शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

!!भारत के विरुद्ध पाक-चीन गठजोड़ क्या भारत के लिए ख़तरा है ?

भारत और अमेरिका के बढ़ते रिश्तों ने पाकिस्तान एवं चीन को और निकट ला दिया है। अब वे दोनों रणनीतिक साझीदार हैं। चीन और पाकिस्तान कतई स्वाभाविक दोस्त नहीं हो सकते। दोनों में कोई सैद्धांतिक समानता भी नहीं है। जाहिर है उनकी दोस्ती नितांत अवसरवादी तथा भारत और अमेरिका के विरोध पर आधारित है। अमेरिका से इन दोनों की कोई सीधी दुश्मनी नहीं है, लेकिन भारत का विकास इन दोनों को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है। इसलिए ये दोनों ही भारत को कमजोर और विखंडित करने की साजिश रचने में लगे हैं। कश्मीर को दोनों ने ही भारत को दबाने का सबसे बड़ा हथियार बना रखा है। खबर है चीन पाक अधिकृत कश्मीर में अपना एक सैनिक अड्डा कायम करने जा रहा है। यह अपने देश से बाहर किसी दूसरे देश में उसका पहला सैनिक अड्डा होगा।

भारतीय उपमहाद्वीप की यह सबसे बड़ी विडंबना है कि इस क्षेत्र के दो बड़े देश भारत और पाकिस्तान कभी एक साथ एक खेमे में नहीं रह सकते। शीत युद्धकाल में भारत ने सोवियत संघ या रूस से दोस्ती बढ़ाई थी, तो पाकिस्तान ने अमेरिका से। अब उस युग की समाप्ति के बाद जब भारत और अमेरिका निकट आ रहे हैं, तो पाकिस्तान, अमेरिका से दूर होता जा रहा है। यद्यपि अभी भी अमेरिका पाकिस्तान को छोड़ना नहीं चाहता, किंतु वह एक साथ दोनों से अपने संबंध अच्छे नहीं रख सकता। यद्यपि पाकिस्तान ने बहुत पहले अपने लिए अमेरिका का विकल्प तलाश लिया था, किंतु जब तक अमेरिका और उसके हित एक थे तथा वह अमेरिका का झंडाबरदार बना रहा, किंतु अमेरिका का झुकाव भारत की ओर बढ़ते ही उसने अपने विकल्प का दामन मजबूती से पकड़ना शुरू कर दिया। इधर अमेरिका और पाकिस्तान के हित भी आपस में टकराने लगे, तो पाकिस्तानी हुक्मरानों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि अमेरिकी कोप से बचने के लिए वह अपने दूसरे विकल्प और अमेरिका के पक्के प्रतिस्पर्धी चीन की शरणागति प्राप्त करे। पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति भी ऐसी है कि चीन बहुत पहले से इस फिराक में था कि पाकिस्तान उसकी झोली में आ जाए या पाकिस्तान में पांव फैलाने का उसे अवसर मिल जाए। वहां अमेरिका का वर्चस्व रहते तो उसके लिए यह संभव नहीं था, लेकिन यदि पाकिस्तानी हुक्मरान स्वयं अमेरिका के खिलाफ उसे अपने यहां आमंत्रित करने को तैयार हो तो फिर उसके लिए क्या पूछना।

पाकिस्तान के लिए चीन के साथ गठजोड़ सर्वाधिक सुखद है, क्योंकि चीन केवल अमेरिका का ही नहीं भारत का भी जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी है। वैसे अमेरिका के साथ तो उसकी केवल सम्मान की लड़ाई है, लेकिन भारत के साथ तो उसका रोज का रगड़ा है। अमेरिका इस समय दुनिया की सबसे बड़ी सामरिक व आर्थिक शक्ति है, इसलिए चीन की महत्वाकांक्षा उसे पछाड़कर स्वयं विश्व की प्रथम महाशक्ति बनना है। चीन की इस महत्वाकांक्षा में सबसे बड़ा बाधक भारत है। मान लें एशिया में भारत न होता, तो आज पूरा एशिया व अफ्रीका अकेले चीन के प्रभाव में होता और इस प्रभव क्षेत्र के बल पर वह अमेरिका को सीधे चुनौती दे सकता था। चीन का सीधे मुकाबला करने की शक्ति भारत के अलावा अन्य किसी देश में नहीं है। जनसंख्या की दृष्टि से केवल भारत चीन का मुकाबला कर सकता है। चीन जनसंख्या जहां बुढ़ापे की ओर अग्रसर है, वहां भारतीय जनसंख्या जवानी की ओर है। भारत की 65 प्रतिशत से अधिक आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है। भारत की यह जवानी 2050 तक बनी रहने वाली है। भारत में बुढ़ापे का दौर उसके बाद आएगा। चीन इस समय सामरिक क्षमता व आर्थिक विकास में भले ही भारत से आगे हो, किंतु भारत में इस समय आर्थिक विकास की क्षमता चीन के मुकाबले कहीं अधिक है। इसीलिए कहा जा रहा है कि 2013 के बाद भारतीय आर्थिक विकास की दर चीन की विकास दर को पीछे छोड़ देगी। एकदलीय तानाशाही के शासन में जकड़ा चीन अपनी क्षमता के शिखर पर है। उसके बाद ढलान का दौर आना ही है। इसलिए चीन हर तरह से भारत के विकास को, उसकी आर्थिक व सामरिक क्षमता को रोकना चाहता है, जिससे चीनी वर्चस्व लंबे समय तक बना रह सके।

