शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

!! जिहाद क्या है !!

जिहाद" के बारे मे बात करने से पहले हम दहश्तगर्दों के बारे में बात करेंगे क्यौंकी लोगो के "जिहाद" के बारे मे इन लोगो की वजह से पता लगा है। आप लोगो की नज़र में दहश्तगर्द कौन है? दहश्तगर्द का मतलब क्या है?

मेरे हिसाब से हर
मुस्लमान दहश्तगर्द होना चाहिये। दहश्तगर्द का क्या मतलब है? दहश्तगर्द का मतलब है की "अगर कोई भी इन्सान दुसरे इन्सान के दिल मे दहशत पैदा करता है उसे कहते है दहश्तगर्द"। मिसाल के तौर पर जब कोई चोर किसी पुलिसवाले को देखता है तो उसके दिल में दहशत पैदा होती है तो उस चोर के लिये वो पुलिसवाला दहश्तगर्द है। तो इस हिसाब से हर असामाजिक तत्व, एन्टी-सोशल एलीमेन्ट, किसी मुस्लमान को देखे तो उसके दिल में दहशत पैदा होनी चाहिये। जब भी कोई चोर किसी मुसलमान को देखें तो उसके दिल में दहशत पैदा होनी चाहिये, जब भी कोई बलात्कारी किसी मुसलमान को देखें तो उसके दिल में दहशत पैदा होनी चाहिये। हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो लोग जो हक के खिलाफ़ है उनके दिल में दहशत पैदा करें और अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह अनफ़ाल सु. ८ : आ. ६० में कि "जो लोग हक के खिलाफ़ है उनके दिल में मुसलमानों को दहशत पैदा करनी चाहिये"। एक मासुम के दिल मे कभी भी दहशत पैदा नही करनी चाहिये उसे उनके दिल में दहशत पैदा करनी चाहिये जो खुसुसन हक के खिलाफ़ हैं, समाज के खिलाफ़ हैं, इन्सानियत के खिलाफ़ है। <p><br /> </p>
हम अकसर देखते है की इन्सान को उसके किसी काम के लिये दो नाम दिये जाते है मिसाल के तौर पर हमारे देश के कुछ लोग आज़ादी के लिये अंग्रेज़ो से झगड रहे थे इन लोगो को अंग्रेज़ो ने कहा कि ये लोग दहश्तगर्द है और उन्ही लोगो वो आम हिन्दुस्तानी देशभक्त कहते थे यानी वही लोग, वही काम लेकिन दो अलग-अलग नाम। अगर आप अंग्रेज़ो के नज़रिये से सहमत है की अंग्रेज़ो को हिन्दुस्तान पर हुकुमत करनी चाहिये तो आप उन्हे दहश्तगर्द कहोगें और अगर आप आम हिन्दुस्तानी के नज़रिये से सहमत है की अंग्रेज़ यहां कारोबार करने आये थे, हुकुमत करने नही तो आप उन्हे देशभक्त कहेंगें, अच्छे हिन्दुस्तानी है वगैरह वगैरह, वही इन्सान वही अमाल (कर्म) दो अलग नाम। तो एक नाम देने से पहले फ़र्ज़ है की हम ये जाने की वो इन्सान किस वजह के लिये झगड रहा है? किस वजह के लिये जद्दोजह्द कर रहा है?

दुनिया में ऐसी सैकडों मिसाले है जैसे साउथ अफ़्रीका को आज़ादी मिलने से पहले सफ़ेद लोग साउथ अफ़्रीका पर हुकुमत कर रही थी और ये सफ़ेद हुकुमत
नेल्सन मंडेला को सबसे बडा दहश्तगर्द कहती थी और इस नेल्सन मंडेला को पच्चीस साल से ज़्यादा रोबिन आयलैंड में कैद रखा गया था। सफ़ेद हुकुमत नेल्सन मंडेला को दहश्तगर्द कहती थी और आम अफ़्रीकी नेल्सन मंडेला को कहती थी की वो बहुत अच्छा इन्सान है। वही इन्सान, वही अमाल लेकिन दो अलग-अलग नाम। अगर आप सफ़ेद हुकुमत के नज़रिये से सहमत है तो नेल्सन मंडेला आपके लिये दहश्तगर्द है लेकिन अगर आप आम अफ़्रीकी से सहमत है की चमडी का रंग इन्सान को ऊंचा या नीचा नहीं कर पाता जिस तरह अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह हुजुरात सु. ४९ : आ. १३"ऎ इन्सानों, हमनें तुम्हे एक जोडें से पैदा किया है आदमी और औरत के, और आप लोगों को कबीलों में बांटा है ताकि आप एक दुसरों को पहचान सको ना कि आप एक दुसरे से नफ़रत करें और आप लोगो में से सबसे बेहतर इन्सान वो है जिसके पास तकवा है"। तो इस्लाम के नज़रिये से कोई भी इन्सान ऊंचा-नीचा जात-पात से नही होता, चमडी के रंग से नहीं होता, माल से नही होता लेकिन होता है तो सिर्फ़ "तकवे" के साथ, खुदा के खौफ़ के साथ, अच्छे अमाल के साथ। अगर आप इस्लाम और आम अफ़्रीकी के नज़रिये से सहमत है तो ये मानना होगा की नेल्सन मंडेला दहश्तगर्द नही था और एक अच्छा इन्सान था। में
साउथ अफ़्रीका की आज़ादी के चन्द साल बाद उस नेल्सन मंडेला को अमन के लिये नोबेल पुरस्कार मिलता है वो ही शख्स जिसको पच्चीस साल तक कैद किया गया और पच्चीस साल तक उसे दहश्तगर्द कहा गया था उसे चन्द साल बाद उसे दुनिया का सबसे बडा पुरस्कार मिलता है अमन के लिये। तो वही शख्स, वही अमाल लेकिन दो अलग-अलग नाम इसीलिये नाम देने से पहले हमें ये जानना ज़रुरी है की किस वजह से वो इन्सान जद्दोजह्द कर रहा है।


आज सबसे ज़्यादा गलतफ़हमी जो इस्लाम के मुताल्लिक है वो है लफ़्ज़
"जिहाद"इस लफ़्ज़ को लेकर सबसे ज़्यादा गलफ़हमियां है और ये गलफ़हमियां गैर-मुस्लिमों के बीच ही नही, मुसलमानों के बीच मे भी है। गैर-मुस्लिम और कुछ मुस्लमान ये समझते है की कोई भी जंग कोई मुस्लमान लडं रहा है चाहे वो ज़्यादती फ़ायदे के लिये हो, चाहे अपने नाम के लिये हो, चाहे माल के लिये हो, चाहे ताकत के लिये हो। अगर कोई भी जंग कोई भी मुस्लमान लडं रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। इसे "जिहाद" नही कहते

"जिहाद" लफ़्ज़ आता है अरबी लफ़्ज़ "जहादा" से जिसको अंग्रेज़ी में कहेंगे "To strive to struggle" उर्दु मे इसका मतलब हुआ "जद्दोजहद"।
और इस्लाम के हिसाब से अगर कोई इन्सान अपने नफ़्ज़ (इंद्रियों) को काबु करने की कोशिश कर रहा है सही रास्ते पर आने के लिये तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई इन्सान जद्दोजहद कर रहा है समाज को सुधारने के लिये तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई सिपाही जंग के मैदान मे अपने आप को बचाने के जद्दोजह्द कर रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। अगर कोई इन्सान जुल्म के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहा है तो उसे कहते है "जिहाद"। "जिहाद" के मायने है जद्दोजहद सिर्फ़ जद्दोजहद।

लोगो को गलतफ़हमी है गैर-मुसलमानों को भी और मुसलमानों को भी की "जिहाद" सिर्फ़ मुसलमान ही कर सकते है।
अल्लाह तआला कुरआन मजीद मे कई जगह ज़िक्र करते है कि गैर-मुसलमानों ने भी "जिहाद" किया। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह लुकमान सु. ३१ : आ. १४ में "ऎ इन्सानों, हमनें तुम पर फ़र्ज़ किया है की आप अपने वालदेन की खिदमत करों और आपकी वालदा ने आपको तकलीफ़ के साथ आपको पेट मे रखा और तकलीफ़ के साथ आपको पैदा किया और दुध पिलाया"। इसके फ़ौरन बाद अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह लुकमान सु. ३१ : आ. १५ में "लेकिन अगर आपके वालदेन आपके साथ जिहाद करे, जद्दोजहद करें, आपको अल्लाह के अलावा उसकी इबादत करने के लिये जिसका आपको इल्म नहीं है तो आप उनकी बात नही मानों लेकिन तब भी उनके साथ अच्छा सुलुक करों"। यहां अल्लाह तआला फ़र्माते है की गैर-मुसलमान वालदेन जिहाद कर रहें है अपने बच्चों से उसकी इबादत करने लिये अल्लाह के अलावा जिसका उन्हें इल्म नही है, उन्हे शिर्क करने पर मजबुर कर रहें है। यही चीज़ अल्लाह तआला दोहराते है सुरह अनकबुत सु. २९ : आ. ८ में की "अल्लाह तआला ने सारे इन्सानों पर फ़र्ज़ कराया है की वो अपने वालदेन की अच्छी देखभाल करें लेकिन अगर वालदेन जिहाद के, जद्दोजहद करें, आपको अल्लाह के अलावा उसकी इबादत करने के लिये जिसका आपको इल्म नहीं है तो आप उनकी बात नही मानों लेकिन तब भी उनके साथ अच्छा सुलुक करों"। यहां भी अल्लाह तआला ने वही फ़र्माया है गैर-मुसलमान वालदेन जिहाद कर रहें है, उन्हे शिर्क करने पर मजबुर कर रहें है तो आप उनकी बात नही मानों लेकिन उनके साथ अच्छा सुलुक करों।

