शनिवार, 14 जनवरी 2012

!!आर्य भारत के मूलनिवासी है !!

भारत वर्ष की लगातार अत्यन्त त्रुटिपूर्ण शिक्षा का ही ये कमाल है की हम अपने देश में ही अपने आप को विदेशी आक्रमणकारी की संज्ञा से संबोधित करते हैं जिस के कारण बहुत सारे लोग (और इसमें लगातार वृद्धि भी हो रही है) अपने को आर्य और कुछ को द्रविड़ बताते हैं और जिसके कारण उनके ह्रदय एक नही हो पाते हैं और वो अपने आप को अलग संस्कृति का मानते हैं ये बड़ी ही विकट और हास्यास्पद बात है कि काफी सारे दक्षिण भारतीय लोग अब भी उत्तरी भारतीय लोगो को आक्रमणकारी और अलग संस्कृति का समझते हैं और इनकी इस समझ में बहुत सारे नेता उत्तरी भारतीय लोग भी बढ़-चढ़ कर साथ देते हैं जिससे देश विखंडन कि और बढ़ रहा है। करीब १५० साल पहले ब्रिटिश शाशकों द्वारा बड़ी चालाकी से भारतीय शिक्षा में ये लिखवा दिया गया कि उत्तरी भारतीय लोग यहाँ के नही हैं मध्य एशिया से यहाँ पर आए हैं और उन्होंने यहाँ पर यहाँ के वास्तविक लोगो पर कब्जा कर लिया बाद में उनका साथ हमारे महा बेवकूफ और चरित्रहीन नेता जवाहर लाल नेहरू ने एक तर्कहीन महाबकवास किताब उन्ही की नक़ल से डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया लिख कर महांचापलूसी और बुद्दिहीनता का परिचय दिया। इस बात का आज कि पीडी पर बड़ा ही कुप्रभाव पड़ा है। उनके पास कोई भी प्रमाण नही है कि आर्य बाहर से आए हैं सिर्फ़ बेसिर-पैर कि बातों के अलावा। जैसे NCERT की पुस्तकों में लिखा है कि “आर्य पहले कहीं साउथ रूस से मध्य एशिया के मध्य में कही रहते थे क्युकी कुछ जानवरों के नाम जैसे dog, horse, goat (कुत्ता,घोडा , बकरी) आदि और कुछ पोधो के नाम पाइन, मेपल आदि जैसे शब्द सभी इंडो- यूरोपियन भाषाओं में एक जैसे हैं इससे ये पता लगता है कि आर्य नदियों और जंगलों से परिचित थे।“ सब से पहले तो ये इंडो-यूरोपियन भाषा का कोई अस्तित्व नहीं है और विश्व की सभी भाषाओं में तुम्हे संस्कृत के शब्द मिल जायेंगे सभी भाषाओं के आदि में संस्कृत है जरा शोध करके तो देखो। खैर ये एकदम से बेसिर-पैर और अतार्किक बात है जो NCERT कि पुस्तकों में लिखी है भाषाई शब्द और यहाँ तक कि व्याकरण से इंग्लिश, ग्रीक, इटालिक अरेबिक , हिन्दी(संस्कृत) और विश्व की कई अन्य भाषाओं में एक जैसे शब्द पाए जाते हैं किंतु इससे ये तो सिद्ध नही होता और ना ही कोई प्रमाण मिलता कि इंग्लिशमैन,इटालियअब जरा एक बात अपनी बुद्दी से और अनुसंधान करके सोच कर बताओ जो सब कुछ वेदों में लिखा है और जो भी कुछ हमारे रीती रिवाज़ हैं और जो हमारी जीवन दर्शन का सिद्धांत है वो इस विश्व में कही भी नही है अगर आर्य बाहर से मध्य से आते तो उनके वहाँ भी तो तो कुछ प्रमाण होने चाहिए जबकि हमारी संस्कृति और उनमें धरती-आसमान का अन्तर दिखाई देता है। शायद मेरी बात को आप में से कुछ लोग स्वीकार नही करेंगे तो मैं यहाँ उनके लिये कुछ ब्रिटेनिका एनसाईक्लोपीडिया से-
१) आर्यों में कोई गुलाम बनाने का कोई रिवाज़ नही था।
समीक्षा - जबकि मध्य एशिया अरब देशो में ये रिवाज़ बहुत रहा है।
२) आर्य प्रारम्भ से ही कृषि करके शाकाहार भोजन ग्रहण करते आ रहें है।
समीक्षा - मध्य एशिया में मासांहार का बहुत सेवन होता है जबकि भारत में अधिकतम सभी आर्य या हिंदू लोग शाकाहारी हैं३) आर्यों ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया
समीक्षा- अधिकतम अपनी सुरक्षा के लिये किया है या फ़िर अधर्मियो और राक्षसों (बुरे लोगो) का संहार करने के लिये और लोगो को अन्याय से बचाने के लिये और शिक्षित करने के लिये किया है। इतिहास साक्षी है अरब देशो ने कितने आक्रमण और लौट-खसोट अकारण ही मचाई है।
४) आर्यों में कभी परदा प्रथा नही रही बल्कि वैदिक काल में स्त्रियाँ स्नातक और भी पढी लिखी होती थी उनका आर्य समाज में अपना काफी आदर्श और उच् स्थान था ( मुगलों के आक्रमण के साथ भारत के काले युग में इसका प्रसार हुआ था)
समीक्षा- जबकि उस समय मध्य एशिया या विश्व के किसी भी देश में स्त्रियों को इतना सम्मान प्राप्त नही था।
५)आर्य लोग शवो का दाह संस्कार या जलाते हैं जबकि विश्व में और बाकी सभी और तरीका अपनाते हैं।
समीक्षा - ना की केवल मध्य एशिया में वरन पूरे विश्व में भारतीयों के अलावा आज भी शवो को जलाया नही जाता।
६) आर्यों की भाषा लिपि बाएं से दायें की ओर है।
समीक्षा - जबकि मध्य एशिया और इरानियो की लिपि दायें से बाईं ओरहै
७)आर्यों के अपने लोकतांत्रिक गाँव होते थे कोई राजा मध्य एशिया या मंगोलियो की तरह से नही होता था।
समीक्षा - मध्य एशिया में उस समय इन सब बातो का पता या अनुमान भी नही था
८)आर्यों का कोई अपना संकीर्ण सिद्दांत या कानून नही था वरन उनका एक वैश्विक अध्यात्मिक सिद्दांत रहा है जैसे की अहिंसा, सम्पूर्ण विश्व को परिवार की तरह मानना।
समीक्षा -मध्य एशिया या शेष विश्व में ऐसा कोई सिद्दांत या अवधारणा नही है।
९)वैदिक या सनातन धर्म को कोई प्रवर्तक या बनाने वाला नहीं है जैसे की मोहम्मद मुस्लिमों का, अब्राहम ज्युष का या क्राईस्ट क्रिश्चियन का और भी सब इसी तरीको से।
समीक्षा - मध्य एशिया या शेष विश्व में भारतीयों या हिन्दुओं के अतिरिक्त सभी के अपने मत हैं और सभी में और मतों की बुराई और अपनी तारीफ़ लिखी गई है जबकि हिन्दुओं या आर्यों ने हमेशा समस्त विश्व को साथ लेकर चलने की बात कही गई है।
१०) वेदों में या किसी भी संस्कृत साहित्य में कहीं भी ये वर्णन नहीं है की आर्य जाती सूचक शब्द है और कोई मध्य एशिया से आक्रमणकारी यहाँ आ कर बसे हैं जिन्होंने वेदों की रचना की है।[COLOR=#0000ff]
समीक्षा -जबकि इस बात को विश्व में सभी सर्वसहमति से स्वीकारते हैं की वेद विश्व की सबसे पुराने ग्रन्थ हैंऔर किसी भी भारतीय उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत या अन्य किसी में भी कहीं भी ये एक शब्द भी नही मिलता की आर्य बाहर से आए हैं जबकि आर्य कोई जातिसूचक शब्द ना हो कर के उसका अर्थ श्रेष्ट है।