पाकिस्तान का ही सपना भारत की विकास यात्रा को रोकना और संभव हो तो उसे विखंडन के दौर में पहुंचा देना है। भारत यदि अपनी एकता बनाए रखता है, तो उसके विकास रथ को रोक पाना लगभग असंभव है। इसलिए पाकिस्तान दशकों से इस रणनीति पर काम कर रहा है कि कैसे भारत को तोड़ने का उपाय किया जाए। उसके पास इसका एक ही उपाय है- सांप्रदायिक अलगाववाद को तेज करना। इसीलिए उसने कश्मीर पर अपनी पूरी शक्ति लगा रखी है। चीन और पाकिस्तान दोनों का लक्ष्य है भारत को घेर कर उसे कमजोर करना और इस प्रकार न केवल एशिया पर अपना पूर्ण प्रभुत्व कायम करना, बल्कि अमेरिका को भी उत्तरी अमेरिका से बाहर केवल पश्चिमी यूरोप तक सीमित करना। चीन और पाकिस्तान दोनों बहुत दूर की कौड़ी पर नजर गड़ाएं हैं। दोनों इस ख्याल में हैं कि मुस्लिम जगत तथा एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देश यदि एक सूत्र में बंध जाएं, तो अमेरिका और उसके साथी यूरोपीय देशें को दुनिया की चौधराहट की गद्दी से नीचे उतारा जा सकता है। चीन अभी इस प्रलोभन में बहुत गहरे फंसा हुआ है। यह तय है कि यदि कभी ऐसी स्थिति कायम भी हो गयी, तो उसके बाद पहला संघर्ष स्वयं चीन और इस्लामी विश्व के बीच खड़ा होगा। क्योंकि चीन और पाकिस्तान अथवा चीन व इस्लामी विश्व के बीच कोई स्वाभाविक या सैद्धांतिक मैत्री नहीं है। दोनों के संबंध केवल स्वार्थ के अवसरवादी संबंध हैं, इसलिए अवसर निकलते ही दोनों के बीच संघर्ष छिड़ना अनिवार्य है। चीन तब निश्चय ही अपने किये पर पश्चाताप करेगा, किंतु तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी और उसे मदद करने वाला कोई शेष नहीं रहेगा।

अफगानिस्तान के मुद्दे पर अमेरिका और पाकिस्तान के बीच बढ़ी तनातनी के कारण चीन को पाकिस्तान में और गहराई तक जगह बनाने का अनायास ही एक स्वर्णिम अवसर मिल गया है। पाकिस्तान स्वयं चीन को अपने क्षेत्र में सैनिक अड्डे कायम करने के लिए आमंत्रित कर रहा है। ताजा खबरों के अनुसार पाकिस्तान ने चीन से अनुरोध किया है कि वह ग्वादर /ब्लूचिस्तान/ में जो बंदरगाह तैयार कर रहा है, उसे एक नौसैनिक अड्डे की तरह विकसित करे। चीन स्वयं इसे नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित करने का इच्छुक है, किंतु इसके पहले वह उत्तरी पाकिस्तान के कबायली इलाके में अपना एक सैन्य शिविर कायम करना चाहता है। चीन की नजर उत्तरी पाकिस्तान के केंद्र शासित क्षेत्रों ‘फाना‘ (फेडरल एडमिनिस्टर्ड नार्दर्न एरिया) पर है। यह इलाका चीन के मुस्लिम बहुल झिनजियांग प्रांत से लगा हुआ है, जहां इस्लाम विद्रोही चीन की नाक में दम किये हुए हैं। पाकिस्तान के एक पत्रकार व लेखक अमीर मीन ने ‘एशिया टाइम्स ऑनलाइन‘ पर लिखा है कि चीन पाकिस्तानी जिहादी संगठनों का झिनजियांग प्रांत से संबंध तोड़ने के लिए इस क्षेत्र में सैनिक अड्डा कायम करना चाहता है। पाक अधिकृत कश्मीर का यह इलाका चीनी कब्जे वाले कश्मीरी इलाके से भी लगा हुआ है। इस क्षेत्र का रणनीतिक महत्व भी अद्वितीय है। यहां से भारत, पाकिस्तान व अफगानिस्तान ही नहीं, बल्कि पूरे खाड़ी क्षेत्र और पश्चिमी मध्य एशिया पर नजर रखी जा सकती है। अमीर मीर ने लिखा है कि चीनी झिनजियांग प्रांत में इस समय अलकायदा पोषित दो इस्लामी संगठन ‘ईस्ट तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट‘ और ‘तुर्किस्तानी इस्लामी पार्टी‘ तेजी से सक्रिया हैं। इन्हें हथियारों तथा प्रशिक्षण की पूरी सहायता पाकिस्तान से प्राप्त होती है। इस क्षेत्र के उइगर कबीले के लोगों ने - जिन्होंने हजारों वर्ष पहले इस्लाम कुबूल कर लिया था- चीन के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद कर रखा है। चीनी रक्षा मंत्री लियांग गुआंगली के अनुसार इन इस्लामी उइगर विद्रोहियों पर नियंत्रण् के लिए यह आवश्यक है कि उनका पाकिस्तान के जिहादी संगठनों के साथ संपर्क काट दिया जाए। चीन की यों भी उत्तरी पाकिस्तान के गिलगित व बल्टिस्तान क्षेत्र में विशेष रुचि है, क्योंकि ये इस क्षेत्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थल है। पाकिस्तान की प्राथमिकता ग्वादर को नौसैनिक अड्डे के रूप में विकसित करने की है, जबकि चीन उसके साथ ही उत्तरी पाकिस्तान में अपना सैन्य अड्डा कायम करना चाहता है।