तो इन आयतों से हमें ये पता लगता है की जिहाद गैर-मुसलमान भी कर सकते है। अल्लाह तआला फ़र्मातें हैं
सुरह निसा सु. ४ : आ. ७६ में "की मोमिन वो इन्सान है जो अल्लाह की राह में हक के लिये जद्दोजहद करता है और वो इन्सान जो हक के खिलाफ़ है वो लोग जद्दोजहद गलत रास्ते पर करते है, शैतान के रास्ते पर करते है"। अल्लाह तआला फ़रमाते है की मोमिन और मुसलमान "जिहाद-फ़ी-सबीलिल्लाह" करते हैं और जो लोग हक के खिलाफ़ है वो करते है "जिहाद-फ़ी-सबीशैतान" इसका मतलब जद्दोजहद कर रहे हैं शैतान के रास्ते पर, तो जिहाद की कई किस्में है लेकिन आमतौर जब भी ये लफ़्ज़ "जिहाद" का इस्तेमाल होता है तो ये माना जाता है की ये "जिहाद-फ़ी-सबीलिल्लाह" हैं, "जिहाद" अल्लाह की राह में हैं। अगर खुसुसन कोई चीज़ का ज़िक्र है अल्लाह के खिलाफ़ तो पता लगता है "जिहाद" नही है लेकीन आमतौर पर जब भी ये लफ़्ज़ "जिहाद" इस्तेमाल होता है इस्लाम को लेकर तो इसके माईने है "जिहाद-फ़ी-सबीलिल्लाह" यानी जद्दोजहद करना अल्लाह की राह में।

और
अकसर गैर-मुस्लिम इस लफ़्ज़ "जिहाद" का तर्जुमा अंग्रेज़ीं मे करते है "होली वार" "HOLY WAR" "पाक जंग" "जंगे मुक्द्द्स"। ये लफ़्ज़ "होली वार" सबसे पहले इस्तेमाल किया गया था "क्रुसेड्र्स" (Crusaders) को डिस्क्राइब करने के लिये। सैकडों साल पहले जब ईसाई ताकत के बल के ऊपर अपना धर्म फ़ैला रहे थे तो उसे कहते थे "होली वार"। अफ़सोस की बात है की वही नाम आज मुसलमानों के लिये इस्तेमाल होता है और बहुत अफ़सोस की बात है कुछ मुस्लिम उलमा जो अपने आपको आलिम कहते है वो भी "जिहाद" का तर्जुमा अंग्रेज़ी में "होली वार" करते है।

"जिहाद" के मायने Holy War है ही नही, "Holy War" का तर्जुमा अरबी में
होता है "हर्बो्मुक्द्द्सा" और अगर हम कुरआन मजीद मे देखें तो "हर्बोमुक्द्द्सा" मौजुद ही नही है। इसीलिये "जिहाद" के मायने "Holy War", "हर्बोमुक्द्द्सा", "पाक जंग" नही है, "जिहाद" के मायने है "जद्दोजहद"।

!! रहीम दोहावली !!

अब्दुल रहीम खान सर्वगुण सम्पन्न ऐतिहासिक पुरूष अब्दुल रहीम खान खाना

अकबर के दरबार में नवरत्नों में से एक थे। वे अकबर के सिपहा सलाह बैरम खाँ के बेटे थे। बैरम खाँ ने कम उम्र के बादशाह अकबर के राज्य को मजबूत बनाने में पूरा सहयोग दिया। उनमें मतभेद होने पर बैरम खाँ अकबर की अनुमति से हज जाने निकले पर रास्ते में गुजरात में बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। बैरम खाँ की विधवा सुलताना और बेटा रहीम अकबर के पास पनाह लेने पहुंचे। अकबर ने रहीम की परवरिस की और बाद में सुलताना बेगम से निकाह किया। जिससे रहीम उनके सौतेले बेटे भी बन गये। रहीम की शिक्षा- दीक्षा अकबर की उदार धर्मनिरपेक्ष नीति के अनुकुल हुई। रहीम जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के मालिक थे। उनके अंदर कई ऐसी विशेषताएं थी जिनके कारण वह बहुत जल्दी अकबर के दरबार के नवरत्नों में शामिल हो गये।

अकबर ने उन्हें कम उम्र से ही ऐसे-ऐसे काम सौंपे कि बाकी दरबारी आश्चर्य चकित हो जाया करते थे। मात्र सत्तरह वर्ष की आयु में 1573 ई. में गुजरातियों की बगावत को दबाने के लिए जब सम्राट अकबर गुजरात पहुँचा तो पहली बार मध्य भाग की कमान रहीम को सौप दिया। इस समय उनकी उम्र सिर्फ 17 वर्ष की थी। विद्रोह को रहीम की अगुवाई में अकबर की सेना ने प्रबल पराक्रम के साथ दबा दिया।

गुजरात विजय के कुछ दिनों पशचात, अकबर ने वहाँ के शासक खान आजम को दरबार में बुलाया। खान आजम के दरबार में आ जाने के कारण वहाँ उसका स्थान रिक्त हो गया। गुजरात प्रांत धन-जन की दृष्टि से बहुत ही अहम था। राजा टोडरमल की राजनीति के कारण वहाँ से पचास लाख रुपया वार्षिक दरबार को मिलता था। ऐसे प्रांत में अकबर अपने को नजदीकी व विश्वासपात्र एवं होशियार व्यक्ति को प्रशासक बनाकर भेजना चाहता था। ऐसी सूरत में अकबर ने सभी लोगों में सबसे ज्यादा उपयुक्त रहीम (मिर्जा खाँ) को चुना और काफी सोच विचार करके मिर्जा खाँ को गुजरात प्रांत की सूबेदारी सौंपी गई।

ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार रहीम जैसा कवियों का आश्रयदाता एशिया तथा यूरोप में कोई न था। रहीम के आश्रयदायित्व देश- विदेशों मे इतनी धूम मच गई थी कि किसी भी दरबार में कवियों को अपने सम्मान में जरा भी कमी महसूस होती थी, वह फौरन ही रहीम के आश्रय में आ जाने की धूमकी दे डालते थे।

अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मिरअर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रुप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया।

मशहूर हल्दी घाटी लड़ाई में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। रहीम एक ऐतिहासिक पुरूष थे। वे ऐसे व्यक्तित्व थे जो अपने अंदर कवि का गुण, वीर सैनिक का गुण, कुशल सेनापति, सफल प्रसक, अद्वितीय आश्रयदाता, गरीबदाता, विशसपात्र मुसाहिब, नीति कुाल नेता, महान कवि, विविध भाशाविद, उदार कला पारखी जैसे अनेकानेक गुणों के मालिक थे।
 


देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥ 1 ॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥ 2 ॥

रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, कटि डारत द्वै टूक ।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक ॥ 3 ॥

अच्युत चरन तरंगिनी, शिव सिर मालति माल ।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव भाल ॥ 4 ॥

अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ॥ 5 ॥

अधम बचन ते को फल्यो, बैठि ताड़ की छाह ।
रहिमन काम न आइहै, ये नीरस जग मांह ॥ 6 ॥

अनुचित बचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि ।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥ 7 ॥

अनुचित उचित रहीम लघु, करहि बड़ेन के जोर ।
ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर ॥ 8 ॥

अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥ 9 ॥

ऊगत जाही किरण सों, अथवत ताही कांति ।
त्यों रहीम सुख दुख सबै, बढ़त एक ही भांति ॥ 10 ॥

आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल ॥ 11 ॥

आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं ।
जो रहीम कोटिन मिले, धिक जीवन जग माहिं ॥ 12 ॥

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधे सनेह ।
जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामें बरै बरेह ॥ 13 ॥

अरज गरज मानै नहीं, रहिमन ये जन चारि ।
रिनियां राजा मांगता, काम आतुरी नारि ॥ 14 ॥

एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥ 15 ॥

अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय ।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥ 16 ॥

अंतर दाव लगी रहै, धुआं न प्रगटै सोय ।
कै जिय जाने आपुनो, जा सिर बीती होय ॥ 17 ॥

असमय परे रहीम कहि, मांगि जात तजि लाज ।
ज्यों लछमन मांगन गए, पारसार के नाज ॥ 18 ॥

अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिककन पान ।
हस्ती ढकका कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन ॥ 19 ॥

उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार ।
रहिमन इन्हें संभारिए, पलटत लगै न बार ॥ 20 ॥

करत निपुनई, गुण बिना, रहिमन निपुन हजीर ।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहिं समान को कूर ॥ 21 ॥

ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ॥ 22 ॥

कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय ।
पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥ 23 ॥

कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय ।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय ॥ 24 ॥

