बुधवार, 14 मार्च 2012

!! भारत के आदिवासी विकाश की राह तकते हुए ...!!

भारत सरकार हर साल अपने बजट में प्रावधान करती है आदिवासी विकास की पर ये बजट आदिवासी क्षेत्र के विकास और शिक्षण-पोषण की योजनाएँ भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा साधन हैं. योजनाएँ  लाने (मलाई खाने) में एनजीओ और सरकारी विभाग रुचि रखते हैं लेकिन उन्हें ईमानदारी से लागू करने में उनकी कोई रुचि नहीं है. दुराग्रहपूर्ण दृष्टिकोण रखने वाले भारतीय मीडिया ने सभी आदिवासियों को नक्सली छवि में रंग दिया है जिसका टॉप नेतृत्व बेकसूर बना रहता है लेकिन साधारण कार्यकर्ता को पुलिस की बंदूकों के सामने खड़ा किया जाता है. इस व्यवस्था में इनका क्या भला हो सकता है! ज़मीनी सचाई यह है कि इन आदिवासियों को देश के मानव संसाधनों में न गिनने की प्रवृत्ति हमारे यहाँ है ! 

भारत का तथाकथित पढ़ा-लिखा (एक) वर्ग इनके बारे में बहुत कुछ कहता है लेकिन उसमें वास्तविकता के प्रति संवेदनशीलता का अभाव है. पिछले दिनों एक साइट पर भारत की आदिवासी जातियों पर कुछ आलेख देखने को मिले जिनमें सुंदर शब्दों में बहुत कुछ कहा गया था. लेकिन इनकी परंपराएँ (घोटुल) दिखाने के नाम पर आदिवासी महिलाओं के ऐसे ब्लैक एंड व्हाइट चित्रों का प्रयोग किया गया जिनके पास पहनने को कपड़े नहीं थे. लेखक की नीयत साफ़ झलक रही थी. भारत का ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति कपड़े पहनता है बशर्ते उसके पास हो. ज़ाहिर है विद्वान लेखक को भारत की छवि नहीं चाहिए थी बल्कि आलेख के लिए 'मसाला' चाहिए था.
कुछ साइट में लेखक ने इन आदिवासियों के पुराने, ब्लैक एंड व्हाइट, चित्रों का प्रयोग किया है. स्पष्टतः ये चित्र लेखक के नहीं थे. क्या भारत के ये मूलनिवासी लोग अपनी ग़रीबी की ऐसी फोटो खींचने की अनुमति आज देते हैं? नहीं. और क्यों दें? सामाजिक कार्यकर्ता जानते हैं कि 'बाहर' से यदि कोई आ जाए तो ये लोग पहले अपनी झोंपड़ियों में जाते हैं और जो भी बेहतर कपड़ा हो उसे पहन कर सामने आते हैं. काश लेखक ने इनकी समझदारी का सम्मान किया होता. इस बारे में मैंने उस साइट पर एक टिप्पणी लिखी थी जिसे हटा दिया गया. आपसे शेयर कर रहा हूँ कि जो मैंने लिखा था वह इसी पैरा में है. बाद में पता चला कि लेखक, जो स्वयं को आदिवासी मामलों का विशेषज्ञ बताता है, वास्तव में वहाँ लकड़ी का ठेकेदार है. यानि उन्हीं लोगों में से एक जिन्होंने आदिवासी क्षेत्रों को उजाड़ने के लिए कई हथकंडे अपनाए जिनमें ऐसे आलेख छपवाना भी शामिल था जो यहाँ के निवासियों को मानवता की सीमा से बाहर की चीज़ साबित कर सकें. क्या यही विकाश है भारत सरकार का ..?

!!पानीपत के युद्धों का पूरा सच - राजेश कश्यप !!

नोट ---यह ब्लॉग सिर्फ कोपी पेस्ट है ,,मकसद है इतिहास की सच्चाई से अवगत करना .......
 