अभी एक अमेरिकी रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन भारत को सबक सिखाने या उस पर अपनी सैनिक क्षमता का दबदबा कायम करने के लिए कारगिल की तरह का घुसपैठ कर सकता है। ‘भारत-चीन संघर्ष के बारे में विचार‘ शीर्षक इस रिपोर्ट में लिखा गया है कि चीन और भारत के बीच जैसी तनातनी चल रही है, उसमें कारगिल जैसे सीमित युद्ध की प्रबल संभावना है। यह संघर्ष पूरी सीमा के किस इलाके में हो सकता है, इसके बारे में उपर्युक्त रिपोर्ट में कोई संकेत नहीं है, किंतु अनुमान है कि यह अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र में अथवा पश्चिमोत्तर क्षेत्र में लद्दाख या कश्मीरी नियंत्रण् रेखा के निकट किसी क्षेत्र में हो सकता है। चीन लगातार भारत से लगी अपनी दक्षिणी सीमा पर अपना दबाव बनाए हुए है। आए दिन सीमा क्षेत्र में चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं। स्वयं भारतीय सेनाध्यक्ष ने यह चेतावनी दी है कि सीमा के बहुत अधिक निकट के क्षेत्र में चीनी सैनिकों का जमाव बढ़ रहा है। चीन ने भारतीय सीमा के निकट परमाणु अस्त्र ले जाने में सक्षम मिसाइलों की श्रृंखला भी स्थापित कर रखी है। सीमा के बारे में उसका रवैया अभी भी संदेहास्पद बना हुआ है। अभी इसी बीते हफ्ते दिल्ली के एक समारोह में चीनी राजदूत ने एक भारतीय पत्रकार को ‘शट अप‘ कहकर झिड़क दिया, जिसने वहां वितरित पर्चे (ब्रोशर) पर अंकित भारत के नक्शे पर आपत्ति व्यक्त की थी। इस नक्शे में भारत के अरुणाचल प्रदेश तथा लद्दाख क्षेत्र को चीनी सीमा में दिखाया गया था।

पिछले दिनों भारत-पाकिस्तान के बीच केवल एक सकारात्मक खबर मिली कि पाकिस्तान सरकार ने भी भारत को व्यापारिक क्षेत्र में सर्वाधिक वरीयता प्राप्त (मोस्टर फेवर्ड कंट्री) देश का दर्जा दे दिया। भारतीय मीडिया ने इसे मोटी सुर्खियों में छापा मानो पाकिस्तान ने भारत के प्रति उदारता की सारी सीमाएं तोड़ दी हों, जबकि इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जो भारत के लिए विशेष हो। पाकिस्तान ने अब तक सैकड़ों देशों को सर्वोच्च वरीयता प्राप्त देश (मोस्ट फेवर्ड कंट्री) का दर्जा दे रखा है। बल्कि सच कहा जाए तो भारत के प्रति शत्रुता के कारण ही वह अब तक उसे यह दर्जा देने से कतराता रहा, जबकि भारत पाकिस्तान को एक दशक से भी पहले यह दर्जा दे चुका है। इतनी विलंबित कार्रवाई के बावजूद पाकिस्तान में इसका विरोध शुरू हो गया है और कहा जा रहा है कि अमेरिका के दबाव में आकर ही भारत को इस तरह सर्वोच्च तरजीही राष्ट्र का दर्जा दिया जा रहा है। एक अमेरिकी दैनिक में भारतीय विदेश विभाग के एक अधिकारी के हवाले से जब यह खबर छपी कि पाकिस्तान भारत को दिये गये दर्जे से अब पीछे हट रहा है, तो पकिस्तानी विदेश विभाग की प्रवक्ता तहमीना जोजुआ ने इसका त्वरित खंडन अवश्य किया, लेकिन पक्के तौर पर अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह दर्जा बरकरार रहेगा। पाकिस्तान के दो वरिष्ठ मंत्रियों गृहमंत्री रहमान मलिक तथा रक्षा मंत्री चौधरी अहमद मुख्तार ने भारत को वरीयता प्राप्त देश का दर्जा दिये जाने का यद्यपि स्वागत किया है और कहा है कि भारत के साथ व्यापार में भेदभाव को खत्म करने के लिए यह आवश्यक था, फिर भी उनका कहना है कि पाकिस्तानी संसद (नेशनल असेंबली) यदि चाहेगी, तो वह इसे वापस भी ले सकती है। पाकिस्तानी व्यवसायियों ने आम तौर पर इसका स्वागत किया है, किंतु राजनीतिक विपक्षी दलों ने तीव्र विरोध किया है। जमाते इस्लामी ने तो इसके खिलाफ आंदोलन चलाने तक की धमकी दी है। जिन पाकिस्तानी नेताओं ने व्यापारिक संबंधों को और विकसित करने के इस निर्णय का स्वागत किया है, उन्होंने भी साथ में यह टिप्पणी जोड़ना जरूरी समझा है कि इसका यह अर्थ नहीं है कि पाकिस्तान के कश्मीर संबंधी रुख में कोई बदलाव आया है या भारत के प्रति उसकी नीति बदल गयी है।

