लागू कर सकता हूं। यदि मुझे गांधीजी में कुछ बात अच्छी लगेगी तो मैं उसे लागू कर सकता हूं। प्रधानमंत्री पद के बारे में बहस करने के बदले हमे इस पर बात करनी चाहिए कि हम हर किसी से कुछ सीख सकते हैं। 
 
सवाल : अगली सरकार के सामने क्या लक्ष्य होना चाहिए? 
 
उत्तर : जो कोई भी नई सरकार बनाए, उसका पहला लक्ष्य होना चाहिए लोगों के टूटे हुए भरोसे को फिर से कायम करना। नीतियों में निरंतरता होनी चाहिए। यदि लोगों से कोई वादा किया है तो उसका सम्मान करना चाहिए। उसे पूरा करना चाहिए। तब आप खुद को वैश्विक स्तर पर स्थापित कर सकेंगे। 
 
सवाल : लोग कहते हैं कि गुजारत की आर्थिक तरक्की हवा बनाई गई है... 
 
उत्तर: लोकतंत्र में फाइनल जज कौन है? सिर्फ वोटर। यदि यह सिर्फ हवाई बातें होतीं तो लोग रोज देख रहे हैं। मोदी कहते हैं कि उन्होंने पानी पहुंचाया। तो लोग कहते मोदी झूठ बोल रहा है। पानी नहीं मिला। तो वे मोदी को क्यों पसंद करते? भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में इतने सारे सक्रिये पार्टियों के बीच यदि कोई तीसरी बार जीत कर आता है, दो-तिहाई बहुमत हासिल करने के करीब पहुंचता है तो इसका मतलब है कि लोग महसूस करते हैं कि जो कहा गया वह सही था। सड़कें बनी हैं, कम हुआ है, बच्चों को शिक्षा मिल रही है, सेहत सुधरी है। 108 सेवा हर कहीं दिख रही है। कोई कह सकता है कि हवा बनाई जा रही है, लेकिन लोग इस पर भरोसा नहीं करेंगे। और उनमें बहुत ताकत है। 
 

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत..

अरब देश का भारत , महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से एतिहासिक सम्बन्ध प्रमाणित हैं , यहाँ तक की “ हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया “ के लेखक साईक्स का मत हैं की अरब का नाम महर्षि भृगु के पौत्र और्व के ही नाम पर पड़ा जो विकृत होकर “अरब” हो गया | भारत के उत्तर – पश्चिम में इलावर्त था , जहा दैत्य और दानव बसते थे , इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी – पश्चिमी भाग , ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मलित था | आदित्यो का निवास स्थान देवलोक भारत के उत्तर – पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रो में रहा था | बेबीलोन की प्राचीन गुफाओ में पुरातात्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले हैं , उनमे विष्णु को हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया हैं | उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा था , इसी कारण देवों , दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर १२ बार युद्ध “देवासुर संग्राम” हुए | देवतावों के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री जयंती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था की शुक्र उनके ( देवों ) के पक्षधर बन जायेंगे , लेकिन शुक्र दैत्यों के गुरु बने रहे | यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वो उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक रहे | साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ “ हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया “ में लिखा हैं की ‘ शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब ‘ | अरब में शुक्राचार्य का इतना मान सम्मान हुआ की आज जिसे ‘काबा’ कहते हैं वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके अराध्य भगवान् शिव का ही मंदिर हैं| कालांतर में काव्य नाम विकृत होकर ‘काबा’ प्रचलित हुआ | अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से ‘जुम्मा’ (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते हैं |

“ वृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योsसुराणाम् “ – जैमिनिय ब्रा. (01-125)

अर्थात वृहस्पति देवो के पुरोहित थे औरउशना काव्य ( शुक्राचार्य ) असुरो के |

प्राचीन अरबी काव्य संग्रह ग्रन्थ ‘सेअरुल – ओकुल’ के 257 वें पृष्ठपर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुएलबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदोंको जो सम्मान दिया हैं , वह इस प्रकार हैं –

“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे |

व् अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन ||1||
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सह्बी अरवे अतुन जिकरा |
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंद्तुन ||2||

यकूलूनुल्लाहः या अह्लल अरज आलमीन फुल्ल्हुम|
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन ||3||

वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहेतन्जीलन |

फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअनयोवसीरीयोनजातुन ||4||
जईसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का –अ-खुबातुन |
व असनात अलाऊढन व होवा मश-ए-रतुन ||5||

अर्थात –

हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे ) तू धन्य हैं , क्योकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना हैं ||1||

वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश , जो चार प्रकार स्तंभों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता हैं , यह भारत वर्ष (हिंद तुन ) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ ||2||

और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता हैं की वेद , जो मेरे ज्ञान हैं , इनके अनुसार आचरण

करो ||3||

वह ज्ञान के भण्डार साम व यजुर हैं , जो ईश्वर ने प्रदान किये हैं | इसलिए, हे मेरे भाईयो ! इनको मानो , क्योकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं ||4||

और दो उनमे से ऋक , अतर ( ऋग्वेद ,अथर्ववेद ) जो हमें भातृत्व की शिक्षा देते हैं और जो इनकी शरण में आ गया , वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता हैं |

इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप मेंजन्मे थे , और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से सम्बन्ध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न – भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गवाने पड़े |उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केंद्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो की भगवान् शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी देवताओ के अनन्य उपासक थे , उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे | बाद में मोहम्मद के नए सम्प्रदाय ने उन्हें इर्ष्या वश अबुल जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निंदा की |

जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया , उससमय वहा वृहस्पति , मंगल , अश्वनी कुमार , गरुड़ , नृसिंह की मुर्तिया प्रतिष्ठित थी | साथ ही एक मूर्ति वहा विश्वविजेता महाराज बलि की भी थी और दानी होने की प्रसिद्धि से उनका एक हाथ सोने का बना था | ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्तियों के बराबर रखी थी | मुहम्मद ने उन सब मूर्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुँए में फेक दिया ,किन्तु तोड़े गए शिवलिंग का एक टुकड़ा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित हैं , वरन हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले ( अश्वेत ) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चुमते हैं |

प्राचीन अरबों ने सिंध को सिंध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशो को हिन्द निश्चित किया | सिंध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक हैं | इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानी लगभग 1800 ईसवी पूर्व भी अरब में हिन्द एवं हिन्दू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था |

अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थीतथा उस समय ज्ञान –विज्ञान , कला कौशल , धर्म –संस्कृति आदि में भारत (हिन्द) के साथ उसके प्रगाढ़ सम्बन्ध थे | हिन्द नाम अरबों को इतना प्यारा लगाकि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चो के नाम भी हिन्द पर रखे |

अरबी काव्य संग्रह ग्रन्थ ‘सेअरुल-ओकुल’ के 253 वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचाउमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता हैं जिसमे उन्होंने हिंदे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया हैं | हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता नईदिल्ली स्थित मंदिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर ( बिडला मंदिर ) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुयी हैं , जो इस प्रकार हैं –

“कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक |

कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ||1||

न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा |

वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ||2||

व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ |

मनोजेल इल्मुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू||3||

व सहबी वे याम फीम कामिल हिंदे यौमन |

व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरु ||4||

मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्ल्हूम |

नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ||5||

अर्थात –

वह मनुष्य जिसने अपना सारा जीवन पाप और अधर्म में बिताया हो , काम , क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो ||1||

यदि अंत में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे , तो क्या उसका कल्याण हो सकता हैं ? ||2||

एक बार भी वह सच्चे ह्रदय से वह महादेवजी की पूजा करे , तो धर्म – मार्ग में उच्चसे उच्च पद को पा सकता हैं ||3||

हे प्रभु , मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत ( हिन्द ) के निवास का दे दो , क्योकि वहा पंहुचकर मनुष्य जीवन – मुक्त हो जाता हैं ||4||

वहा की यात्रा से सारे शुभ कर्मो कीप्राप्ति होती हैं और आदर्श गुरुजनों ( गबुल हिन्दू ) का सत्संग मिलता हैं |

सोमवार, 8 जुलाई 2013

हम अपने लिए कब जीते है ?