अब विचार करने योग्य ये है ये सभी बातें भारतीयों या हिन्दुओं के अलावा विश्व में कहीं और क्यों नही पाई जाती यदि हम आक्रमणकारी थे तो हमारे सिद्दांत या रीती रिवाज़, समाज या अन्य धार्मिक क्रिया-कलाप किसी और विश्व की सभ्यता में क्यों नही पाए जाते अगर वास्तव में हम आक्रमणकारी हैं तो हमारी मूल स्थान कहीं तो होगा जैसे की अधिकतर लोगो का मानना मध्य एशिया हमारा मूल स्थान है उनमें क्या एक भी गुण हम आर्यों के सिद्दान्तो या जीवनदर्शन से मिलता है बल्कि मूल स्थान पर ये गुण अधिक पाये जाने चाहिए थे। हम इस विश्व में शेष विश्व से अपनी एक अलग पहचान रखते हैं और ऐसे हजारों तथ्य हैं जो इस बात को सिद्ध करते हैं हम भारतीय मानव के जन्म काल से भारतवासी हैं। मेरे विचार से इससे बड़ी हास्यास्पद और विकट समस्या भारतीयों के लिये हो नहीं सकती अगर वो अपने को इस देश का मूल निवासी नही मानते। क्युकी इससे राष्ट्रभक्ति और स्वाभिमान पर सीधा आघात होता है जैसा की ब्रिटिश चाहते ही थे और इनके उद्देश्य को पूर्ण करने में पिछले १५० सालो से हमारे नेताओं ने जोकि अधिकतर भारतीयों की खाल में वेदेशी घुसे हुए हैं ने कोई कमी नही छोडी है जिससे आजकल की पीडी अपने राष्ट्र और संस्कृति से भी कटने लगी है। खैर देखते और आशा भी करते है भारत अपने इस काले युग से बाहर निकल कर फ़िर से अपने पैरो पर खड़ा हो कर के चलेगा किसी दिन।