कश्मीर एक ऐसा मुद्दा है, जिसे हर भारत विरोधी शक्ति अपने पहले हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है। इसलिए चीन भी कश्मीर के सवाल पर पूरी तरह पाकिस्तान के साथ है और उसके बहाने भारत को दबाव में रखना चाहता है। चीन पाकिस्तान गठजोड़ केवल पाक को अमेरिकी दबाव से बाहर निकालने के लिए ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत और अमेरिकी सम्मिलित प्रभाव का मुकाबला करना तथा एशिया में भारत के विकास की गति पर अंकुश लगाना। अंतर्राष्ट्रीय सामरिक रणनीति में अमेरिकी समकक्षता प्राप्त करने के लिए ही चीन ने महत्वपूर्ण समुद्री मार्गों के सभी रणनीतिक महत्व के बिंदुओं (क पॉइंट्स) पर अपनी उपस्थिति कायम करने की योजना बनायी है, जैसे स्ट्रेट ऑफ मंडाल, स्ट्रेट ऑफ मलक्का, स्ट्रेट ऑफ हरमुज तथा स्ट्रेट ऑफ लोम्बोक पर वह अपने और नौसैनिक पोत तैनात कर रहा है। मतबल हांगकांग से लेकर ‘पोर्ट ऑफ सूडान‘ तक वह अपनी इस तरह की सैन्य श्रृंखला बना रहा है। हिन्द महासागर में भारत को घेरने के लिए वह पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार (बर्मा), श्रीलंका, केन्या तथा सोमालिया में अपने अड्डे कायम कर रहा है। पाकिस्तान में बलूचिस्तान के क्षेत्र में चीन पूरी तरह अपने खर्चे पर ग्वादर बंदरगाह का विकास कर रहा है। उसी तरह बंगलादेश में चिटगांव, म्यांमार में सित्तवे, केन्या में लामू तथा श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का विकास कर रहा है। पूरी तरह चीनी पैसे तथा नौसैनिक अड्डे ही बनेंगे। केन्या और सोमालिया हिन्द महासागर क्षेत्र में पूर्वी अफ्रीकी देश हैं। हिन्द महासागर में चीनी प्रभव बढ़ाने में इन अड्डों का खासा योगदान है।

चीन और पाकिस्तान की भारत के बारे में बहुत स्पष्ट समझदारी है। चीन का काम है भारत को सैनिक दृष्टि से घेरना और उसके बढ़ते रणनीतिक प्रभाव पर काबू रखना और पाकिस्तान का काम है भारत को भीतर से तोड़ने में सक्षम शक्तियों की मदद करना। कश्मीरियों के साथ पश्चिम में वह कुछ सिखों को भी भड़काने में लगा है और उन्हें स्वतंत्र खालिस्तान का सपना दिखा रहा है। पाकिस्तान उत्तर पूर्व भारत के उग्रवादी संगठनों तथा माओवादी उग्रवादियों से भी संपर्क बनाए हुए हैं।

पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई.एस.आई. ऐसे सभी संगठनों से संपर्क बनाये हुए है, जो भारत विरोधी गतिविधियों में लगे हैं या उसे तोड़ने अथवा कमजोर करने का काम कर रहे हैं। पाकिस्तान के जिहादी रणनीतिकारों के अनुसार अगले दो से चार दशकों के बीच इंडिया केवल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा व महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों तक सीमित रह जायेगा। उत्तर के मुस्लिम बहुल पूरे इलाके पाकिस्तान का अंग बन जायेंगे। तमिल अलग राज्य बन जायेगा। मराठे अपने राज्य बना लेंगे। हिन्दू बहुल राजस्थान गुजरात के कुछ हिस्सों को मिलाकर एक हिन्दू राज्य बना रह सकता है। इन लोगों ने इस तरह के विखंडित भारत का एक नक्शा भी जारी कर रखा है।

ज्यादातर भारतीयों को यह सब अभी भले ही असंभव लगे, लेकिन विखंडनकारी शक्तियां जिस तेजी से सक्रिय हैं और राष्ट्रवादी शक्तियां जिस तरह की उदासीनता की शिकार हैं, उसमें ऐसा कुछ भी संभव हो सकता है। चीन की योजनाओं के खिलाफ देर से ही सही, भारत सरकार में कुछ चेतना आयी है। उसने चीन से लगी सीमा की निगरानी के लिए अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए एक लाख जवानों की नई भर्ती का निर्णय लिया है। उत्तरी सीमा पर क्रूज मिसाइलों की तैनाती का अभियान शुरू किया है। नौसेना तथा वायुसेना के आधुनिकीकरण को प्राथमिकता देने का फैसला किया है। लेकिन ये सब बाहरी रक्षा के उपकरण है। देश का सर्वाधिक खतरा भीतरी विखंडनकारी शक्तियों से है, लेकिन उन पर नियंत्रण की कोई योजना फिलहाल सरकार के पास नहीं है। संकीर्ण वोट बैंक की राजनीति देश को सांप्रदायिक, जातीय तथा क्षेत्रवादी भावनाओं को भड़काकर अपना नितांत संकीर्ण स्वार्थ सिद्ध करने में लगी है। खतरा चीन और पाकिस्तान से तो है ही, लेकिन हमारा भीतरी खतरा उससे भी अधिक गंभीर है। क्या देश के राजनेता व प्रबुद्धजन इधर कुछ ध्यान देंगे ?हमारे देश की आवाम FB पर पाकिस्तानीयो से दोस्ती का हाथ बढ़ा रही है मैं भी इसका समर्थन करता हु और इन्तजार करता हु की कब तक यह मिसन चलता है और पूरब होता है ,,,,,जय जय श्री राम ,,,जय श्री कृष्णा ...