जब हम छोटे होते हैं तो हमारे पेरेंट्स हमें एक बात जरूर सिखाते हैं कि बेटा सबसे प्यार करना चाहिए। इस बात को हम ताउम्र निभाते भी हैं लेकिन दूसरे की केयर, प्यार, सम्मान आदि करते- करते हम कहीं न कहीं अपने-आपको प्यार करना भूल जाते हैं। हम दूसरों से तो ख्वाहिश करते हैं कि वो हमें प्यार करें लेकिन हम खुद को ही कहां प्यार कर पाते हैं। अगर आप दिल पर हाथ रख कर अपने आप से पूछें तो पाएंगे कि पूरे दिनभर में आप कितना वक्त, कितना ध्यान अपने ऊपर दे पाते हैं। अपने आप से भी आपका एक अनदेखा, अनकहा रिश्ता होता है।

यह तो आप क्या हम सभी मानते हैं कि कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं होता। तो भाई आप कैसे परफेक्ट हो सकते हैं? इसलिए परेशान होने के बजाय एक लिस्ट बनाएं और उस लिस्ट में आपको जितनी भी अपनी खूबियां समझ में आती हैं उन्हें तफसील से लिखें। ऎसी कोशिश करें कि ये खूबियां कम होने के बजाय और ज्यादा बढ़ें। साथ ही अपनी गलत आदतों को जितना हो सके, कम करें। आपको यह समझना होगा कि अपनी गलतियों, कमजोरियों को आप खुद ही खत्म कर सकते हैं कोई और नहीं। इसलिए अपना बेस्ट फ्रेंड खुद बनिए और अपने को प्यार करिए।

लाड़-प्यार अपने लिए भी---


बच्चों को जब लाड़ करते हैं तो उन्हें कितना अच्छा लगता है। क्योंकि वो एक तरह का अपनत्व दर्शाता है। तो फिर आप अपने को क्यों नहीं लाड़ करते , प्यार करते? लाड़ का मतलब ही है किसी को स्पेशल फील करवाना और हम अक्सर अपने आपको स्पेशल फील करवाना भूल जाते हैं। चाहें तो कभी मूड हुआ तो स्पा चले गए या फिर नई हेयरस्टाइल करवा लें, अपने लिए स्पेशल शॉपिंग कर लें। आपको यकीनन अच्छा लगेगा।

आत्मसम्मान है जरूरी---


यह बात आप अपने मन, दिमाग हर जगह बैठा लीजिए कि आप खास हैं और आप अच्छी चीजों को डिजर्व करते हैं। इससे आपका मोरल बूस्ट होता है। लेकिन सबसे जरूरी है आत्मसम्मान भी बरकरार रखना। खुद से प्यार करने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि अपनी जिंदगी आत्मसम्मान के साथ जिएं। किसी को भी अपने आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचाने दें और नहीं इसे किसी के लिए कम करें।

स्वीकार करें खुद को ---


आप अपने को बदलने की बजाय जैसे हैं वैसे ही स्वीकार करें। इसके अलावा अपनी गलतियां भी स्वीकार करना आना चाहिए। जैसे अगर सिगरेट आदि आप पीते हैं तो स्वीकार करें और जानें कि इससे आपको ही नुकसान हो सकता है। बाहरी सौंदर्य की बजाय अपने आंतरिक सौंदर्य पर ज्यादा ध्यान दें। अपने मन की हमेशा सुनें। जबरदस्ती कोई काम मत करें। अपने को अगर आप दिल से प्यार करेंगे तो पूरी दुनिया आपको चाहेगी।

शनिवार, 6 जुलाई 2013

खाद्य सुरक्षा अध्यादेश से कितना खाद्य सुरक्षा दे पायेगी सरकार ?


खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के दायरे में देश की 67 फीसदी आबादी है। इसमें 75 फीसदी ग्रामीण और करीब 50 फीसदी लोग शहरों में रहने वाले हैं। कानून के तहत गरीब परिवारों को 35 किलोग्राम अनाज अंत्योदय अन्न योजना के तहत मिलना जारी रहेगा। तीन रुपये किलो चावल, दो रुपये किलो गेहूं और एक रुपये किलो मोटा अनाज मिलेगा। जबकि उत्तराखंड में पीड़ितों से हुआ मजाक, 280 परिवारों के लिए 150 किलो राशन दिया क्यों ? क्या यह क्रूर मजाक नहीं है उत्तराखंड के निवासियों के साथ !  लेकिन अहम सवाल यह है कि बदलते दौर में लोग खाने-पीने खासकर राशन पर कपड़ों, फुटवियर और घरेलू गैजेट्स की तुलना में बहुत कम खर्च कर रहे हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के वर्ष 2011-12 के शहरी भारतीय के औसत खर्च के आंकड़े ऐसी ही तस्वीर पेश करते हैं। ऐसे में अनाज वह भी सिर्फ चावल, गेहूं और मोटा अनाज देने से सरकार किसका कितना भला कर पाएगी ?

खाद्य सुरक्षा अध्यादेश को कई आर्थिक जानकार देश के खजाने और वित्तीय सेहत के लिए खतरनाक मान रहे हैं। कई लोग इसे किसानों के हितों के खिलाफ भी बता रहे हैं तो कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस अध्यादेश के चलते कुछ समय बाद देश को खाद्यान्न विदेशों से आयात करना पड़ेगा, जो हमें 50-60 के दशक की याद दिलाएगा। हालांकि, केंद्रीय खाद्य आपूर्ति मंत्री केवी थॉमस ने शुक्रवार को दावा किया कि खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लागू होने से सरकार का घाटा नहीं बढ़ेगा। घाटा कैसे नहीं बढेगा इसका जबाब नहीं है मंत्री जी के पास इसका जबाब तो हमारे गुगे PM जी देगे क्या ?1 लाख 24 हजार करोड़ खर्च होंगे तो खजाना हो जाएगा खाली?

खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के तहत बांटने के लिए 612.3 लाख टन अनाज की जरूरत होगी, जिस पर करीब एक लाख 24 हजार 724 करोड़ खर्च का अनुमान लगाया गया है। जाने माने अर्थशास्त्री और कॉरपोरेट हस्ती गुरचरन दास के मुताबिक, 'आम लोगों को करीब-करीब मुफ्त भोजन उन्हें माई-बाप पार्टी पर निर्भर बनाकर छोड़ देगा और वे एक स्थायी वोट बैंक में तब्दील हो जाएंगे। केंद्र में सत्ता पर काबिज कांग्रेस पार्टी की यह बेजोड़ रणनीति है- आम मतदाता और पार्टी लोगों को गरीब और दूसरे पर निर्भर बनाए रखने के लिए प्रेरित होगी।

सड़ता हुआ अनाज कैसे होगा भारत निर्माण ?
यदि यही एक लाख करोड़ रुपए की रकम सार्वजनिक उपयोग की चीजें जैसे सड़क, स्कूल, बिजली और कानून व्यवस्था मुहैया कराने में खर्च की जाती तो इससे नए अवसर पैदा होते। इससे उद्यमी नए व्यवसाय शुरू करने को प्रेरित होते जिससे रोजगार के मौके पैदा होते और सरकार के कर राजस्व में वृद्धि होती। इस रकम को सार्वजनिक उपयोग की जरूरतों पर निवेश किया जा सकता है। इससे समाज का जीवन स्तर ऊंचा उठता।'
  'खाद्य सुरक्षा बिल के साथ कई दूसरे खतरे भी जुड़े हैं। एक सच तो यह है कि देश इतना बड़ा खर्च उठाने की हालत में नहीं है। केंद्र सरकार का ताजा बजट इसकी कहानी बयां करता है कि देश की आर्थिक हालत कितनी खराब है। इस नए खर्च से सरकार का राजकोषीय घाटा और बढ़ेगा और इसकी रेटिंग भी कम होगी। रेटिंग कम होने का मतलब यह है कि वैश्विक बाजार से भारत को मिलने वाला धन और महंगा हो जाएगा। साथ ही, इससे विदेशी निवेशक हतोत्साहित होंगे जबकि फिलहाल उनकी सख्त जरूरत है। इतना ही नहीं, पुराने अनुभव बताते हैं कि ऐसी योजनाओं में गरीबों के पास पहुंचने वाले अनाज का आधे से कम हिस्सा ही वास्तव में उन तक पहुंच पाता है। मतलब यह कि इस बिल के जरिये करीब ढाई करोड़ टन खाद्यान्न ब्लैक मार्केट में पहुंच जाएगा, जो एक नए घोटाले को जन्म देगा और पहले ही घोटालों से घिरी सरकार यह खतरा मोल नहीं ले सकती। इससे भी बड़ी खतरे की घंटी यह है कि लोग बिल के प्रावधानों का फायदा उठाने के लिए अपनी माली हालत की झूठी जानकारी देने को प्रेरित होंगे और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता का स्तर और कमजोर होगा। उदाहरण के लिए कर्नाटक की 83 प्रतिशत आबादी बीपीएल कार्ड के आधार पर खुद के गरीब होने का दावा करती है, जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक राज्य की एक चौथाई से भी कम आबादी वास्तव में गरीब है। इसी तरह, पिछले साल हुई जांच के बाद पश्चिम बंगाल सरकार को पता चला कि राज्य के 40 फीसदी बीपीएल कार्ड फर्जी हैं। उत्तर प्रदेश में हालात इससे भी बदतर हैं। आम लोगों को झूठा बनाने वाला कानून हमारे संविधान निर्माताओं को कभी रास नहीं आता। उनके मन में भारतीय गणतंत्र की जो अवधारणा थी, वह नैतिकता पर आधारित थी- इतनी ज्यादा कि उन्होंने राष्ट्रीय झंडे में धर्म का पहिया माने जाने वाले अशोक चक्र को जगह दी।'