करमहीन रहिमन लखो, धसो बड़े घर चोर ।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जगत ह्रैगो भोर ॥ 25 ॥

कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात ।
घटै बढ़े उनको कहा, घास बेचि जे खात ॥ 26 ॥

कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥ 27 ॥

कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर ।
रहि रहीम नर नीच में, स्वारथ स्वारथ टेर ॥ 28 ॥

कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय ।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय ॥ 29 ॥

कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय ।
तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥ 30 ॥

कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्रै जाय ।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ॥ 31 ॥

काज परे कछु और है, काज सरे कछु और ।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर ॥ 32 ॥

कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥ 33 ॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय ।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥ 34 ॥

काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई ।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ॥ 35 ॥

कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगस सों बैर ॥ 36 ॥

काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज ।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ॥ 37 ॥

कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह ।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥ 38 ॥

कुटिलत संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि ।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि ॥ 39 ॥

को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥ 40 ॥

गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज ।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज ॥ 41 ॥

खरच बढ़यो उद्द्म घटयो, नृपति निठुर मन कीन ।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन ॥ 42 ॥

खैर खून खासी खुसी, बैर प्रीति मदपान ।
रहिमन दाबे न दबैं, जानत सकल जहान ॥ 43 ॥

खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ॥ 44 ॥

गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार ।
दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार ॥ 45 ॥

गहि सरनागत राम की, भव सागर की नाव ।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव ॥ 46 ॥

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि ।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी आहिं ॥ 47 ॥

गुनते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि ।
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू के बाढ़ि ॥ 48 ॥

गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलवधु, पर घर जात लजाय ॥ 49 ॥

चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि ।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ॥ 50 ॥

चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस ।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस ॥ 51 ॥

छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यह लेख ।
सहसन को हय बांधियत, लै दमरी की मेख ॥ 52 ॥

चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नहिं छांड़ति पानि ।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ॥ 53 ॥

चारा प्यारा जगत में, छाल हित कर लेइ ।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग सुर देह ॥ 54 ॥

छमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात ।
का रहीम हरि जो घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥ 55 ॥

जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर ।
अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ॥ 56 ॥

जब लगि जीवन जगत में, सुख-दु:ख मिलन अगोट ।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुन सिर चोट ॥ 57 ॥

जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय ।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय ॥ 58 ॥

जब लगि विपुने न आपनु, तब लगि मित्त न कोय ।
रहिमन अंबुज अंबु बिन, रवि ताकर रिपु होय ॥ 59 ॥

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छांड़ति छोह ॥ 60 ॥

जे अनुचितकारी तिन्हे, लगे अंक परिनाम ।
लखे उरज उर बेधिए, क्यों न होहि मुख स्याम ॥ 61 ॥

जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ॥ 62 ॥

जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिय बिचमौन ।
तासों सुख-दुख कहन की, रही बात अब कौन ॥ 63 ॥

जेहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु है जात ॥ 64 ॥

जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि ॥ 65 ॥

जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥ 66 ॥

जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम ।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ 67 ॥

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं ।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥ 68 ॥

जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील ।
तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील ॥ 69 ॥

जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥ 70 ॥

जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल ।
तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल ॥ 71 ॥

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥ 72 ॥

जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥ 73 ॥

जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय ।
जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय ॥ 74 ॥

जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥ 75 ॥

जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥ 76 ॥

जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥ 77 ॥

जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥ 78 ॥

जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ ।
तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ ॥ 79 ॥

जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस ॥ 80 ॥

जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥ 81 ॥

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥ 82 ॥

जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ ।
जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ ॥ 83 ॥

ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात ।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ ॥ 84 ॥

तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥ 85 ॥

तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर ॥ 86 ॥

तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥ 87 ॥

तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय ॥ 88 ॥

तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥ 89 ॥

तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस ।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास ॥ 90 ॥

दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि ।
पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥ 91 ॥

थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात ॥ 92 ॥

दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु ।
भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥ 93 ॥

दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय ॥ 94 ॥

दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥ 95 ॥

दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि ॥ 96 ॥

दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥ 97 ॥

दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥ 98 ॥

धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय ॥ 99 ॥

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात ।
जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥ 100 ॥

धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय ।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौंर को भाय ॥ 101 ॥

धन दारा अरु सुतन सों, लग्यों रहै नित चित्त ।
नहि रहीम कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त ॥ 102 ॥

दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं ।
जान परत है काक पिक, ॠतु बसन्त के भांहि ॥ 103 ॥

नात नेह दूरी भली, जो रहीम जिय जानि ।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि ॥ 104 ॥

धूर धरत नित सीस पर, कहु रहीम केहि काज ।
जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढ़ूंढ़त गजराज ॥ 105 ॥

नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत ।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझेहुं कछु न देत ॥ 106 ॥

नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग ।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग ॥ 107 ॥

निज कर क्रिया रहीम कहि, सिधि भावी के हाथ ।
पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ ॥ 108 ॥

परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेम ।
बामन हवैं बलि को छल्लो, दियो भलो उपदेश ॥ 109 ॥

नैन सलोने अधर मधु, कहु रहीम घटि कौन ।
मीठो भावे लोन पर, अरु मीठे पर लौन ॥ 110 ॥

पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान ।
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान ॥ 111 ॥

पसिर पत्र झंपहि पिटहिं, सकुचि देत ससि सीत ।
कहु रहीम कुल कमल के, को बेरी को मीत ॥ 112 ॥

पात-पात को सीचिबों, बरी बरी को लौन ।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बैरगो कौन ॥ 113 ॥

बड़ माया को दोष यह, जो कबहूं घटि जाय ।
तो रहीम गरिबो भलो, दुख सहि जिए बलाय ॥ 114 ॥

पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघूनाथ ।
कहि रहीम दोउन बने, पड़ो बैल के साथ ॥ 115 ॥

पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन ॥ 116 ॥

प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहां समाय ।
भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय ॥ 117 ॥

बड़े दीन को दुख सुने, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि ॥ 118 ॥

बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ ।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ ॥ 119 ॥

बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि ।
यातें हाथी हहरि कै, दयो दांत द्वै काढ़ि ॥ 120 ॥

बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौं धनी को जाई ।
धटै बढ़ै वाको कहा, भीख मांगि जो खाई ॥ 121 ॥

बड़े बड़ाई ना करें, बड़ो न बोलें बोल ।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल ॥ 122 ॥

बरू रहीम कानन बसिय, असन करिय फल तोय ।
बन्धु मध्य गति दीन हवै, बसिबो उचित न होय ॥ 123 ॥

बिपति भए धन ना रहै, रहै जो लाख करोर ।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम ये भोर ॥ 124 ॥

बांकी चितवनि चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम ।
गांसी ते बढ़ि होत दुख, काढ़ि न कढ़त रहीम ॥ 125 ॥

विरह रूप धन तम भए, अवधि आस उधोत ।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्दोत ॥ 126 ॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥ 127 ॥

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय ।
रहिमन बिगरै दूध को, मथे न माखन होय ॥ 128 ॥

भावी काहू न दही, दही एक भगवान ।
भावी ऐसा प्रबल है, कहि रहीम यह जानि ॥ 129 ॥

भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम ।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम ॥ 130 ॥

भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन ।
भजन तजन ते बिलग हैं, तेहिं रहीम जू जान ॥ 131 ॥

भावी या उनमान की, पांडव बनहिं रहीम ।
तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु अजीम ॥ 132 ॥

भलो भयो घर ते छुटयो, हस्यो सीस परिखेत ।
काके काके नवत हम, अपत पेट के हेत ॥ 133 ॥

भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गुनत लघु भुप ।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तौ एकै रुप ॥ 134 ॥

महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष ।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष ॥ 135 ॥

मनसिज माली कै उपज, कहि रहीम नहिं जाय ।
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर जाय ॥ 136 ॥

मथत मथत माखन रहै, दही मही विलगाय ।
रहिमन सोई मीत है, भीत परे ठहराय ॥ 137 ॥

मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहा दिवान ।
देखि दृगन जो आदरैं, मन तोहि हाथ बिकान ॥ 138 ॥

माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और ।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपने ठौर ॥ 139 ॥

मांगे मुकरिन को गयो, केहि न त्यागियो साथ ।
मांगत आगे सुख लहयो, ते रहीम रघुनाथ ॥ 140 ॥

मान सरोवर ही मिलैं, हंसनि मुक्ता भोग ।
सफरिन भरे रहीम सर, बक बालक नहिं जोग ॥ 141 ॥

मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस ।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस ॥ 142 ॥

मांगे घटत रहीम पद, कितौ करो बड़ काम ।
तीन पैग वसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥ 143 ॥

मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं विसेख ।
स्याम कंचन में सेत ज्यों, दूरि कीजिअत देख ॥ 144 ॥

यद्धपि अवनि अनेक हैं, कूपवन्त सर ताल ।
रहिमन मान सरोवरहिं, मनसा करत मराल ॥ 145 ॥

मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग ।
तीनों तारे रामजु तीनो मेरे अंग ॥ 146 ॥