!!कलम और तलवार में ताकतवर कौन ?


कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है!! इस मुद्दे पर चर्चा होती रहती है। अपने-अपने पक्ष में तगड़े तर्क दिये जाते हैं। कुछ समय पूर्व तक इस बात पर शंका हो सकती थी मगर वर्तमान में यह एक आधुनिक सच है। यकीनन शब्द की मार खंजर से अधिक गहरी होती है। यूं तो कलम और तलवार का संघर्ष युगों से चला आ रहा है। यह बौद्धिक और शारीरिक शक्ति के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा है। इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि आदि मानव ने शारीरिक शक्ति के जोर पर ही दूसरे साथी मानव को काबू किया होगा। कबीलों के सरदार की ताकत से प्राप्त सुरक्षा ने ही समूह में रहने के लिए जंगली मानव को प्रेरित किया होगा। शासन व शासक का सूत्रपात यहीं से प्रारंभ हुआ होगा। ताकतवर इंसान में बुद्धि भी हो, यह जरूरी नहीं। लेकिन फिर भी जो शासक चतुर-चालाक और बुद्धिमान भी थे उन्होंने शारीरिक व मानसिक दोनों शक्तियों के समन्वय से लंबे समय तक लोकप्रिय शासन किया। धीरे-धीरे राजा-महाराजा परिवारवाद के शिकार हुए। अर्थात वंश परम्परा की स्थापना हुई। मगर इसमें भी शारीरिक शक्ति का वर्चस्व बना रहा। एक बेटे द्वारा अपने ही बाप व अन्य भाइयों की हत्या, बूढ़े होते ही बीमार राजा को हटाने का षड्यंत्र, कई रूप में इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। राजतंत्र में भी कलम के लिए मंत्री और तलवार के लिए सेनापति हुआ करते थे। लेकिन वर्चस्व शारीरिक शक्ति का ही था। सेनापति के राजा बनने के अनगिनत उदाहरण हैं। शासक को अपनी सैन्य शक्ति के द्वारा ही पहचान मिलती थी। इस तरह युगों-युगों तक शरीर का बुद्धि पर दबदबा रहा। यह दिमाग को कभी पसंद नहीं था। दिमागी दरबारियों ने अपने-अपने ढंग से खेल खेले, चाटुकारिता में चालाकी, वो तो बुद्धि वाले के पास थी ही, के साथ उन्होंने राजा और शासन व्यवस्था पर नियंत्रण बढ़ाया। और धीरे-धीरे शारीरिक शक्ति वाले को अपने कब्जे में लेना प्रारंभ किया। पिछली सदी में, राजतंत्र के खत्म होने की प्रक्रिया के दौरान, शारीरिक शक्ति के कमजोर होने से अधिक बौद्धिक लोगों की अति सक्रियता काम कर गयी। अब तक राजा, एक योद्धा के रूप में ही पहचाना जाता था। मगर नये तंत्र में ऐसा नहीं था। सेनापति और सेना तो थी मगर नये बौद्धिक शासक के नियंत्रण में सारी व्यवस्था थी। सेनापति को तलवार चलाने के लिए भी इनके इशारों की आवश्यकता पड़ने लगी। यह क्रांतिकारी परिवर्तन था। हां, शासन में भागीदारी के नाम पर सबको बोलने की स्वतंत्रता दी जाने लगी। और इस तरह शब्द शक्तिशाली बन गए और शब्दवाले शासक।
आज इस बात पर जोर दिया जाता है कि सभी को बोलने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए। इसे जनतांत्रिक व्यवस्था के साथ ही आधुनिकता व विकास से जोड़कर देखा जाने लगा। एक तरह से शासन में प्रजा की भागीदारी। मगर क्या यह व्यवहारिक है? शायद नहीं। कल्पना में तो आदर्श लगता है मगर हकीकत में नहीं। सच तो यह है कि बोलने की प्राकृतिक क्षमता भी सभी के पास बराबर से नहीं होती। कमजोर और मंदबुद्धि तो बोल ही नहीं पाते। वही बोलते हैं जिन्हें बोलने की शक्ति प्राप्त है। इन्हीं के बोलने का प्रभाव भी पड़ता है। सवाल उठता है कि क्या सिर्फ बोलने मात्र से अवाम को स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती है? यह शब्दों का एक मायाजाल है। एक भ्रम कि हम स्वतंत्र हैं। इस माध्यम से भी तो अधिक चतुराई से बात करने वाला इंसान आमजन को अपने प्रभाव में लेकर मानसिक रूप से गुलाम बना सकता है। बातचीत के द्वारा उसे प्रभावित कर सकता है, प्रेरित कर सकता है। सच कहें तो तमामउम्र विचारधारा के सम्मोहन में फंसाकर भावनात्मक रूप से बंधक बना सकता है। तो सिर्फ बोलने की स्वतंत्रता को ही जोर-शोर से क्यूं उठाया जाता है? हमें किसी से भी प्रेम की स्वतंत्रता क्यों नहीं? हम कहीं भी बेरोकटोक क्यों नहीं आ जा सकते? राष्ट्र, धर्म व संस्कृति की सीमाएं बाधक क्यूं बन जाती हैं? हम वो सब क्यों नहीं कर सकते जिसे करने पर हमें प्राकृतिक रूप से स्वतंत्रता महसूस हो? जितना शब्दों की स्वतंत्रता की बात की जाती है उतनी ही शारीरिक शक्ति की बात क्यों नहीं की जाती? आज जब एक बुद्धिमान चतुर-चालाक अपने वाक्‌चातुर्य से लोगों पर शासन कर सकता है तो शक्ति द्वारा शासित समाज सभ्य क्यूं नहीं माना जाता? एक रूपवान औरत द्वारा अपने सौंदर्य और खूबसूरत शरीर का उपयोग करने पर विरोध क्यूं होता है? यह क्या बात हुई कि शब्दों से वार करने वाला प्रजातंत्र का हीरो मगर शक्ति का प्रदर्शन करने वाला गुंडा-मवाली। कहीं यह बुद्धिमानों के द्वारा विश्व पर शासन करने की साजिश तो नहीं?
माना कि तलवार से हत्या हो सकती है मगर जख्म भर भी सकते हैं। यह तो सिर्फ शरीर पर वार करती है। मगर कलम की मार तो सीधे मस्तिष्क से होते हुए दिल पर चोट करती है। शरीर की मार के दर्द का इलाज है मगर भावनाओं में डूबे दर्द के अहसास का कोई इलाज नहीं। बात दिलदिमाग को हिला देती हैं। शब्द न तो मरने देते हैं और न ही जीने देते हैं। शब्दार्थ दिमाग को जीवनपर्यंत के लिए प्रदूषित कर सकते हैं। और मानसिक रूप से बीमार आदमी समाज के लिए अधिक नुकसानदायक होता है। शब्द दो राष्ट्र में युद्ध करा सकते हैं। शब्द दो भाइयों में लड़ाई कराके परिवार को बांट सकते हैं। वर्षों के संबंध एक पल में खत्म हो सकते हैं। विचारधाराओं ने क्रांति लायी है। यह विचारों द्वारा शारीरिक शक्ति को उकसा कर विद्रोह करने का एक उदाहरण है। यह तो शब्दों की दोगुनी मार हुई। तलवार शब्दों पर हुकूमत नहीं कर पाती मगर कलम तलवारों को अपने नियंत्रण में रखना जानती है। एक तलवार से कुछ सीमित लोगों को डराया जा सकता है मगर शब्दों से असंख्य को काबू किया जा सकता है। कई पीढ़ियों को प्रभावित किया जा सकता है। यहां यह मान लेना कि शब्दों से खेलने वाले सदाचारी ही होंगे, बेवकूफी होगी। एक उदाहरण के रूप में, तलवार वाले राजाओं के दौर में राज की नीति होती थी मगर शब्दों के शासन काल में सिर्फ राजनीति है। 
