शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

!! महाभारत की 10 'गुप्त' बातें !!

28वें वेदव्यास ने लिखी महाभारत: ज्यादातर लोगों को लगता है कि महाभारत वेदव्यास ने लिखी थी। यह पूरा सच नहीं है। वेदव्यास कोई नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि थी, जो वेदों का ज्ञान रखने वाले लोगों को दी जाती थी। कृष्णद्वैपायन से पहले 27 वेदव्यास हो चुके थे, जबकि वह खुद 28वें वेदव्यास थे। उनका नाम कृष्णद्वैपायन इसलिए रखा गया, क्योंकि उनका रंग सांवला (कृष्ण) था और वह एक द्वीप पर जन्मे थे।
गीता सिर्फ एक नहीं: माना जाता है कि श्रीमद्भगवद्गीता ही अकेली गीता है, जिसमें कृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान का वर्णन है। यह सच है कि श्रीमद्भगवद्गीता ही संपूर्ण और प्रामाणिक गीता है, लेकिन इसके अलावा कम से कम 10 गीता और भी हैं। व्याध गीता, अष्टावक्र गीता और पाराशर गीता उन्हीं में से हैं।
द्रौपदी के लिए दुर्योधन के इशारे का मतलब: मौलिक महाभारत में यह प्रसंग आता है कि चौसर के खेल में युधिष्ठिर से जीतने के बाद दुर्योधन ने द्रौपदी को अपनी बाईं जांघ पर बैठने के लिए कहा था। ज्यादातर लोगों की नजर में इस वजह से भी दुर्योंधन खलनायक है। उसमें तमाम बुराइयां जरूर थीं, लेकिन उस समय की परंपरा के मुताबिक यह द्रौपदी का अपमान नहीं था। दरअसल, उस जमाने में बाईं जंघा पर या बाईं ओर पत्नी को और दाईं जंघा पर या दाईं ओर पुत्री को बैठाया जाता था। यही वजह है कि धार्मिक पोस्टरों या कैलेंडरों में देवियों को बाईं तरफ स्थान दिया जाता है। हिंदू रीति-रिवाजों में शादी के समय भी पत्नी, पति के बाईं ओरखड़ी होती है।
धर्म की कोई एक परिभाषा नहीं: तमाम लोगों को लगता होगा कि महाभारत धर्म का पाठ सिखाती है। कुछ लोग महाभारत को सत्य और असत्य से भी जोड़ते हैं, लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। मौलिक महाभारत में ऐसा कोई प्रसंग नहीं आता, जिसमें सही और गलत की सटीक परिभाषा दी गई हो। 
 
दरअसल, सही और गलत परिप्रेक्ष्य तथा परिस्थिति के हिसाब से बदलता है। जैसे कि एक ही परिस्थिति में भीष्म और अजरुन ने अलग-अलग निर्णय लिए और दोनों को सही माना गया। भीष्म ने अंबा से विवाह करने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने अपने पिता के समक्ष जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की प्रतिज्ञा ली थी।
 
उनके लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन ही सही था। अजरुन के सामने ऐसी ही परिस्थिति आई, जब उलुपी ने उनसे विवाह करने की इच्छा जाहिर की और प्रस्ताव अस्वीकार होने पर आत्महत्या करने की बात कह डाली। अजरुन भी उस समय ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर रहे थे, लेकिन उनके लिए उलुपी का जीवन ज्यादा महत्वपूर्ण था। इसीलिए, अजरुन ने उसकी रक्षा करने को प्राथमिकता दी और ब्रह्मचर्य व्रत तोड़ने के अपने निर्णय को सही ठहराया।
 
महाभारत में सही और गलत का ऐसा ही एक और प्रसंग आता है। ज्यादातर लोग मानते हैं कि द्रोणाचार्य ने न्याय नहीं किया जब उन्होंने एकलव्य से अंगूठा मांगकर, अजरुन को आगे किया। यह पूरा सच नहीं है। महाभारत के अनुसार, एक बार तालाब में स्नान करते समय जब मगरमच्छ ने द्रोणाचार्य को जकड़ लिया था, तब अजरुन ने उनकी जान बचाई थी। उसी समय द्रोणाचार्य ने अजरुन को वचन दिया था कि वह उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ योद्धा बनाएंगे।
 
अजरुन को दिए गए इस वचन को निभाने के लिए ही उन्होंने गुरु-दक्षिणा के तौर पर एकलव्य से अंगूठा मांगा। इससे स्पष्ट है कि सही और गलत की कोई सटीक परिभाषा नहीं गढ़ी जा सकती। 
 
राशियां नहीं थीं ज्योतिष का आधार: महाभारत के दौर में राशियां नहीं हुआ करती थीं। ज्योतिष 27 नक्षत्रों पर आधारित था, न कि 12 राशियों पर। नक्षत्रों में पहले स्थान पर रोहिणी था, न कि अश्विनी। जैसे-जैसे समय गुजरा, विभिन्न सभ्यताओं ने ज्योतिष में प्रयोग किए और चंद्रमा और सूर्य के आधार पर राशियां बनाईं।
 
चार पटल वाला पासा: शकुनि ने जिस पासे से पांडवों को चौसर का खेल हराया था, कहते हैं उसके 4 पटल थे। आमतौर पर लोगों को 6 पटल वाले पासे के बारे में ही पता है। हालांकि, महाभारत में उस चार पटल वाले पासे की सटीक आकृति का जिक्र नहीं आता। यह भी नहीं बताया गया है कि वह किस धातु या पदार्थ का बना था। महाभारत के मुताबिक, उस पासे का हर एक पटल एक-एक युग का प्रतीक था। चार बिंदु वाले पटल का अर्थ सतयुग, तीन बिंदु वाले पटल का अर्थ त्रेतायुग, दो बिंदु वाले पटल का द्वापरयुग और एक बिंदु वाले पटल का अर्थ कलियुग था।
मंत्र से बन जाते थे ब्रह्मास्त्र: ज्यादातर लोगों के बीच यही मान्यता प्रचलित है कि ब्रह्मास्त्र दैवीय अस्त्र थे, जो देवताओं की तपस्या के बाद हासिल होते थे। 
 
लेकिन, यह भी पूरा सच नहीं है। कुछ ब्रह्मास्त्र साफ-साफ नजर आते थे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें मंत्रों की शक्ति से संहारक अस्त्र बना दिया था। जैसे, रथ के पहिए को चक्र बना देना। मंत्रोच्चरण के साथ ही ब्रह्मास्त्र दुश्मन का सिर काट दिया करते थे। लेकिन, एक खास बात यह भी थी कि मंत्रों के जरिए उन्हें बेअसर भी किया जा सकता था और ये उन्हीं पर इस्तेमाल होता था, जिनके पास वही शक्तियां हों।
 
 विदेशी भी शामिल हुए थे लड़ाई में: भारतीय युद्धों में विदेशियों के शामिल होने का इतिहास बहुत पुराना है। महाभारत की लड़ाई में भी विदेशी सेनाएं शामिल हुई थीं। यह अलग बात है कि ज्यादातर लोगों को लगता है कि महाभारत की लड़ाई सिर्फ कौरवों और पांडवों की सेनाओं के बीच लड़ी गई थी। 
 
लेकिन ऐसा नहीं है। मौलिक महाभारत में ग्रीक और रोमन या मेसिडोनियन योद्धाओं के लड़ाई में शामिल होने का प्रसंग आता है।
 
 
 
दुशासन के पुत्र ने मारा अभिमन्यु को: भले ही यह माना जाता हो कि अभिमन्यु की हत्या चक्रव्यूह में सात महारथियों द्वारा की गई थी। लेकिन यह पूरा सच नहीं है। मौलिक महाभारत के मुताबिक, अभिमन्यु ने बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मौजूद सात में से एक महारथी (दुर्योधन के बेटे) को मार गिराया था। इससे नाराज होकर दुशासन के बेटे ने अभिमन्यु की हत्या कर दी थी।


 तीन चरणों में लिखी महाभारत: वेदव्यास की महाभारत को बेशक मौलिक माना जाता है, लेकिन वह तीन चरणों में लिखी गई। पहले चरण में 8,800 श्लोक, दूसरे चरण में 24 हजार और तीसरे चरण में एक लाख श्लोक लिखे गए। वेदव्यास की महाभारत के अलावा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणो की संस्कृत महाभारत सबसे प्रामाणिक मानी जाती है। अंग्रेजी में संपूर्ण महाभारत दो बार अनूदित की गई थी। पहला अनुवाद, 1883-1896 के बीच किसारी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मनमंथनाथ दत्त ने 1895 से 1905 के बीच। 100 साल बाद डॉ. देबरॉय तीसरी बार संपूर्ण महाभारत का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

!! इस तरह के चित्र में आप क्या देखते है ?






