, 'जब हम छोटे थे तो हमारे माता-पिता ने हमें ईमानदारी और कड़ी मेहनत का महत्व बताया था। हमने सीखा था कि जो मेहनत नहीं करते, उन्हें खाना नहीं मिलता। लेकिन जब सरकार लोगों को मुफ्त में चीजें देने लगती है तो इससे उनकी कार्य-संस्कृति कमजोर होती है। यह जिम्मेदारी और धर्म के प्रति हमारी उस भावना को कमजोर करता है, जिसकी शिक्षा हमारे माता-पिता ने हमें दी थी। जब सरकार लोगों को सब्सिडाइज्ड खाद्यान्न, डीजल, रसोई गैस, मनरेगा के तहत रोजगार जैसी चीजें मुफ्त में देना शुरू करती है तो इससे गलत संदेश जाता है। लोगों को लगने लगता है कि बिना मेहनत किए ही उन्हें चीजें मिल सकती हैं। यह भी अधर्म का ही एक रूप है। 1991 के आर्थिक सुधार एक नए अलिखित सामाजिक करार पर आधारित थे जिसने विश्वास का एक नया आधार तैयार किया था। करार यह था कि सरकार व्यावसायिक गतिविधियों से दूर हो जाएगी और सारा ध्यान शासन तथा सार्वजनिक हित के मुद्दों पर केंद्रित करेगी।'
 
     नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 7.4 फीसदी अनाज (गेहूं, चावल) और उसके विकल्पों पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 9.4 फीसदी रुपये खर्च कर रहा था। पिछले पांच साल के आंकड़ों पर गौर करने पर पता चलता है कि औसत शहरी भारतीय अनाज पर सबसे कम खर्च कर रहा है। जबकि यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के जरिए गेहूं, चावल और मोटा अनाज ही देने का फैसला किया है। साफ है कि सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना का एक आम भारतीय के जीवन पर बहुत क्रांतिकारी फर्क आने को लेकर कई शंकाएं हैं। 
      दाल पर एक औसत शहरी भारतीय का खर्च पिछले ६ सालों में न घटा है और न ही बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 2.3 फीसदी दाल खरीदने पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 2.3 फीसदी रुपये ही  खर्च कर रहा था। गौरतलब है कि यूपीए की महत्वाकांक्षी योजना यानी खाद्य सुरक्षा अध्यादेश के तहत पात्रों को दाल नहीं दी जाएगी।
            खाद्य तेल  के मामले में  औसत शहरी भारतीय का खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 2.7 फीसदी चीनी, नमक और मसाले पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 3 फीसदी रकम खर्च कर रहा था इसी प्रकार दूध और उससे जुड़े प्रॉडक्ट पर औसत शहरी भारतीय का खर्च बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 7.8 फीसदी दूध और उससे जुड़े प्रॉडक्ट पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 7.3 फीसदी रकम ही खर्च कर रहा था। आज भी शहरी औसत भारतीय अंडा, मछली और मीट पर अपनी आमदनी का उतना ही हिस्सा खर्च कर रहा है, जितना पांच साल पहले करता था। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 2.8 फीसदी हिस्सा अंडा, मछली और मीट पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 2.8 फीसदी हिस्सा ही खर्च कर रहा था।
        जबकि चीनी ,नमक और मसाले के मद में पिछले पांच-छह सालों में खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 2.8 फीसदी चीनी, नमक और मसाले पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस पर 3 फीसदी रकम खर्च कर रहा था।

       जबकि सिक्षा ओए सेहत के  मद में भी औसत शहरी भारतीय का खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 11.2 फीसदी हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 12.3 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था। 
                 ईधन और रशोई में  एक औसत शहरी भारतीय का ईंधन और रोशनी पर खर्च पिछले पांच सालों में काफी घट गया है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 7.6 फीसदी हिस्सा पेय पदार्थ, पान मसाला, तंबाकू पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 9.4 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था।

       इसी तरह से कंज्यूमर ड्यूरेबल्स  जैसे वॉशिंग  मशीन, फर्नीचर, फ्रिज जैसे हैवी घरेलू आइटमों पर औसत शहरी भारतीय का खर्च पिछले पांच-छह सालों में बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के  आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 6.7 फीसदी हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च कर रहा है। इस मद में औसत शहरी भारतीय का खर्च सबसे ज्यादा बढ़ा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 4 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था। 
शहरों में रह रहे लोगों की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इनदिनों कपड़ा, फुटवियर, बिस्तर और टॉयलेट से जुड़े प्रॉडक्ट पर खर्च हो रहा है। जो यह संकेत देता है कि औसत भारतीय का खर्च अब उन प्रॉडक्ट्स में बढ़ रहा है, जिन्हें आम तौर पर 'लग्जरी' आइटम माने जाते हैं। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 8.9 फीसदी हिस्सा कपड़ा, फुटवियर, बिस्तर और टॉयलेट से जुड़े प्रॉडक्ट पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 6.5 फीसदी हिस्सा ही खर्च कर रहा था। 
               इसी तरह से बिभिन्न प्रोदोक्ट और सेवाओं के इस मद में औसत शहरी भारतीय अपनी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च करता है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 17.7 फीसदी हिस्सा विभिन्न प्रॉडक्ट और सेवाओं पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 20 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था। 
          एक औसत शहरी भारतीय का पेय पदार्थों, पान मसाला और तंबाकू पर खर्च पिछले पांच सालों में बढ़ा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 8.5 फीसदी हिस्सा पेय पदार्थ, पान मसाला, तंबाकू पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 7.3 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था।
            सब्जियों और फल पर एक औसत शहरी भारतीय का खर्च घटा है। एनएसएसओ के वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक एक शहरी भारतीय अपने महीने के औसतन खर्च 2399 रुपये का 5.7 फीसदी हिस्सा सब्जी और फल पर खर्च कर रहा है। जबकि वर्ष 2005-06 में औसत शहरी भारतीय इस मद में अपने औसत खर्च का 6.4 फीसदी हिस्सा खर्च कर रहा था । 
        इस तरह सभी आकड़ो को देखने के बाद लगता है की खाद्य सुरक्षा के नाम पर सरकार 2014 की राजनीतिक गोटी फिट करने का नाकामयाब तरीका अपनाया है पर इस तरीके से कांग्रेश की नैया पार होगी या नहीं ये तो इस देश की जनता ही जाने । पर खाद्य सुरक्षा बिल में कुछ नहीं बहुत कुछ संसोधन की जरुरत है यदि ओ संसोधन कर दिया जाए तो सायद इस देश की 65 % आबादी की भूख मिटाई जा सके यदि भ्रस्ताचार मुक्त प्रसाशन मिला तो
नोट -- सभी तरह के आकडे  नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) से लिया गया है किसी भी तरह की गलत जानकारी के लिए ब्लॉगर जिम्मेदार नहीं होगा

अंतिम संस्कार के अनोखे तरीके !

मृत्यु निश्चित है, जिंदगी और मौत का खेल पृथ्वी पर तब से चला आ रहा है, जब से जीवन चक्र शुरू हुआ। जो आया है उसे जाना ही होगा और जब वह जाता है, तो उसके प्रियजन उसे आंखों में आंसू भरकर विदा करते हैं और करते हैं उसका अंतिम संस्कार।
       सामान्य दफनाने और दाह संस्कार करने की क्रियाओं के अलावा दुनिया में अंतिम संस्कार के ऐसी प्रथाए हैं, जिन्हें जानकर आपको मौत से ज्यादा भयानक यह काम लगेगा। शव के साथ परंपराओं के नाम पर कई सारी चीजें होती हैं और इन्हें जानकर लगेगा की अगर मृत व्यक्ति को अगर पता चलता हो कि मरने के बाद उसके साथ कई जगह ऐसा भी होता है, तो उसे कैसा लगेगा।
        बहरहाल, यह तो एक कल्पना है, लेकिन हम जो आपको बता रहे हैं वह सच्चाई है, जिसे जानने के लिए आगे पढ़िए !