एक साझा मूल होने की बात बहुत पहले से ही की जा रही है। परन्तु कुछ छद्म बुद्धिजीविता के ठेकेदारों को अपनी तुरही के अतिरिक्त सुनाई ही क्या देता है?

वस्तुत: आर्य-द्रविड़ संघर्ष की थियोरी इस राष्ट्र के मन-प्राण औए आत्मा को विदेशी साबित कर कुंठित करने के लिये प्रतिपादित की गई थी... समय आ गया है कि समस्त उपमहाद्वीप की सांस्कृतिक-सह-आनुवांशिक एकात्मकता को एंडोर्स किया जाय।

जहाँ तक अफ्रीका में मानव उत्पत्ति का सवाल है ,तो अफ्रीका में मनुष्य की प्रथम उत्पत्ति का रहस्य भी जगजाहिर हो जायेगा. वह सन्दर्भ यहाँ प्रस्तुत है....

भूगर्भशास्त्रियो

सदियों से भारतीय इतिहास पर छायी आर्य आक्रमण सम्बन्धी झूठ की चादर को विज्ञान की खोज ने एक झटके में ही तार-तार कर दिया है।

विज्ञान की आंखों ने जो देखा है उसके अनुसार तो सच यह है कि आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा है।

इतिहास और विज्ञान के मेल के आधार पर हुआ यह क्रांतिकारी जैव-रासायनिक डीनएनए गुणसूत्र आधारित अनुसंधान फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में हाल ही में सम्पन्न हुआ है।


कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिध्द किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।

शोधकार्य में अखण्ड भारत अर्थात वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई।

इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। भारतीयों के पूर्वजों का डीएन गुणसूत्र यूरोप, मध्य एशिया और चीन-जापान आदि देशों की नस्लों से बिल्कुल अलग है और इस अन्तर को स्पष्ट पहचाना जा सकता है ।


जेनेटिक हिस्ट्री ऑफ साउथ एशिया

ज्ञानेश्वर चौबे को जिस बिन्दु पर शोध के लिए पीएच.डी. उपाधि स्वीकृत की गई है उसका शीर्षक है- 'डेमॉग्राफिक हिस्ट्री ऑफ साउथ एशिया: द प्रिवेलिंग जेनेटिक कांटिनिटी फ्रॉम प्रीहिस्टोरिक टाइम्स' अर्थात 'दक्षिण एशिया का जनसांख्यिक इतिहास: पूर्वऐतिहासिक काल से लेकर अब तक की अनुवांशिकी निरंतरता'। संपूर्ण शोध की उपकल्पना ज्ञानेश्वर के मन में उस समय जागी जब वह हैदराबाद स्थित 'सेन्टर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी' अर्थात सीसीएमबी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के ख्यातलब्ध भारतीय जैव वैज्ञानिक डॉ. लालजी सिंह और डॉ के. थंगराज के अन्तर्गत परास्नातक बाद की एक शोधपरियोजना में जुटे थे।