जब अलग अलग जनवारो में दोस्ती हो सकती है तो फिर हम हिन्दुओ में जाती के नाम पर कडुवाहट को भुला कर दोस्ती नहीं कर सकते है क्या ?

!! इसे क्या कहते है ?

कामना पूरी न होगी, ..... भावना बढती रहेगी !
चक्र चलता ही रहेगा,..... विश्व गलता ही रहेगा !!
क्या इसे संसार कहते ?

आस मिटती ही रहेगी,.....श्वास घुटती ही रहेगी !
... आयु नित घटती रहेगी,..मृत्यु हंसती ही रहेगी !!
क्या इसे व्यापार कहते ?

लौ मचलती ही रहेगी,.. शलभ को डसती रहेगी !
निशा घुलकर सुबह होगी, शाम ढलती ही रहेगी !!
क्या इसे दिन-रात कहते ?

घन घटायें घुल गिरेंगी, अवनि प्यासी ही रहेगी !
दामिनी दमका करेगी,. विरहणी व्याकुल रहेगी !!
क्या इसे अभिशाप कहते ?

पतन होता ही रहेगा,......प्रगति पंखों से उड़ेगी !
जन्म होता ही रहेगा,.... लाश धू-धू ही जलेगी !!
क्या इसे अमरत्व कहते ?

प्रेम छलता ही रहेगा,..... वासना जलती रहेगी !
नयन रोते ही रहेंगे,..... नीर सरिता बन बहेगा !!
क्या इसे संताप कहते ?

'चन्द्र' छिपता ही रहेगा,.......चांदनी ढूँढा करेगी !
प्यास पपिहा की न बुझेगी, स्वाति झरती ही रहेगी !!
क्या इसे अभिमान कहते ?

!! कलयुगी श्रवण कुमार !!



नेत्रहीन मां को 27 हजार किमी पैदल चलकर कराए चारधाम
17 साल पहले शुरू हुई यात्रा समाप्त
जेब में एक रुपया नहीं, चल दिए यात्रा पर

८७ वर्षीय मां को कावड़ में ले जाते हैं कैलाश गिरी

उज्जैन (मप्र)त्न 87 साल की नेत्रहीन मां की इच्छा पूरी करने के लिए वह इस कलियुग में श्रवण कुमार बन गया।

कैलाश ने जब यात्रा शुरू की तो उसके पास जेब में एक रुपया नहीं था।
भगवान भरोसे वह कावड़ लेकर निकल पड़ा और गर्मी, ठंड व बारिश के बीच यात्रा आगे बढ़ती चली गई।
जहां भी गया, उस शहर में लोगों ने रहने, खाने की मदद की और कुछ रुपए भी दिए, लेकिन पूरी यात्रा में कहीं कोई सरकारी मदद नहीं ली।

अपने कंधों पर कावड़ में मां को बैठाकर 17 साल और कुछ महीनों में 27 हजार किलोमीटर पैदल चलकर उसने चारधाम की तीर्थ यात्रा पूरी करा दी।
बरगी (ग्वालियर) के 40 वर्षीय कैलाश गिरि ब्रह्मचारी कावड़ में बैठी मां कीर्ति देवी के साथ सोमवार को जब उज्जैन की सड़कों से गुजरा
तो उसे देखने वालों की नजरें थम गईं और बूढ़े मां-बाप को कंधों पर यात्रा कराने वाले पौराणिक पात्र श्रवण कुमार की याद आ गई।
कैलाश गिरि ने कहा कि 1995 में क्रम से रामेश्वर, जगन्नाथपुरी, बद्रीनाथ और द्वारिका धाम की यात्रा कर अब उज्जैन में महाकाल दर्शन के
साथ यात्रा पूरी की है। हालांकि संकल्प के मुताबिक वह मां को गांव तक कावड़ से ही ले जाएगा।
उज्जैन से वह देवास के रास्ते ग्वालियर के लिए रवाना हो गया....

फेसबुक में लोकप्रिय कैसे बने ?

फेसबुक पर अमर्यादित, गाली गलौज, पर्सनल कमेंटस (छींटाकशी) आदि को तुरंत हटा दें साथ ही सार्वजनिक तौर पर सावधान करें... न माने तो ब्लॉक कर दें............

फेसबुक पर स्वीकृति या साख बनाने के लिए जरूरी है कि नियमित लिखें और सारवान और सामयिक लिखें... प्रतिदिन किसी भी मसले को उठाएं तो उससे जुड़े विभिन्न आयामों को अलग-अलग पोस्ट में दें... इससे एजेण्डा बनेगा.. कभी-कभार अपनी कहें, आमतौर पर निजता के सवालों और निजी उपलब्धियों के बारे में बताने से बचें ! यदि आप प्रतिदिन अपनी रचनात्मक उपलब्धियां बताएंगे तो अनेक किस्म के कु-कम्युनिकेशन में कैद होकर रह जाएंगे, इससे मन संतोष भी कम मिलेगा... मन संतोष तब ज्यादा मिलता है जब सामाजिक सरोकारों के सवालों पर लिखते हैं और लोग उस पर तरह तरह की राय देते हैं.........
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फेसबुक कम्युनिकेशन के लिए इसकी संचार अवस्था को स्वीकारने और समझने की जरूरत है..मसलन् आपने किसी के स्टेटस पर कोई टिप्पणी दी,जरूरी नहीं है वह व्यक्ति आपके उठाए सवालों का जबाव दे, आपने किसी को फेसबुक चैटिंग के जरिए मैसेज दिया, जरूरी नहीं है वह आपको तुरंत जबाव दे, धैर्य रखें और गुस्सा न करें.......
फेसबुक ,चैटिंग आदि में अधीरता पागल कर सकती है, ब्लडप्रैशर बढ़ा सकती है.. दुश्मनी भी पैदा कर सकती है... मिसअंडरस्टेंडिंग भी पैदा कर सकती है..फेसबुक रीयलटाइम मीडियम है यह धैर्य की मांग करता है....रीयलटाइम में अधीरता, गुस्सा आदि बेहद खतरनाक हैं, इससे उन्माद पैदा होता है...फेसबुक कम्युनिकेशन को सहज भाव से लें और अधीर न हों.. इसमें आपका भला है और दूसरे का भी भला है..........!
फेसबुक पर यदि कोई व्यक्ति आपकी वॉल पर नापसंद बात लिख जाए तो उसे रहने दें.. इससे यह पता चलता है कि आप अन्य को चाहते हैं, पसंद करते हैं...

फेसबुक असल में कबीर की उक्ति का साकार अभिव्यक्ति रूप है.. उनका मानना था “काल करै सो आज कर, आज करै सो अब..” यानी जो कुछ कहना अभी कहो.. रीयलटाइम में कहो....

फेसबुक चूंकि कम्युनिकेशन है अतः वह रहेगा, इसके पहले के कम्युनिकेशन मीडियम भी रहेंगे, यह गलत धारणा है कि पूर्ववर्ती कम्युनिकेशन रूपों या माध्यमों का लोप हो जाएगा.. पहले के माध्यमों की भी प्रासंगिकता रहेगी, उपयोगिता रहेगी और फेसबुक की भी.. फेसबुक या अन्य रीयलटाइम माध्यम तो इस जगत को जानने में हमारी मदद कर रहे हैं..........!