मंदन के मरिहू, अवगुन गुन न सराहि ।
ज्यों रहीम बांधहू बंधै, मरवा हवै अधिकाहि ॥ 147 ॥

मुक्ता कर करपूर कर, चातक-जीवन जोय ।
एतो बड़ो रहीम जल, ब्याल बदन बिस होय ॥ 148 ॥

यह रहीम मानै नहीं, दिन से नवा जो होय ।
चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय ॥ 149 ॥

यों रहीम सुख दु:ख सहत, बड़े लोग सह सांति ।
उदत चंद चोहि भांति सों, अथवत ताहि भांति ॥ 150 ॥

यह रहीम निज संग लै, जनमत जगत न कोय ।
बैर प्रीति अभ्यास जस, होत होत ही होय ॥ 151 ॥

ये रहीम फीके दुवौ, जानि महा संतापु ।
ज्यों तिय कुच आपन गहे, आपु बड़ाई आपु ॥ 152 ॥

याते जान्यो मन भयो, जरि बरि भसम बनाय ।
रहिमन जाहि लगाइए, सोइ रूखो है जाय ॥ 153 ॥

रन बन व्याधि विपत्ति में, रहिमन मरै न रोय ।
जो रच्छक जननी जठर, सो हरि गए कि सोय ॥ 154 ॥

रहिमन अपने पेट सों, बहुत कह्यो समुझाय ।
जो तू अनखाए रहे, तो सों को अनखाय ॥ 155 ॥

रहिमन अति न कीजिए, गहि रहिए निज कानि ।
सैंजन अति फूलै तऊ, डार पात की हानि ॥ 156 ॥

वहै प्रति नहिं रीति वह, नहीं पाछिलो हेत ।
घटत घटत रहिमन घटै, ज्यों कर लीन्हे रेत ॥ 157 ॥

रहिमन अपने गोत को, सबै चहत उत्साय ।
मृग उछरत आकास को, भूमी खनत बराह ॥ 158 ॥

रहिमन अब वे विरिछ कहं, जिनकी छांह गंभीर ।
बागन बिच बिच देखियत, सेहुड़ कंज करीर ॥ 159 ॥

रहिमन सूधी चाल तें, प्यादा होत उजीर ।
फरजी मीर न है सके, टेढ़े की तासीर ॥ 160 ॥

रहिमन खोटि आदि की, सो परिनाम लखाय ।
जैसे दीपक तम भरवै, कज्जल वमन कराय ॥ 161 ॥

रहिमन राज सराहिए, ससि सुखद जो होय ।
कहा बापुरो भानु है, तपै तरैयन खोय ॥ 162 ॥

रहिमन आंटा के लगे, बाजत है दिन रात ।
घिउ शक्कर जे खात हैं, तिनकी कहां बिसात ॥ 163 ॥

रहिमन एक दिन वे रहे, बीच न सोहत हार ।
वायु जो ऐसी बस गई, बीचन परे पहार ॥ 164 ॥

रहिमन रिति सराहिए, जो घत गुन सम होय ।
भीति आप पै डारि कै, सबै मियावे तोय ॥ 165 ॥

रीति प्रीति सबसों भली, बैर न हित मित गोत ।
रहिमन याही जनम की, बहुरि न संगति होत ॥ 166 ॥

रहिमन नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि ।
दूध कलारी कर गहे, मद समुझैं सब ताहि ॥ 167 ॥

समय लाभ समय लाभ नहिं, समय चूक सम चूक ।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक ॥ 168 ॥

रहिमन नीच प्रसंग ते, नित प्रति लाभ विकार ।
नीर चोरावै संपुटी, भारू सहे धारिआर ॥ 169 ॥

रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग ।
ज्यों सरितन सूखा करे, कुआं खनावत लोग ॥ 170 ॥

रहिमन तीर की चोट ते, चोट परे बचि जाय ।
नैन बान की चोट तैं, चोट परे मरि जाय ॥ 171 ॥

रुप बिलोकि रहीम तहं, जहं तहं मन लगि जाय ।
याके ताकहिं आप बहु, लेत छुड़ाय, छुड़ाय ॥ 172 ॥

सदा नगारा कूच का, बाजत आठो जाम ।
रहिमन या जग आइकै, का करि रहा मुकाम ॥ 173 ॥

समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात ।
सदा रहै नहीं एक सी, का रहीम पछितात ॥ 174 ॥

रहिमन आलस भजन में, विषय सुखहिं लपटाय ।
घास चरै पसु स्वाद तै, गुरु गुलिलाएं खाय ॥ 175 ॥

रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार ।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार ॥ 176 ॥

रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय ।
बीच उखारी रसभरा, रह काहै ना होय ॥ 177 ॥

रहिमन रिस को छांड़ि कै, करो गरीबी भेस ।
मीठो बोलो, नै चलो, सबै तुम्हारो देस ॥ 178 ॥

रहिमन मारगा प्रेम को, मर्मत हीत मझाव ।
जो डिरिहै ते फिर कहूं, नहिं धरने को पांव ॥ 179 ॥

रहिमन सुधि सब ते भली, लगै जो बारंबार ।
बिछुरे मानुष फिर मिलें, यहै जान अवतार ॥ 180 ॥

रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देई ।
छेद में ड़डा डारि कै, चहै नांद लै लेई ॥ 181 ॥

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय ।
हित अनहित मा जगत में, जानि परत सब कोय ॥ 182 ॥

रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप ।
खरो दिवस केहि काम जो, रहिबो आपुहि आप ॥ 183 ॥

रहिमन बात अगम्य की, कहन सुनन की नाहिं ।
जो जानत सो कहत नहिं, कहत ते जानत नाहिं ॥ 184 ॥

रहिमन अंसुवा नैन ढरि, जिय दुख प्रगट करेइ ।
जाहि निकारो गेह तें, कस न भेद कहि देइ ॥ 185 ॥

रहिमन मंदत बड़ेन की, लघुता होत अनूप ।
बलि मरद मोचन को गए, धरि बावन को रूप ॥ 186 ॥

रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात ।
नारायण हू को भयो, बावन अंगूर गात ॥ 187 ॥

समय दसा कुल देखिकै, सबै करत सनमान ।
रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥ 188 ॥

सरवर के खग एक से, बाढ़त प्रीति न धीम ।
पै मराल को मानसर, एकै ठौर रहीम ॥ 189 ॥

रहिमन ठठरी धूर की, रही पवन ते पूरि ।
गांठ युक्ति की खुलि गई, अन्त धूरि की धूरि ॥ 190 ॥

राम राम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि ।
कहि रहीम क्यों मानिहैं, जम के किंकरकानि ॥ 191 ॥

रहिमन सो न कछू गनै, जासों लागो नैन ।
सहि के सोच बेसाहियो, गयो हाथ को चैन ॥ 192 ॥

रूप कथा पद चारू पट, कंचन दोहा लाल ।
ज्यों ज्यों निरखत सूक्ष्म गति, मोल रहीम बिसाल ॥ 193 ॥

लिखी रहीम लिलार में, भई आन की आन ।
पद कर काटि बनारसी, पहुंचे मगहर थान ॥ 194 ॥

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ।
टूटे से फिर न मिले, मिले तो गांठ पड़ जाय ॥ 195 ॥

रहिमन धरिया रहंट की, त्यों ओछे की डीठ ।
रीतेहि सन्मुख होत है, भरी दुखावै पीठ ॥ 196 ॥

रहिमन लाख भली करो, अगुने अपुन न जाय ।
राग सुनत पय पुअत हूं, सांप सहज धरि खाय ॥ 197 ॥

रहिमन तुम हमसों करी, करी करी जो तीर ।
बाढ़े दिन के मीत हो, गाढ़े दिन रघुबीर ॥ 198 ॥

रहिमन बिगरी आदि की, बनै न खरचे दाम ।
हरि बाढ़े आकास लौं, तऊ बावने नाम ॥ 199 ॥

रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच ।
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच ॥ 200 ॥

रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुंह स्याह ।
नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ॥ 201 ॥

रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥ 202 ॥

रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ॥ 203 ॥

रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥ 204 ॥

रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥ 205 ॥

रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान ।
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥ 206 ॥

राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥ 207 ॥

रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि ॥ 208 ॥

सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय ।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥ 209 ॥

रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की थाक ।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक ॥ 210 ॥

रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥ 211 ॥

रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ॥ 212 ॥

रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ॥ 213 ॥

रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥ 214 ॥

रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय ।
बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥ 215 ॥

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥ 216 ॥

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥ 217 ॥

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥ 218 ॥

रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥ 219 ॥

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग ।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥ 220 ॥

रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥ 221 ॥

रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥ 222 ॥

रहिमन चुप ह्वै बैठिए, देखि दिनन को फेर ।
जब नीकै दिन आइहैं, बनत न लगिहैं बेर ॥ 223 ॥

रहिमन खोजे ऊख में, जहां रसनि की खानि ।
जहां गांठ तहं रस नहीं, यही प्रीति में हानि ॥ 224 ॥

रहिमन को कोउ का करै, ज्वारी चोर लबार ।
जो पत राखन हार, माखन चाखन हार ॥ 225 ॥

रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुं मांगन जांहि ।
उनते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ॥ 226 ॥