हरियाणा प्रदेश पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर बेहद गौरवमयी एवं उल्लेखनीय स्थान रखता है। हरियाणा की माटी का कण-कण शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की कहानी बयां करता है। महाभारतकालीन ‘धर्म-यृद्ध’ भी हरियाणा प्रदेश की पावन भूमि पर कुरूक्षेत्र के मैदान में लड़ा गया था और यहीं पर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘गीता’ का उपदेश देकर पूरे विश्व को एक नई दिशा दी थी। उसी प्रकार हरियाणा का पानीपत जिला भी पौराणिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से राष्ट्रीय स्तर पर अपना विशिष्ट स्थान रखता है। महाभारत काल में युद्ध को टालने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने शांतिदूत के रूप में पाण्डव पुत्र युद्धिष्ठर के लिए जिन पाँच गाँवों को देने की माँग की थी, उनमें से एक पानीपत था। ऐतिहासिक नजरिए से देखा जाए तो पानीपत के मैदान पर ऐसी तीन ऐतिहासिक लड़ाईयां लड़ीं गईं, जिन्होंने पूरे देश की तकदीर और तस्वीर बदलकर रख दी थी। पानीपत की तीसरी और अंतिम ऐतिहासिक लड़ाई 250 वर्ष पूर्व 14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ और अफगानी सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई थी। हालांकि इस लड़ाई में मराठों की बुरी तरह से हार हुई थी, इसके बावजूद पूरा देश मराठों के शौर्य, स्वाभिमान और संघर्ष की गौरवमयी ऐतिहासिक दास्तां को स्मरण एवं नमन करते हुए गर्व महसूस कर रहा है।


इतिहास के पटल पर पानीपत की तीनों लड़ाईयों ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। हर लड़ाई के अंत में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। पानीपत की पहली लड़ाई के उपरांत लोदी वंश के अंत और मुगल साम्राज्य की नींव की कहानी लिखी गई। दूसरी लड़ाई के उपरांत सूरवंश के अंत और मुगल साम्राज्य के सशक्तिकरण का इतिहास लिखा गया। तीसरी लड़ाई ने मराठों को हार और अहमदशाह अब्दाली को इतिहास में सुनहरी अक्षरों में अपना नाम लिखवाने का उपहार देने के साथ ही ईस्ट इण्डिया कंपनी के प्रभुत्व की स्थापना भी की। पानीपत की हर लड़ाई हमें जहां भारतीय वीरों के शौर्य, स्वाभिमान एवं संघर्ष से परिचित कराती है, वहीं आपसी फूट, स्वार्थता और अदूरदर्शिता जैसी भारी भूलों के प्रति भी निरन्तर सचेत करती है।


पानीपत की प्रथम लड़ाई

पानीपत की पहली लड़ाई 21 अप्रैल, 1526 को पानीपत के मैदान में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी और मुगल शासक बाबर के बीच हुई। इब्राहीम लोदी अपने पिता सिकन्दर लोदी की नवम्बर, 1517 में मृत्यु के उपरांत दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान हुआ। इस दौरान देश अस्थिरता एवं अराजकता के दौर से गुजर रहा था और आपसी मतभेदों एवं निजी स्वार्थों के चलते दिल्ली की सत्ता निरन्तर प्रभावहीन होती चली जा रही थी। इन विपरीत परिस्थितियों ने अफगानी शासक बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए लालायित कर दिया। उसने 5 जनवरी, 1526 को अपनी सेना सहित दिल्ली पर धावा बोलने के लिए अपने कदम आगे बढ़ा दिए। जब इसकी सूचना सुल्तान इब्राहीम लोदी को मिली तो उसने बाबर को रोकने के लिए हिसार के शेखदार हमीद खाँ को सेना सहित मैदान में भेजा। बाबर ने हमीद खाँ का मुकाबला करने के लिए अपने पुत्र हुमायुं को भेज दिया। हुमायुं ने अपनी सूझबूझ और ताकत के बलपर 25 फरवरी, 1526  को अंबाला में हमीद खाँ को पराजित कर दिया।
इस जीत से उत्साहित होकर बाबर ने अपना सैन्य पड़ाव अंबाला के निकट शाहाबाद मारकंडा में डाल दिया और जासूसांे के जरिए पता लगा लिया कि सुल्तान की तरफ से दौलत खाँ लोदी सेना सहित उनकीं तरफ आ रहा है। बाबर ने दौलत खाँ लोदी का मुकाबला करने के लिए सेना की एक टुकड़ी के साथ मेहंदी ख्वाजा को भेजा। इसमें मेहंदी ख्वाजा की जीत हुई। इसके बाद बाबर ने सेना सहित सीधे दिल्ली का रूख कर लिया। सूचना पाकर इब्राहिम लोदी भी भारी सेना के साथ बाबर की टक्कर लेने के लिए चल पड़ा। दोनों योद्धा अपने भारी सैन्य बल के साथ पानीपत के मैदान पर 21 अप्रैल, 1526 के दिन आमने-सामने आ डटे।
दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी




मुगल शासक बाबर


सैन्य बल के मामले में सुल्तान इब्राहिम लोदी का पलड़ा भारी था। ‘बाबरनामा’ के अनुसार बाबर की सेना में कुल 12,000 सैनिक शामिल थे। लेकिन, इतिहासकार मेजर डेविड के अनुसार यह संख्या 10,000 और कर्नल हेग के मुताबिक 25,000 थी। दूसरी तरफ, इब्राहिम की सेना में ‘बाबरनामा’ के अनुसार एक लाख सैनिक और एक हजार हाथी शामिल थे। जबकि, जादुनाथ सरकार के मुताबिक 20,000 कुशल अश्वारोही सैनिक, 20,000 साधारण अश्वारोही सैनिक, 30,000 पैदल सैनिक और 1,000 हाथी सैनिक थे। बाबर की सेना में नवीनतम हथियार, तोपें और बंदूकें थीं। तोपें गाड़ियों में रखकर युद्ध स्थल पर लाकर प्रयोग की जाती थीं। सभी सैनिक पूर्ण रूप से कवच-युक्त एवं धनुष-बाण विद्या में एकदम निपुण थे। बाबर के कुशल नेतृत्व, सूझबूझ और आग्नेयास्त्रों की ताकत आदि के सामने सुल्तान इब्राहिम लोदी बेहद कमजोर थे। सुल्तान की सेना के प्रमुख हथियार तलवार, भाला, लाठी, कुल्हाड़ी व धनुष-बाण आदि थे। हालांकि उनके पास विस्फोटक हथियार भी थे, लेकिन, तोपों के सामने उनका कोई मुकाबला ही नहीं था। इससे गंभीर स्थिति यह थी कि सुल्तान की सेना में एकजुटता का नितांत अभाव और सुल्तान की अदूरदर्शिता  का अवगुण आड़े आ रहा था।
दोनों तरफ से सुनियोजित तरीके से एक-दूसरे पर भयंकर आक्रमण हुए। सुल्तान की रणनीतिक अकुशलता और बाबर की सूझबूझ भरी रणनीति ने युद्ध को अंतत: अंजाम तक पहुंचा दिया। इस भीषण युद्ध में सुल्तान इब्राहिम लोदी व उसकी सेना मृत्यु को प्राप्त हुई और बाबर के हिस्से में ऐतिहासिक जीत दर्ज हुई। इस लड़ाई के उपरांत लोदी वंश का अंत और मुगल वंश का आगाज हुआ। इतिहासकार प्रो. एस.एम.जाफर के अनुसार, “इस युद्ध से भारतीय इतिहास में एक नए युग का आरंभ हुआ। लोदी वंश के स्थान पर मुगल वंश की स्थापना हुई। इस नए वंश ने समय आने पर ऐसे प्रतिभाशाली तथा महान् शासकों को जन्म दिया, जिनकी छत्रछाया में भारत ने असाधारण उन्नति एवं महानता प्राप्त की।”


पानीपत की दूसरी लड़ाई

पानीपत की दूसरी लड़ाई 5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान पर ही शेरशाह सूरी के वंशज और मुहम्मद आदिलशाह के मुख्य सेनापति हेमू तथा बाबर के वंशज अकबर के बीच लड़ी गई। इस लड़ाई के बाद भी एक नए युग की शुरूआत हुई और कई नए अध्याय खुले। आदिलशाह शेरशाह सूरी वंश का अंतिम सम्राट था और ऐशोआराम से सम्पन्न था। लेकिन, उनका मुख्य सेनापति हेमू अत्यन्त वीर एवं समझदार था। उसने अफगानी शासन को मजबूत करने के लिए 22 सफल लड़ाईयां लड़ी। इसी दौरान 26 जनवरी, 1556 को दिल्ली में मुगल सम्राट हुमायुं की मृत्यु हो गई। उस समय उसके पुत्र अकबर की आयु मात्र 13 वर्ष थी। इसके बावजूद उनके सेनापति बैरम खां ने अपने संरक्षण में शहजादे अकबर को दिल्ली दरबार के बादशाह की गद्दी पर बैठा दिया।
मुहम्मद आदिलशाह के मुख्य सेनापति हेमू