फेसबुक में कम्युनिकेशन महत्वपूर्ण है, अन्य चीजें जैसे वंश, जाति, धर्म, उम्र, हैसियत आदि गौण हैं.... फेसबुक एक तरह से अभिव्यक्ति की अति तीव्रगति का खेल है। यहां आप मुस्कराते रहिए, लाइक करते रहिए, कोई आपको हाशिए पर नहीं डाल सकता।
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वर्चुअल तकनीक में अन्य माध्यमों की तुलना में ऑब्शेसन का भाव ज्यादा है। ऑब्शेसन की यह खासियत है कि यह जल्दी अंतरंग जगत को खोल देता है। यही वजह है वर्चुअल माध्यमों के जरिए आदान-प्रदान ,संवाद, खुलेपन की अभिव्यक्ति जल्दी और सहज ढ़ंग से हो जाती है।
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कलाओं में कलाकार का लगाव व्यक्त होता है। लेकिन फेसबुक लेखन में यूजर का कोई लगाव नहीं होता। यहां लोग व्यक्तिगत तौर पर आते हैं और जातें है। लाइक करते हैं, टिप्पणी करते हैं और निर्विकार अंजान भाव से चले जाते हैं। इस तरह का परायापन अन्य माध्यमो में नहीं देखा। फेसबुक पर लिखते समय शब्द और शरीर में अंतराल रहता है। कलासृजन में यह संभव नहीं है।
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फेसबुक यूजर का ऑब्शेसन अवसाद पैदा करता है और कलाकार का ऑब्शेसन कला की आत्मा से साक्षात कराता है।
मनुष्य अकेला प्राणी है जिसकी अभिव्यक्ति की इच्छाएं कभी शांत नहीं होतीं। वह इनको शांत करने के लिए नए नए उपाय और मीडियम खोजता रहता है। फेसबुक उस प्रक्रिया में उपजा एक मीडियम है। पता नहीं कब जल्द ही नया मीडियम आ जाए और हम सब फेसबुक को छोड़कर वहां मिलें।
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सभी मानवीय उपकरण मानसिक सुख के लिए बने हैं । फेसबुक का भी यही हाल है इससे आप मानसिक सुख हासिल कर सकते हैं। फेसबुक वस्तुतः अभिव्यक्ति का फास्टफूड है।
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फेसबुक लेखन अ-कलात्मक सपाटलेखन है। आप यहां कला के जितने भी प्रयोग करें संतोष नहीं मिलेगा। फेसबुक का मीडियम के रूप में कला से बैर है। कलात्मक अभिव्यक्ति के लिहाज से फेसबुक बाँझ है।
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फेसबुक पर लिखते समय प्रत्येक यूजर यथाशक्ति कोशिश करता है बेहतरीन लिखे, लेकिन लिखने के बाद महसूस करता है अब अगली पोस्ट ज्यादा बेहतर लिखूँगा। लेकिन बेहतर पोस्ट कभी नहीं बन पाती।

    फेसबुक असंतोष को हवा देता है। लोग संतोष के लिए यहां अभिव्यक्त करते हैं लेकिन असंतोष लेकर जाते हैं।
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फेसबुक निर्भीक कम्युनिकेशन है। निर्भीक कम्युनिकेशन को असभ्यता और मेनीपुलेशन का इससे बैर है। निर्भीक फेसबुक कम्युनिकेशन मित्रता की मांग करता है। बराबरी,समानता की मांग करता है। इसके लिए जरूरी है आप पूर्वाग्रह से मुक्त होकर बात करें। जो लोग पूर्वाग्रह रखकर फेसबुक में बातें करते हैं वे ही रोते हैं, रूठते,गुस्सा करते हैं, पलायन करते हैं,बदमाशियां करते हैं। मित्रता में पूर्वाग्रह ,शत्रुता का काम करते हैं। फेसबुक मित्रों को इन बातों को समझना होगा वरना वे फेसबुक को आनंद और सूचना के माध्यम की बजाय कलह का माध्यम बना देंगे।

फेसबुक में किसी मित्र की स्टेटस पर दी गयी राय से नाराज और खुश होने की जरूरत नहीं है। वह तो राय है। इसका अभिव्यक्ति से संबंध है ,संवेदनाओं से नहीं। फेसबुक या रीयलटाइम मीडियम में जो भी कम्युनिकेशन होता है वो संवेदनाहीन होता है। उससे विचलित होने की जरूरत नहीं है। रीयलटाइम मीडियम में यदि संवेदनाएं संप्रेषित होतीं तो लेखक लोग कलम से लिखना बंद कर देते। कलम के लेखन में संवेदनाएं संप्रेषित होती हैं, साहित्य की सृष्टि होती है। चित्रकार की तूलिका से जानदार चित्र जन्म लेते हैं। वर्चु्अल ब्रश से नहीं। फेसबुक पर लिखो ,कम्युनिकेट करो ।

भारत में ई-लेखन का सबसे त्रासद पहलू यह है कि यहां पर यूजर अपनी मातृभाषा के यूनीकोड फॉण्ट का इस्तेमाल करना नहीं जानते और जानबूझकर सीखना नहीं चाहते ,वे अंग्रेजी में हिन्दी लिखते हैं। यह शर्मनाक स्थिति है। फ्रेंच लोग,चीनी लोग अपने यहां अपनी भाषा के यूनीकोड फाण्ट का इस्तेमाल करते हैं। हमारे यहां नामी गिरामी हिन्दी लेखक भी हिन्दी में लिखना तौहीन समझते हैं।जय हो हिन्दीवालों की अंग्रेजी गुलामी की।
कायदे से एक सर्वे कराया जाना चाहिए विभिन्न विश्वविद्यालयों और सरकारी ,गैर सरकारी संस्थानों ,कंपनियों आदि में कि वहां पर कितना ई लेखन, ई कम्युनिकेशन का प्रयोग होता है। हमारे अधिकांश संस्थान अभी न्यनतम स्तर पर भी ई कम्युनिकेशन नहीं करते और हम ढ़ोंग करते हैं,हल्ला करते हैं कि हमारे यहां संचार क्राति हो गयी। हम कम से कम झूठ न बोला करें।

ई-लेखन को सीखने का अर्थ है अपने लेखन संस्कार बदलना। भारतीय लोगों की मुश्किल यह है कि वे पुरानी आदतों-संस्कारों को जल्दी नहीं छोड़ते। यही हाल राईटिंग का है। ई-लेखन के लिए राईटिंग के पुराने खयालात और संस्कार बदलने होंगे। बदलो बंधु बदलो।

इंटरनेट लेखन निजी लेखन है और सामाजिक अभिव्यक्ति है, इसका समाज को लाभ होता है।यह बिना पैसे का लेखन है।इसके प्रति अपने पूर्वाग्रहों को हमें दिल से निकाल देना चाहिए।