ज्ञानेश्वर के मन में विचार आया कि जब डीएनए जांच के द्वारा किसी बच्चे के माता-पिता के बारे में सच्चाई का पता लगाया जा सकता है तो फिर भारतीय सभ्यता के पूर्वज कौन थे, इसका भी ठीक-ठीक पता लगाया जा सकता है। बस फिर क्या था, उनके मन में इस शोधकार्य को कर डालने की जिद पैदा हो गई। ज्ञानेश्वर बताते हैं-बचपन से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि हमारे पूर्वज कौन थे? बचपन में जो पाठ पढे़, उससे तो भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी कि क्या हम आक्रमणकारियों की संतान हैं? दूसरे एक मानवोचित उत्सुकता भी रही। आखिर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी तो यह जानने की उत्सुकता पैदा होती ही है कि उसके परदादा-परदादी कौन थे, कहां से आए थे,उनका मूलस्थान कहां है और इतिहास के बीते हजारों वर्षों में उनके पुरखों ने प्रकृति की मार कैसे सही, कैसे उनका अस्तित्व अब तक बना रहा है? ज्ञानेश्वर के अनुसार, पिछले एक दशक में मानव जेनेटिक्स और जीनोमिक्स के अध्ययन में जो प्रगति हुई है उससे यह संभव हो गया है कि हम इस बात का पता लगा लें कि मानव जाति में किसी विशेष नस्ल का उद्भव कहां हुआ, वह उद्विकास प्रक्रिया में दुनिया के किन-किन स्थानों से गुजरी, कहां-कहां रही और उनके मूल पुरखे कौन रहे हैं?


उनके अनुसार- माता और पिता दोनों के डीएनए में ही उनके पुरखों का इतिहास भी समाया हुआ रहता है। हम जितनी गहराई से उनके डीएनए संरचना का अध्ययन करेंगे, हम यह पता कर लेंगे कि उनके मूल जनक कौन थे? और तो और इसके द्वारा पचासों हजार साल पुराना अपने पुरखों का इतिहास भी खोजा जा सकता है।


कैंब्रिज के डॉ. कीवीसील्ड ने किया शोध निर्देशन

हैदराबाद की प्रयोगशाला में शोध करते समय उनका संपर्क दुनिया के महान जैव वैज्ञानिक प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ आया। प्रो. कीवीसील्ड संसार में मानव नस्लों की वैज्ञानिक ऐतिहासिकता और उनकी बसावट पर कार्य करने वाले उच्चकोटि के वैज्ञानिक माने जाते हैं। इस नई सदी के प्रारंभ में ही प्रोफेसर कीवीसील्ड ने अपने अध्ययन में पाया था कि दक्षिण एशिया की जनसांख्यिक संरचना अपने जातीय एवं जनजातीय स्वरूप में न केवल विशिष्ट है वरन् वह शेष दुनिया से स्पष्टत: भिन्न है। संप्रति प्रोफेसर डॉ. कीवीसील्ड कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बायोसेंटर का निर्देशन कर रहे हैं।

प्रोफेसर डॉ. कीवीसील्ड की प्रेरणा से ज्ञानेश्वर चौबे ने एस्टोनियन बायोसेंटर में सन् 2005 में अपना शोधकार्य प्रारंभ किया। और देखते ही देखते जीवविज्ञान सम्बंधी अंतरराष्ट्रीय स्तर के शोध जर्नल्स में उनके दर्जनों से ज्यादा शोध पत्र प्रकाशित हो गए। इसमें से अनेक शोध पत्र जहां उन्होंने अपने गुरूदेव प्रोफेसर कीवीसील्ड के साथ लिखे वहीं कई अन्य शोधपत्र अपने उन साथी वैज्ञानिकों के साथ संयुक्त रूप से लिखे जो इसी विषय से मिलते-जुलते अन्य मुद्दों पर काम कर रहे हैं।