बाबर के वंशज अकबर


जब बैरम खां को सूचना मिली कि हेमू भारी सेना के साथ दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है तो वह भी पूरे सैन्य बल के साथ दिल्ली से कूच कर गया। हालांकि सैन्य बल के मामले में हेमू का पलड़ा भारी था। इतिहासकारों के अनुसार हेमू की सेना में कुल एक लाख सैनिक थे, जिसमें 30,000 राजपूत सैनिक, 1500 हाथी सैनिक और शेष अफगान पैदल सैनिक एवं अश्वारोही सैनिक थे। जबकि अकबर की सेना में मात्र 20,000 सैनिक ही थे। दोनों तरफ के योद्धा अपनी आन-बान और शान के लिए मैदान में डटकर लड़े। शुरूआत में हेमू का पलड़ा भारी रहा और मुगलों में भगदड़ मचने लगी। लेकिन, बैरम खां ने सुनियोजित तरीके से हेमू की सेना पर आगे, पीछे और मध्य में भारी हमला किया और चक्रव्युह की रचना करते हुए उनके तोपखाने पर भी कब्जा कर लिया। मुगल सेना ने हेमू सेना के हाथियों पर तीरों से हमला करके उन्हें घायल करना शुरू कर दिया। मुगलों की तोपों की भयंकर गूंज से हाथी भड़क गए और वे अपने ही सैनिकों को कुचलने लगे। परिणामस्वरूप हेमू की सेना में भगदड़ मच गई और चारों तरफ से घिरने के बाद असहाय सी हो गई। इस भीषण युद्ध में हेमू सेना के मुख्य सहयोगी वीरगति को प्राप्त हो गए। इसी दौरान दुर्भाग्यवश एक तीर हेमू की आँख में आ धंसा। इसके बावजूद शूरवीर हेमू ने आँख से तीर निकाला और साफे से आँख बांधकर युद्ध जारी रखा। लेकिन, अधिक खून बह जाने के कारण हेमू बेहोश हो गया और नीचे गिर पड़ा। इसके बाद हेमू की सेना में भगदड़ मच गई और सभी सैनिक युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए।
बेहोश एवं अत्यन्त घायल हेमू को मुगल सैनिक उठाकर ले गए। क्रूर मुगल सेनापति बैरम खाँ ने मुर्छित अवस्था में ही हेमू के सिर को तलवार से काट दिया। उसने हेमू के सिर को काबूल भेजा और धड़ को दिल्ली के प्रमुख द्वार पर लटका दिया, ताकि उनका खौफ देशभर में फैल जाए और कोई भी ताकत उनसे टकराने की हिम्मत न कर सके। इस प्रकार पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर को उसके सेनापति बैरम खाँ की बदौलत भारी विजय हासिल हुई। इस विजय ने मुगल शासन को भारत में बेहद मजबूत स्थिति में पहुंचा दिया। इसके साथ ही अकबर ने दिल्ली तथा आगरा के साथ-साथ हेमू के नगर मेवात पर भी अपना कब्जा जमा लिया।


पानीपत की तीसरी लड़ाई

पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की बेहद महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी बदलावों वाली साबित हुई। पानीपत की तीसरी जंग 250 वर्ष पूर्व 14 जनवरी, 1761 को मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ और अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। इस समय उत्तर भारत में सिक्ख और दक्षिण में मराठों की शक्ति का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ रहा था। हालांकि इस दौरान भारत आपसी मतभेदों व निजी स्वार्थों के कारण अस्थिरता का शिकार था और विदेशी आक्रमणकारियों के निशाने पर था। इससे पूर्व नादिरशाह व अहमदशाह अब्दाली कई बार आक्रमण कर चुके थे और भयंकर तबाही के साथ-साथ भारी धन-धान्य लूटकर ले जा चुके थे।
सन् 1747 में अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ। अहमदशाह अब्दाली ने अगले ही वर्ष 1748 में भारत पर आक्रमण की शुरूआत कर दी। 23 जनवरी, 1756 को चौथा आक्रमण करके उसने कश्मीर, पंजाब, सिंध तथा सरहिन्द पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। वह अप्रैल, 1757 में अपने पुत्र तैमुरशाह को पंजाब का सुबेदार बनाकर स्वदेश लौट गया। इसी बीच तैमूरशाह ने अपने रौब को बरकरार रखते हुए एक सम्मानित सिक्ख का घोर अपमान कर डाला। इससे क्रोधित सिक्खों ने मराठों के साथ मिलकर अप्रैल, 1758 में तैमूरशाह को देश से खदेड़ दिया। जब इस घटना का पता अहमदशाह अब्दाली को लगा तो वह इसका बदला लेने के लिए एक बार फिर भारी सैन्य बल के साथ भारत पर पाँचवां आक्रमण करने के लिए आ धमका। उसने आते ही पुन: पंजाब पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस घटना को मराठों ने अपना अपमान समझा और इसका बदला लेने का संकल्प कर लिया। पंजाब पर कब्जा करने के उपरांत अहमदशाह अब्दाली रूहेला व अवध नवाब के सहयोग से दिल्ली की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। उसने 1 जनवरी, 1760 को बरारघाट के नजदीक दत्ता जी सिन्धिया को युद्ध में परास्त करके मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद उसने 4 मार्च, 1760 को मल्हार राव होल्कर व जनकोजी आदि को भी युद्ध में बुरी तरह पराजित कर दिया।


मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ




अफगान सेनानायक अहमदशाह अब्दाली


अहमदशाह के निरन्तर बढ़ते कदमों को देखते हुए मराठा सरदार पेशवा ने उत्तर भारत में पुन: मराठा का वर्चस्व स्थापित करने के लिए अपने शूरवीर यौद्धा व सेनापति सदाशिवराव भाऊ को तैनात किया और इसके साथ ही अपने पुत्र विश्वास राव को प्रधान सेनापति बना दिया। सदाशिवराव भाऊ भारी सैन्य बल के साथ 14 मार्च, 1760 को अब्दाली को सबक सिखाने के लिए निकल पड़ा। इस जंग में दोनों तरफ के सैन्य बल में कोई खास अन्तर नहीं था। दोनों तरफ विशाल सेना और आधुनिकतम हथियार थे। इतिहासकारों के अनुसार सदाशिवराव भाऊ की सेना में 15,000 पैदल सैनिक व 55,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उसके पास 200 तोपें भी थीं। इसके अलावा उसके सहयोगी योद्धा इब्राहिम गर्दी की सैन्य टूकड़ी में 9,000 पैदल सैनिक और 2,000 कुशल अश्वारोहियों के साथ 40 हल्की तोपें भी थीं। जबकि दूसरी तरफ, अहमदशाह अब्दाली की सेना में कुल 38,000 पैदल सैनिक और 42,000 अश्वारोही सैनिक शामिल थे और उनके पास 80 बड़ी तोपें थीं। इसके अलावा अब्दाली की आरक्षित सैन्य टूकड़ी में 24 सैनिक दस्ते (प्रत्येक में 1200 सैनिक), 10,000 पैदल बंदूकधारी सैनिक और 2,000 ऊँट सवार सैनिक शामिल थे। इस प्रकार दोनों तरफ भारी सैन्य बल पानीपत की तीसरी लड़ाई में आमने-सामने आ खड़ा हुआ था।


14 जनवरी, 1761 को सुबह 8 बजे मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने तोपों की भयंकर गर्जना के साथ अहमदशाह अब्दाली का मुँह मोड़ने के लिए धावा बोल दिया। दोनों तरफ के योद्धाओं ने अपने सहयोगियों के साथ सुनियोजित तरीके से अपना रणकौशल दिखाना शुरू कर दिया। देखते ही देखते शुरूआत के 3 घण्टों में दोनों तरफ वीर सैनिकों की लाशों के ढ़ेर लग गए। इस दौरान मराठा सेना के छह दल और अब्दाली सेना के 8,000 सैनिक मौत के आगोश में समा चुके थे। इसके बाद मराठा वीरों ने अफगानी सेना को बुरी तरह धूल चटाना शुरू किया और उसके 3,000 दुर्रानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। अब्दाली सेना में मराठा सेना के आतंक का साया बढ़ने लगा। लेकिन, दूसरे ही पल अब्दाली व उसके सहयोगियों ने अपने युद्ध की नीति बदल दी और उन्होंने चक्रव्युह रचकर अपनी आरक्षित सेना के ऊँट सवार सैनिकों के साथ भूख-प्यास से व्याकुल हो चुकी मराठा सेना पर एकाएक भीषण हमला बोल दिया। इसके बाद बाजी पलटकर अब्दाली की तरफ जा पहुंची।