ई साक्षरता की दुर्दशा का आलम यह है कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में सभी शिक्षकों-कर्मचारियों और छात्रों को अभी तक ई-साक्षरता का अभ्यस्त नहीं बना पाए हैं।अन्य केन्द्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों का हाल तो और भी बुरा है। हमारे शिक्षक सामान्य सी नेट गतिविधियां सम्पन्न नहीं कर पाते। आखिरकार हम किस दिशा में जा रहे हैं ? क्या हम परवर्ती पूंजीवाद की तेजगति पकड़ पाए हैं ? परवर्ती पूंजीवाद की ई-साक्षरता की गति को पकड़े,समझे और सीखे बिना गुजारा नहीं होने वाला।कहां सोए हैं भारत भारती के सपूत।
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एक जमाना था साक्षरता और शिक्षा से काम चल जाता था, हमने इस काम को अंजाम नहीं दिया,इसी बीच बहुस्तरीय शिक्षा का बोझ हमारे सिर पर आ पड़ा है। आज के दौर में कम्प्यूटर लेखन या इ लेखन को जानना अनिवार्य है।यानी साक्षरता के साथ ई साक्षरता भी जरूरी है। मुश्किल यह है कि हमारे देश में अधिकांश लोग ई निरक्षर हैं। कहां सोई है सरकार, सरकार के हस्तक्षेप के बिना ई साक्षरता संभव नहीं।ई साक्षरता के बिना साक्षर और शिक्षित भी अशिक्षित से प्रतीत होते हैं।
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एक सर्वेक्षण के मुताबिक ट्विटर और फेसबुक जैसी साइटों पर अपने दोस्तों से आगे निकलने की होड़, लोगों को कुंठित बनाने के साथ -साथ उनके आत्मविश्वास पर भी असर डाल रही है।
टेलीग्राफ समाचार पत्र के मुताबिक इस सर्वेक्षण में भाग लेने वाले आधे से ज्यादा लोगों का मानना था कि इन साइटों ने उनके व्यवहार को बदल दिया है और वे सोशल मीडिया के कुप्रभाव का शिकार हो चुके हैं। जबकि दो-तिहाई लोगों का मानना था कि इन साइटों पर वक्त बिताने के बाद वे आराम नहीं कर पाते। वहीं एक चौथाई लोगों ने माना कि इन साइटों के चलते वे झगड़ालू हो गए हैं जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है।
ब्रिटेन की सैलफोर्ड विशवविद्यालय बिजनेस स्कूल को ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में 298 लोगों ने भाग लिया। इनमें से 53 फीसदी लोगों का मानना था कि सोशल नेटवर्किंग ने उनके व्यवहार में बदलाव ला दिया है और उनमें से 51 फीसदी ने इसे नकारात्मक प्रभाव बताया।
55 फीसदी लोगों का कहना था कि अगर वे अपने फेसबुक अकाउंट या ई-मेल अकाउंट को किसी वजह से खोल न पाएं तो वे चिंतित हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि किस तरह से इंटरनेट की लत ने लोगों को जकड़ में ले लिया है।

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फेसबुक पर इमोशनल होना, अतिचंचल होना, रूठना, पंगा करना ,नीचता दिखाना, अपमान करना वैसे ही दुखदायी है जिस तरह सामान्य तौर पर आमने-सामने संवाद के समय होता है। आमने-सामने बातें करते समय भी ये चीजें नुकसान करती हैं। फेसबुक को रीयलटाइम कम्युनिकेसन के मीडियम के रूप में इस्तेमाल करें , न कि रीयलटाइम नीचताओं और असभ्यता के लिए। असभ्यता कभी भी व्यक्ति के गले की हड्डी बन सकती है।
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फेसबुक पर इमोशनल होना, अतिचंचल होना, रूठना, पंगा करना ,नीचता दिखाना, अपमान करना वैसे ही दुखदायी है जिस तरह सामान्य तौर पर आमने-सामने संवाद के समय होता है। आमने-सामने बातें करते समय भी ये चीजें नुकसान करती हैं। फेसबुक को रीयलटाइम कम्युनिकेसन के मीडियम के रूप में इस्तेमाल करें , न कि रीयलटाइम नीचताओं और असभ्यता के लिए। असभ्यता कभी भी व्यक्ति के गले की हड्डी बन सकती है।
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क्या आप फेसबुक या ट्विटर के बिना नहीं रह सकते? अगर ऐसा है तो इस नए अध्ययन पर ध्यान दीजिए। इसमें कहा गया है कि इस तरह की प्रचलित वेबसाइट आपको परेशान करती हैं और आपको असुरक्षित भी महसूस करा सकती हैं। सैकड़ों सोशल नेटवर्किंग साइट उपयोगकर्ताओं पर किए गए सर्वे में शामिल आधे से अधिक लोगों ने माना कि इन वेबसाइटों का इस्तेमाल शुरू करने के बाद से उनके व्यवहार में बहुत बदलाव आया है। दैनिक अमरउजाला ( 9जुलाई 2012) में छपी खबर के अनुसार आधे लोगों ने यह भी कहा कि फेसबुक और ट्विटर के कारण ही उनकी जिंदगी बदतर हो गई। सोशल मीडिया का नकारात्मक प्रभाव जिन लोगों पर पड़ता है, उसमें से ज्यादातर लोगों ने कहा कि उनका विश्वास अपने ऑनलाइन दोस्तों के मुकाबले काफी गिर जाता है। ‘द डेली टेलीग्राफ’ में छपी खबर के मुताबिक, दो तिहाई लोगों ने कहा कि इन वेबसाइटों का इस्तेमाल करने के बाद उन्हें आराम करने अथवा सोने में दिक्कत होती है, जबकि उनमें से एक तिहाई लोगों ने कहा कि आनलाइन टकराव के बाद उन्होंने संबंधों में या कार्य स्थल पर कठिनाइयों का सामना करना छोड़ दिया।
यह शोध ब्रिटेन की सालफोर्ड विश्वविद्यालय में सालफोर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा करवाया गया है। सर्वे इंटरनेट की ताकत की लत का भी विरोध करता है। अखबार के अनुसार, कुल 55 फीसदी लोगों ने कहा कि अगर वे अपने फेसबुक या ईमेल अकाउंट तक नहीं पहुंच पाते हैं तो वे बेचैनी और परेशानी महसूस करते हैं।
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इंटरनेट मानव सभ्यता की शानदार सुगंध है ,इसे फैलने से रोक नहीं सकते और इससे बचकर रह नहीं सकते।
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मानव मन का साइकिल है कम्प्यूटर।
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मानवीय जीवन के बाद भगवान का दिया सबसे बड़ा उपहार है तकनीक । यह सभी किस्म की सभ्यताओं ,कलारूपों और विज्ञानों की जननी है।
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बेवसाइटस का शत्रु है इनर्सिया। य़थार्थ जगत से सामंजस्यपूर्ण संबंध से ही एक्शन के परिणाम निकलते हैं।
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मानवीय जीवन के बाद भगवान का दिया सबसे बड़ा उपहार है तकनीक । यह सभी किस्म की सभ्यताओं ,कलारूपों और विज्ञानों की जननी है।
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इंटरनेट पर कोई पुलिसवाला नहीं है। बेईमानी,धूर्तता, मेनीपुलेशन आदि इंटरनेट के आम नियम हैं।यह सक्रिय मानवीय प्रकृति का दुखद उदाहरण है।
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फेसबुक मित्र या ईमेलर को अपनी प्राथमिकताएं तय न करने दें वरना संकट में फंस सकते हैं।
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मैं कम्प्यूटर से नहीं डरता बल्कि कम्प्यूटर के अभाव से डरता हूँ।
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यदि आप तकनीक के ईंजन में सवार नहीं होंगे तो आपको सड़क के रूप में जीना होगा।
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मानव सभ्यता में जितने भी कम्युनिकेशन मीडियम हैं उनकी तुलना में कम्प्यूटर से ज्यादा और सबसे तेजगति से गलती करते हैं।
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रेडियो मन का खेल है।टीवी मूर्ख का खेल है।फेसबुक अवचेतन का ड्रामा है।
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मानव सभ्यता में जितने भी कम्युनिकेशन मीडियम हैं उनकी तुलना में कम्प्यूटर से ज्यादा और सबसे तेजगति से गलती करते हैं।
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तकनीक (इंटरनेट या कैमरा) जब आदमी के साथ होती है तो सूचना की प्रकृति बदल जाती है। इसे आप आसानी से अन्य को दे सकते हैं, इसके लिए वरीयता,वरिष्ठता,श्रेष्ठता आदि अप्रासंगिक हैं।
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तकनीक में दलाल की कोई भूमिका नहीं होती। यही हाल कम्प्यूटर का है इसमें भी मिडिलमैन की कोई भूमिका नहीं हो सकती।
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एक सर्वेक्षण के मुताबिक ट्विटर और फेसबुक जैसी साइटों पर अपने दोस्तों से आगे निकलने की होड़, लोगों को कुंठित बनाने के साथ -साथ उनके आत्मविश्वास पर भी असर डाल रही है।
टेलीग्राफ समाचार पत्र के मुताबिक इस सर्वेक्षण में भाग लेने वाले आधे से ज्यादा लोगों का मानना था कि इन साइटों ने उनके व्यवहार को बदल दिया है और वे सोशल मीडिया के कुप्रभाव का शिकार हो चुके हैं। जबकि दो-तिहाई लोगों का मानना था कि इन साइटों पर वक्त बिताने के बाद वे आराम नहीं कर पाते। वहीं एक चौथाई लोगों ने माना कि इन साइटों के चलते वे झगड़ालू हो गए हैं जिसका खामियाजा उन्हें अपने रिश्तों और कार्यस्थलों पर चुकाना पड़ रहा है।
ब्रिटेन की सैलफोर्ड विशवविद्यालय बिजनेस स्कूल को ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण में 298 लोगों ने भाग लिया। इनमें से 53 फीसदी लोगों का मानना था कि सोशल नेटवर्किंग ने उनके व्यवहार में बदलाव ला दिया है और उनमें से 51 फीसदी ने इसे नकारात्मक प्रभाव बताया।
55 फीसदी लोगों का कहना था कि अगर वे अपने फेसबुक अकाउंट या ई-मेल अकाउंट को किसी वजह से खोल न पाएं तो वे चिंतित हो जाते हैं। इससे पता चलता है कि किस तरह से इंटरनेट की लत ने लोगों को जकड़ में ले लिया है।