अपने अनुसंधान के द्वारा ज्ञानेश्वर ने इसके पूर्व हुए उन शोधकार्यों को भी गलत सिद्ध किया है जिनमें यह कहा गया है कि आर्य और द्रविड़ दो भिन्न मानव नस्लें हैं और आर्य दक्षिण एशिया अर्थात् भारत में कहीं बाहर से आए। उनके अनुसार, 'पूर्व के शोधकार्यों में एक तो बहुत ही सीमित मात्रा में नमूने लिए गए थे, दूसरे उन नमूनों की कोशिकीय संरचना और जीनोम इतिहास का अध्ययन 'लो-रीजोलूशन' अर्थात न्यून-आवर्धन पर किया गया। इसके विपरीत हमने अपने अध्ययन में व्यापक मात्रा में नमूनों का प्रयोग किया और 'हाई-रीजोलूशन' अर्थात उच्च आवर्धन पर उन नमूनों पर प्रयोगशाला में परीक्षण किया तो हमें भिन्न परिणाम प्राप्त हुए।'

माइटोकांड्रियल डीएनए में छुपा है पुरखों का इतिहास

ज्ञानेश्वर द्वारा किए गए शोध में माइटोकांड्रियल डीएनए और वाई क्रोमासोम्स और उनसे जुड़े हेप्लोग्रुप के गहन अध्ययन द्वारा सारे निष्कर्ष प्राप्त किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि माइटोकांड्रिया मानव की प्रत्येक कोशिका में पाया जाता है। जीन अर्थात मानव गुणसूत्र के निर्माण में भी इसकी प्रमुख भूमिका रहती है। प्रत्येक मानव जीन अर्थात गुणसूत्र के दो हिस्से रहते हैं। पहला न्यूक्लियर जीनोम और दूसरा माइटोकांड्रियल जीनोम। माइटोकांड्रियल जीनोम गुणसूत्र का वह तत्व है जो किसी कालखण्ड में किसी मानव नस्ल में होने वाले उत्परिवर्तन को अगली पीढ़ी तक पहुंचाता है और वह इस उत्परिर्तन को आने वाली पीढ़ियों में सुरक्षित भी रखता है।

इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि माइटोकांड्रियल डीएनए वह तत्व है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक माता के पक्ष की सूचनाएं अपने साथ हूबहू स्थानांतरित करता है। यहां यह समझना जरूरी है कि किसी भी व्यक्ति की प्रत्येक कोशिका में उसकी माता और उनसे जुड़ी पूर्व की हजारों पीढ़ियों के माइटोकांड्रियल डीएनए सुरक्षित रहते हैं।

इसी प्रकार वाई क्रोमोसोम्स पिता से जुड़ी सूचना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित करते हैं। वाई क्रोमोसोम्स प्रत्येक कोशिका के केंद्र में रहता है और किसी भी व्यक्ति में उसके पूर्व के सभी पुरूष पूर्वजों के वाई क्रोमोसोम्स सुरक्षित रहते हैं। इतिहास के किसी मोड़ पर किसी व्यक्ति की नस्ल में कब और किस पीढ़ी में उत्परिवर्तन हुआ, इस बात का पता प्रत्येक व्यक्ति की कोशिका में स्थित वाई क्रोमोसोम्स और माइटोकांड्रियल डीएनए के अध्ययन से आसानी से लगाया जा सकता है। यह बात किसी समूह और समुदाय के संदर्भ में भी लागू होती है।

एक वंशवृक्ष से जुड़े हैं सभी भारतीय

ज्ञानेश्वर ने अपने अनुसंधान को दक्षिण एशिया में रहने वाले विभिन्न धर्मों-जातियों की जनसांख्यिकी संरचना पर केंद्रित किया। शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है।

उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं। इसी के साथ जो गुणसूत्र उपरोक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाये जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं।


!!!! तथ्य जो आर्यन आक्रमण सिद्धांत पर गंभीर संदेह पैदा करते हैं !!!!