मराठा वीरों को अब्दाली के चक्रव्युह से जान बचाकर भागना पड़ा। सदाशिवराव भाऊ की स्थिति भी एकदम नाजुक और असहाय हो गई। दिनभर में कई बार युद्ध की बाजी पलटी। कभी मराठा सेना का पलड़ा भारी हो जाता और कभी अफगानी सेना भारी पड़ती नजर आती। लेकिन, अंतत: अब्दाली ने अपने कुशल नेतृत्व व रणकौशल की बदौलत इस जंग को जीत लिया। इस युद्ध में अब्दाली की जीत के साथ ही मराठों का एक अध्याय समाप्त हो गया। इसके साथ ही जहां मराठा युग का अंत हुआ, वहीं, दूसरे युग की शुरूआत के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभुत्व भी स्थापित हो गया। इतिहासकार सिडनी ओवेन ने इस सन्दर्भ में लिखा कि – “पानीपत के इस संग्राम के साथ-साथ भारतीय इतिहास के भारतीय युग का अंत हो गया।”


पानीपत के तीसरे संग्राम में भारी हार के बाद सदाशिवराव भाऊ के सन्दर्भ में कई किवदन्तियां प्रचलित हैं। पहली किवदन्ती यह है कि सदाशिवराव भाऊ पानीपत की इस जंग में शहीद हो गए थे और उसका सिर कटा शरीर तीन दिन बाद लाशों के ढ़ेर में मिला था। दूसरी किवदन्ती के अनुसार सदाशिवराव भाऊ ने युद्ध में हार के उरान्त रोहतक जिले के सांघी गाँव में आकर शरण ली थी। तीसरी किवदन्ती यह है कि भाऊ ने सोनीपत जिले के मोई गाँव में शरण ली थी और बाद में नाथ सम्प्रदाय में दक्ष हो गए थे। एक अन्य किवदन्ती के अनुसार, सदाशिवराव भाऊ ने पानीपत तहसील में यमुना नदी के किनारे ‘भाऊपुर’ नामक गाँव बसाया था। यहां पर एक किले के अवशेष भी थे, जिसे ‘भाऊ का किला’ के नाम से जाना जाता था।


पानीपत की लड़ाई मराठा वीर विपरित परिस्थितियों के कारण हारे। उस दौरान दिल्ली और पानीपत के भीषण अकालों ने मराठा वीरों को तोड़कर कर रख दिया था। मैदान में हरी घास का तिनका तक दिखाई नहीं दे रहा था। मजबूरी में पेड़ों की छाल व जड़ें खोदकर घास के स्थान पर घोड़ों को खिलानी पड़ीं। सेनापति सदाशिवराव भाऊ भी भूख से जूझने को विवश हुआ और सिर्फ दूध पर ही आश्रित होकर रह गया। छापामार युद्ध में माहिर मराठा सेना को पानीपत के समतल मैदान में अपनी इस विद्या का प्रयोग करने का भी मौका नहीं मिल पाया। अत्याधुनिक हथियारों और तोपों का मुकाबला लाखों वीरों ने अपनी जान गंवाकर किया। परिस्थिति और प्रकृति की मार ने मराठा वीरों के हिस्से में हार लिख दी।
सांसद यशोधरा राजे सिंधिया के अनुसार, ‘पानीपत का तृतीय संग्राम एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर रहा है। पानीपत संग्राम में लाखों मराठाओं ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया।’ इतिहासकार डा. शरद हेवालकर के कथनानुसार, ‘पानीपत का तीसरा युद्ध, विश्व के इतिहास का ऐसा संग्राम था, जिसने पूरे विश्व के राजनीतिक पटल को बदलकर रख दिया। पानीपत संग्राम हमारे राष्ट्रीय जीवन की जीत है, जो हमारी अखण्डता के साथ चलती आई है।’

पानीपत की तीसरी लड़ाई भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण धरोहर है। इस जंग में बेशक मराठा वीरों को हार का सामना करना पड़ा हो, लेकिन भारतीय इतिहास में उनकी वीरता का अमिट यशोगान अंकित हो चुका है। हरियाणा की धरती पर लड़ी गई यह लड़ाई, आज भी यहां के लोगों के जहन में गहराई तक रची बसी है। मराठा वीरों के खून से सनी पानीपत की मिट्टी को आज भी बड़े मान, सम्मान एवं गौरव के साथ नमन किया जाता है। मराठा वीरों के खून से मैदान में खड़ा आम का पेड़ भी काला पड़ गया था। इसी कारण यहां पर युद्धवीरों की स्मृति में उग्राखेड़ी के पास ‘काला अंब’ स्मारक बनाया गया और इसे हरियाणा प्रदेश की प्रमुख धरोहरों में शामिल किया गया। इन सबके अलावा पानीपत में ही एक देवी का मन्दिर है। यह मन्दिर मराठों की स्मृति का द्योतक है। इसे मराठा सेनापति गणपति राव पेशवा ने बनवाया था।