सिर हाथ पर रख लड़ी लड़ाई, इस योद्धा ने नहीं स्वीकारा इस्लाम.

बाबा दीप सिंह 300 वर्ष पुराने धार्मिक शिक्षा देने वाले दमदमी टक्साल के पहले प्रमुख थे।अहमद शाह अब्दाली द्वारा हरमिंदर साहिब (गोल्डन टेंपल) को नुकसान पहुंचाए जाने की खबर जब बाबा दीप सिंह को मिली तो उनका आदेश सुनकर तकरीबन 3000 खालसा उनके बेड़े में शामिल हो गए और उन्होंने अमृतसर की ओर कूच किया।उनका अहमद शाह अब्दाली से सामना 11 नवंबर सन् 1757 को गोहलवाड़ के नजदीक हुआ।

इस लड़ाई में अट्टल खान व बाबा दीप सिंह दोनों ने एक दूसरे पर तलवार से प्रहार किया। अट्टल खान वहीं ढेर हो गया। इस हमले में बाबा दीप सिंह की गर्दन भी धड़ से अलग हो गई। हरमिंदर साहिब को अहमद शाह अब्दाली के कब्जे से छुड़वाने के लिए बाबा दीप सिंह अपनी सेना के साथ काफी बहादुरी से युद्ध कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने खालसा लड़ाकों से कहा कि उनका सिर हरमिंदर साहिब में ही गिरेगा। तरनतारन तक पहुंचते-पहुंचते उनकी सेना में तकरीबन 5000 खालसा योद्धा शामिल हो चुके थे।दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध चला और बाबा दीप सिंह की सेना विरोधी सेना को खदेड़कर छब्बा गांव तक पहुंच गई। यहां जनरल अट्टल खान और बाबा दीप सिंह के बीच युद्ध हुआ।तभी एक खालसा ने दीप सिंह को यह याद दिलाया कि उन्होंने अपना सिर हरमिंदर साहिब में गिरने की बात कही थी। खालसा की बात सुनकर उन्होंने अपने कटे हुए सिर को बांये हाथ में उठाया और वीरता से लड़ते हुए वह हरमिंदर साहिब में दाखिल हो गए। यहां बाबा दीप सिंह अपना सिर गुरुद्वारे की पावन धरती पर रखा और अंतिम सांस ली।बाबा दीप सिंह का जन्म अमृतसर के पहुविंड गांव में 20 जनवरी सन् 1682 को हुआ था। उनके पिता का नाम भाई भगतू था। सन् 1700 में उन्होंने बैसाखी के अवसर पर उन्होंने सिक्ख धर्म की दीक्षा ली और युद्ध कला और घुड़सवारी सीखी।
भाई मणी सिंह से उन्होंने गुरुमुखी की शिक्षा ली। गुरु के दरबार में दो साल शिक्षा-दीक्षा लेने के बाद वह सन् 1702 में अपने गांव वापस आ गए और शादी करके यहीं रहने लगे।सन् 1705 में वह सिक्खों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी से मिलने तलवंडी गए, जहां उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब की प्रतियां तैयार करने में भाई मणि सिंह जी की मदद की। गुरु गोबिंद साहिब के दिल्ली चले जाने के बाद उन्होंने लंबे समय तक दमदमा साहिब में रहकर सेवा की।


श्रोत ..भास्कर डाट कॉम  ...

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

ऐसा क्यों है.??

मुझे इन बातों का तर्कसंगत जबाब कोई दे सकता है कि..... ऐसा क्यों है.....??????
1. जो जीता वही चंद्रगुप्त ना होकर... जो जीता वही सिकन्दर"""कैसे"""" हो गया... ???
(जबकि ये बात सभी जानते हैं कि.... सिकंदर को चन्द्रगुप्त मौर्य ने.. बहुत ही बुरी तरह परास्त किया था.... जिस कारण , सिकंदर ने मित्रता के तौर पर अपने सेनापति सेल्युकश कि बेटी की शादी चन्द्रगुप्त से की थी)
2. महाराणा प्रताप ""महान""" ना होकर......... अकबर """महान""" कैसे हो गया...???
(जबकि, अकबर अपने हरम में हजारों हिन्दू लड़कियों को रखैल के तौर पर रखता था.... जबकि.. महाराणा प्रताप ने..... अकेले दम पर उस अकबर के लाखों की सेना को घुटनों पर ला दिया था)
3. सवाई जय सिंह को """महान वास्तुप्रिय""" राजा ना कहकर ..........शाहजहाँ को यह उपाधि किस आधार मिली ...... ???
जबकि... साक्ष्य बताते हैं कि.... जयपुर के हवा महल से लेकर तेजोमहालय {ताजमहल} तक .... महाराजा जय सिंह ने ही बनवाया था)
4. जो स्थान महान मराठा क्षत्रिय वीर शिवाजी को मिलना चाहिये वो.......... क्रूर और आतंकी औरंगजेब को क्यों और कैसे मिल गया ..????
5. स्वामी विवेकानंद और आचार्य चाणक्य की जगह... ..... गांधी को महात्मा बोलकर .... हिंदुस्तान पर क्यों थोप दिया गया...??????
6. तेजोमहालय- ताजमहल...........लालकोट- लाल किला...........फतेहपुर सीकरी का देव महल- बुलन्द दरवाजा........ एवं सुप्रसिद्घ गणितज्ञ वराह मिहिर की मिहिरावली (महरौली) स्थित वेधशाला- कुतुबमीनार.............. क्यों और कैसे हो गया....?????
7. यहाँ तक कि..... राष्ट्रीय गान भी..... संस्कृत के वन्दे मातरम की जगह................. गुलामी का प्रतीक""जन-गण-मन हो गया""..... कैसे और क्यों हो गया....??????
8. और तो और.... हमारे अराध्य ... भगवान् राम.. कृष्ण.............. तो इतिहास से कहाँ और कब गायब हो गये......... पता ही नहीं चला..........आखिर कैसे ????
9. यहाँ तक कि.... हमारे अराध्य भगवान राम की जन्मभूमि पावन अयोध्या .... भी कब और कैसे विवादितबना दी गयी... हमें पता तक नहीं चला....!
कहने का मतलब ये है कि..... हमारे दुश्मन सिर्फ.... बाबर , गजनवी , लंगड़ा तैमूरलंग..... या आज के दढ़ियल मुल्ले ही नहीं हैं...... बल्कि आज के सफेदपोश सेक्यूलर भी हमारे उतने ही बड़े दुश्मन हैं.... जिन्होंने हम हिन्दुओं के अन्दर हीन भावना भर ..... हिन्दुओं को सेक्यूलर नामक नपुंसक बनाने का बीड़ा उठा रखा है.....!
हमें पहचाना होगा ऐसे दुश्मनों को..... क्योंकि ये वही लोग हैं...... जो हर हिन्दू संस्कृति को भगवा आतंकवाद का नारा देते हैं.... और, नरेन्द्र भाई मोदी जैसे हिंदूवादी और देशभक्त को..... आगे बढ़ने से रोकना चाहते हैं...... ताकि ... उनके नापाक मंसूबे हमेशा पूरे होते रहें...!
लेकिन... चाहे कुछ भी हो जाए..... हमलोग.... उनके ऐसे नापाक मंसूबों पर पानी फेरते हुए .......... हिन्दुस्थान को हिन्दुराष्ट्र बना कर ही रहेंगे....!.
 By --अरुण शुक्ला जी FB
 

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

!! सुख एवं शांति कैसे मिले ?