फिर भी सभी कलम की स्वतंत्रता की बात करते हैं। इसके समर्थन में कहा जाता है कि चूंकि शारीरिक झगड़ा हिंसात्मक होता है और इससे शारीरिक चोट पहुंचती है, यह असभ्यता है आदि-आदि। मगर इस तर्क को उचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि फिर शब्दों के प्रभाव से हिंसा को जंगल में आग की तरह फैलते देखा है। माना कि मौखिक बहस को एक स्वस्थ शासन व्यवस्था व मानवीय विकासक्रम की पहचान करार दिया जाता है। मगर क्या बहस का नतीजा कभी देखा है? कभी नहीं। झगड़े के कम से कम परिणाम तो हम जान पाते हैं। बहस का तो कोई अंत नहीं। इसमें जो बौद्धिक रूप से अधिक तर्कवान है, फिर चाहे वो सही हो या नहीं, वही प्रभावशाली लगता और जीतता है। एक बार फिर वही बात कि बुद्धिजीवी समाज का हितेषी भी हो, क्या जरूरी है?
कहीं ये बुद्धिमानों की चाल तो नहीं? शक इसलिए पैदा होता है क्योंकि बोलने की क्षमता और सोचने की शक्ति तो सिर्फ बुद्धिमानों में होती है। वे कुछ भी बोल सकते हैं। फिर उससे चाहे सर्वनाश हो जाए। वे तलवार चलाने की स्वतंत्रता की बात बिल्कुल नहीं करते। बुद्धि जानती है कि इसके आते ही शारीरिक शक्ति वाले का वर्चस्व हो जाएगा। शक्ति का प्रयोग होने पर समाज में अराजकता की बात की जाने लगती है, मगर क्या शब्दों की स्वतंत्रता ने समाज में कम प्रदूषण फैलाया है? तो कहीं ये बुद्धि वालों की चतुरता-चालाकी से शारीरिक शक्ति वाले पर नियंत्रण करने की सुनियोजित तरकीब तो नहीं? कमाल की बात तो यह है कि शस्त्र का प्रयोग करने की इजाजत तब तुरंत दे दी जाती है जब बुद्धिवाले को लगता है कि उसे कहीं से जान का खतरा है। कहीं ये नये तरह का वर्चस्ववाद तो नहीं? जिसने संपूर्ण समाज को वर्ण-व्यवस्था की तरह बांट दिया।
बौद्धिक स्तर पर जिस आदर्श समाज की हम कल्पना करते है, वहां विचारों की टकराहट से वातावरण अशांत होता है। कहने को तो बोलने की भी सीमाएं सुनिश्चित की गई हैं लेकिन ऐसा होता नहीं। खूब बोला जाता है। असंदर्भित, असंयमित, अमानवीय, असामाजिक, अनैतिक। और इससे कम तूफान नहीं आता। भयंकर भूचाल आ जाता है। पूरा का पूरा समाज अस्तव्यस्त हो जाता है। आज बोलने की स्वतंत्रता की बात करने वालों ने जाने-अनजाने अलगाववाद व आतंकवाद को बढ़ावा दिया है। वे अपने सुनने वालों का मुखिया बनने के चक्कर में रहते हैं। कई बार मात्र सुर्खियां बटोरने के लिए। दुनिया में अगर सर्वाधिक मौत हुई है तो वो धार्मिक विचारों के उन्माद के कारण। यह भी तो शब्दों और बुद्धि का क्षेत्र है। आज दुनिया धर्म के अधर्म से अधिक परेशान है। शांति की बात करने वाले अपनी बातों से कइयों को घायल करते रहते हैं। यह सब सियासत का खेल है। छोटे से रूप में देखे तो जिस घर में सबको बोलने की संपूर्ण आजादी और साथ में मुखिया का नियंत्रण समाप्त हो जाता है, वो घर टूट जाता है, रहने लायक नहीं बचता। अधिक बोलने से शोर उत्पन्न होता है। और दो बोलने वाले कभी चुप नहीं होते। न्यायाधीश न हो तो वकीलों की बहस कभी खत्म न हो। सीधा शरीफ आदमी यहां भी मार खाता है। बदतमीज और बदजुबान को आम लोगों को डराते देखा जा सकता है। अगर शब्द की स्वतंत्रता में शालीनता मिल सकती है तो कई तलवार वालों ने भी उदाहरण पेश किए हैं। वैसे भी दो तलवार की लड़ाई में एक की हार और दूसरे की जीत सुनिश्चित है मगर बोलने की प्रतिस्पर्धा में तो न तो किसी की हार न ही जीत। सिर्फ अनिश्चितता है। उस पर से बोलने की स्वतंत्रता को नियमित व संतुलित करने के प्रयास मात्र पर सब चिल्लाने लगते हैं। मनुष्य के स्वतंत्रता के हनन की बात उठने लगती है। कमजोर की आवाज को दबाने की बात की जाने लगती है। जबकि आम आदमी की आवाज तो पहले से ही दबी होती है। उसे तो समझ ही नहीं आता। न ही उसे समझने दिया जाता है। बस इस तरह से अधिक बोलने वाले का साम्राज्य स्थापित हो जाता है। मनुष्य सही रूप में स्वतंत्र तो तब था जब वह स्वतंत्रता की परिभाषा को नहीं जानता था। शब्दों ने उसे विचारों का गुलाम बनाया है। बहरहाल, शब्द स्वतंत्रता के पक्षधरों को यह मानना होगा कि समाज और राष्ट्र की अवधारणा की है तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भी सीमित करना होगा। वरना देख लीजिए। कितना कचरा और आग उगला जा रहा है। आप शत प्रतिशत गलत और झूठ बोल लीजिए, कुछ एक आपके समर्थन में जरूर खड़े हो जाएंगे। ये शब्दों के जादूगर, पुराने उन जमींदारों की तरह हैं जो छोटे-मोटे किसानों पर बलपूर्वक अपना प्रभाव जमा लिया करते थे। बुद्धिजीवियों से पूछा जाना चाहिए कि सिर्फ उनको ही स्वतंत्रता क्यूं चाहिए? आखिरकार क्यूं सबको बोलने का अधिकार मिलना चाहिए? देख लीजिये, बुद्धि वाले बोल तो रहे हैं। क्या नहीं बोला जा रहा है? और फिर, जो कहते हैं कि तलवार के भय से आदमी को दबा दिया जाता है तो उन्हें कहा जाना चाहिए कि शब्दों की मार से भी कहां बचता है आम आदमी?
 

