मंगलवार, 10 जुलाई 2012

!!यज्ञ क्यों ?

इस समग्र सृष्टि के क्रियाकलाप ' यज्ञ' रूपी धुरी के चारों ओर ही चल रहें हैं । ऋषियों ने ''अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः'' (अथर्ववेद ९. १५. १४) कहकर यज्ञ को भुवन की-इस जगती की सृष्टि का आधार बिन्दु कहा है । स्वयं गीताकार योगिराज श्रीकृष्ण ने कहा है-
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्िवष्ट कामधुक्॥

अर्थात-''प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ कर्म के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ।'' यज्ञ भारतीय संस्कृति के मनीषी ऋषिगणों द्वारा सारी बसुन्धरा को दी गयी ऐसी महत्वपूर्ण देन है, जिसे सर्वाधक फलदायी एवं पर्यावरण केन्द्र इको सिस्टम के ठीक बने रहने का आधार माना जा सकता है ।

गायत्री यज्ञों की लुप्त होती चली जा रही परम्परा और उसके स्थान पर पौराणिक आधार पर चले आ रहे वैदिकी के मूल स्वर को पृष्ठभूमि में रखकर मात्र माहत्म्य परक यज्ञों की श्रृखला को पूज्यवर ने तोड़ा तथ्ाा गायत्री महामंत्र की शक्ति के माध्यम से संम्पन्न् यज्ञ के मूल मर्म को जन-जन के मन में उतारा । यह इस युग की क्रान्ति है । इसे गुरु गोरक्षनाथ द्वारा तंत्र साधना का दुरुपयोग करने वालों-यज्ञों को मखों-तांत्रिक यज्ञों के स्तर पर ही प्रयोग करने वालों के विरुद्ध की गयी क्रांति के स्तर से भी अत्यधिक ऊँचे स्तर की क्रांति माना जा सकता है कि आज घर-घर गायत्री यज्ञ संपन्न हो रहे हैं व सतयुग की वापसी का वातावरण स्वतः बनता चला जा रहा है ।


यज्ञ शब्द के अर्थ को समझाते हुए परमपूज्य गुरुदेव समग्र जीवन को यज्ञमय बना लेने को ही वास्तविक यज्ञ कहते हैं ।
''यज्ञार्थ्ाात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः'' के गीता वाक्य के अनुसार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन जीकर किये गये कर्मो वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है । इसके अलावा किये गयेे सभी कर्म बंधन का कारण बनते हैं व जीवात्मा की परमात्म सत्ता से एकाकार होने की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं । यज्ञ शब्द मात्र 'स्वाहा'-मंत्रों के माध्यम से आहुति दिये जाने के परिप्रक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए, यह स्पष्ट करते हुए उनने इसमें लिखा है कि यज्ञीय जीवन से हमारा आश्शाय है-परिष्कृत देवोपम व्यक्तित्व । वास्तविक देव पूजन यही है कि व्यक्ति अपने अंतः में निहित देव शक्तियों को यथोचित सम्मान देते हुए उन्हें निरन्तर बढ़ाता चले । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः की मनुस्मृति की उक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ यज्ञ वह है, जिससे व्यक्ति ब्रह्ममय-ब्राह्मणत्व भरा देवोपम जीवन जीते हुए स्वयं-को अपने शरीर, मन, अन्तःकरण को परिष्कृत करता हुआ चला जाता है ।

यज्ञ परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है । अन्तर्जगत में दिव्यता का समावेश कर प्राण की अपान में अपना की प्राण में आहुति देकर जीवन रूपी समाधि को समाज रूपी यज्ञ में होम करना ही वास्तविक यज्ञ है । भावनाओं में यदि सत्प्रवृत्ति का समावेश होता चला जाय तो यही वास्तविक यज्ञ है । युग
ऋषि ने यज्ञ की ऐसी विलक्षण परिभाषा कर वैदिक वाङ्मय के मूलभूत स्वर को ही गुंजामान किया है । यज् धातु से बना यज्ञ देवपूजन, परमार्थ के बाद तीसरे अंतिम अर्थ 'संगतिकरण' सज्जनों के संगठन, राष्ट्र को समर्थ सशक्त बनाने वाली सत्ताओं के एकीकरण के अर्थ परिभाषित करता है ।