बर्न, स्विटज़रलैंड में श्री सत्य नारायण गोयन्का द्वारा दिए गये प्रवचन पर आधारित। 

सभी सुख एवं शांति चाहते हैं, क्यों कि हमारे जीवन में सही सुख एवं शांति नहीं है। हम सभी समय समय पर द्वेष, दौर्मनस्य, क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं। और जब हम दुखी होते हैं तब यह दुख अपने तक ही सीमित नहीं रखते। हम औरों को भी दुखी बनाते हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है, और उसके संपर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है। सचमुच, यह जीवन जीने का उचित तरिका नहीं है।
हमें चाहिए कि हम भी शांतिपूर्वक जीवन जीएं और औरों के लिए भी शांति का ही निर्माण करें। आखिर हम सामाजिक प्राणि हैं, हमें समाज में रहना पडता हैं और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ पारस्पारिक संबंध रखना है। ऐसी स्थिति में हम शांतिपूर्वक जीवन कैसे जी सकते हैं? कैसे हम अपने भीतर सुख एवं शांति का जीवन जीएं, और कैसे हमारे आसपास भी शांति एवं सौमनस्यता का वातावरण बनाए, ताकि समाज के अन्य लोग भी सुख एवं शांति का जीवन जी सके?
हमारे दुख को दूर करने के लिए पहले हम यह जान लें कि हम अशांत और बेचैन क्यों हो जाते हैं। गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है तब वह अशांत हो जाता है। हमारे मन में विकार भी हो और हम सुख एवं सौमनस्यता का अनुभव करें, यह संभव नहीं है।
ये विकार क्यों आते है, कैसे आते है? फिर गहराई से ध्यान देने पर साफ मालूम होगा कि जब कोई व्यक्ति हमारे मनचाहा व्यवहार नहीं करता उसके अथवा किसी अनचाही घटना के प्रतिक्रियास्वरूप आते हैं। अनचाही घटना घटती है और हम भीतर तणावग्रस्त हो जाते हैं। मनचाही के न होने पर, मनचाही के होने में कोई बाधा आ जाए तो हम तणावग्रस्त होते हैं। हम भीतर गांठे बांधने लगते है। जीवन भर अनचाही घटनाएं होती रहती हैं, मनाचाही कभी होती है, कभी नहीं होती है, और जीवन भर हम प्रतिक्रिया करते रहते हैं, गांठे बांधते रहते हैं। हमारा पूरा शरीर एवं मानस इतना विकारों से, इतना तणाव से भर जाता है कि हम दुखी हो जाते हैं।
इस दुख से बचने का एक उपाय यह कि जीवन में कोई अनचाही होने ही न दें, सब कुछ मनचाहा ही हों। या तो हम ऐसी शक्ति जगाए, या और कोई हमारे मददकर्ता के पास ऐसी ताकद होनी चाहिए कि अनचाही होने न दें और सारी मनचाही पूरी हो। लेकिन यह असंभव है। विश्व में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी सारी ईच्छाएं पूरी होती है, जिसके जीवन में मनचाही ही मनचाही होती है, और अनचाही कभीभी नहीं होती। जीवन में अनचाही होती ही है। ऐसे में प्रश्न उठता है, कैसे हम विषम परिस्थितियों के पैदा होने पर अंधप्रतिक्रिया न दें? कैसे हम तणावग्रस्त न होकर अपने मन को शांत व संतुलित रख सकें?
भारत एवं भारत के बाहर भी कई ऐसे संत पुरुष हुए जिन्होंने इस समस्या के, मानवी जीवन के दुख की समस्या के, समाधान की खोज की। उन्होंने उपाय बताया- जब कोई अनचाही के होने पर मन में क्रोध, भय अथवा कोई अन्य विकार की प्रतिक्रिया आरंभ हो तो जितना जल्द हो सके उतना जल्द अपने मन को किसी और काम में लगा दो। उदाहरण के तौर पर, उठो, एक गिलास पानी लो और पानी पीना शुरू कर दो—आपका गुस्सा बढेगा नहीं, कम हो जायेगा। अथवा गिनती गिननी शुरू कर दो—एक, दो, तीन, चार। अथवा कोई शब्द या मंत्र या जप या जिसके प्रति तुम्हारे मन में श्रद्धा है ऐसे किसी देवता का या संत पुरुष का नाम जपना शुरू कर दो। मन किसी और काम में लग जाएगा और कुछ हद तक तुम विकारों से, क्रोध से मुक्त हो जाओगे।
इससे मदद हुई। यह उपाय काम आया। आजभी काम आता है। ऐसे लगता है कि मन व्याकुलता से मुक्त हुआ। लेकिन यह उपाय केवल मानस के उपरी सतह पर ही काम करता है। वस्तुत: हमने विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबा दिया, जहां उनका प्रजनन एवं संवर्धन चलता रहा। मानस के उपर शांति एवं सौमनस्यता का एक लेप लग गया लेकिन मानस की गहराईयों में दबे हुए विकारों का सुप्त ज्वालामुखी वैसा ही रहा, जो समया पाकर फूट पडेगा ही।
भीतर के सत्य की खोज करने वाले कुछ वैज्ञानिकों ने इसके आगे खोज की। अपने मन एवं शरीर के सच्चाई का भीतर अनुभव किया। उन्होंने देखा कि मन को और काम में लगाना यानी समस्या से दूर भागना है। पलायन सही उपाय नहीं है, समस्या का सामना करना चाहिए। मन में जब विकार जागेगा, तब उसे देखो, उसका सामना करो। जैसे ही आप विकार को देखना शुरू कर दोगे, वह क्षीण होता जाएगा और धीरे धीरे उसका क्षय हो जाएगा।
यह अच्छा उपाय है। दमन एवं खुली छूट की दोनो अतियों को टालता है। विकारों को अंतर्मन की गहराईयों में दबाने से उनका निर्मूलन नहीं होगा। और विकारों को अकुशल शारीरिक एवं वाचिक कर्मों द्वारा खुली छूट देना समस्याओं को और बढाना है। लेकिन अगर आप केवल देखते रहोगे, तो विकारों का क्षय हो जाएगा और आपको उससे छुटकारा मिलेगा।
कहना तो बड़ा आसान है, लेकिन करना बड़ा कठिन। अपने विकारों का सामना करना आसान नहीं है। जब क्रोध जागता है, तब इस तरह सिर पर सवार हो जाता है कि हमें पता भी नहीं चलता। क्रोध से अभिभूत होकर हम ऐसे शारीरिक एवं वाचिक काम कर जाते हैं जिससे हमारी भी हानि होती है, औरों की भी। जब क्रोध चला जाता है, तब हम रोते हैं और पछतावा करते हैं, इस या उस व्यक्ति से या भगवान से क्षमायाचना करते हैं— हमसे भूल हो गयी, हमें माफ कर दो। लेकिन जब फिर वैसी ही स्थिति का सामना करना पड़ता है तो हम वैसे ही प्रतिक्रिया करते हैं। बार-बार पश्चाताप करने से कुछ लाभ नहीं होता।
हमारी कठिनाई यह है कि जब विकार जागता है तब हम होश खो बैठते हैं। विकार का प्रजनन मानस की तलस्पर्शी गहराईयों में होता है और जब तक वह उपरी सतह तक पहुंचता है तो इतना बलवान हो जाता है कि हमपर अभिभूत हो जाता है। हम उसको देख नहीं पाते।
तो कोई प्राईवेट सेक्रेटरी साथ रख लिया जो हमें याद दिलाये, देख मालिक, तुझ में क्रोध आ गया है, तू क्रोध को देख। क्यों कि क्रोध दिन के चौबीस घंटों में कभी भी आ सकता है इसलिए तीन प्राईवेट सेक्रेटरीज् को नौकरी में रख लूं। समझ लो, रख लिए। क्रोध आया और सेक्रेटरी कहता है, देख मालिक, क्रोध आया। तो पहला काम यह करूंगा कि उसे डांट दूंगा। मूर्ख कहीं का, मुझको सिखाता है? मैं क्रोध से इतना अभिभूत हो जाता हूं कि यह सलाह कुछ काम नहीं आती।
मान लो मुझे होश आया और मैं ने उसे नहीं डांटा। मैं कहता हूं—बड़ा अच्छा कहा तूने. अब मैं क्रोध का ही दर्शन करूंगा, उसके प्रति साक्षीभाव रखूंगा। क्या यह संभव है ? जब आंख बंद कर क्रोध देखने का प्रयास करूंगा तब जिस बात को लेकर क्रोध जागा, बार-बार वही बात, वही व्यक्ती, वह ही घटना मन में आयेगी। मैं क्रोध को नहीं, क्रोध के आलंबन को देख रहा हूं। इससे क्रोध और भी ज़ादा बढेगा। यह कोई उपाय नहीं हुआ। आलंबन को काटकर केवल विकार को देखना बिल्कुल आसान नहीं होता।
लेकिन कोई व्यक्ति परम मुक्त अवस्था तक पहुंच जाता है, तो सही उपाय बताता है। ऐसा व्यक्ति खोज निकालता है कि जब भी मन में कोई विकार जागे तो शरीर पर दो घटनाएं उसी वक्त शुरू हो जाती हैं। एक, सांस अपनी नैसर्गिक गति खो देता है। जैसे मन में विकार जागे, सांस तेज एवं अनियमित हो जाता है। यह देखना बड़ा आसान है। दोन, सूक्ष्म स्तर पर शरीर में एक जीवरासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप संवेदनाओं का निर्माण होता है। हर विकार शरीर पर कोई न कोई संवेदना निर्माण करता है।
यह प्रायोगिक उपाय हुआ। एक सामान्य व्यक्ति अमूर्त विकारों को नहीं देख सकता—अमूर्त भय, अमूर्त क्रोध, अमूर्त वासना आदि। लेकिन उचित प्रशिक्षण एवं प्रयास करेगा तो आसानी से सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाओं को देख सकता है। दोनों का ही मन के विकारों से सीधा संबंध है।
सांस एवं संवेदनाएं दो तरह से मदत करेगी। एक, वे प्राईवेट सेक्रेटरी का काम करेंगी। जैसे ही मन में कोई विकार जागा, सांस अपनी स्वाभाविकता खो देगा, वह हमे बतायेगा—देख, कुछ गडबड है! और हम सांस को डांट भी नहीं सकते। हमें उसकी चेतावनी को मानना होगा। ऐसे ही संवेदनाएं हमें बतायेगी कि कुछ गलत हो रहा है। दोन, चेतावनी मिलने के बाद हम सांस एवं संवेदनाओं को देख सकते है। ऐसा करने पर शीघ्र ही हम देखेंगे कि विकार दूर होने लगा।
