गुरुवार, 1 मार्च 2012

!! वेदों में गोमांस भक्षण ?


यहां प्रस्तुत सामग्री वैदिक शब्दों के आद्योपांत और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण पर आधारित है, जिस संदर्भ में वे वैदिक शब्दकोष, शब्दशास्त्र, व्याकरण तथा वैदिक मंत्रों के यथार्थ निरूपण के लिए अति आवश्यक अन्य साधनों में प्रयुक्त हुए हैं | अतः यह शोध श्रृंखला मैक्समूलर, ग्रिफ़िथ, विल्सन, विलियम्स् तथा अन्य भारतीय विचारकों के वेद और वैदिक भाषा के कार्य का अन्धानुकरण नहीं है | यद्यपि, पश्चिम के वर्तमान शिक्षा जगत में वे काफ़ी प्रचलित हैं, किंतु हमारे पास यह प्रमाणित करने के पर्याप्त कारण हैं कि उनका कार्य सच्चाई से कोसों दूर है | उनके इस पहलू पर हम यहां विस्तार से प्रकाश डालेंगे | विश्व की प्राचीनतम पुस्तक – वेद के प्रति गलत अवधारणाओं के विस्तृत विवेचन की श्रृंखला में यह प्रथम कड़ी है |

हिंदूओं के प्राथमिक पवित्र धर्म-ग्रंथ वेदों में अपवित्र बातों के भरे होने का लांछन सदियों से लगाया जा रहा है | यदि इन आक्षेपों को सही मान लिया जाए तो सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति, परंपराएं, मान्यताएं सिवाय वहशीपन, जंगलीयत और क्रूरता के और कुछ नहीं रह जाएंगी | वेद पृथ्वी पर ज्ञान के प्रथम स्रोत होने के अतिरिक्त हिन्दू धर्म के मूलाधार भी हैं, जो मानव मात्र के कल्याणमय जीवन जीने के लिए मार्गदर्शक हैं |

वेदों की झूठी निंदा करने की यह मुहीम उन विभिन्न तत्वों ने चला रखी है जिनके निहित स्वार्थ वेदों से कुछ चुनिंदा सन्दर्भों का हवाला देकर हिन्दुओं को दुनिया के समक्ष नीचा दिखाना चाहते हैं | यह सब गरीब और अशिक्षित भारतियों से अपनी मान्यताओं को छुड़वाने में काफ़ी कारगर साबित होता है कि उनके मूलाधार वेदों में नारी की अवमानना, मांस- भक्षण, बहुविवाह, जातिवाद और यहां तक की गौ- मांस भक्षण जैसे सभी अमानवीय तत्व विद्यमान हैं |

वेदों में आए त्याग या दान के अनुष्ठान के सन्दर्भों में जिसे यज्ञ भी कहा गया है, लोगों ने पशुबलिदान को आरोपित कर दिया है | आश्चर्य की बात है कि भारत में जन्में, पले- बढे बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जो प्राचीन भारत के गहन अध्ययन का दावा करता है, वेदों में इन अपवित्र तत्वों को सिद्ध करने के लिए पाश्चात्य विद्वानों का सहारा लेता है |

वेदों द्वारा गौ हत्या और गौ मांस को स्वीकृत बताना हिन्दुओं की आत्मा पर मर्मान्तक प्रहार है | गाय का सम्मान हिन्दू धर्म का केंद्र बिंदू है | जब कोई हिन्दू को उसकी मान्यताओं और मूल सिद्धांतों में दोष या खोट दिखाने में सफल हो जाए, तो उस में हीन भावना जागृत होती है और फिर वह आसानी से मार्गभ्रष्ट किया जा सकता है | ऐसे लाखों नादान हिन्दू हैं जो इन बातों से अनजान हैं, इसलिए प्रति उत्तर देने में नाकाम होने के कारण अन्य मतावलंबियों के सामने समर्पण कर देते हैं |

जितने भी स्थापित हित – जो वेदों को बदनाम कर रहे हैं वे केवल पाश्चात्य और भारतीय विशेषज्ञों तक ही सीमित नहीं हैं | हिन्दुओं में एक खास जमात ऐसी है जो जनसंख्या के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ें तबकों का शोषण कर अपनी बात मानने और उस पर अमल करने को बाध्य करती है अन्यथा दुष्परिणाम भुगतने की धमकी देती है |