गिद्धों के भरोसे शव तिब्बत में नियिंगमा परंपरा के तहत आकाश के तले अंतिम संस्कार करने का ऐसा विधान है, जहां मृत शरीर को मांसाहारी पक्षियों का भोजन बनने के लिए छोड़ दिया जाता है। जब ये गिद्ध मृत के मांस को नोच-नोच कर खा चुके होते हैं उसके बाद शव की बची हुई हड्यिों के छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते हैं और इसे स्काई बेरीअल कहा जाता है। मृत की आत्मा शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। इस दौरान तिब्बती बुक ऑफ द डेथ भी पढ़ी जाती है।
                                 कोरिया में अंतिम संस्कार
कोरिया में अंतिम संस्कार की विचित्र विधि मृतक के घर में की जाती है। नियम के अनुसार मृतक की मौत के 3 दिन बाद सुबह यह संस्कार किया जाता है। इसके तहत मृतक को उसके पारिवारिक कब्र में दफन किया जाता है। शोकाकुल परिवार अंतिम संस्कार वाले कपड़े पहनता है और यहां की महिलाएं ऐसे हेयर क्लिप और हेयर बैंड पहनती हैं, जो रस्सी या सन से बने होते हैं और प्रतीक होते हैं परिवार के विलाप का।
                             शव के लिए आंसू नहीं बहाना
बाली, इंडोनेशिया में मृतक को जीवित की तरह माना जाता है और कहा जाता है कि वह तो अभी सो रहा है। साथ ही आंसू बहाने पर भी मनाही है.! वे पुर्नजन्म में विश्वास रखते हैं और मानते हैं कि मृत्यु चक्र से मृतात्मा मुक्त हो गई है और उसे मोक्ष मिल गया है और अब मृत नया जन्म ले चुका है।
मृत शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ताबूत में रखा जाता है या फिर एक मंदिर नुमा कागज और लकड़ी का स्ट्रक्चर बनाकर उसके अंदर रखा जाता है और संस्कार स्थल तक बैलों से जुती सवारी में ले जाया जाता है और उसके साथ एक जुलूस होता है। इस मार्च के दौरान विलाप करने वाले ये मानते हैं कि एक लाइन में नहीं चलना चाहिए। वे इस शव यात्रा में इधर-उधर होकर बुरी आत्माओं को भ्रम में डालने की परंपरा निभाते हैं, जो मृत आत्मा का पीछा कर रही होती हैं। इस पूरी अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को नाकाबेन कहा जाता है और फिर अंतिम क्रिया में इस पूरे मंदिरनुमा ढांचे या ताबूत को आग के हवाले करके क्रिया पूरी कर दी जाती है।
                              घर में ही दफनाते हैं शव को
मायन, दक्षिणी मैक्सिको में अधिकतर वर्गों में मृत व्यक्ति को घर में ही दफन करने की परंपरा है और ऐसा माना जाता है कि इस तरह से उनका प्रिय उनके ज्यादा करीब होता है। गरीबी भी इसके पीछे एक वजह बताई जा रही है और अंतिम संस्कार का पैसा व्यवस्था न होने के कारण वहां इस तरह से घर में ही गढ्ढा खोदकर मृत को गाढ़ दिया जाता था और आज भी यह परंपरा कई जगह है। फिलीपींस के अपायाओ आदिवासियों में भी रसोईघर के अंदर मृत को दफनाने की परंपरा है।
                             समंदर में अंतिम संस्कार
समंदर में भी अंतिम संस्कार की क्रिया का विधान कई जगह है। इसके तहत शव को बोट या जहाज से समंदर में डाल दिया जाता है। नेवी और जहाजी बेड़ों के लिए काम करने वाले व समंदर के प्रोफेशन से जुड़े लोगों में संस्कार की यह परंपरा का विधान है। प्राइवेट सिटीजंस को भी उनके धर्म के अनुसार समंदर में संस्कार करने की इजाजत होती है। इसके तहत शव को ताबूत में रखा जाता है। शव न हो तो फिर उसकी मिट्टी या राख को भी समंदर में डाला जाता है।
                                      बैल के मूत्र से पवित्रीकरण
जोरास्ट्रीयन परंपरा के तहत मृत शरीर को बैल के मूत्र को पानी के साथ मिलाकर पवित्र किया जाता है, जिसे गोमेज Gomez  कहा जाता है। केवल प्रोफेशनल जोरास्ट्रीयन ही शव के पास इस क्रिया के लिए जा सकता है और यह शुद्धीकरण कर सकता है। इसके बाद शव को सफेद कपड़े पर लेटाया जाता है। शोकाकुल लोगों को शव को छूने की सख्त मनाही होती है। कुत्ते को दो बार शव के पास इसलिए लाया जाता है कि मृत व्यक्ति को बुरी आत्माओं से मुक्ति मिल सके और कुत्ते की दृष्टि शव पर डलवाई जाती है इस परंपरा को सेगडिड “Sagdid”  कहा जाता है...

इसके बाद शव को पत्थर की एक शिला पर रखा जाता है और इसे गिद्धों का भोजन बनने के लिए छोड़ दिया जाता है और गिद्ध शव का मांस नोच-नोच कर खा जाते हैं। शुद्धीकरण के लिए मृत व्यक्ति के कमरे के बाहर सारी क्रियाएं होने के बाद चंदन और लुभान जलाया जाता है। इनके अंतिम संस्कार स्थल को धकमा या टॉवर ऑफ साइलेंस कहा जाता है। भारत में इस तरह के अंतिम संस्कार के लिए इस समुदाय के लोग बंगली बंगलों का उपयोग करते हैं, जिसे फ्यूनरल होम कहा जाता है, जो अस्थाई मकान होते हैं। इस तरह के बंगली में बेडरूम, बाथ रूम और किचन, डायनिंग रूम सारी व्यवस्थाएं भी होती हैं।
                                         ताबूत को लटकाते हैं
चीन में और फिलीपींस में कई जगह ताबूत में शव को रखकर चट्टानों पर लटकाने की परंपरा भी है और माना जाता है कि मृत ऐसा करने से स्वर्ग के करीब होगा और दक्षिणी चीन में भी यही होता है आदिवासियों की अंतिम संस्कार की परंपरा के तहत।
                                कुर्सी पर बैठाकर अंतिम संस्कार
फिलीपींस के बैंकुएट क्षेत्र के आदिवासियों में मृत व्यक्ति के लिए 8 दिन तक विलाप किया जाता है और फिर शव को कुर्सी पर बैठकार उसके हाथ-पैर और भुजाएं रस्सी से बांधते हैं। फिर इसे घर के प्रवेश द्वारा पर रखा जाता है और कम्युनिटी के सारे लोग एकत्र होकर भजन और गीत के रूप में मृत के जीवन का गान करते हैं और एक पार्टीनुमा आयोजन होता है और शव का चेहरा स्वर्ग की ओर रखने की परंपरा है। टिनक्यूइयन आदिवासियों में मृत को दूल्हे के कपड़े पहनाए जाते हैं और शव को कुर्सी पर बैठाया जाता है और शव के होठों से तंबाखू लगाई जाती है।
शव के मुंह में चॉपस्टिक रखते हैं
वियतनाम में अंतिम संस्कार की अजीब परंपरा के तहत किसी के माता या पिता का देहांत होता है, तो उनके बच्चे इस घटना को स्वीकारते नहीं हैं। शव के दांतों के बीच में इस परंपरा में चॉपस्टिक रखी जाती है और शव को चटाई पर लेटाया जाता है। इसके बाद मृत का बड़ा बेटा या बेटी मृत के सारे कपड़े उतारता है और उन्हें हवा में लहराया जाता है और उसकी आत्मा को पुकार लगाई जाती है कि मृत के शरीर में वह वापस आ जाए। 
इस परंपरा के बाद उसके बालों पर कंघी की जाती है, नाखून काटे जाते हैं और महिला शव को उसी अंदाज में सजाया जाता है और सजीव संसार की गंदगी और धूल को हटाया जाता है शव पर से। फिर वे शव के मुंह में चावल, सोना रखते हैं ताकि मृतात्मा भूखी न रहे और फिर सफेद कफन में लपेट कर उसे दफन कर दिया जाता है।
                                      अंतरिक्ष, अंतिम संस्कार
यह भी अंतिम संस्कार की अजीब परंपरा है इसके तहत मृत के संस्कार की या दफन की मिट्टी को या राख को लिपस्टिक जैसी ट्यूब में रखा जाता है और स्पेस में रॉकेट से लांच कर दिया जाता है। आज से 15 साल पहले टीवी पर आने वाले धारावाहिक स्टार ट्रेक के प्रोड्यूसर और स्क्रीन राइटर जेन रोडेनबेरी का अंतिम संस्कार ऐसे ही हुआ था और वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिनका स्पेस बेरिअल हुआ।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

भारतीय समाज में नैतिक पतन क्यों ?

अभी कुछ दिन पहले ही दो परस्पर विरोधाभाषी खबरें पढ़ने को मिली. पहली यह कि केरल के कुछ  स्कूलों में पढाने वाली महिला शिक्षकों को प्रबंधन ने साडी या सलवार सूट के ऊपर कोट या एप्रिन नुमा कोई वस्त्र पहनने की हिदायत दी ताकि कक्षा में बच्चों का शिक्षिकाओं की शारीरिक संरचना को देखकर ध्यान भंग न हो, साथ ही वे कैमरे वाले मोबाइल का दुरूपयोग कर चोरी-छिपे महिला शिक्षकों को विभिन्न मुद्राओं में कैद कर उनकी छवि से खिलवाड़ न कर सकें. वहीं दूसरी खबर यह थी कि एक निजी संस्थान ने अपनी एक महिला कर्मचारी को केवल इसलिए नौकरी छोड़ने के निर्देश दे दिए क्योंकि वह यूनिफार्म में निर्धारित स्कर्ट पहनकर आने से इंकार कर रही थी. कितने आश्चर्य की बात है कि संस्कारों की बुनियाद रखने वाले शिक्षा के मंदिर की पुजारी अर्थात शिक्षिका के पारम्परिक भारतीय वस्त्रों के कारण बच्चों का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा और दूसरी और निजी संस्थान अपनी महिला कर्मचारियों को आदेश दे रहा है कि वे छोटे से छोटे वस्त्र मसलन स्कर्ट
माँ -बेटी सेक्स रैकेट में फसी हुई है !
पहनकर कार्यालय में आयें ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों का मन शोरूम में लग सके.
जिस पाठशाला में शील,संस्कार, सद्व्यवहार, शालीनता और सच्चाई की सीख दी जाती है वहां बच्चे अपनी आदरणीय शिक्षिकाओं की अशालीन तस्वीर उतारने के लिए बेताब हैं और इन अमर्यादित शिष्यों से बचने के लिए बच्चों को डांटने-डपटने के स्थान पर हम ज्यादा आसान तरीका अपनाकर महिला शिक्षकों को वस्त्रों की परतों में ढककर आने को कह रहे हैं और जहाँ ग्राहक का पूरा ध्यान उस उत्पाद पर होना चाहिए जिसे खरीदने का मन बनाकर वह किसी शोरूम तक आया है वहां की महिला कर्मचारियों को ग्राहकों को रिझाने वाले कपड़े पहनाए जा रहे हैं. क्या किसी समाज का इससे अधिक नैतिक पतन हो सकता है जब गुरु को अपने स्कूल स्तर के शिष्य की वासनात्मक नजरों से डर लगने लगे. क्या बतौर अभिभावक यह हमारा दायित्व नहीं है कि हम बच्चों को मोबाइल फोन की आकस्मिकता से जुडी अहमियत समझाए और किसी भी संभावित दुरूपयोग की स्थिति बनने से पहले ही बच्चे को उसके दुष्परिणामों के बारे में गंभीरता के साथ चेता दें. सबसे बड़ी बात तो यह है कि घर का वातावरण भी इसप्रकार का नहीं होने दें कि हमारा बच्चा स्कूल में पढ़ने की बजाए अपनी गुरुओं की ही अश्लील तस्वीर उतरने की हिम्मत करने लगे. कहां जा रहा है हमारा समाज और हम? ऐसे में तो माँ को अपने बेटे और बहन को अपने भाई के सामने भी बुरका नुमा वस्त्र पहनकर रहने की नौबत आ सकती है. वैसे भी चचेरे,ममेरे और फुफेरे रिश्ते तो कलंकित होने की खबरें आने लगी हैं बस अब शायद खून के रिश्तों की बारी है क्योंकि शिक्षिकाओं को तो हम कोट पहनाकर बचा सकते हैं लेकिन घर में !