रहिमन कबहुं बड़ेन के, नाहिं गरब को लेस ।
भार धरे संसार को, तऊ कहावत सेस ॥ 227 ॥

रहिमन वहां न जाइए, जहां कपट को हेत ।
हम तन ढारत ढेकुली, सींचत अपनो खेत ॥ 228 ॥

रहिमन रिस सहि तजत नहिं, बड़े प्रीति की पौरि ।
मूकन भारत आवई, नींद बिचारी दौरि ॥ 229 ॥

रहिमन ओछे नरन सों, बैर भलो न प्रीति ।
काटे चाटे स्वान के, दुहूं भांति विपरीति ॥ 230 ॥

रहिमन भेषज के किए, काल जीति जो जात ।
बड़े-बड़े समरथ भये, तौ न कोउ मरि जात ॥ 231 ॥

रहिमन जग जीवन बड़े, काहु न देखे नैन ।
जाय दसानन अछत ही, कपि लागे गथ लैन ॥ 232 ॥

रहिमन पानी राखिए, बिनु पानी सब सून ।
पानी भए न ऊबरैं, मोती मानुष चून ॥ 233 ॥

रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छांड़त साज ।
खग मृग बसत अरोग बन, हरि अनाथ के नाथ ॥ 234 ॥

रहिमन तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि ।
पर बस परे, परोस बस, परे मामिला जानि ॥ 235 ॥

पांच रूप पांडव भए, रथ बाहक नलराज ।
दुरदिन परे रहीम कहि, बड़े किए घटि काज ॥ 236 ॥

समय परे ओछे वचन, सबके सहै रहीम ।
सभा दुसासन पट गहै, गदा लिए रहे भीम ॥ 237 ॥

रहिमन जा डर निसि पैर, ता दिन डर सब कोय ।
पल पल करके लागते, देखु कहां धौ होय ॥ 238 ॥

रहिमन रहिला की भले, जो परसै चितलाय ।
परसत मन मैला करे सो मैदा जरि जाय ॥ 239 ॥

रहिमन यह तन सूप है, लीजै जगत पछोर ।
हलुकन को उड़ि जान है, गुरुए राखि बटोर ॥ 240 ॥

रहिमन गली है साकरी, दूजो ना ठहराहिं ।
आपु अहै तो हरि नहिं, हरि तो आपुन नाहिं ॥ 241 ॥

स्वारथ रचत रहीम सब, औगुनहूं जग मांहि ।
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ पथ कूबर छांहि ॥ 242 ॥

संपति भरम गंवाइ कै, हाथ रहत कछु नाहिं ।
ज्यों रहीम ससि रहत है, दिवस अकासहुं मांहि ॥ 243 ॥

सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहिं ।
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं ॥ 244 ॥

स्वासह तुरिय जो उच्चरै, तिय है निश्चल चित्त ।
पूत परा घर जानिए, रहिमन तीन पवित्त ॥ 245 ॥

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान ।
रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान ॥ 246 ॥

संतत संपति जानि कै, सबको सब कुछ देत ।
दीन बन्धु बिन दीन की, को रहीम सुधि लेत ॥ 247 ॥

ससि की शीतल चांदनी, सुन्दर सबहिं सुहाय ।
लगे चोर चित में लटी, घटि रहीम मन आय ॥ 248 ॥

सीत हरत तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक ।
रहिमन तेहि रवि को कहा, जो घटि लखै उलूक ॥ 249 ॥

ससि सुकेस साहस सलिल, मान सनेह रहीम ।
बढ़त बड़त बढ़ि जात है, घटत घटत घटि सीम ॥ 250 ॥

यह न रहीम सराहिए, लेन देन की प्रीति ।
प्रानन बाजी राखिए, हार होय कै जीति ॥ 251 ॥

ये रहीम दर दर फिरहिं, मांगि मधुकरी खाहिं ।
यारो यारी छोड़िए, वे रहीम अब नाहिं ॥ 252 ॥

यों रहीम तन हाट में, मनुआ गयो बिकाय ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीतर नाय ॥ 253 ॥

रजपूती चांवर भरी, जो कदाच घटि जाय ।
कै रहीम मरिबो भलो, कै स्वदेस तजि जाय ॥ 254 ॥

यों रहीम सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत ।
ज्यों बड़री अंखियां निरखि अंखियन को सुख होत ॥ 255 ॥

हित रहीम इतनैं करैं, जाकी जिती बिसात ।
नहिं यह रहै न व रहे, रहै कहन को बात ॥ 256 ॥

सबको सब कोऊ करैं, कै सलाम कै राम ।
हित रहीम तब जानिए, जब कछु अटकै काम ॥ 257 ॥

रौल बिगाड़े राज नैं, मौल बिगाड़े माल ।
सनै सनै सरदार की, चुगल बिगाड़े चाल ॥ 258 ॥

रहिमन कहत स्वपेट सों, क्यों न भयो तू पीठ ।
रीते अनरीतैं करैं, भरै बिगारैं दीठ ॥ 259 ॥

होत कृपा जो बड़ेन की, सो कदापि घट जाय ।
तो रहीम मरिबो भलो, यह दुख सहो न जाय ॥ 260 ॥

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग ।
बाटन वारे को लगे, ज्यों मेहंदी को रंग ॥ 261 ॥

होय न जाकी छांह ढिग, फल रहीम अति दूर ।
बढ़िहू सो बिन काज की, तैसे तार खजूर ॥ 262 ॥

हरी हरी करुना करी, सुनी जो सब ना टेर ।
जग डग भरी उतावरी, हरी करी की बेर ॥ 263 ॥

अनकिन्ही बातें करै, सोवत जागै जोय ।
ताहि सिखाय जगायबो, रहिमन उचित न होय ॥ 264 ॥

बिधना यह जिय जानिकै, सेसहि दिए न कान ।
धरा मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान ॥ 265 ॥

एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड ।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड ॥ 266 ॥

जो रहीम गति दीप की, सुत सपूत की सोय ।
बड़ो उजेरो तेहि रहे, गए अंधेरो होय ॥ 267 ॥

चिंता बुद्धि परखिए, टोटे परख त्रियाहि ।
सगे कुबेला परखिए, ठाकुर गुनो किआहि ॥ 268 ॥

चाह गई चिन्ता मिटी, मनुआ बेपरवाह ।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह ॥ 269 ॥

जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय ।
ताको बुरा न मानिए, लेन कहां सो जाय ॥ 270 ॥

खैंचि चढ़नि ढीली ढरनि, कहहु कौन यह प्रीति ।
आजकाल मोहन गही, बसंदिया की रीति ॥ 271 ॥

कौन बड़ाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम ।
काकी महिमा नहीं घटी, पर घर गए रहीम ॥ 272 ॥

जो रहीम जग मारियो, नैन बान की चोट ।
भगत भगत कोउ बचि गए, चरन कमल की ओट ॥ 273 ॥

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन ।
जैसी संगती बैठिए, तैसोई फल दीन ॥ 274 ॥

पिय वियोग ते दुसह दुख, सुने दुख ते अन्त ।
होत अन्त ते फल मिलन, तोरि सिधाए कन्त ॥ 275 ॥

आदि रूप की परम दुति, घट घट रही समाई ।
लघु मति ते मो मन रमन, अस्तुति कही न जाई ॥ 276 ॥

नैन तृप्ति कछु होत है, निरखि जगत की भांति ।
जाहि ताहि में पाइयत, आदि रूप की कांति ॥ 277 ॥

उत्तम जाती ब्राह्ममी, देखत चित्त लुभाय ।
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पाय ॥ 278 ॥

परजापति परमेशवरी, गंगा रूप समान ।
जाके अंग तरंग में, करत नैन अस्नान ॥ 279 ॥

रूप रंग रति राज में, खत रानी इतरान ।
मानो रची बिरंचि पचि, कुसुम कनक में सान ॥ 280 ॥

परस पाहन की मनो, धरे पूतरी अंग ।
क्यों न होय कंचन बहू, जे बिलसै तिहि संग ॥ 281 ॥

कबहुं देखावै जौहरनि, हंसि हंसि मानकलाल ।
कबहुं चखते च्वै परै, टूटि मुकुत की माल ॥ 282 ॥

जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाई ।
पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई ॥ 283 ॥

कैथिनि कथन न पारई, प्रेम कथा मुख बैन ।
छाती ही पाती मनों, लिखै मैन की सैन ॥ 284 ॥

बरूनि बार लेखिनि करै, मसि का जरि भरि लेई ।
प्रेमाक्षर लिखि नैन ते, पिये बांचन को देई ॥ 285 ॥

पलक म टारै बदन ते, पलक न मारै मित्र ।
नेकु न चित ते ऊतरै, ज्यों कागद में चित्र ॥ 286 ॥

सोभित मुख ऊपर धरै, सदा सुरत मैदान ।
छूरी लरै बंदूकची, भौहें रूप कमान ॥ 287 ॥

कामेश्वर नैननि धरै, करत प्रेम की केलि ।
नैन माहिं चोवा मटे, छोरन माहि फुलेलि ॥ 288 ॥