वेदों के नाम पर थोपी गई इन सारी मिथ्या बातों का उत्तरदायित्व मुख्यतः मध्यकालीन वेदभाष्यकार महीधर, उव्वट और सायण द्वारा की गई व्याख्याओं पर है तथा वाम मार्गियों या तंत्र मार्गियों द्वारा वेदों के नाम से अपनी पुस्तकों में चलायी गई कुप्रथाओं पर है | एक अवधि के दौरान यह असत्यता सर्वत्र फ़ैल गई और अपनी जड़ें गहराई तक ज़माने में सफल रही, जब पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत की अधकचरी जानकारी से वेदों के अनुवाद के नाम पर सायण और महीधर के वेद- भाष्य की व्याख्याओं का वैसा का वैसा अपनी लिपि में रूपांतरण कर लिया | जबकि वे वेदों के मूल अभिप्राय को समुचित रूप समझने के लिए अति आवश्यक शिक्षा (स्वर विज्ञान), व्याकरण, निरुक्त (शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र), निघण्टु (वैदिक कोष), छंद , ज्योतिष तथा कल्प इत्यादि के ज्ञान से सर्वथा शून्य थे |

अग्निवीर के आन्दोलन का उद्देश्य वेदों के बारे में ऐसी मिथ्या धारणाओं का वास्तविक मूल्यांकन कर उनकी पवित्रता,शुद्धता,महान संकल्पना तथा मान्यता की स्थापना करना है | जो सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही नहीं बल्कि मानव मात्र के लिए बिना किसी बंधन,पक्षपात या भेदभाव के समान रूप से उपलब्ध हैं |



१.पशु-हिंसा का विरोध

यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत:

यजुर्वेद ४०। ७

जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |



अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः

मनुस्मृति ५।५१

मारने की आज्ञा देने वाला, पशु को मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, पशु को मारने वाला,

मांस को खरीदने और बेचने वाला, मांस को पकाने वाला और मांस खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं |



ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्

एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च

अथर्ववेद ६।१४०।२

हे दांतों की दोनों पंक्तियों ! चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |

यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता – पिता बनने की योग्यता रखते हैं |



य आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं च ये क्रविः

गर्भान् खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि

अथर्ववेद ८। ६।२३

वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खातें हैं, हमें उन्हें नष्ट कर देना चाहिए |



अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये

मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः

अथर्ववेद १०।१।२९

निर्दोषों को मारना निश्चित ही महा पाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार | वेदों में गाय और अन्य पशुओं के वध का स्पष्टतया निषेध होते हुए, इसे वेदों के नाम पर कैसे उचित ठहराया जा सकता है?



अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि

यजुर्वेद १।१

हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |



पशूंस्त्रायेथां

यजुर्वेद ६।११

पशुओं का पालन करो |



द्विपादव चतुष्पात् पाहि

यजुर्वेद १४।८

हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |



क्रव्य दा – क्रव्य (वध से प्राप्त मांस ) + अदा (खानेवाला) = मांस भक्षक |

पिशाच — पिशित (मांस) +अस (खानेवाला) = मांस खाने वाला |

असुत्रपा – असू (प्राण )+त्रपा(पर तृप्त होने वाला) = अपने भोजन के लिए दूसरों के प्राण हरने वाला | |

गर्भ दा और अंड़ दा = भूर्ण और अंड़े खाने वाले |

मांस दा = मांस खाने वाले |

वैदिक साहित्य में मांस भक्षकों को अत्यंत तिरस्कृत किया गया है | उन्हें राक्षस, पिशाच आदि की संज्ञा दी गई है जो दरिन्दे और हैवान माने गए हैं तथा जिन्हें सभ्य मानव समाज से बहिष्कृत समझा गया है |



ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे

यजुर्वेद ११।८३

सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो | हिन्दुओं द्वारा भोजन ग्रहण करने से पूर्व बोले जाने वाले इस मंत्र में प्रत्येक जीव के लिए पोषण उपलब्ध होने की कामना की गई है | जो दर्शन प्रत्येक प्राणी के लिए जीवन के हर क्षण में कल्याण ही चाहता हो, वह पशुओं के वध को मान्यता कैसे देगा ?