        माँ-बहनों,भाभी,बुआ,मामी,चाची और मौसी को घर के ही ‘लालों’ से कितना और कैसे ढककर रखेंगे. क्या ‘एकल परिवार’ में रहने का मतलब सारे रिश्ते-नातों को तिलांजलि दे देना है? देखा जाए तो निगाहों में अशालीनता का पर्दा अभी शुरूआती दौर में है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं बिगडा है क्योंकि आज सोच-समझकर खीचीं गयी संस्कारों की लक्ष्मणरेखा भावी पीढी को कुसंस्कारों के रावण के पाले में जाने से रोक सकती है और यदि समय रहते और समाज से मिल रहे तमाम संकेतों को अनदेखा करने की गलती हम इसीतरह करते रहे तो फिर भविष्य में घर घर चीर हरण करने वाले दुर्योधन-दुशासन नजर आएंगे और बेटियों के शरीर पर कपड़ों की तह पर तह लगानी पड़ेगी.   यह कि केरल शिक्षा समिति के अंतर्गत चलने वाले स्कूलों में पढाने वाली महिला शिक्षकों को प्रबंधन ने साडी या सलवार सूट के ऊपर कोट या एप्रिन नुमा कोई वस्त्र पहनने की हिदायत दी ताकि कक्षा में बच्चों का शिक्षिकाओं की शारीरिक संरचना को देखकर ध्यान भंग न हो, साथ ही वे कैमरे वाले मोबाइल का दुरूपयोग कर चोरी-छिपे महिला शिक्षकों को विभिन्न मुद्राओं में कैद कर उनकी छवि से खिलवाड़ न कर सकें. वहीं दूसरी खबर यह थी कि एक निजी संस्थान ने अपनी एक महिला कर्मचारी को केवल इसलिए नौकरी छोड़ने के निर्देश दे दिए क्योंकि वह यूनिफार्म में निर्धारित स्कर्ट पहनकर आने से इंकार कर रही थी. कितने आश्चर्य की बात है कि संस्कारों की बुनियाद रखने वाले शिक्षा के मंदिर की पुजारी अर्थात शिक्षिका के पारम्परिक भारतीय वस्त्रों के कारण बच्चों का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा और दूसरी और निजी संस्थान अपनी महिला कर्मचारियों को आदेश दे रहा है कि वे छोटे से छोटे वस्त्र मसलन स्कर्ट पहनकर कार्यालय में आयें ताकि ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों का मन शोरूम में लग सके.
जिस पाठशाला में शील,संस्कार, सद्व्यवहार, शालीनता और सच्चाई की सीख दी जाती है वहां बच्चे अपनी आदरणीय शिक्षिकाओं की अशालीन तस्वीर उतारने के लिए बेताब हैं और इन अमर्यादित शिष्यों से बचने के लिए बच्चों को डांटने-डपटने के स्थान पर हम ज्यादा आसान तरीका अपनाकर महिला शिक्षकों को वस्त्रों की परतों में ढककर आने को कह रहे हैं और जहाँ ग्राहक का पूरा ध्यान उस उत्पाद पर होना चाहिए जिसे खरीदने का मन बनाकर वह किसी शोरूम तक आया है वहां की महिला कर्मचारियों को ग्राहकों को रिझाने वाले कपड़े पहनाए जा रहे हैं. क्या किसी समाज का इससे अधिक नैतिक पतन हो सकता है जब गुरु को अपने स्कूल स्तर के शिष्य की वासनात्मक नजरों से डर लगने लगे. क्या बतौर अभिभावक यह हमारा दायित्व नहीं है कि हम बच्चों को मोबाइल फोन की आकस्मिकता से जुडी अहमियत समझाए और किसी भी संभावित दुरूपयोग की स्थिति बनने से पहले ही बच्चे को उसके दुष्परिणामों के बारे में गंभीरता के साथ चेता दें. सबसे बड़ी बात तो यह है कि घर का वातावरण भी इसप्रकार का नहीं होने दें कि हमारा बच्चा स्कूल में पढ़ने की बजाए अपनी गुरुओं की ही अश्लील तस्वीर उतरने की हिम्मत करने लगे. कहां जा रहा है हमारा समाज और हम? ऐसे में तो माँ को अपने बेटे और बहन को अपने भाई के सामने भी बुरका नुमा वस्त्र पहनकर रहने की नौबत आ सकती है. वैसे भी चचेरे,ममेरे और फुफेरे रिश्ते तो कलंकित होने की खबरें आने लगी हैं बस अब शायद खून के रिश्तों की बारी है क्योंकि शिक्षिकाओं को तो हम कोट पहनाकर बचा सकते हैं लेकिन घर में माँ-बहनों,भाभी,बुआ,मामी,चाची और मौसी को घर के ही ‘लालों’ से कितना और कैसे ढककर रखेंगे. क्या ‘एकल परिवार’ में रहने का मतलब सारे रिश्ते-नातों को तिलांजलि दे देना है?
देखा जाए तो निगाहों में अशालीनता का पर्दा अभी शुरूआती दौर में है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं बिगडा है क्योंकि आज सोच-समझकर खीचीं गयी संस्कारों की लक्ष्मणरेखा भावी पीढी को कुसंस्कारों के रावण के पाले में जाने से रोक सकती है और यदि समय रहते और समाज से मिल रहे तमाम संकेतों को अनदेखा करने की गलती हम इसीतरह करते रहे तो फिर भविष्य में घर घर चीर हरण करने वाले दुर्योधन-दुशासन नजर आएंगे और बेटियों के शरीर पर कपड़ों की तह पर तह लगानी पड़ेगी.पर क्या यह तह हमारी बेटियों के सुरक्षा कर पायेगी ?

बुधवार, 3 जुलाई 2013

आल्हा का नाम किसने नहीं सुना ?

आल्हा का नाम किसने नहीं सुना। पुराने जमाने के चन्देल राजपूतों में वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली। राजपूतों के नैतिक नियमों में केवल वीरता ही नहीं थी बल्कि अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान देना भी उसका एक अंग था। आल्हा और ऊदल की जिन्दगी इसकी सबसे अच्छी मिसाल है। सच्चा राजपूत क्या होता था और उसे क्या होना चाहिये इसे लिस खूबसूरती से इन दोनों भाइयों ने दिखा दिया है, उसकी मिसाल हिन्दोस्तान के किसी दूसरे हिस्से में मुश्किल से मिल सकेगी। आल्हा और ऊदल के मार्के और उसको कारनामे एक चन्देली कवि ने शायद उन्हीं के जमाने में गाये, और उसको इस सूबे में जो लोकप्रियता प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो। यह कविता आल्हा ही के नाम से प्रसिद्ध है और आठ-नौ शताब्दियॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी दिलचस्पी और सर्वप्रियता में अन्तर नहीं आया। आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है। देहात में लोग हजारों की संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं। शहरों में भी कभी-कभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं। बड़े लोगों की अपेक्षा सर्वसाधारण में यह किस्सा अधिक लोकप्रिय है। किसी मजलिस में जाइए हजारों आदमी जमीन के फर्श पर बैठे हुए हैं, सारी महाफिल जैसे बेसुध हो रही है और आल्हा गाने वाला किसी मोढ़े पर बैठा हुआ आपनी अलाप सुना रहा है। उसकी आवज आवश्यकतानुसार कभी ऊँची हो जाती है और कभी मद्धिम, मगर जब वह किसी लड़ाई और उसकी तैयारियों का जिक्र करने लगता है तो शब्दों का प्रवाह, उसके हाथों और भावों के इशारे, ढोल की मर्दाना लय उन पर वीरतापूर्ण शब्दों का चुस्ती से बैठना, जो जड़ाई की कविताओं ही की अपनी एक विशेषता है, यह सब चीजें मिलकर सुनने वालों के दिलों में मर्दाना जोश की एक उमंग सी पैदा कर देती हैं। बयान करने का तर्ज ऐसा सादा और दिलचस्प और जबान ऐसी आमफहम है कि उसके समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती। वर्णन और भावों की सादगी, कला के सौंदर्य का प्राण है। राजा परमालदेव चन्देल खानदान का आखिरी राजा था। तेरहवीं शाताब्दी के आरम्भ में वह खानदान समाप्त हो गया। महोबा जो एक मामूली कस्बा है उस जमाने में चन्देलों की राजधानी था। महोबा की सल्तनत दिल्ली और कन्नौज से आंखें मिलाती थी। आल्हा और ऊदल इसी राजा परमालदेव के दरबार के सम्मनित सदस्य थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनका बाप जसराज एक लड़ाई में मारा गया। राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहल में ले आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मलिनहा के सुपुर्द कर दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परवरिश और लालन-पालन अपने लड़के की तरह किया। जवान होकर यही दोनों भाई बहादुरी में सारी दुनिया में मशहूर हुए। इन्हीं दिलावरों के कारनामों ने महोबे का नाम रोशन कर दिया है।