  • भारत के बाहर आर्य मातृभूमि का वेदों में कहीं भी उल्लेख नहीं है और ना ही कहीं और ऐसा प्रमाण मिलता है. इस के प्रत्युत, वेदों में शक्तिशाली सरस्वती नदी और अन्य स्थानों का उल्लेख किया गया है. आज की तिथि तक, आर्यों की घुसपैठ के लिए, न तो पुरातात्विक, भाषाई, सांस्कृतिक और न ही आनुवंशिक प्रमाण पाया गया है.
  • वेदों मे 2500 से अधिक पुरातत्व स्थलों का उल्लेख मिलता है, जिन में से दो तिहाई हाल ही में खोजी गयी सूखी सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित हैं.
  • सूखी सरस्वती नदी के विस्तार के बारे में किए गए सभी स्वतंत्र अध्ययन एक ही समय अवधि 1900 B.C.E. (ईसा पूर्व) की ओर संकेत करते हैं.
  • अंग्रेजों द्वारा वैदिक साहित्य की कल्पनिक तिथियां, आर्य आक्रमण के लिए 1500 B.C.E. और ऋग्वेद के लिए 1200 B.C.E., दोनों को अब वैज्ञानिक प्रमाण असत्य प्रमाणित करते हैं.
  • मैक्स मुलर, आर्यन आक्रमण सिद्धांत के प्रमुख वास्तुकार, ने भी अपनी मृत्यु से पहले माना कि उसकी वैदिक कालक्रम की तिथियां काल्पनिक थीं. अपनी मृत्यु के पहले प्रकाशित पुस्तक ‘The Six Systems of Indian Philosophy’ में उस ने लिखा है कि “Whatever may be the date of the Vedic hymns, whether 15 hundred or 15,000 B.C.E., they have their own unique place and stand by themselves in the literature of the world.”

!!मकर शंक्रांति दान और सूर्य उपासना का पर्व है !!