यह शरीर और मन का परस्पर संबंध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक तरफ मन में जागने वाले विचार एवं विकार हैं और दूसरी तरफ सांस एवं शरीर पर होने वाली संवेदनाएं हैं। मन में कोई भी विचार या विकार जागता है तो तत्क्षण सांस एवं संवेदनाओं को प्रभावित करता ही है। इस प्रकार, सांस एवं संवेदनाओं को देख कर हम विकारों को देख रहे हैं। पलायन नहीं कर रहे, विकारों के आमुख होकर सच्चाई का सामना कर रहे हैं। शीघ्र ही हम देखेंगे कि ऐसा करने पर विकारों की ताकत कम होने लगी, पहले जैसे वे हमपर अभिभूत नहीं होते। हम अभ्यास करते रहें तो उनका सर्वथा निर्मूलन हो जाएगा। विकारों से मुक्त होते होते हम सुख एवं शांति का जीवन जीने लग जाएंगे।
इस प्रकार आत्मनिरिक्षण की यह विद्या हमें भीतर और बाहर दोनो सच्चाईयों से अवगत कराती है। पहले हम केवल बहिर्मुखी रहते थे और भीतर की सच्चाई को नहीं जान पाते थे। अपने दुख का कारण हमेशा बाहर ढूंढते थे। बाहर की परिस्थितियों को कारण मानकर उन्हें बदलने का प्रयत्न करते थे। भीतर की सच्चाई के बारे में अज्ञान के कारण हम यह नहीं समझ पाते थे कि हमारे दुख का कारण भीतर है, वह है सुखद एवं दुखद संवेदनाओं के प्रति अंध प्रतिक्रिया।
अब, अभ्यास के कारण, हम सिक्के का दूसरा पहलू देख सकते हैं। हम सांस को भी जान सकते है और भीतर क्या हो रहा उसको भी। सांस हो या संवेदना, हम उसे मानसिक संतुलन खोये बिना देख सकते हैं। प्रतिक्रिया बंद होती है तो दुख का संवर्धन नहीं होता। उसके बजाय, विकार उभर कर आते हैं और उनकी निर्जरा होती है, क्षय होता है।
जैसे जैसे हम इस विद्या में पकते चले जांय, विकार शीघ्रता के साथ क्षय होने लगते हैं। धीरे धीरे मन विकारों से मुक्त होता है, शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त हमेशा प्यार से भरा रहता है—सबके प्रति मंगल मैत्री, औरों के अभाव एवं दुखों के प्रति करुणा, औरों के यश एवं सुख के प्रति मुदिता एवं हर स्थिति में समता।
जब कोई उस अवस्था पर पहुंचता है तो पूरा जीवन बदल जाता है। शरीर एवं वाणी के स्तर पर कोई ऐसा काम कर नहीं पायेगा जिससे की औरों की सुख-शांति भंग हो। उसके बजाय, संतुलित मन शांत हो जाता है और अपने आसपास सुख-शांति का वातावरण निर्माण करता है। अन्य लोग इससे प्रभावित होते हैं, उनकी मदत होने लगती है।
जब हम भीतर अनुभव हो रही हर स्थिति में मन संतुलित रखते हैं, तब किसी भी बाह्य परिस्थिति का सामना करते हुए तटस्थ भाव बना रहता है। यह तटस्थ भाव पलायनवाद नहीं है, ना यह दुनिया की समस्याओं के प्रति उदासीनता या बेपरवाही है। विपश्यना (Vipassana) का नियमित अभ्यास करने वाले औरों के दुखों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, एवं उनके दुखों को हटाने के लिए बिना व्याकुल हुए मैत्री, करुणा एवं समता भरे चित्त के साथ हर प्रकार प्रयत्नशील होते हैं। उनमें पवित्र तटस्थता आ जाती हैं—मन का संतुलन खोये बिना कैसे पूर्ण रूप से औरों की मदत के लिए वचनबद्ध होना। इस प्रकार औरों के सुख-शांति के लिए प्रयत्नशील होकर वे स्वयं सुखी एवं शांत रहते हैं।
भगवान बुद्ध ने यही सिखाया—जीवन जीने की कला। उन्होंने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की। उन्होंने अपने शिष्यों को मिथ्या कर्म-कांड नहीं सिखाये। बल्कि, उन्होंने भीतर की नैसर्गिक सच्चाई को देखना सिखाया। हम अज्ञानवश प्रतिक्रिया करते रहते हैं, अपनी हानि करते हैं औरों की भी हानि करते हैं। जब सच्चाई को जैसी-है-वैसी देखने की प्रज्ञा जागृत होती है तो यह अंध प्रतिक्रिया का स्वभाव दूर होता है। तब हम सही क्रिया करते हैं—ऐसा काम जिसका उगम सच्चाई को देखने और समझने वाले संतुलित चित्त में होता है। ऐसा काम सकारात्मक एवं सृजनात्मक होता है, आत्महितकारी एवं परहितकारी।
आवश्यक है, खुद को जानना, जो कि हर संत पुरुष की शिक्षा है। केवल कल्पना, विचार या अनुमान के बौद्धिक स्तर पर नहीं, भावुक होकर या भक्तिभाव के कारण नहीं, जो सुना या पढा उसके प्रति अंधमान्यता के कारण नहीं। ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं है। हमें सच्चाई को अनुभव के स्तर पर जानना चाहिए। शरीर एवं मन के परस्पर संबंध का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए। इसी से हम दुख से मुक्ति पा सकते हैं।
अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना, यही विपश्यना है। भगवान बुद्ध के समय की भारत की जनभाषा में पस्सना (पश्यना / passana) कहते थे देखने को, यह जो खुली आंखों से सामान्य देखना होता है उसको। लेकिन विपस्सना (विपश्यना) का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे वैसी उसके सही रूप में देखना, ना कि केवल जैसा उपर उपर से प्रतित होता है। भासमान सत्य के परे जाकर समग्र शरीर एवं मन के बारे में परमार्थ सत्य को जानना आवश्यक है। जब हम उस सच्चाई का अनुभव करते हैं तब हमारा अंध प्रतिक्रिया करने का स्वभाव बदल जाता है, विकारों का प्रजनन बंद होता है, और अपने आप पुराने विकारों का निर्मूलन होता है। हम दुखों से छुटकारा पाते हैं एवं सही सुख का अनुभव करने लगते हैं।
विपश्यना साधना के शिविर में दिए जाने वाले प्रशिक्षण के तीन सोपान हैं। एक, ऐसे शारीरिक एवं वाचिक कर्मों से विरत रहो, जिनसे औरों की सुख-शांति भंग होती हो। विकारों से मुक्ति पाने का अभ्यास हम नहीं कर सकते अगर दूसरी ओर हमारे शारीरिक एवं वाचिक कर्म ऐसे हैं जिससे की विकारों का संवर्धन हो रहा हो। इसलिए, शील की आचार संहिता इस अभ्यास का पहला महत्त्वपूर्ण सोपान है। जीव-हत्या, चोरी, कामसंबंधी मिथ्याचार, असत्य भाषण एवं नशे के सेवन से विरत रहना—इन शीलों का पालन निष्ठापूर्वक करने का निर्धार करते हैं। शील पालन के कारण मन कुछ हद तक शांत हो जाता है और आगे का काम करना संभव होता है।
अगला सोपान है, इस जंगली मन को एक (सांस के) आलंबन पर लगाकर वश में करना। जितना हो सके उतना समय लगातार मन को सांस पर टिकाने अभ्यास करना होता है। यह सांस की कसरत नहीं है, सांस का नियमन नहीं करते। बल्कि, नैसर्गिक सांस को देखना होता है, जैसा है वैसा, जैसे भी भीतर आ रहा हो, जैसे भी बाहर जा रहा हो। इस तरह मन और भी शांत हो जाता है और तीव्र विकारों से अभिभूत नहीं होता। साथ ही साथ, मन एकाग्र हो जाता है, तीक्ष्ण हो जाता है, प्रज्ञा के काम के लायक हो जाता है।
शील एवं मन को वश में करने के यह दो सोपान अपने आपमें आवश्यक भी हैं और लाभदायी भी। लेकिन अगर हम तिसरा कदम नहीं उठायेंगे तो विकारों का दमन मात्र हो कर रह जाएगा। यह तिसरा कदम, तिसरा सोपान है अपने बारें में सच्चाई को जानकर विकारों का निर्मूलन द्वारा मन की शुद्धता। यह विपश्यना है—संवेदना के रूप में प्रकट होने वाले सतत परिवर्तनशील मन एवं शरीर के परस्पर संबंध को सुव्यवस्थित विधि से एवं समता के साथ देखते हुए अपने बारे में सच्चाई का अनुभव करना। यह भगवान बुद्ध की शिक्षा का चरमबिंदु है—आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि।
सभी इसका अभ्यास कर सकते हैं। सभी दुखियारे हैं। इस सार्वजनीन रोग का इलाज भी सार्वजनीन होना चाहिए, सांप्रदायिक नहीं। जब कोई क्रोध से पीड़ित होता है तो वह बौद्ध क्रोध, हिंदू क्रोध या ईसाई क्रोध नहीं होता। क्रोध क्रोध है। क्रोध के कारण जो व्याकुलता आती है, उसे ईसाई, यहुदी या मुस्लिम व्याकुलता नहीं कहा जा सकता। रोग सार्वजनीन है। इलाज भी सार्वजनीन होना चाहिए।
विपश्यना ऐसा ही सार्वजनीन उपाय है। औरों की सुख-शांति भंग न करने वाले शील के पालन का कोई विरोध नहीं करेगा। मन को वश करने के अभ्यास का कोई विरोध नहीं करेगा। अपने बारें में सच्चाई जानने वाली प्रज्ञा का, जिससे कि मन के विकार दूर होते है, कोई विरोध नहीं करेगा। विपश्यना सार्वजनीन विद्या है।
भीतर की सच्चाई को देखकर सत्य को जैसा है वैसा देखना—यही अपने आपको प्रत्यक्ष अनुभव से जानना है। धीरजपूर्वक प्रयत्न करते हुए हम विकारों से मुक्ती पाते हैं। स्थूल भासमान सत्य से शुरू करके साधक शरीर एवं मन के परमसत्य तक पहुंचता है। फिर उसके भी परे, शरीर एवं मन के परे, समय एवं स्थान के परे, संस्कृत सापेक्ष जगत के परे—विकारों से पूर्ण मुक्ति का सत्य, सभी दुखों से पूर्ण मुक्ति का सत्य। उस परमसत्य को चाहे जो नाम दो, सभी के लिए वह अंतिम लक्ष्य है।
सभी उस परमसत्य का साक्षात्कार करें। सभी प्राणी दुखों से मुक्त हों। सभी प्राणी शांत हो, सुखी हो।   सबका मंगल हो।



सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

!! किस पर इतराऊ ? किस पर दुःख मनाउ ?



प्रयाग में जो भी हुआ वो दुःखद है ऐसा कतई नहीं होना चाहिए था ! इस तरह का हादसा कभी नेताओं के साथ क्यों नहीं होता ???
इनके आने से चार हफ्ते भर पहले तो इनके कुत्ते आकर कोना कोना सुंग लेते है और कर्फ्यु लगा देते है जहां से इन नेताओं को जाना होता है तोह यह ऐसा आम आदमी के लिए क्यों नहीं करते जो इनको टैक्स देता है??
          अपने साथ तो ये एम्बुलेंस लेके घूमते है लेकिन क्या हम जैसे आम आदमी के लिए रेलवे स्टेशन में चार एम्बुलेंस खड़ी नहीं की जाती??
           हिन्दुयो के प्रत्येक त्यौहर/पर्व में सरकार हमेशा लापरवाही दिखाती है!लेकिन जब अपना कोई अधिवेशनकरना होता है तो महंगे से महंगे केम्प लगाते है, देश भर से नामी गिरामी हलवाई बुलाये जाते है जो इनको अच्छे से अच्छे पकवान बना के खिलाये, ऊपर आसमान में हेलीकाप्टर घूमते रहते है और निचे जमीं पर इनके पालतू सरकारी कुत्ते घूमते है!
         अपने लिए इतना कुछ और हमारे लिए बाबा जी का ........??
द्वारा ---: ये उपरोक्त सब्द  है श्री  अरविन्द जादौन जी...FB मित्र  ..