बड़े लडइया महोबेवाला जिनके बल को वार न पार

आल्हा और ऊदल राजा परमालदेव पर जान कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी मलिनहा ने उन्हें पाला, उनकी शादियां कीं, उन्हें गोद में खिलाया। नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्देल राजा का जॉँनिसार रखवाला और राजा परमालदेव का वफादार सेवक बना दिया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमंडी राजा चन्देलों के अधीन हो गये। महोबा राज्य की सीमाएँ नदी की बाढ़ की तरह फैलने लगीं और चन्देलों की शक्ति दूज के चॉँद से बढ़कर पूरनमासी का चॉँद हो गई। यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे। रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर दिखाने की उन्हें धुन थी। सुख-सेज पर उन्हें नींद न आती थी। और वह जमाना भी ऐसा ही बेचैनियों से भरा हुआ था। उस जमाने में चैन से बैठना दुनिया के परदे से मिट जाना था। बात-बात पर तलवांरें चलतीं और खून की नदियॉँ बहती थीं। यहॉँ तक कि शादियाँ भी खूनी लड़ाइयों जैसी हो गई थीं। लड़की पैदा हुई और शामत आ गई। हजारों सिपाहियों, सरदारों और सम्बन्धियों की जानें दहेज में देनी पड़ती थीं। आल्हा और ऊदल उस पुरशोर जमाने की यच्ची तस्वीरें हैं और गोकि ऐसी हालतों ओर जमाने के साथ जो नैतिक दुर्बलताएँ और विषमताएँ पाई जाती हैं, उनके असर से वह भी बचे हुए नहीं हैं, मगर उनकी दुर्बलताएँ उनका कसूर नहीं बल्कि उनके जमाने का कसूर हैं।

आल्हा का मामा माहिल एक काले दिल का, मन में द्वेष पालने वाला आदमी था। इन दोनों भाइयों का प्रताप और ऐश्वर्य उसके हृदय में कॉँटे की तरह खटका करता था। उसकी जिन्दगी की सबसे बड़ी आरजू यह थी कि उनके बड़प्पन को किसी तरह खाक में मिला दे। इसी नेक काम के लिए उसने अपनी जिन्दगी न्यौछावर कर दी थी। सैंकड़ों वार किये, सैंकड़ों बार आग लगायी, यहॉँ तक कि आखिरकार उसकी नशा पैदा करनेवाली मंत्रणाओं ने राजा परमाल को मतवाला कर दिया। लोहा भी पानी से कट जाता है। एक रोज राजा परमाल दरबार में अकेले बैठे हुए थे कि माहिल आया। राजा ने उसे उदास देखकर पूछा, भइया, तुम्हारा चेहरा कुछ उतरा हुआ है। माहिल की आँखों में आँसू आ गये। मक्कार आदमी को अपनी भावनाओं पर जो अधिकार होता है वह किसी बड़े योगी के लिए भी कठिन है। उसका दिल रोता है मगर होंठ हँसते हैं, दिल खुशियों के मजे लेता है मगर आँखें रोती हैं, दिल डाह की आग से जलता है मगर जबान से शहद और शक्कर की नदियॉँ बहती हैं। माहिल बोला-महाराज, आपकी छाया में रहकर मुझे दुनिया में अब किसी चीज की इच्छा बाकी नहीं मगर जिन लोगों को आपने धूल से उठाकर आसमान पर पहुँचा दिया और जो आपकी कृपा से आज बड़े प्रताप और ऐश्वर्यवाले बन गये, उनकी कृतघ्रता और उपद्रव खड़े करना मेरे लिए बड़े दु:ख का कारण हो रही है। परमाल ने आश्चर्य से पूछा- क्या मेरा नमक खानेवालों में ऐसे भी लोग हैं? माहिल- महाराज, मैं कुछ नहीं कह सकता। आपका हृदय कृपा का सागर है मगर उसमें एक खूंखार घड़ियाल आ घुसा है। -वह कौन है? -मैं। राजा ने आश्चर्यान्वित होकर कहा-तुम! महिल- हॉँ महाराज, वह अभागा व्यक्ति मैं ही हूँ। मैं आज खुद अपनी फरियाद लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। अपने सम्बन्धियों के प्रति मेरा जो कर्तव्य है वह उस भक्ति की तुलना में कुछ भी नहीं जो मुझे आपके प्रति है। आल्हा मेरे जिगर का टुकड़ा है। उसका मांस मेरा मांस और उसका रक्त मेरा रक्त है। मगर अपने शरीर में जो रोग पैदा हो जाता है उसे विवश होकर हकीम से कहना पड़ता है। आल्हा अपनी दौलत के नशे में चूर हो रहा है। उसके दिल में यह झूठा खयाल पैदा हो गया है कि मेरे ही बाहु-बल से यह राज्य कायम है। राजा परमाल की आंखें लाल हो गयीं, बोला-आल्हा को मैंने हमेशा अपना लड़का समझा है। माहिल- लड़के से ज्यादा। परमाल- वह अनाथ था, कोई उसका संरक्षक न था। मैंने उसका पालन-पोषण किया, उसे गोद में खिलाया। मैंने उसे जागीरें दीं, उसे अपनी फौज का सिपहसालार बनाया। उसकी शादी में मैंने बीस हजार चन्देल सूरमाओं का खून बहा दिया। उसकी मॉँ और मेरी मलिनहा वर्षों गले मिलकर सोई हैं और आल्हा क्या मेरे एहसानों को भूल सकता है? माहिल, मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। माहिल का चेहरा पीला पड़ गया। मगर सम्हलकर बोला- महाराज, मेरी जबान से कभी झूठ बात नहीं निकली। परमाह- मुझे कैसे विश्वास हो? महिल ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह दिया।