जो  बरसों तक तपी अगन में जिसकी पैनी धार है
जो दुष्टों को थर्राती है,        कलम नहीं तलवार है

जिसने सदा सत्य संधाना
भ्रष्ट,  पातकी बने निशाना
अपनों को भी सबक सिखाती जिसकी निष्ठुर मार है
                                       कलम नहीं तलवार है

जब-जब इसको नहीं चलाऊं
तभी स्वयं को    मरता पाऊं 
सदा समर में डटना ही क्या  क्षात्र-धर्म का सार है?
                                     कलम नहीं तलवार है

बिजली भर दे जो नस-नस में
विद्युच्छटा-सी  अंध तमस में 
शुभ संकल्प उठा हो   मानो  खड़ा सत्य साकार है
                                     कलम नहीं तलवार है

जब जोखिम से इसे बचाया 
मैंने इसको     कुंठित पाया
मैंने पाया कर्मठता ही         जीवन का आधार है
                                    कलम नहीं तलवार है


मेरे चलन में कपट भरा हो
मेरी कलम पे दाग जरा हो
मेरा शीश उड़ाओ पल में    मुझको कब इनकार है
                                     कलम नहीं तलवार है
 नोट --यह कविता मेरी लिखी हुई नहीं है बल्कि मनोज शर्मा जी ने लिखी है !!

!! लडकियों से छेड़छाड़ में अंकल जी भी कम नहीं है !!