करै न काहू की सका, सकिकन जोबन रूप ।
सदा सरम जल ते मरी, रहे चिबुक कै रूप ॥ 289 ॥

करै गुमान कमागरी, भौंह कमान चढ़ाइ ।
पिय कर महि जब खैंचई, फिर कमान सी जाइ ॥ 290 ॥

सीस चूंदरी निरख मन, परत प्रेम के जार ।
प्रान इजारै लेत है, वाकी लाल इजार ॥ 291 ॥

जोगनि जोग न जानई, परै प्रेम रस माहिं ।
डोलत मुख ऊपर लिए, प्रेम जटा की छांहि ॥ 292 ॥

भाटिन भटकी प्रेम की, हर की रहै न गेह ।
जोवन पर लटकी फिरै, जोरत वरह सनेह ॥ 293 ॥

भटियारी उर मुंह करै, प्रेम पथिक की ठौर ।
धौस दिखावै और की, रात दिखावै और ॥ 294 ॥

पाटम्बर पटइन पहिरि, सेंदुर भरे ललाट ।
बिरही नेकु न छाड़ही, वा पटवा की हाट ॥ 295 ॥

सजल नैन वाके निरखि, चलत प्रेम सर फूट ।
लोक लाज उर धाकते, जात समक सी छूट ॥ 296 ॥

राज करत रजपूतनी, देस रूप को दीप ।
कर घूंघट पर ओट कै, आवत पियहि समिप ॥ 297 ॥

हियरा भरै तबाखिनी, हाथ न लावन देत ।
सुखा नेक चटवाइ कै, हड़ी झाटि सब देत ॥ 298 ॥

हाथ लिए हत्या फिरे, जोबन गरब हुलास ।
धरै कसाइन रैन दिन, बिरही रकत पिपास ॥ 299 ॥

गाहक सो हंसि बिहंसि कै, करत बोल अरु कौल ।
पहिले आपुन मोल कहि, कहत दही को मोल ॥ 300 ॥

मानो मूरत मोम की, धरै रंग सुर तंग ।
नैन रंगीले होते हैं, देखत बाको रंग ॥ 301 ॥

भाटा बरन सु कौजरी, बेचै सोवा साग ।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै दै फाग ॥ 302 ॥

बर बांके माटी भरे, कौरी बैस कुम्हारी ।
द्वै उलटे सखा मनौ, दीसत कुच उनहारि ॥ 303 ॥

कुच भाटा गाजर अधर, मुरा से भुज पाई ।
बैठी लौकी बेचई, लेटी खीरा खाई ॥ 304 ॥

राखत मो मन लोह-सम, पारि प्रेम घन टोरि ।
बिरह अगिन में ताइकै, नैन नीर में बोरि ॥ 305 ॥

परम ऊजरी गूजरी, दह्यो सीस पै लेई ।
गोरस के मिसि डोलही, सो रस नेक न देई ॥ 306 ॥

रस रेसम बेचत रहै, नैन सैन की सात ।
फूंदी पर को फौंदना, करै कोटि जिम घात ॥ 307 ॥

छीपिन छापो अधर को, सुरंग पीक मटि लेई ।
हंसि-हंसि काम कलोल के, पिय मुख ऊपर देई ॥ 308 ॥

नैन कतरनी साजि कै, पलक सैन जब देइ ।
बरुनी की टेढ़ी छुरी, लेह छुरी सों टेइ ॥ 309 ॥

सुरंग बदन तन गंधिनी, देखत दृग न अघाय ।
कुच माजू, कुटली अधर, मोचत चरन न आय ॥ 310 ॥

मुख पै बैरागी अलक, कुच सिंगी विष बैन ।
मुदरा धारै अधर कै, मूंदि ध्यान सों नैन ॥ 311 ॥

सकल अंग सिकलीगरनि, करत प्रेम औसेर ।
करैं बदन दर्पन मनो, नैन मुसकला फेरि ॥ 312 ॥

घरो भरो धरि सीस पर, बिरही देखि लजाई ।
कूक कंठ तै बांधि कै, लेजूं लै ज्यों जाई ॥ 313 ॥

बनजारी झुमकत चलत, जेहरि पहिरै पाइ ।
वाके जेहरि के सबद, बिरही हर जिय जाइ ॥ 314 ॥

रहसनि बहसनि मन रहै, घोर घोर तन लेहि ।
औरत को चित चोरि कै, आपुनि चित्त न देहि ॥ 315 ॥

निरखि प्रान घट ज्यौं रहै, क्यों मुख आवे वाक ।
उर मानौं आबाद है, चित्त भ्रमैं जिमि चाक ॥ 316 ॥

हंसि-हंसि मारै नैन सर, बारत जिय बहुपीर ।
बोझा ह्वै उर जात है, तीर गहन को तीर ॥ 317 ॥

गति गरुर गमन्द जिमि, गोरे बरन गंवार ।
जाके परसत पाइयै, धनवा की उनहार ॥ 318 ॥

बिरह अगिनि निसिदिन धवै, उठै चित्त चिनगारि ।
बिरही जियहिं जराई कै, करत लुहारि लुहारि ॥ 319 ॥

चुतर चपल कोमल विमल, पग परसत सतराइ ।
रस ही रस बस कीजियै, तुरकिन तरकि न जाइ ॥ 320 ॥

सुरंग बरन बरइन बनी, नैन खवाए पान ।
निस दिन फेरै पान ज्यों, बिरही जन के प्रान ॥ 321 ॥

मारत नैन कुरंग ते, मौ मन भार मरोर ।
आपन अधर सुरंग ते, कामी काढ़त बोर ॥ 322 ॥

रंगरेजनी के संग में, उठत अनंग तरंग ।
आनन ऊपर पाइयतु, सुरत अन्त के रंग ॥ 323 ॥

नैन प्याला फेरि कै, अधर गजक जब देत ।
मतवारे की मति हरै, जो चाहै सो लेती ॥ 324 ॥

जोगति है पिय रस परस, रहै रोस जिय टेक ।
सूधी करत कमान ज्यों, बिरह अगिन में सेक ॥ 325 ॥

बेलन तिली सुवाय के, तेलिन करै फुलैल ।
बिरही दृष्टि कियौ फिरै, ज्यों तेली को बैल ॥ 326 ॥

भटियारी अरु लच्छमी, दोऊ एकै घात ।
आवत बहु आदर करे, जान न पूछै बात ॥ 327 ॥

अधर सुधर चख चीखने, वै मरहैं तन गात ।
वाको परसो खात ही, बिरही नहिन अघात ॥ 328 ॥

हरी भरी डलिया निरखि, जो कोई नियरात ।
झूठे हू गारी सुनत, सोचेहू ललचात ॥ 329 ॥

गरब तराजू करत चरव, भौह भोरि मुसकयात ।
डांडी मारत विरह की, चित चिन्ता घटि जात ॥ 330 ॥

परम रूप कंचन बरन, सोभित नारि सुनारि ।
मानो सांचे ढारि कै, बिधिमा गढ़ी सुनारि ॥ 331 ॥

और बनज व्यौपार को, भाव बिचारै कौन ।
लोइन लोने होत है, देखत वाको लौन ॥ 332 ॥

बनियांइन बनि आइकै, बैठि रूप की हाट ।
पेम पेक तन हेरि कै, गरुवे टारत वाट ॥ 333 ॥

कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात ।
वाको करूओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात ॥ 334 ॥

रीझी रहै डफालिनी, अपने पिय के राग ।
न जानै संजोग रस, न जानै बैराग ॥ 335 ॥

चीता वानी देखि कै, बिरही रहै लुभाय ।
गाड़ी को चिंता मनो, चलै न अपने पाय ॥ 336 ॥

मन दल मलै दलालनी, रूप अंग के भाई ।
नैन मटकि मुख की चटकि, गांहक रूप दिखाई ॥ 337 ॥

घेरत नगर नगारचिन, बदन रूप तन साजि ।
घर घर वाके रूप को, रह्यो नगारा बाजि ॥ 338 ॥

जो वाके अंग संग में, धरै प्रीत की आस ।
वाके लागे महि महि, बसन बसेधी बास ॥ 339 ॥

सोभा अंग भंगेरिनी, सोभित माल गुलाल ।
पना पीसि पानी करे, चखन दिखावै लाल ॥ 340 ॥

जाहि-जाहि के उर गड़ै, कुंदी बसन मलीन ।
निस दिन वाके जाल में, परत फंसत मनमीन ॥ 341 ॥

बिरह विथा कोई कहै, समझै कछू न ताहि ।
वाके जोबन रूप की, अकथ कछु आहि ॥ 342 ॥

पान पूतरी पातुरी, पातुर कला निधान ।
सुरत अंग चित चोरई, काय पांच रस बान ॥ 343 ॥

कुन्दन-सी कुन्दीगरिन, कामिनी कठिन कठोर ।
और न काहू की सुनै, अपने पिय के सोर ॥ 344 ॥

कोरिन कूर न जानई, पेम नेम के भाइ ।
बिरही वाकै भौन में, ताना तनत भजाइ ॥ 345 ॥

बिरह विथा मन की हरै, महा विमल ह्वै जाई ।
मन मलीन जो धोवई, वाकौ साबुन लाई ॥ 346 ॥

निस दिन रहै ठठेरनी, झाजे माजे गात ।
मुकता वाके रूप को, थारी पै ठहरात ॥ 347 ॥

सबै अंग सबनीगरनि, दीसत मन न कलंक ।
सेत बसन कीने मनो, साबुन लाई मतंक ॥ 348 ॥

नैननि भीतर नृत्य कै, सैन देत सतराय ।
छबि ते चित्त छुड़ावही, नट के भई दिखाय ॥ 349 ॥