आल्हा और ऊदल दोनों चौगान के खेल का अभ्यास कर रहे थे। लम्बे-चौड़े मैदान में हजारों आदमी इस तमाशे को देख रहे थे। गेंद किसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता था। चोबदार ने आकर कहा-महाराज ने याद फरमाया है। आल्हा को सन्देह हुआ। महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद किया? खेल बन्द हो गया। गेंद को ठोकरों से छुट्टी मिली। फौरन दरबार मे चौबदार के साथ हाजिर हुआ और झुककर आदाब बजा लाया। परमाल ने कहा- मैं तुमसे कुछ मॉँगूँ? दोगे? आल्हा ने सादगी से जवाब दिया-फरमाइए। परमाल-इनकार तो न करोगे? आल्हा ने कनखियों से माहिल की तरफ देखा समझ गया कि इस वक्त कुछ न कुछ दाल में काला है। इसके चेहरे पर यह मुस्कराहट क्यों? गूलर में यह फूल क्यों लगे? क्या मेरी वफादारी का इम्तहान लिया जा रहा है? जोश से बोला-महाराज, मैं आपकी जबान से ऐसे सवाल सुनने का आदी नहीं हूँ। आप मेरे संरक्षक, मेरे पालनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भँवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हूँ और मौत से लड़ सकता हूँ। आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हूँ आप मुझसे ऐसे सवाल न करें। परमाल- शाबाश, मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है। आल्हा-मुझे क्या हुक्म मिलता है? परमाल- तुम्हारे पास नाहर घोड़ा है? आल्हा ने ‘जी हॉँ’ कहकर माहिल की तरफ भयानक गुस्से भरी हुई आँखों से देखा। परमाल- अगर तुम्हें बुरा न लगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो। आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने लगा, मैंने अभी वादा किया है कि इनकार न करूँगा। मैंने बात हारी है। मुझे इनकार न करना चाहिए। निश्चय ही इस वक्त मेरी स्वामिभक्ति की परीक्षा ली जा रही है। मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौका और खतरनाक है। इसका तो कुछ गम नहीं। मगर मैं इनकार किस मुँह से करूँ, बेवफा न कहलाऊँगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवल स्वामी और सेवक का ही नहीं है, मैं उनकी गोद में खेला हूँ। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और पॉँव में खड़े होने का बूता न था, तब उन्होंने मेरे जुल्म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हूँ? विचारों की धारा मुड़ी- माना कि राजा के एहसान मुझ पर अनगिनती हैं मेरे शरीर का एक-एक रोआँ उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षत्रिय कभी अपनी सवारी का घोड़ा दूसरे को नहीं देता। यह क्षत्रियों का धर्म नहीं। मैं राजा का पाला हुआ और एहसानमन्द हूँ। मुझे अपने शरीर पर अधिकार है। उसे मैं राजा पर न्यौछावर कर सकता हूँ। मगर राजपूती धर्म पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता। जिन लोगों ने धर्म के कच्चे धागे को लोहे की दीवार समझा है, उन्हीं से राजपूतों का नाम चमक रहा है। क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग लगाऊँ? आह! माहिल ने इस वक्त मुझे खूब जकड़ रखा है। सामने खूंखार शेर है; पीछे गहरी खाई। या तो अपमान उठाऊँ या कृतघ्न कहलाऊँ। या तो राजपूतों के नाम को डुबोऊँ या बर्बाद हो जॉँऊ। खैर, जो ईश्वर की मर्जी, मुझे कृतघ्न कहलाना स्वीकार है, मगर अपमानित होना स्वीकार नहीं। बर्बाद हो जाना मंजूर है, मगर राजपूतों के धर्म में बट्टा लगाना मंजूर नहीं। आल्हा सर नीचा किये इन्हीं खयालों में गोते खा रहा था। यह उसके लिए परीक्षा की घड़ी थी जिसमें सफल हो जाने पर उसका भविष्य निर्भर था। मगर माहिला के लिए यह मौका उसके धीरज की कम परीक्षा लेने वाला न था। वह दिन अब आ गया जिसके इन्तजार में कभी आँखें नहीं थकीं। खुशियों की यह बाढ़ अब संयम की लोहे की दीवार को काटती जाती थी। सिद्ध योगी पर दुर्बल मनुष्य की विजय होती जाती थी। एकाएक परमाल ने आल्हा से बुलन्द आवाज में पूछा- किस दनिधा में हो? क्या नहीं देना चाहते? आल्हा ने राजा से आंखें मिलाकर कहा-जी नहीं। परमाल को तैश आ गया, कड़ककर बोला-क्यों? आल्हा ने अविचल मन से उत्तर दिया-यह राजपूतों का धर्म नहीं है। परमाल-क्या मेरे एहसानों का यही बदला है? तुम जानते हो, पहले तुम क्या थे और अब क्या हो? आल्हा-जी हॉँ, जानता हूँ। परमाल- तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बिगाड़ सकता हूँ। आल्हा से अब सब्र न हो सका, उसकी आँखें लाल हो गयीं और त्योरियों पर बल पड़ गये। तेज लहजे में बोला- महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान किए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूँगा। क्षत्रिय कभी एहसान नहीं भूलता। मगर आपने मेरे ऊपर एहसान किए हैं, तो मैंने भी जो तोड़कर आपकी सेवा की है। सिर्फ नौकरी और नामक का हक अदा करने का भाव मुझमें वह निष्ठा और गर्मी नहीं पैदा कर सकता जिसका मैं बार-बार परिचय दे चुका हूँ। मगर खैर, अब मुझे विश्वास हो गया कि इस दरबार में मेरा गुजर न होगा। मेरा आखिरी सलाम कबूल हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भूल की है वह माफ की जाए। माहिल की ओर देखकर उसने कहा- मामा जी, आज से मेरे और आपके बीच खून का रिश्ता टूटता है। आप मेरे खून के प्यासे हैं तो मैं भी आपकी जान का दुश्मन हूँ।

आल्हा की मॉँ का नाम देवल देवी था। उसकी गिनती उन हौसले वाली उच्च विचार स्त्रियों में है जिन्होंने हिन्दोस्तान के पिछले कारनामों को इतना स्पृहणीय बना दिया है। उस अंधेरे युग में भी जबकि आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मुल्क में आ पहुँची थी, हिन्दोस्तान में ऐसी ऐसी देवियॉँ पैदा हुई जो इतिहास के अंधेरे से अंधेरे पन्नों को भी ज्योतित कर सकती हैं। देवल देवी से सुना कि आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या किया तो उसकी आखों भर आए। उसने दोनों भाइयों को गले लगाकर कहा- बेटा ,तुमने वही किया जो राजपूतों का धर्म था। मैं बड़ी भाग्यशालिनी हूँ कि तुम जैसे दो बात की लाज रखने वाले बेटे पाये हैं । उसी रोज दोनों भाइयों महोबा से कूच कर दिया अपने साथ अपनी तलवार और घोड़ो के सिवा और कुछ न लिया। माल –असबाब सब वहीं छोड़ दिये सिपाही की दौलत और इज्जत सबक कुछ उसकी तलवार है। जिसके पास वीरता की सम्पति है उसे दूसरी किसी सम्पति की जरुरत नहीं। बरसात के दिन थे, नदी नाले उमड़े हुए थे। इन्द्र की उदारताओं से मालामाल होकर जमीन फूली नहीं समाती थी । पेड़ो पर मोरों की रसीली झनकारे सुनाई देती थीं और खेतों में निश्चिन्तता की शराब से मतवाल किसान मल्हार की तानें अलाप रहे थे । पहाड़ियों की घनी हरियावल पानी की दर्पन –जैसी सतह और जगंली बेल बूटों के बनाव संवार से प्रकृति पर एक यौवन बरस रहा था। मैदानों की ठंडी-ठडीं मस्त हवा जंगली फूलों की मीठी मीठी, सुहानी, आत्मा को उल्लास देनेवाली महक और खेतों की लहराती हुई रंग बिरंगी उपज ने दिलो में आरजुओं का एक तूफान उठा दिया था। ऐसे मुबारक मौसम में आल्हा ने महोबा को आखिरी सलाम किया । दोनों भाइयो की आँखे रोते रोते लाल हो गयी थीं क्योंकि आज उनसे उनका देश छूट रहा था । इन्हीं गलियों में उन्होंने घुटने के बल चलना सीखा था, इन्ही तालाबों में कागज की नावें चलाई थीं, यही जवानी की बेफिक्रियों के मजे लूटे थे। इनसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था। दोनो भाई आगे बढते जाते थे , मगर बहुत धीरे-धीरे । यह खयाल था कि शायद परमाल ने रुठनेवालों को मनाने के लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा। घोड़ो को सम्हाले हुए थे, मगर जब महोबे की पहाड़ियो का आखिरी निशान ऑंखों से ओझल हो गया तो उम्मीद की आखिरी झलक भी गायब हो गयी। उन्होनें जिनका कोई देश नथा एक ठंडी सांस ली और घोडे बढा दिये। उनके निर्वासन का समाचार बहुत जल्द चारों तरफ फैल गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थीं, चारों तरफ से राजाओ के सदेश आने लगे। कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे मिलने के लिए भेजा। संदेशों से जो काम न निकला वह इस मुलाकात ने पूरा कर दिया। राजकुमार की खातिदारियाँ और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज खींच ले नई। जयचन्द आंखें बिछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापति बना दिया।

आल्हा और ऊदल के चले जाने के बाद महोबे में तरह-तरह के अंधेर शुरु हुए। परमाल कमजी शासक था। मातहत राजाओं ने बगावत का झण्डा बुलन्द किया। ऐसी कोई ताकत न रही जो उन झगड़ालू लोगों को वश में रख सके। दिल्ली के राज पृथ्वीराज की कुछ सेना सिमता से एक सफल लड़ाई लड़कर वापस आ रही थी। महोबे में पड़ाव किया। अक्खड़ सिपाहियों में तलवार चलते कितनी देर लगती है। चाहे राजा परमाल के मुलाजियों की ज्यादती हो चाहे चौहान सिपाहियों की, तनीजा यह हुआ कि चन्देलों और चौहानों में अनबन हो गई। लड़ाई छिड़ गई। चौहान संख्या में कम थे। चंदेलों ने आतिथ्य-सत्कार के नियमों को एक किनारे रखकर चौहानों के खून से अपना कलेजा ठंडा किया और यह न समझे कि मुठ्ठी भर सिपाहियों के पीछे सारे देश पर विपत्ति आ जाएगी। बेगुनाहों को खून रंग लायेगा। पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी। सारी फौज तितर-बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया। अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई। उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आई। अब सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुकाबिला किया जाये। रानी मलिनहा भी इस मशविरे में शरीक थीं। किसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ एक ऊँची दीवार बनायी जाय ; कोई बोला, हम लोग महोबे को वीरान करके दक्खिन को ओर चलें। परमाल जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समर्पण के सिवा उसे और कोई चारा न दिखाई पड़ता था। तब रानी मलिनहा खड़ी होकर बोली : ‘चन्देल वंश के राजपूतो, तुम कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खड़ी करके तुम दुश्मन को रोक लोगे? झाडू से कहीं ऑंधी रुकती है ! तुम महोबे को वीरान करके भागने की सलाह देते हो। ऐसी कायरों जैसी सलाह औरतें दिया करती हैं। तुम्हारी सारी बहादुरी और जान पर खेलना अब कहॉँ गया? अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि चन्देलों के नाम से राजे थर्राते थे। चन्देलों की धाक बंधी हुई थी, तुमने कुछ ही सालों में सैंकड़ों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीं हुई। तुम्हारी तलवार की दमक कभी मन्द नहीं हुई। तुम अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह पुरुषार्थ नहीं है। वह पुरुषार्थ बनाफल वंश के साथ महोबे से उठ गया। देवल देवी के रुठने से चण्डिका देवी भी हमसे रुठ गई। अब अगर कोई यह हारी हुई बाजी सम्हाल सकता है तो वह आल्हा है। वही दोनों भाई इस नाजुक वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीं को मनाओ, उन्हीं को समझाओं, उन पर महोते के बहुत हक हैं। महोबे की मिट्टी और पानी से उनकी परवरिश हुई है। वह महोबे के हक कभी भूल नहीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बल और विद्या दी है, वही इस समय विजय का बीड़ा उठा सकते हैं।’ रानी मलिनहा की बातें लोगों के दिलों में बैठ गयीं।