२.यज्ञ में हिंसा का विरोध

जैसी कुछ लोगों की प्रचलित मान्यता है कि यज्ञ में पशु वध किया जाता है, वैसा बिलकुल नहीं है | वेदों में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म या एक ऐसी क्रिया कहा गया है जो वातावरण को अत्यंत शुद्ध करती है |



अध्वर इति यज्ञानाम – ध्वरतिहिंसा कर्मा तत्प्रतिषेधः

निरुक्त २।७

निरुक्त या वैदिक शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र में यास्काचार्य के अनुसार यज्ञ का एक नाम अध्वर भी है | ध्वर का मतलब है हिंसा सहित किया गया कर्म, अतः अध्वर का अर्थ हिंसा रहित कर्म है | वेदों में अध्वर के ऐसे प्रयोग प्रचुरता से पाए जाते हैं |



महाभारत के परवर्ती काल में वेदों के गलत अर्थ किए गए तथा अन्य कई धर्म – ग्रंथों के विविध तथ्यों को भी प्रक्षिप्त किया गया | आचार्य शंकर वैदिक मूल्यों की पुनः स्थापना में एक सीमा तक सफल रहे | वर्तमान समय में स्वामी दयानंद सरस्वती – आधुनिक भारत के पितामह ने वेदों की व्याख्या वैदिक भाषा के सही नियमों तथा यथार्थ प्रमाणों के आधार पर की | उन्होंने वेद-भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा अन्य ग्रंथों की रचना की | उनके इस साहित्य से वैदिक मान्यताओं पर आधारित व्यापक सामाजिक सुधारणा हुई तथा वेदों के बारे में फैली हुई भ्रांतियों का निराकरण हुआ |



आइए,यज्ञ के बारे में वेदों के मंतव्य को जानें -

अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि

स इद देवेषु गच्छति
ऋग्वेद १ ।१।४

हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त हिंसा रहित यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है | ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेद भी वर्णित करते हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?



यज्ञों में पशु वध की अवधारणा उनके (यज्ञों ) के विविध प्रकार के नामों के कारण आई है जैसे अश्वमेध यज्ञ, गौमेध यज्ञ तथा नरमेध यज्ञ | किसी अतिरंजित कल्पना से भी इस संदर्भ में मेध का अर्थ वध संभव नहीं हो सकता |



यजुर्वेद अश्व का वर्णन करते हुए कहता है -

इमं मा हिंसीरेकशफं पशुं कनिक्रदं वाजिनं वाजिनेषु

यजुर्वेद १३।४८

इस एक खुर वाले, हिनहिनाने वाले तथा बहुत से पशुओं में अत्यंत वेगवान प्राणी का वध मत कर |अश्वमेध से अश्व को यज्ञ में बलि देने का तात्पर्य नहीं है इसके विपरीत यजुर्वेद में अश्व को नही मारने का स्पष्ट उल्लेख है | शतपथ में अश्व शब्द राष्ट्र या साम्राज्य के लिए आया है | मेध अर्थ वध नहीं होता | मेध शब्द बुद्धिपूर्वक किये गए कर्म को व्यक्त करता है | प्रकारांतर से उसका अर्थ मनुष्यों में संगतीकरण का भी है | जैसा कि मेध शब्द के धातु (मूल ) मेधृ -सं -ग -मे के अर्थ से स्पष्ट होता है |



राष्ट्रं वा अश्वमेध:

अन्नं हि गौ:

अग्निर्वा अश्व:

आज्यं मेधा:

(शतपथ १३।१।६।३)

स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं :-

राष्ट्र या साम्राज्य के वैभव, कल्याण और समृद्धि के लिए समर्पित यज्ञ ही अश्वमेध यज्ञ है | गौ शब्द का अर्थ पृथ्वी भी है | पृथ्वी तथा पर्यावरण की शुद्धता के लिए समर्पित यज्ञ गौमेध कहलाता है | ” अन्न, इन्द्रियाँ,किरण,पृथ्वी, आदि को पवित्र रखना गोमेध |” ” जब मनुष्य मर जाय, तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है | ”



३. गौ – मांस का निषेध

वेदों में पशुओं की हत्या का विरोध तो है ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है | यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है |

घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने मा हिंसी:

यजुर्वेद १३।४९

सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |



आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु

ऋग्वेद ७ ।५६।१७

ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |



सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्याम

अद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती

ऋग्वेद १।१६४।४०

अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों |वैदिक कोष निघण्टु में गौ या गाय के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और अदिति का भी समावेश है | निघण्टु के भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए | अहि – जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए | अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए | इन तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं करना चाहिए | प्राय: वेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है |



अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय

ऋग्वेद १ ।१६४।२७

अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |



सुप्रपाणं भवत्वघ्न्याभ्य:

ऋग्वेद ५।८३।८

अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो |



यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः

यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च

ऋग्वेद १०।८७।१६

मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए |



विमुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म

यजुर्वेद १२।७३

अघ्न्या गाय और बैल तुम्हें समृद्धि प्रदान करते हैं |



मा गामनागामदितिं वधिष्ट

ऋग्वेद ८।१०१।१५

गाय को मत मारो | गाय निष्पाप और अदिति – अखंडनीया है |



अन्तकाय गोघातं

यजुर्वेद ३०।१८

गौ हत्यारे का संहार किया जाये |



यदि नो गां हंसि यद्यश्वम् यदि पूरुषं

तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नो सो अवीरहा

अर्थववेद १।१६।४

यदि कोई हमारे गाय,घोड़े और पुरुषों की हत्या करता है, तो उसे सीसे की गोली से उड़ा दो |



वत्सं जातमिवाघ्न्या

अथर्ववेद ३।३०।१

आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है |



धेनुं सदनं रयीणाम्

अथर्ववेद ११।१।४

गाय सभी ऐश्वर्यों का उद्गम है |



ऋग्वेद के ६ वें मंडल का सम्पूर्ण २८ वां सूक्त गाय की महिमा बखान रहा है –

१.आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु

प्रत्येक जन यह सुनिश्चित करें कि गौएँ यातनाओं से दूर तथा स्वस्थ रहें |



२.भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने

गाय की देख-भाल करने वाले को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है |





३.न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति

गाय पर शत्रु भी शस्त्र का प्रयोग न करें |



४. न ता अर्वा रेनुककाटो अश्नुते न संस्कृत्रमुप यन्ति ता अभि

कोइ भी गाय का वध न करे |



५.गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छन्

गाय बल और समृद्धि लातीं हैं |



६. यूयं गावो मेदयथा

गाय यदि स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगी तो पुरुष और स्त्रियाँ भी निरोग और समृद्ध होंगे |



७. मा वः स्तेन ईशत माघशंस:

गाय हरी घास और शुद्ध जल क सेवन करें | वे मारी न जाएं और हमारे लिए समृद्धि लायें |



वेदों में मात्र गाय ही नहीं बल्कि प्रत्येक प्राणी के लिए प्रद्रर्शित उच्च भावना को समझने के लिए और कितने प्रमाण दिएं जाएं ? प्रस्तुत प्रमाणों से सुविज्ञ पाठक स्वयं यह निर्णय कर सकते हैं कि वेद किसी भी प्रकार कि अमानवीयता के सर्वथा ख़िलाफ़ हैं और जिस में गौ – वध तथा गौ- मांस का तो पूर्णत: निषेध है |



वेदों में गौ मांस का कहीं कोई विधान नहीं है |





संदर्भ ग्रंथ सूची -

१.ऋग्वेद भाष्य – स्वामी दयानंद सरस्वती

२.यजुर्वेद भाष्य -स्वामी दयानंद सरस्वती

३.No Beef in Vedas -B D Ukhul

४.वेदों का यथार्थ स्वरुप – पंडित धर्मदेव विद्यावाचस्पति

५.चारों वेद संहिता – पंडित दामोदर सातवलेकर

६. प्राचीन भारत में गौ मांस – एक समीक्षा – गीता प्रेस,गोरखपुर

७.The Myth of Holy Cow – D N Jha

८. Hymns of Atharvaveda – Griffith

९.Scared Book of the East – Max Muller

१०.Rigved Translations – Williams\ Jones

११.Sanskrit – English Dictionary – Moniar Williams

१२.वेद – भाष्य – दयानंद संस्थान

१३.Western Indologists – A Study of Motives – Pt.Bhagavadutt

१४.सत्यार्थ प्रकाश – स्वामी दयानंद सरस्वती

१५.ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका – स्वामी दयानंद सरस्वती