बांस चढ़ी नट बंदनी, मन बांधत लै बांस ।
नैन बैन की सैन ते, कटत कटाछन सांस ॥ 350 ॥

लटकि लेई कर दाइरौ, गावत अपनी ढाल ।
सेत लाल छवि दीसियतु, ज्यों गुलाल की माल ॥ 351 ॥

कंचन से तन कंचनी, स्याम कंचुकी अंग ।
भाना भामै भोर ही, रहै घटा के संग ॥ 352 ॥

काम पराक्रम जब करै, धुवत नरम हो जाइ ।
रोम रोम पिय के बदन, रुई सी लपटाइ ॥ 353 ॥

बहु पतंग जारत रहै, दीपक बारैं देह ।
फिर तन गेह न आवही, मन जु चेटुवा लेह ॥ 354 ॥

नेकु न सूधे मुख रहै, झुकि हंसि मुरि मुसक्याइ ।
उपपति की सुनि जात है, सरबस लेइ रिझाइ ॥ 355 ॥

बोलन पै पिय मन बिमल, चितवति चित्त समाय ।
निस बासर हिन्दू तुरकि, कौतुक देखि लुभाय ॥ 356 ॥

प्रेम अहेरी साजि कै, बांध परयौ रस तान ।
मन मृग ज्यों रीझै नहीं, तोहि नैन के बान ॥ 357 ॥

अलबेली अदभुत कला, सुध बुध ले बरजोर ।
चोरी चोरी मन लेत है, ठौर-ठौर तन तोर ॥ 358 ॥

कहै आन की आन कछु, विरह पीर तन ताप ।
औरे गाइ सुनावई, और कछू अलाप ॥ 359 ॥

लेत चुराये डोमनी, मोहन रूप सुजान ।
गाइ गाइ कुछ लेत है, बांकी तिरछी तान ॥ 360 ॥

मुक्त माल उर दोहरा, चौपाई मुख लौन ।
आपुन जोबन रूप की, अस्तुति करे न कौन ॥ 361 ॥

मिलत अंग सब मांगना, प्रथम माँन मन लेई ।
घेरि घेरि उर राखही, फेरि फेरि नहिं देई ॥ 362 ॥

विरह विथा खटकिन कहै, पलक न लावै रैन ।
करत कोप बहुत भांत ही, धाइ मैन की सैन ॥ 363 ॥

अपनी बैसि गरुर ते, गिनै न काहू भित्त ।
लाक दिखावत ही हरै, चीता हू को चित्त ॥ 364 ॥

धासिनी थोड़े दिनन की, बैठी जोबन त्यागि ।
थोरे ही बुझ जात है, घास जराई आग ॥ 365 ॥

चेरी मांति मैन की, नैन सैन के भाइ ।
संक-भरी जंभुवाई कै, भुज उठाय अंगराइ ॥ 366 ॥

रंग-रंग राती फिरै, चित्त न लावै गेह ।
सब काहू तें कहि फिरै, आपुन सुरत सनेह ॥ 367 ॥

बिरही के उर में गड़ै, स्याम अलक की नोक ।
बिरह पीर पर लावई, रकत पियासी जोंक ॥ 368 ॥

नालबे दिनी रैन दिन, रहै सखिन के नाल ।
जोबन अंग तुरंग की, बांधन देह न नाल ॥ 369 ॥

बिरह भाव पहुंचै नहीं, तानी बहै न पैन ।
जोबन पानी मुख घटै, खैंचे पिय को नैन ॥ 370 ॥

धुनियाइन धुनि रैन दिन, धरै सुर्राते की भांति ।
वाको राग न बूझही, कहा बजावै तांति ॥ 371 ॥

मानो कागद की गुड़ी, चढ़ी सु प्रेम अकास ।
सुरत दूर चित्त खैंचई, आइ रहै उर पास ॥ 372 ॥

थोरे थोरे कुच उठी, थोपिन की उर सीव ।
रूप नगर में देत है, मैन मंदिर की नीव ॥ 373 ॥

पहनै जो बिछुवा-खरी, पिय के संग अंगरात ।
रति पति की नौबत मनौ, बाजत आधी रात ॥ 374 ॥

जाके सिर अस भार, सो कस झोंकत भार अस ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 375 ॥

ओछे की सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों ।
तातो जारै अंग, सीरो पै करो लगै ॥ 376 ॥

रहिमन बहरी बाज, गगन चढ़ै फिर क्यों तिरै ।
पेट अधम के काज, फेरि आय बंधन परै ॥ 377 ॥

रहिमन नीर पखान, बूड़ै पै सीझै नहीं ।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नहीं ॥ 378 ॥

बिंदु मो सिंघु समान को अचरज कासों कहैं ।
हेरनहार हेरान, रहिमन अपुने आप तें ॥ 379 ॥

अहमद तजै अंगार ज्यों, छोटे को संग साथ ।
सीरोकर कारो करै, तासो जारै हाथ ॥

रहिमन कीन्हीं प्रीति, साहब को भावै नहीं ।
जिनके अगनित मीत, हमैं गरीबन को गनै ॥ 380 ॥

रहिमन मोहि न सुहाय, अमी पिआवै मान बिनु ।
बरू विष बुलाय, मान सहित मरिबो भलो ॥ 381 ॥

रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं मधुकर लसै ।
कैंधों शालिग्राम, रूप के अरधा धरै ॥ 382 ॥

रहिमन जग की रीति, मैं देख्यो इस ऊख में ।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं ॥ 383 ॥

चूल्हा दीन्हो बार, नात रह्यो सो जरि गयो ।
रहिमन उतरे पार, भार झोंकि सब भार में ॥ 384 ॥

घर डर गुरु डर बंस डर, डर लज्जा डर मान ।
डर जेहि के जिह में बसै, तिन पाया रहिमान ॥ 385 ॥

बन्दौं विधन-बिनासन, ॠधि-सिधि-ईस ।
निर्म्ल बुद्धि प्रकासन, सिसु ससि-सीस ॥ 386 ॥

सुमिरौं मन दृढ़ करिकै, नन्द कुमार ।
जो वृषभान-कुँवरि कै, प्रान – अधार ॥ 387 ॥

भजहु चराचर-नायक सूरज देव ।
दीन जनन-सुखदायक, तारत एव ॥ 388 ॥

ध्यावौं सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस ।
नगर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ॥ 389 ॥

ध्यावौं बिपद-बिदारन, सुवन समीर ।
खल-दानव-बन-जारन, प्रिय रघुवीर ॥ 390 ॥

पुन पुन बन्दौं गुरु के, पद-जलजात ।
जिहि प्रताप तैं मनके, तिमिर बिलात ॥ 391 ॥

करत घुमड़ि घन-घुरवा, मुरवा सोर ।
लगि रह विकसि अंकुरवा, नन्दकिसोर ॥ 392 ॥

बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरा धार ।
सावन आवन कीजत, नन्दकिसोर ॥ 393 ॥

अजौं न आये सुधि कै, सखि घनश्याम ।
राख लिये कहूँ बसिकै, काहू बाम ॥ 394 ॥

कबलौं रहि है सजनी, मन में धीर ।
सावन हूं नहिं आवन, कित बलबीर ॥ 395 ॥

घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज ।
पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन-तीज ॥ 396 ॥

पीव पीव कहि चातक, सठ अहरात ।
अजहूँ न आये सजनी, तरफत प्रान ॥ 397 ॥

मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय ।
तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय ॥ 398 ॥

बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव ।
मनमोहन तैं मिलबो, सखि कहँ दाँव ॥ 399 ॥

मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय ।
गुन न भूलिहों सजनी, तनक मिलाय ॥ 400 ॥


उमड़ि-उमड़ि घन घुमड़े, दिसि बिदिसान ।
सावन दिन मनभावन, करत पयान ॥ 401 ॥
समुझति सुमुखि सयानी, बादर झूम ।
बिरहिन के हिय भभतक, तिनकी धूम ॥ 402 ॥

उलहे नये अंकुरवा, बिन बलवीर ।
मानहु मदन महिप के, बिन पर तीर ॥ 403 ॥

सुगमहि गातहि गारन, जारन देह ।
अगम महा अति पारन, सुघर सनेह ॥ 404 ॥

मनमोहन तुव मुरति, बेरिझबार ।
बिन पियान मुहि बनिहै, सकल विचार ॥ 405 ॥

झूमि-झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह ।
त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरसत देह ॥ 406 ॥

झूँठी झूँठी सौंहे, हरि नित खात ।
फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ॥ 407 ॥

डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार ।
हरि बिन लागब सजनी, जिमि तरवार ॥ 408 ॥

कहियो पथिक संदेसवा, गहि के पाय ।
मोहन तुम बिन तनिकहु रह्यौ न जाय ॥ 409 ॥

जबते आयौ सजनी, मास असाढ़ ।
जानी सखि वा तिन के, हिम की गाढ़ ॥ 410 ॥

मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ ।
आये नन्द दिठनवा, लगत असाढ़ ॥ 411 ॥