देवी का मन्दिर


मराठा वीरों की वीरता से जुड़े गीत, भजन, आल्हा, अलग-अलग किस्से, कहानियों का ओजस्वी रंग हरियाणवी लोकसंस्कृति में सहज देखा जा सकता है। जोगी मराठा वीरों की वीरता के लोकगीत गाते हुए गर्व महसूस करते हैं। एक हरियाणवी गीत में सदाशिवराव भाऊ की माँ युद्व के लिए निकल रहे भाऊ को शनवार बाड़े की ड्योढ़ी पर रोक लेती है और अपनी चिन्ता प्रकट करते हुए कहती है -


तू क्या शाह से लड़ेगा मन में गरवाया।
बड़े राव दत्ता पटेल का सिर तोड़ भगाया।
शुकताल पै भुरटिया ढूंढा ना पाया।
बेटा, दक्खिन बैठ करो राज, मेरी बहुत ही माया।


(अर्थात्, बेटा! तू अब्दाली से लड़ने और उसे हराने के अहंकार को मन से निकाल दो। तुम जानते हो कि उसने शुक्रताल पर दत्ता जी की गर्दन उतारकर कैसी दुर्दशा कर दी थी। इसलिए बेटा, तू दक्षिण में बैठकर राज कर ले, हमारे पास बहुत बड़ी धनमाया है।)


माँ के मुँह से ऐसी बात सुनकर इस लोकगीत में शूरवीर भाऊ जवाब देता है -


भाऊ माता से कहै एक अर्ज सुणावै।
कहै कहाणी बावली, क्यूं हमनैं डरावै।
मेरा नवलाख लेज्या दखनी कौण सामनै आवै।
अटक नदी मेरी पायगा घोड़ों के जल प्यावै।
तोप कड़क कै खुणे देश गणियर गरजावै।
दखन तो सोई आवैंगे जिननैं हरलावै।


(अर्थात्, हे माता, तुम मुझे क्यों रोक रही हो? मुझे यह कहानी सुनाकर इतना क्यो डरा रही हो? मेरे सामने भला कौन ठहर सकता है। मैं अपने घोड़ों को अटक नदी का पानी पिलाकर आऊँगा। अपनी शक्तिशाली तोपों की मार से सभी शत्रुओं के छक्के छुड़ा दुँगा। भगवान की कृपा से मैं दक्षिण सकुशल वापस तो आऊँगा ही, इसके साथ ही गिलचा को पूरा तबाह करके आऊँगा।)


इस प्रकार मराठा वीरों की गाथाएं न केवल हरियाणा की संस्कृति में गहराई तक रची बसी हैं, इसके साथ ही यहां के लोगों में उनके प्रति अगाध श्रद्धा भरी हुई है। उदाहरण के तौरपर जब कोई छोटा बच्चा छींकता है तो माँ के मुँह से तुरन्त निकलता है, ‘जय छत्रपति माई रानियां की।’ इसका मतलब यहां की औरतें अपनी ईष्ट देवी के साथ-साथ मराठो की वीरता का प्रतीक छत्रपति शिवाजी का भी स्मरण करती हैं। केवल इतना ही नहीं हरियाणा में निवास करने वाली रोड़ जाति उसी पुरानी मराठा परंपरा को संजोए हुए है। इस जाति का मानना है कि पानीपत के तीसरे युद्ध में करारी हार होने के कारण काफी संख्या में मराठे वीर दक्षिण नहीं गए और यहीं पर बस गए और वे उन्हीं वीरों के वंशज हैं। जो मराठा वीर यहीं बस गए थे, वे ही बाद में रोड़ मराठा के नाम से जाने गए। इस प्रकार हरियाणा प्रदेश मराठों के शौर्य एवं बलिदान को अपने हृदय में बड़े गर्व एवं गौरव के साथ संजोए हुए है 

(नोट : लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
राजेश कश्यप