जगना भाट आल्हा और ऊदल को कन्नौज से लाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुँवर लाखन के साथ शिकार खेलने जा रहे थे कि जगना ने पहुँचकर प्रणाम किया। उसके चेहरे से परेशानी और झिझक बरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पूछा—कवीश्वर, यहॉँ कैसे भूल पड़े? महोबे में तो खैरियत है? हम गरीबों को क्योंकर याद किया? जगना की ऑंखों में ऑंसू भर जाए, बोला—अगर खैरियत होती तो तुम्हारी शरण में क्यों आता। मुसीबत पड़ने पर ही देवताओं की याद आती है। महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है। पृथ्वीराज चौहान महोबे को घेरे पड़ा है। नरसिंह और वीरसिंह तलवारों की भेंट हो चुके है। सिरकों सारा राख को ढेर हो गया। चन्देलों का राज वीरान हुआ जाता है। सारे देश में कुहराम मचा हुआ है। बड़ी मुश्किलों से एक महीने की मौहलत ली गई है और मुझे राजा परमाल ने तुम्हारे पास भेजा है। इस मुसीबत के वक्त हमारा कोई मददगार नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी किम्मत बॅंधाये। जब से तुमने महोबे से नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी हिम्मत बँधाये। जब से तुमने महोबे से नाता तोड़ा है तब से राजा परमाल के होंठों पर हँसी नहीं आई। जिस परमाल को उदास देखकर तुम बेचैन हो जाते थे उसी परमाल की ऑंखें महीनों से नींद को तरसती हैं। रानी महिलना, जिसकी गोद में तुम खेले हो, रात-दिन तुम्हारी याद में रोती रहती है। वह अपने झरोखें से कन्नैज की तरफ ऑंखें लगाये तुम्हारी राह देखा करती है। ऐ बनाफल वंश के सपूतो ! चन्देलों की नाव अब डूब रही है। चन्देलों का नाम अब मिटा जाता है। अब मौका है कि तुम तलवारे हाथ में लो। अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हाला तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा क्योंकि इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा। आल्हा ने रुखेपन से जवाब दिया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीं है। हमारा और हमारे बाप का नाम तो उसी दिन डूब गया, जब हम बेकसूर महोबे से निकाल दिए गए। महोबा मिट्टी में मिल जाय, चन्देलों को चिराग गुल हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीं है। क्या हमारी सेवाओं का यही पुरस्कार था जो हमको दिया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, हमने गोड़ों को हराया और चन्देलों को देवगढ़ का मालिक बना दिया। हमने यादवों से लोहा लिया और कठियार के मैदान में चन्देलों का झंडा गाड़ दिया। मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई लहर को रोका। गया का मैदान हमीं ने जीता, रीवॉँ के खूंखार बाघेलो का का घमण्ड हमीं ने तोड़ा। मैंने ही मेवात से खिराज लिया। हमने यह सब कुछ किया और इसका हमको यह पुरस्कार दिया गया है? मेरे बाप ने दस राजाओं को गुलामी का तौक पहनाया। मैंने परमाल की सेवा में सात बार प्राणलेवा जख्म खाए, तीन बार मौत के मुँह से निकल आया। मैने चालीस लड़ाइयॉँ लड़ी और कभी हारकर न आया। ऊदल ने सात खूनी मार्के जीते। हमने चन्देलों की बहादुरी का डंका बजा दिया। चन्देलों का नाम हमने आसमान तक पहुँचा दिया और इसके यह पुरस्कार हमको मिला है? परमाल अब क्यों उसी दगाबाज माहिल को अपनी मदद के लिए नहीं बुलाते जिसकों खुश करने के लिए मेरा देश निकाला हुआ था ! जगना ने जवाब दिया—आल्हा ! यह राजपूतों की बातें नहीं हैं। तुम्हारे बाप ने जिस राज पर प्राण न्यौछावर कर दिये वही राज अब दुश्मन के पांव तले रौंदा जा रहा है। उसी बाप के बेटे होकर भी क्या तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? वह राजपूत जो अपने मुसीबत में पड़े हुए राजा को छोड़ता है, उसके लिए नरक की आग के सिवा और कोई जगह नहीं है। तुम्हारी मातृभूमि पर बर्बादी की घटा छायी हुई हैं। तुम्हारी माऍं और बहनें दुश्मनों की आबरु लूटनेवाली निगाहों को निशाना बन रही है, क्या अब भी तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? अपने देश की यह दुर्गत देखकर भी तुम कन्नौज में चैन की नींद सो सकते हो? देवल देवी को जगना के आने की खबर हुई। असने फौरन आल्हा को बुलाकर कहा—बेटा, पिछली बातें भूल जाओं और आज ही महोबे चलने की तैयारी करो। आल्हा कुछ जबाव न दे सका, मगर ऊदल झुँझलाकर बोला—हम अब महोबे नहीं जा सकते। क्या तुम वह दिन भूल गये जब हम कुत्तों की तरह महोबे से निकाल दिए गए? महोबा डूबे या रहे, हमारा जी उससे भर गया, अब उसको देखने की इच्छा नहीं हे। अब कन्नौज ही हमारी मातृभूमि है। राजपूतनी बेटे की जबान से यह पाप की बात न सुन सकी, तैश में आकर बोली—ऊदल, तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते हुए शर्म नहीं आती ? काश, ईश्वर मुझे बॉँझ ही रखता कि ऐसे बेटों की मॉँ न बनती। क्या इन्हीं बनाफल वंश के नाम पर कलंक लगानेवालों के लिए मैंने गर्भ की पीड़ा सही थी? नालायको, मेरे सामने से दूर हो जाओं। मुझे अपना मुँह न दिखाओं। तुम जसराज के बेटे नहीं हो, तुम जिसकी रान से पैदा हुए हो वह जसराज नहीं हो सकता। यह मर्मान्तक चोट थी। शर्म से दोनों भाइयों के माथे पर पसीना आ गया। दोनों उठ खड़े हुए और बोले- माता, अब बस करो, हम ज्यादा नहीं सुन सकते, हम आज ही महोबे जायेंगे और राजा परमाल की खिदमत में अपना खून बहायेंगे। हम रणक्षेत्र में अपनी तलवारों की चमक से अपने बाप का नाम रोशन करेंगे। हम चौहान के मुकाबिले में अपनी बहादुरी के जौहर दिखायेंगे और देवल देवी के बेटों का नाम अमर कर देंगे।

दोनों भाई कन्नौज से चले, देवल भी साथ थी। जब वह रुठनेवाले अपनी मातृभूमि में पहुँचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें बंध गयीं। एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे। बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। ऑंखों ने खुशी के ऑंसू बहाए। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया। आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए। तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया। दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई। वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें। वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों को फैसला करने चले। आज किसी की ऑंखों में और चेहरे पर उदासी के चिन्ह न थे, औरतें हॅंस-हँस कर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है। उस जगह के पास जहॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मुकाबला हुआ और अठारह दिन तक मारकाट का बाजार गर्म रहा। खूब घमासान लड़ाई हुई। पृथ्वीराज खुद लड़ाई में शरीक था। दोनों दल दिल खोलकर लड़े। वीरों ने खूब अरमान निकाले और दोनों तरफ की फौजें वहीं कट मरीं। तीन लाख आदमियों में सिर्फ तीन आदमी जिन्दा बचे-एक पृथ्वीराज, दूसरा चन्दा भाट तीसरा आल्हा। ऐसी भयानक अटल और निर्णायक लड़ाई शायद ही किसी देश और किसी युग में हुई हो। दोनों ही हारे और दोनों ही जीते। चन्देल और चौहान हमेशा के लिए खाक में मिल गए क्योंकि थानेसर की लड़ाई का फैसला भी इसी मैदान में हो गया। चौहानों में जितने अनुभवी सिपाही थे, वह सब औरई में काम आए। शहाबुद्दीन से मुकाबिला पड़ा तो नौसिखिये, अनुभवहीन सिपाही मैदान में लाये गये और नतीजा वही हुआ जो हो सकता था। आल्हा का कुद पता न चला कि कहॉँ गया। कहीं शर्म से डूब मरा या साधू हो गया। जनता में अब तक यही विश्वास है कि वह जिन्दा है। लोग कहते हैं कि वह अमर हो गया। यह बिल्कुल ठीक है क्योंकि आल्हा सचमुच अमर है अमर है और वह कभी मिट नहीं सकता, उसका नाम हमेशा कायम रहेगा।


नोट ---यह ब्लॉग फेसबुक में एक मित्र सुरेन्द्र जी भाटी के वाल से लिया गया है !