वेद पुरान बखानत, अधम उधार ।
केहि कारन करूनानिधि, करत विचार ॥ 412 ॥

लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोंर ।
घन घुमड़े चहुँ औरन, नाचत मोर ॥ 413 ॥

लखि पावस ॠतु सजनी, पिय परदेस ।
गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ॥ 414 ॥

बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ्यौ चवाव ।
करयो निठुर नन्दनन्दन, कौन कुदाव ॥ 415 ॥

भज्यो कितौ न जनम भरि, कितनी जाग ।
संग रहत या तन की, छाँही भाग ॥ 416 ॥

भज र मन नन्दनन्दन, विपति बिदार ।
गोपी-जन-मन-रंजन, परम उदार ॥ 417 ॥

जदपि बसत हैं सजनी, लाखन लोग ।
हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ॥ 418 ॥

जदपि भई जल पूरित, छितव सुआस ।
स्वाति बूँद बिन चातक, मरत-पियास ॥ 419 ॥

देखन ही को निसदिन, तरफत देह ।
यही होत मधुसूदन, पूरन नेह ॥ 420 ॥

कब तें देखत सजनी, बरसत मेह ।
गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ॥ 421 ॥

विरह विथा तें लखियत, मरिबौं झूरि ।
जो नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ॥ 422 ॥

उधौं भलौ न कहनौ, कछु पर पूठि ।
साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ॥ 423 ॥

भादों निस अँधियरिया, घर अँधियार ।
बिसरयो सुघर बटोही, शिव आगार ॥ 424 ॥

हौं लखिहौ री सजनी, चौथ मयंक ।
देखों केहि बिधि हरि सों, लगत कलंक ॥ 425 ॥

इन बातन कछु होत न, कहो हजार ।
सबही तैं हँसि बोलत, नन्दकुमार ॥ 426 ॥

कहा छलत को ऊधौ, दै परतीति ।
सपनेहूं नहिं बिसरै, मोहनि-मीति ॥ 427 ॥

बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर ।
लगत देह से बिछुरे, नन्द किसोर ॥ 428 ॥

भलि भलि दरसन दीनहु, सब निसि टारि ।
कैसे आवन कीनहु, हौं बलिहारि ॥ 429 ॥

अदिहि-ते सब छुटगो, जग व्यौहार ।
ऊधो अब न तिनौं भरि, रही उधार ॥ 430 ॥

घेर रह्यौ दिन रतियाँ, विरह बलाय ।
मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय ॥ 431 ॥

नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं ।
होत विटपहू नागौ, फागुन माहि ॥ 432 ॥

सहज हँसोई बातें, होत चवाइ ।
मोहन कों तन सजनी, दै समुझाइ ॥ 433 ॥

ज्यों चौरसी लख में, मानुष देह ।
त्योंही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ॥ 434 ॥

मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय ।
हरि-भजि कर संत संगति, कह्यौ जताय ॥ 435 ॥

अति अदभुत छबि- सागर, मोहन-गात ।
देखत ही सखि बूड़त, दृग-जलजात ॥ 436 ॥

निरमोंही अति झूँठौ, साँवर गात ।
चुभ्यौ रहत चित कौधौं, जानि न जात ॥ 437 ॥

बिन देखें कल नाहिन, यह अखियान ।
पल-पल कटत कलप सों, अहो सुजान ॥ 438 ॥

जब तब मोहन झूठी, सौंहें खात ।
इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ॥ 439 ॥

ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन प्रान ।
ऊधो यह संदेसवा, अहक कहान ॥ 440 ॥

मोहि मीत बिन देखें, छिन न सुहात ।
पल पल भरि भरि उलझत, दृग जल जात ॥ 441 ॥

जब तें बिछरे मितवा, कहु कस चैन ।
रहत भरयौ हिय साँसन, आँसुन नैन ॥ 442 ॥

कैसे जावत कोऊ, दूरि बसाय ।
पल अन्तरहूं सजनी, रह्यो न जाय ॥ 443 ॥

जान कहत हो ऊधौ, अवधि बताइ ।
अवधि अवधि-लौं दुस्तर, परत लखाइ ॥ 444 ॥

मिलनि न बनि है भाखत, इन इक टूक ।
भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ॥ 445 ॥

गये हरि हरि सजनी, बिहँसि कछूक ।
तबते लगनि अगनि की, उठत भभूक ॥ 446 ॥

होरी पूजत सजनी, जुर नर नारि ।
जरि-बिन जानहु जिय में, दई दवारि ॥ 447 ॥

दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कू ।
चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ॥ 448 ॥

जबते मोहन बिछुरे, कछु सुधि नाहिं ।
रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ॥ 449 ॥

उझिक उझिक चित दिन दिन, हेरत द्वार ।
जब ते बिछुरे सजनी, नेन्द्कुमार ॥ 450 ॥

मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान ।
हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ॥ 451 ॥

जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस ।
हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ॥ 452 ॥

चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय ।
बिन देखे निस बासर, तरफत जाय ॥ 453 ॥

तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात ।
होरि के त्यौहारन, पीहर जात ॥ 454 ॥

और कहा हरि कहिये, चनि यह नेह ।
देखन ही को निसदिन, तरफत देह ॥ 455 ॥

जब तें बिछुरे मोहन, भूख न प्यास ।
बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ॥ 456 ॥

अन्तरग्त हिय बेधत, छेदत प्रान ।
विष सम परम सबन तें, लोचन बान ॥ 457 ॥

गली अँधेदी मिल कै, रहि चुपचाप ।
बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ॥ 458 ॥

सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय ।
मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय ॥ 459 ॥

उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज ।
ऊधो तुमहू कहियो, धनि बृजराज ॥ 460 ॥

जिहिके लिये जगत में, बजै निसान ।
तिहिं-ते करे अबोलन, कौन सयान ॥ 461 ॥

रे मन भज निस वासर, श्री बलवीर ।
जो बिन जाँचे टारत, जन की पीर ॥ 462 ॥

विरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय ।
पीर पराई जानै, तब कहु कोय ॥ 463 ॥

सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर ।
बौरी बाँझ न जानै, ब्यावर पीर ॥ 464 ॥

लखि मोहन की बंसी, बंसी जान ।
लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ॥ 465 ॥

तै चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ ।
याहीं तें दुचती सी, परत लखाई ॥ 466 ॥

मी गुजरद है दिलरा, बे दिलदार ।
इक इक साअत हमचूँ, साल हजार ॥ 467 ॥

नव नागर पद परसी, फूलत जौन ।
मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ॥ 468 ॥

समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति ।
सुनहू श्याम की सजनी, का परतीति ॥ 469 ॥

नृप जोगी सब जानत, होत बयार ।
संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ॥ 470 ॥

मोहन जीवन प्यारे, कस हित कीन ।
दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ॥ 471 ॥

भजि मन राम सियापति, रघुकुल ईस ।
दीनबन्धु दुख टारन, कौसलधीस ॥ 472 ॥

गर्क अज मैं शुद आलम, चन्द हजार ।
बे दिलदार कै गीरद, दिलम करार ॥ 473 ॥

दिलबर जद बर जिगरम, तीर निगाह ।
तपीदा जाँ भी आयद, हरदम आह ॥ 474 ॥

लोग लुगाई हिलमिल, खेतल फाग ।
परयौ उड़ावन मौकौं, सब दिन काग ॥ 475 ॥

मो जिय कोरी सिगरी, ननद जिठानि ।
भई स्याम सों तब तें, तनक पिछानि ॥ 476 ॥

होत विकल अनलेखै, सुधर कहाय ।
को सुख पावत सजनी, नेह लगाय ॥ 477 ॥

अहो सुधाधर प्यारे, नेह निचोर ।
देखन ही कों तरसे, नैन चकोर ॥ 478 ॥

आँखिन देखत सबही, कहत सुधारि ।
पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ॥ 479 ॥

पथिक आय पनघटवा, कहता पियाव ।
पैया परों ननदिया, फेरि कहाव ॥ 480 ॥

या झर में घर घर में, मदन हिलोर ।
पिय नहिं अपने कर में, करमैं खोर ॥ 481 ॥

बालम अस मन मिलयउँ, जस पय पानि ।
हंसनि भइल सवतिया, लई बिलगानि ॥ 482 ॥

रहीमन पानी राखिए, बिन पानी सब सुन।
पानी रहे ना उबरे, मोती मानस चुन।।
अब रहीम मुसकिल परि, गाढ़े दोऊ काल।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलै न राम ।।
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल।
औरन को रोकत फिरै, रहिमन के पेड़ बबूल।।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सीचिबो, फूलै फलै अघाय।।
बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोउ |
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माख्नन होय ||
कहि रहिम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत।
विपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत।।
जो बड़ेन को लधु कहे, नहिं रहीम घटी जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कुछ दुख मानत नांहि।।
जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विश व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग।।
तरूवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान।
कहि रहीम पर काज हित संपति सचहिं सुजान ।।
छामा बड़न को चाहियेए छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय।।
आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि।।
रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।
मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय।।
रुठे सुजन मनाइए, जो रुठै सौ बार।
रहिमन फिरि-फिरि पोहि टूटे मुक्ताहार ।।