चौबीस अवतारों में एक
अवतार यज्ञ भगवान भी है । यज्ञ हमारी संस्कृति का आराध्य इष्ट रहा है तथा यज्ञ के बिना हमारे किसी दैनन्दिन् क्रिया कलाप की कल्पना तक नहीं की जा सकती । यज्ञ का विज्ञान पक्ष समझाते हुए पूज्यवर ने बताया है कि सारी सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए यज्ञ कितनी महत्वपूर्ण है । देव तत्वों की तुष्टि से अर्थ है- सृष्टि संतुलन बनाये रखने वाली शक्तियों का पारस्परिक संतुलन । यज्ञ एक प्रकार की टैक्स है- कर है -देव सत्ताओं के प्रति इसे न देने पर जैसे राज्य-प्रशासन, जन समुदाय को दण्डित करता है, उसी प्रकार विभीषिकाएँ भिन्न-भिन्न रूपों में आकर सारी जगती पर अपना प्रकोप मचा देती है । दैवी प्रकोपों से बचने का वैज्ञानिक आधार है-यज्ञ ।
अपने इस प्रतिनपादन की पुष्टि में परमपूज्य गुरुदेव ने यज्ञ की महिमा का वेदों में, उपनिषदों में, गीता में, रामायण में, श्रीमद्भागवत में, महाभारत में, पुराणों में, गुरु ग्रन्थ साहब आदि में कहाँ-कहाँ किस प्रकार वर्णन किया गया है-यह प्रमाण सहित विस्तार से इस खण्ड में दिया है । यज्ञ मात्र समस्त कामनाओं की पूर्ति का ही मार्ग नहीं है । ''यज्ञोऽयं सर्वकामधुक्'' अपितु जीवन जीने की एक श्रेष्ठतम विज्ञानसम्मत पद्धति है, यह जानने-समझने के बाद किसी भी प्रकार का संशय किसी के मन में भारतीय संस्कृति की अनादि काल से मेरुदण्ड रही इस व्यवस्था के प्रति नहीं रह जाता ।

!! ज्योतिष और रुद्राक्ष !!

रूद्राक्ष का शब्दिक अर्थ है रुद्राक्ष रूद्राक्ष रूद्र माने भगवान शिव तथा अक्ष का अर्थ होता है आशु यानि भगवान शिव के आसुओं से रूद्राक्ष की उत्पत्ति हुयी है। रूद्राक्ष की महत्ता और उपयोग हिन्दू धर्म की परम्परा से जुड़ा है। धर्म, तन्त्र, योग एवं चिकित्सा की नजर में रूद्राक्ष काफी प्रासगिंक और प्रशसंनीय है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में रूद्राक्ष को महाऔषधि के रूप में वर्णित किया गया है।
रूद्राक्ष की जड़ से लेकर फल तक सभी का अलग-अलग तरीके से प्रयोग करके विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर किया जा सकता है। स्कन्द पुराण और लिंग पुराण के अनुसार रूद्राक्ष आत्म शक्ति एवं कार्य क्षमता में वृद्धि करने वाला एंव कार्य व व्यवसाय में प्रगति करवाता हैं। जिस प्रकार सें भगवान शिव कल्याणकारी है, उसी प्रकार से रूद्राक्ष भी अनेक प्रकार की संमस्याओं का निष्पादन करने में सक्षम हैं।
रूद्राक्ष की भारतीय ज्योतिष में भी काफी उपयोगिता है। ग्रहों के दुष्प्रभाव को नष्ट करने में रूद्राक्ष का प्रयोग किया जाता है, जो अपने आप में एक अचूक उपाय है। गम्भीर रोगों में यदि जन्मपत्री के अनुसार रूद्राक्ष का उपयोग किया जाये तो आश्चर्यचकित परिणाम देखने को मिलते है। रूद्राक्ष की शक्ति व सामथ्र्य उसके धारीदार मुखों पर निर्भर होती है। एक मुखी से लेकर एक्कीस मुखी तक जो रूद्राक्ष देखें गये है, उनकी अलौकिक शक्ति और क्षमता अलग-अलग रूप में प्रदर्शित होती है। इसकी क्षमता और शक्ति उत्पत्ति स्थान से भी प्रभावित होती हैं।
जावा ,बाला और मलयद्वीप में उत्पन्न रूद्राक्ष तथा भारत और नेपाल में उत्पन्न रूद्राक्षों से कहीं अधिक सामर्थयवान एवं ऊर्जाशील होते है। हिमालय तथा तराई-क्षेत्र में उत्पन्न रूद्राक्ष, दक्षिण भारत में उत्पन्न रूद्राक्षों की अपेक्षा अधिक प्रभावशली होते है। नेपाल में उत्पन्न गोल और कांटेदार एक-मुखी रूद्राक्ष बेहद ऊर्जावान एवं शक्तिशाली होता है। एक मुखी, दस मुखी तथा चैदहमुखी रूद्राक्ष मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। पन्द्रह से इक्कीस मुखी तक रूद्रास बाजार में उपलब्ध नहीं है। जहाँ -कहीं पर भी उपलब्ध है। वे पूजनघर में स्थान पाये हुये हैं
उपयोगः-
रूद्राक्ष का उपयोग तीन प्रकार से किया जाता है।
1-पूजन में । 2-शरीर में धारण करने में, 3-औषिध के रूप में ।
एकमुखी रूद्राक्ष को शिवरूप मानकर विधिवत पूजन करने का विधान है। दो मुखी से चैदहमुखी तक के रूद्राक्ष को शरीर में धारण करना चाहिए। रूद्राक्ष को बाजू में, शिखा में, हाथों में व माला रूप में तथा औषधी आदि के रूप में रूद्राक्षा का उपयोग किया जाता है। रूद्राक्ष को भस्म बनाकर घिसकर तथा रूद्राक्ष को गंगाजल से शुद्ध करके खाया-पिया और चाटा जाता हैं। रूद्राक्ष का सर्वोत्कृष्ट और गोपनीय उपयोग तन्त्र साधना में भी किया जाता है| रुद्राक्ष तन्त्र साधना में कुण्डली जाग्रत कराने का मुख्य साधन है।
पहचानः-वर्तमान में कौन सी वस्तु असली और कौन नकली यह समझ पाना टेढी खीर हैं । जब लोग अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए खाद्य पदार्थो में मिलावट कर देते हैं, जो स्वास्थ्य और जीवन दोनों कें लिए घातक है, तो भला कैसी उम्मीद की जाये कि अन्य वस्तुयें बाजार में असली ही मिलेगी। रूद्राक्ष का किसी भी प्रकार में उपयोग करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि जिसे हम उपयोग में ला रहे है,वह असली है या नकली ,अन्यथा लाभ करने के बजाय हानि ही करेगा।
1-रूद्राक्ष को जल में डालने से यह डूब जाये तो असली अन्यथा नकली। किन्तु अब यह पहचान व्यापारियों के शिल्प ने समाप्त कर दी। शीशम की लकड़ी के बने रूद्राक्ष आसानी से पानी में डूब जाते हैं।
2-तांबे का एक टुकड़ा नीचे रखकर उसके ऊपर रूद्राक्ष रखकर फिर दूसरा तांबेका टुकड़ा रूद्राक्ष के ऊपर रख दिया जाये और एक अॅगुली से हल्के से दबाया जाये तो असली रूद्राक्ष नाचने लगता है। यह पहचान अभी तक प्रमाणिक हैं।
3- शुद्ध सरसों के तेल में रूद्राक्ष को डालकर 10 मिनट तक गर्म किया जाये तो असली रूद्र्राक्ष होने पर वह अधिक चमकदार हो जायेगा और यदि नकली है तो वह धूमिल हो जायेगा।