१६.Cloud over Understanding of Vedas – B D Ukhul

१७.शतपथ ब्राहमण

१८.निरुक्त – यास्काचार्य

१९. धातुपाठ – पाणिनि



परिशिष्ट, १४ अप्रैल २०१०

इस लेख के पश्चात् उन विभिन्न स्रोतों से तीखी प्रतिक्रिया हुई जिनके गले से यह सच्चाई नहीं उतर सकती कि हमारे वेद और राष्ट्र की प्राचीन संस्कृति अधिक आदर्शस्वरूप हैं बनिस्पत उनकी आधुनिक साम्यवादी विचारधारा के | मुझे कई मेल प्राप्त हुए जिनमें इस लेख को झुठलाने के प्रयास में अतिरिक्त हवाले देकर गोमांस का समर्थन दिखाया गया है | जिनमें ऋग्वेद से २ मंत्र ,मनुस्मृति के कुछ श्लोक तथा कुछ अन्य उद्धरण दिए गए हैं | जिसका एक उदाहरण यहाँ अवतार गिल की टिप्पणी है | इस बारे में मैं निम्न बातें कहना चाहूंगा –

a. लेख में प्रस्तुत मनुस्मृति के साक्ष्य में वध की अनुमति देने वाले तक को हत्यारा कहा गया है | अतः यह सभी अतिरिक्त श्लोक मनुस्मृति में प्रक्षेपित ( मिलावट किये गए) हैं या इनके अर्थ को बिगाड़ कर गलत रूप में प्रस्तुत किया गया है | मैं उन्हें डा. सुरेन्द्र कुमार द्वारा भाष्य की गयी मनुस्मृति पढ़ने की सलाह दूंगा | जो http : // vedicbooks.com पर उपलब्ध है |

b. प्राचीन साहित्य में गोमांस को सिद्ध करने के उनके अड़ियल रवैये के कपट का एक प्रतीक यह है कि वह मांस शब्द का अर्थ हमेशा मीट (गोश्त) के संदर्भ में ही लेते हैं | दरअसल, मांस शब्द की परिभाषा किसी भी गूदेदार वस्तु के रूप में की जाती है | मीट को मांस कहा जाता है क्योंकि वह गूदेदार होता है | इसी से, केवल मांस शब्द के प्रयोग को देखकर ही मीट नहीं समझा जा सकता |

c. उनके द्वारा प्रस्तुत अन्य उद्धरण संदेहास्पद एवं लचर हैं जो प्रमाण नहीं माने जा सकते | उनका तरीका बहुत आसान है – संस्कृत में लिखित किसी भी वचन को धर्म के रूप में प्रतिपादित करके मन माफ़िक अर्थ किये जाएं | इसी तरह, वे हमारी पाठ्य पुस्तकों में अनर्गल अपमानजनक दावों को भरकर मूर्ख बनाते आ रहें हैं |

d. वेदों से संबंधित जिन दो मंत्रों को प्रस्तुत कर वे गोमांस भक्षण को सिद्ध मान रहे हैं, आइए उनकी पड़ताल करें -

दावा:- ऋग्वेद (१०/८५/१३) कहता है -” कन्या के विवाह अवसर पर गाय और बैल का वध किया जाए | ”

तथ्य : – मंत्र में बताया गया है कि शीत ऋतु में मद्धिम हो चुकी सूर्य किरणें पुनः वसंत ऋतु में प्रखर हो जाती हैं | यहां सूर्य -किरणों के लिए प्रयुक्त शब्द ’गो’ है, जिसका एक अर्थ ‘गाय’ भी होता है | और इसीलिए मंत्र का अर्थ करते समय सूर्य – किरणों के बजाये गाय को विषय रूप में लेकर भी किया जा सकता है | ‘मद्धिम’ को सूचित करने के लिए ‘हन्यते’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका मतलब हत्या भी हो सकता है | परन्तु यदि ऐसा मान भी लें, तब भी मंत्र की अगली पंक्ति (जिसका अनुवाद जानबूझ कर छोड़ा गया है) कहती है कि -वसंत ऋतु में वे अपने वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त होती हैं | भला सर्दियों में मारी गई गाय दोबारा वसंत ऋतु में पुष्ट कैसे हो सकती है ? इस से भली प्रकार सिद्ध हो रहा है कि ज्ञान से कोरे कम्युनिस्ट किस प्रकार वेदों के साथ पक्षपात कर कलंकित करते हैं |