हमारे सभी धार्मिक ग्रंथों विशेषत: वेदों, पुराणों, उपनिषदों आदि में सूर्य भगवान को जगत की आत्मा बताया गया है। सूर्य हमारे प्रत्यक्ष देवता हैं। इनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सूर्य की उपासना करना हर मनुष्य के लिए नितांत जरूरी है। सूर्य की सभी संक्रांतियों में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मकर संक्रांति का गुणगान इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों में किया गया है, जिससे आम जनमानस भगवान सूर्य की आराधना करके अपने जीवन का लक्ष्य हासिल कर सके। इस वर्ष 14 जनवरी की अर्धरात्रि में सूर्य भगवान देवताओं के गुरु बृहस्पति की राशि धनु छोड़ कर अपने पुत्र शनि की राशि मकर में प्रवेश करेंगे। इसलिए संक्रांति का पुण्यकाल 15 जनवरी को ही है।
मकर संक्रांति के आते ही देवताओं की रात समाप्त हो जाती है, दक्षिणायन समाप्त होता है और देवताओं के दिन शुरू हो जाते हैं, उत्तरायण  शुरू हो जाता हैं। उत्तरायण में सूर्य का गोचर मकर, कुंभ, मीन, मेष, वृष और मिथुन राशि में होता है अर्थात दिन बड़े होते जाते हैं। दक्षिणायन में सूर्य का गोचर कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक और धनु राशि में होता है और रात बड़ी होती जाती है।  इस दिन से ही लोग मलमास के कारण रुके हुए अपने शुभ कार्य-गृहनिर्माण, गृहप्रवेश, विवाह आदि भी शुरू कर देते हैं। मलमास, बृहस्पति की राशियों - धनु और मीन में सूर्य भगवान के प्रवेश करने पर शुरू होता है। तब सूर्य भगवान देवगुरु बृहस्पति के साथ आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा में मग्न रहते हैं।  इसीलिए भोग-विलास आदि सांसारिक कार्यों से दूर होते हैं। द्वापर काल में महाभारत के युद्ध में गंगा पुत्र भीष्म अर्जुन के हाथों मरणासन्न हो गए थे, लेकिन उन्होंने दक्षिणायन के बीतने का इंतजार किया और इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त होने के कारण सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने पर ही अपनी देह का त्याग किया।भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि उत्तरायण के 6 माह में मरे हुए योगीजन ब्रह्म को ही प्राप्त होते हैं और दक्षिणायन में मृत्यु मिलने वाले स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोग कर वापस लौट आते हैं। सूर्य का मकर राशि में प्रवेश जहां उनके अपने पुत्र शनि (जिनकी दो राशियां मकर और कुंभ हैं) के साथ रहने का प्रतीक है, वहीं प्राणों को हरने वाली शीत ऋतु के प्रकोप को कम करने का संकेत है। जाहिर है, इस मौसम में पिता की सेवा पुत्र या संतान के हाथों होना ईश्वर कृपा प्राप्त होने का संकेत भी है। इसीलिए इसे सौभाग्य काल की संज्ञा भी दी जाती है। मनुष्यों को शनि और सूर्य ग्रह के सकारात्मक फल मिलें, इसीलिए तीर्थ स्नान, दान आदि के विषय में हमारे शिष्यों ने पहले ही उपाय बता दिए हैं। तिल जहां शनि ग्रह का प्रतीक है, वहीं गुड़ सूर्य का द्योतक है। यही वजह है कि इस दिन तिल और गुड़ के बने खाद्य पदार्थ की बहुतायत होती है। साथ ही इसे ही दान देने की परंपरा भी है। इस संक्रांति से ही वसन्त ऋतु के आगमन की पूर्व सूचना भी मिलती है।
उत्तरायण में देवता मनुष्य द्वारा किए गए हवन, यज्ञ आदि को शीघ्रता से ग्रहण करते हैं। मकर संक्रांति माघ माह में आती है, जिसमें भगवान विष्णु की आराधना हर कोई करता है। संस्कृत में मघ शब्द से माघ निकला है। मघ शब्द का अर्थ होता है-धन, सोना-चांदी, कपड़ा, आभूषण आदि। स्पष्ट है कि इन वस्तुओं के दान आदि के लिए ही माघ माह उपयुक्त है। इसीलिए इसे माघी संक्रांति भी कहा जाता है। दक्षिण भारत में दूध और चावल की खीर तैयार कर पोंगल मनाया जाता है तो संक्रांति के एक दिन पूर्व पंजाब में लोहड़ी मनाई जाती है। लोग घर-घर जाकर लकड़ियां इकट्ठा करते हैं और फिर लकड़ियों के समूह को आग के हवाले कर मकई की खील, तिल व रवेड़ियों को अग्न देव को अर्पित कर सबको प्रसाद के रूप में अर्पित करते हैं। इसे खिचड़ी पर्व भी कहा जाता है, क्योंकि इन दिनों में खिचड़ी खाई भी जाती है और दान में भी दी जाती है। देसी घी, खिचड़ी में डाल कर खाने का प्रचलन उत्तर प्रदेश व बिहार में इसी संक्रांति से शुरू होता है। महाराष्ट्र और गुजरात में मकर संक्रांति के दिन लोग अपने घर के सामने रंगोली अवश्य रचते हैं। फिर एक-दूसरे को तिल-गुड़ खिलाते हैं। साथ ही कहते हैं- तिल और गुड़ खाओ और फिर मीठा-मीठा बोलो। इस दिन असम में माघ बिहु या भोगाली बिहु के रूप में मनाया जाता है। यहां चावल से बने व्यंजन प्रसाद के रूप में बांटे जाते हैं। मकर संक्रांति को पतंग पर्व के रूप में भी जाना जाता है।
भगवान राम द्वारा पतंग उड़ाने का प्रसंग रामचरितमानस के बाल कांड में उपलब्ध है-राम इक दिन चंग उड़ाई। इंद्रलोक में पहुंची जाई॥
पूरे भारत में इस दिन पतंग उत्सव देखते ही बनता है। इस दिन भारत के प्रमुख तीर्थस्थलों-प्रयाग,हरिद्वार, वाराणसी, कुरुक्षेत्र, गंगासागर आदि में पवित्र नदियों गंगा, यमुना आदि में करोडों लोग डुबकी लगा कर स्नान करते हैं। प्रयाग में तो माघ मेला 9 जनवरी से 7 फरवरी तक लगा ही है। अथर्ववेद में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि दीर्घायु और स्वस्थ रहने के लिए सूर्योदय से पूर्व ही स्नान शुभ होता है। ऋग्वेद में ऐसा लिखा है कि-हे देवाधिदेव भास्कर, वात, पित्त और कफ  जैसे विकारों से पैदा होने वाले रोगों को समाप्त करो और व्याधि प्रतिरोधक रश्मियों से इन त्रिदोशों का नाश करो। पश्चिम बंगाल के गंगासागर तीर्थ में मेले का आयोजन होता है। ऐसा माना जाता है कि वरुण देवता इन दिनों में यहां आते हैं। शास्त्रों में यह भी उल्लेख है कि किसी को किसी कारणवश नदी या समुद्र में स्नान करने का अवसर ना मिले तो इस दिन कुएं के जल या सामान्य जल में गंगा जल मिला कर सूर्य भगवान को स्मरण करते हुए स्नान कर सूर्य को तांबे के लोटे में शुद्ध पानी भर कर रोली, अक्षत, फूल, तिल तथा गुड़ मिला कर पूर्व दिशा में गायत्री या सूर्य मंत्र के साथ अर्ष्य देना चाहिए।