भारत में महिलाओं और लडकियों की स्थिति ने पिछली कुछ सदियों में कई बड़े बदलावों का सामना किया है प्राचीन काल में पुरुषों के साथ बराबरी की स्थिति से लेकर मध्ययुगीन काल के निम्न स्तरीय जीवन, और साथ ही कई सुधारकों द्वारा समान अधिकारों को बढ़ावा दिए जाने तक,  में महिलाओं का इतिहास काफी गतिशील रहा है. आधुनिक  में महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष, प्रतिपक्ष की नेता और कई राज्यो  की मुख्यमंत्री आदि जैसे शीर्ष पदों पर आसीन हुई हैं. भारत की वर्तमान राष्ट्रपति एक महिला हैं फिर भी आज महिलाए और लडकिय समाज में सुरक्षित नहीं है यह बिचारनीय बिषय है ! छेड़छाड़ की घटनाओं में आज स्कूल कॉलेज के क्षात्रो की .छोटी सी उम्र और यह हाल।  छात्राओं के साथ छेड़छाड़ करने, मोबाइल पर गंदे एसएमएस भेजने व कॉल कर धमकियां देने वाले मामलों की जांच में जो तथ्य सामने आ रहे हैं, वे निश्चित रूप में चिंता का विषय हैं। वी केयर फॉर यू सेल ने जांच में पाया कि अधिकांश मामलों में स्कूली छात्रों के साथ-साथ शादीशुदा युवकों और अंकलो की भी संख्या अच्छी खासी है। छोटी से उम्र में ये हाल है जब बड़े होंगे तो छोटों को क्या संदेश देंगे ?

वी केयर फॉर यू सेल के पास नए साल में अब तक छेड़छाड़, अश्लील एसएमएस भेजने, कॉल कर परेशान करने की  बहुत सी शिकायतेंपहुचती है । अप्रैल 2011 में सेल गठित होने के बाद दिसंबर माह तक 309 शिकायतें मिलीं। इनमें 108 ऐसी थीं जिनमें स्कूली छात्र लिप्त पाए गए थे।बाकी सभी सिकायते या की सादी सुदा पुरषों की  है या  फिर  40 साल  के  ऊपर  के  अंकलो की है क्या यह समाज के लिए हितकर  है? तथ्य को प्रमाणित करने के लिए कुछ उदाहरण दे रहा हु आप भी देखे --
केस-1
महाराजपुरा के आदित्यपुरम में रहने वाली एमबीए छात्रा 3 जनवरी की शाम 7.15 बजे थाटीपुर से एमआईटीएस के पास वाले रास्ते से घर जा रही थी तभी एक बाइक पर सवार दो युवक उसके पास आए और मुंह पर बंधे स्कार्फ को खींच लिया। छात्रा ने बाइक नंबर नोट कर लिया जिससे दोनों को पुलिस ने पकड़ लिया। दोनों युवक शादीशुदा थे और उनके बच्चे भी थे।
केस-2
13 दिसंबर को शाम 7.30 बजे नई सड़क स्थित कैंथ वाली गली में रहने वाली एमबीए छात्रा एक्टिवा से नदी गेट पर शान-ए-शौकत के सामने से गुजर रही थी। इसी समय उसके पीछे एक युवक बाइक से आया और छेड़छाड़ करने के बाद भाग निकला। छात्रा ने बाइक का नंबर नोट कर लिया। बाइक खासगी बाजार में रहने वाले एक व्यक्ति की निकली जिसे उसका बेटा चलाता है।
केस-3
हॉकी टीम राजनंदगांव (छत्तीसगढ़) में राष्ट्रीय सब जूनियर नेशनल चैंपियनशिप में भाग लेकर गोंडवाना एक्सप्रेस से 22 दिसंबर को ग्वालियर लौट रही थी। ट्रेन जब बीना से गुजरी तभी एस-5 कोच में ऊपर की बर्थ पर सो रही एक खिलाड़ी के साथ गिर्राज अग्रवाल ने छेड़छाड़ कर दी। आरोपी (गिर्राज) शादीशुदा है, उसके खिलाफ जीआरपी थाने में मामला दर्ज कराया गया।छेड़छाड़ की घटनाओं पर कड़ाई से नियंत्रण लगाने के लिए माफी देने के बजाय आरोपियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज किए जाने चाहिए और कठोर से कठोर सजा का प्रावधान होना चाहिए ऐसा मेरा सोचना है ! सेल में अब तक पहुंची शिकायतों में स्कूल व कॉलेज (नाबालिग) छात्र भी काफी संख्या में आरोपी पाए गए हैं। हाल में सड़क पर छेड़छाड़ के मामलों में शादीशुदा युवक भी पकड़े गए हैं जिसमे तो कई अंकल जी भी है जिनकी उम्र 40 के पार है ।
 महिलाओं के विरुद्ध दर्ज की गयी अपराधों की कुल संख्या का आधा हिस्सा कार्यस्थल पर छेड़छाड़ और उत्पीड़न से संबंधित था लड़कियों से छेड़छाड़ (एव टीजिंग) पुरुषों द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीड़न या छेड़छाड़ के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक चालबाज तरकीब (युफेमिज्म) है. कई कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न की बढ़ती घटनाओं के लिए "पश्चिमी संस्कृति" के प्रभाव को दोषी ठहराते हैं. विज्ञापनों या प्रकाशनों, लेखनों, पेंटिंग्स, चित्रों या किसी एनी तरीके से महिलाओं के अश्लील प्रतिनिधित्व को रोकने के लिए 1987 में महिलाओं का अश्लील प्रतिनिधित्व (निषेध) अधिनियम पारित किया गया था.
1997 में एक ऐतिहासिक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कार्यस्थल में महिलाओं के यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक मजबूत पक्ष लिया.पर यह मजबूत पक्ष सिर्फ कागजो तक ही सिमित दिख रहा है क्यों ?