दावा :- ऋग्वेद (६/१७/१) का कथन है, ” इन्द्र गाय, बछड़े, घोड़े और भैंस का मांस खाया करते थे |”

तथ्य :- मंत्र में वर्णन है कि प्रतिभाशाली विद्वान, यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित करने वाली समिधा की भांति विश्व को दीप्तिमान कर देते हैं | अवतार गिल और उनके मित्रों को इस में इन्द्र,गाय,बछड़ा, घोड़ा और भैंस कहां से मिल गए,यह मेरी समझ से बाहर है | संक्षेप में, मैं अपनी इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ हूँ कि वेदों में गोमांस भक्षण का समर्थक एक भी मंत्र प्रमाणित करने पर मैं हर उस मार्ग को स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ जो मेरे लिए नियत किया जाएगा अन्यथा वे वेदों की ओर वापिस लौटें |

!! पुनर्जन्म की अवधारणा !!

नमस्कार दोस्तों,
धर्म मोक्ष सब बेकार की बाते है, अर्थ काम ही सब कुछ है.. जब तक जियो मस्त होकर जीओ, मस्त रहने के लिए अगर दूसरों से उधार भी लेना पड़े, तो लो.. मरे हुए लोगो के नाम का जो खाना निकलते है, उन्हें समझ लेना चाहिए कि इसका कोई फायदा नहीं है. वह खाना उन लोगो थक नहीं पहुँचता अगर ऐसा होता, तो एक बार बुझ लैम्प में तेल भर देने से ही जल उठता.... पुनर्जन्म सब बेकार की बातें है. एक बार जिस शरीर को जला दिया गया वह भला दोबारा लौटकर कैसे आ सकता है.. हवा, पानी, आग और पृथ्वी में जब चार तत्व मिलते है, तो शरीर बनता है और फिर शरीर में चेतना आती है ठीक इसी तरह जैसे पान-कत्था और चूना जब एक साथ चबाए जाते है तो लाल रंग पैदा करते है जबकि लाल रंग का गुण इन तीनों में से किसी के पास नहीं होता. जाहिर है शरीर से अलहदा चेतना का कोई अस्तित्व नहीं है . अगर किसी जीव की बलि देने से, वह स्वर्ग जाता है तो फिर बलि देने वाले लोग अपने माँ-बाप की बलि क्यूँ नहीं दे देते, ताकि वो सीधे स्वर्ग चले जाएँ.. जिंदगी में पाप और पुण्य जैसा कुछ नहीं होता.
उपरोक्त  टिपण्णी है मेरे मित्र विनोद जी की उन्ही टिप्पणी को आधार लेकर यह बाते है जो नीचे लिखी गयी है 
 