                                           !! दो मुखी रूद्राक्ष !!
दो मुखी रूद्राख गौ हत्या से लगने वाले पाप से मुक्ति दिलाने वाला होता है। यह रूद्राक्ष अपने-आप में आलौकिक शक्ति धारण किये रहता है। द्विमुखी रूद्राक्ष को शरीर के किसी भी अंग में धारण से मानसिक शन्ति एंव पारिवार में आपसी प्रेम व सौहार्द्ध बना रहता है। यदि कार्य व व्यापार में निरन्तर हानि हो रही है, तो दो मुखी रूद्राक्ष धारण करने से लाभ मिलता है।
मन, बुद्धि, विवेक पर इस रूद्राक्ष का विशेष प्रभाव रहता है। जिन जाताकों के वैवाहिक जीवन में आपसी अनबन की स्थिति बनी रहती है तो वह लोग पति व पत्नी दोनों को दो मुखी रूद्राक्ष भिमन्त्रित करके गले में धारण करने से शीघ्र ही मतभेद दूर होकर उनमें एकता व परस्पर प्रेम की भावना बलवती होने लगती है। जिन युवक-युवितियों के विवाह में बिलम्ब या बाधा आ रही है, उन्हे यह रूद्राक्ष धराण करने से शुभ परिणाम मिलते है।
दोमुखी रूद्राक्ष धारण करने से चन्द्र ग्रह से सम्बन्धित दोष भी दूर हो जाते है।
धारण विधि- किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन ताम्रपाद में बेल पत्र रखकर, उसके उपर द्विमुखी रूद्राक्ष रखकर कुश या बेल पत्र से शुद्ध जल से, 11 बार निम्न मन्त्र से-
'ॐ नमस्ते देवदेवाय महादेव मौलिने।

जगद्धात्रे सवित्रे च शंकराय शिवाय च''।। जल छिड़कर तत्पश्चात दूध छिड़के। फिर गंगा जल से परिमार्जित कर रूद्राक्ष को ताम्रपाद में रख दें। तीसरे दिन पूर्णमासी को उसी भांति सामने रखकर गंगाजल से स्नान करायें। उसके पश्चात हवन कुण्ड में अष्ठांग हवन सामग्री से 108 बार '' नमः शिवाय'' से स्वाहा करते हुये हवन करना चाहिए। हवन के बाद रूद्राक्ष का श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करें। प्रार्थना के बाद रूद्राक्ष को माथे से स्पर्श से कराकर धारण करना चाहिए। उपरोक्त विधि से शुद्ध करके रूद्राक्ष को धारण करने पर आशा के अनुरूप लाभ प्राप्त होगा।