पुनर्जन्म या REINCARNIATION एक ऐसा शब्द है जिससे लोग REBIRTH के नाम से जानते है हिन्दू धर्म के लोग पुनर्जन्म मतलब जनम,मृत्यु,और पुनः जनम के चक्र में विश्वास करते है अध्यात्मिक कानून के आधार पर पुनर्जन्म का तात्पर्य है'' आत्माओ की पुर्नस्थापना'' ,संस्कृत में पुनः शब्द का अर्थ होता है 'अगला समय' या 'फिर से' और जनम का अर्थ होता है जिंदगी इस तरह पुनर्जन्म का अर्थ हुआ अगली ज़िन्दगी या आने वाली ज़िन्दगी पुनर्जन्म में हमारे पुराने कर्मो का बड़ा महत्व है वेदों में कहा गया कि अध्यात्मिक कानून के अनुसार पिछले जन्मों के बुरे कर्म हमें अपने नए जनम में भोगने पड़ते है जैसे एक परिवार मे एक बच्चा जन्म लेता है और वह पूरी तरह से स्वस्थ भी है मगर उसी दम्पति की दूसरी संतान अपंग है या मानसिक रूप से ठीक नहीं है तो यह उसके पिछले जन्म के बुरे कर्मो के कारण है पुनर्जन्म के इस बात को लोगो ने स्वीकार किया है कि हमें अपने पिछले जन्म के पुरे कर्म का फल अपने अगले जन्म में मिलता है
भगवत गीता के अनुसार जिस तरह से एक मनुष्य पुराने कपड़े उतार कर नए कपड़े पहनता है ठीक हमारी आत्मा भी पुराने शरीर को छोड़ कर नया शरीर धारण करती है
स्वामी ज्योतिमयानान्दा ने संस्कृत में कर्म शब्द का अर्थ कार्य बताया है इनके अनुसार हमारे कार्य के भाव की छवि हमारे मस्तिस्क में दो प्रकार से रहती है
(१) पहले प्रकार में हमारे पिछले जन्म के कार्य की छवि के बारे मे हमारा मस्तिष्क बेहोश रहता है उससे कुछ भी याद नहीं रहता है
(२)और दूसरे प्रकार में हमारे कार्य यानि हमारे पिछले जनम की कहानी की हलकी हलकी सी छवि हमारे दिमाग के किसी कोने में संजोये रहती है

हमें कई ऐसे उद्धरण मिले है जहाँ लोगों ने अपने पुराने जन्म के बारे में बताया है मगर अधिकांश लोग मृत्यु के बाद जब नए योनी में प्रवेश करते है तो वो अपने पुराने जन्म के बारे में भूल जाते है
स्वामी ज्योतिमयानान्दा के अनुसार हमारे पीछे जन्म के कार्य बीज की तरह होती है अगर कार्य आछा हुआ तो हमें फल अच्छा मिलता है और अगर कार्य बुरा रहा तो फल भी बुरा मिलता है हमें पिछले जन्म की बातें तो याद नहीं होती मगर अपने उपस्थित जन्म में हम अच्छा कार्य करके अपने आने वाले जन्म को सुखमय बना सकते है

प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक पुर्नजन्म के बारे में कई मान्यताएं चलती आई है मगर ऐसे भी कुछ प्रमाण मिले है जिससे प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल से ही लोग पुर्नजन्म की बातो पर विश्वास करते आये हैखासकर मिश्र के लोग जब किसी मृतक को दफनाते थे तो वे मृतक की शव के साथ उसकी पसंदीदा चीजे और ज़रूरी सामान दफना देते थे ताकि अगले जन्म में ये चीजे उनके काम आये

स्वामी विवेकानंद का कहना था की ''हमारे अन्दर वो शक्ति है की हम कुछ भी कर सकते है बस हमें उस शक्ति को पहचानने की ज़रूरत है हम क्या है या क्या करना चाहते है ये सब हम अपने अन्दर पा सकते है कहने का तात्पर्य ये है कि अपने अन्दर की शक्ति को जान कर अपने पिछले कार्यो को समझ सके और अपने वर्त्तमान और भविष्य की ज़िन्दगी मे सामंजस्य स्थापित कर सके

बुद्ध धर्म के के अनुयायी भी पुर्नजन्म पर विश्वास करते है '' THE TIBETIAN BOOK OF DEAD '' में हमें वर्णन मिलता है की १ आत्मा १ शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है

हिन्दू धर्म के अनुसार उस दिन पुर्नजन्म का चक्र समाप्त हो जायेगा जिस दिन हम इंसान कर्म करना छोड़ । जब हमारे बुरे या अच्छे कर्म ही नहीं होगे तो पुर्नजन्म भी नही होगा । वेदों के जानकर विद्वानों का मानना है कि पुर्नजन्म की पहली सीढ़ी कर्म है
फिर भी पुर्नजन्म के के पन्ने खुलने के बाद भी हमारे समाज में यह विषय एक गुत्थी की तरह है लोग तो अभी भी पुर्नजन्म की बातो पर विश्वास नही करते मगर वेदों में पुर्नजन्म को माना गया है। वेदों के अनुसार पुर्नजन्म में कर्म को प्राथमिकता दी गई है । कहने का सार यह है कि अपने लिए हीं सही अच्छे कर्मों को जीवन में प्राथमिक दर्जा दिया जाना चाहिए ।