मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

!! जातिप्रथा का दंस क्या है?


1 . जातिप्रथा एक बकवास विचार है जिसका कोई भी और किसी भी तरह का वैदिक आधार नहीं है.


पूरी जानकारी के लिए कृपया देखें; http://agniveer.com/series/caste-system-3/
और खासकर ये लेख;  http://agniveer.com/5276/vedas-caste-disrcimination/

2. हर एक आदमी की चारों जातियां होती हैं.

हर एक आदमी में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों खूबियाँ होती हैं. और समझने की आसानी के  लिए हम एक आदमी को उसके ख़ास पेशे से जोड़कर देख सकते हैं. हालाँकि जातिप्रथा आज के दौर और सामाजिक ढांचे में  अपनी प्रासंगिकता पहले से ज्यादा खो चुकी है. यजुर्वेद [32.16 ] में भगवान् से आदमी ने प्रार्थना की है की “हे ईश्वर, आप मेरी ब्राहमण और क्षत्रिय योग्यताएं बहुत ही अच्छी कर दो”. इससे यह साबित होता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि शब्द असल में गुणों को प्रकट करते हैं न कि किसी आदमी को. तो इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी व्यक्ति को शूद्र बता कर उससे घटिया व्यवहार करना वेद विरुद्ध है. इस विषय पर ज्यादा जानकारी के लिए आप पढ़ सकते हैं;  http://agniveer.com/5276/vedas-caste-discrimination/

3. आज की तारीख में किसी के पास ऐसा कोई तरीका नही है कि जिससे ये फैसला हो सके कि क्या पिछले कई हज़ारों सालों से तथाकथित ऊँची जाति के लोग ऊँचे ही रहे हैं और तथाकथित नीची जाति के लोग तथाकथित नीची जाति के ही रहे हैं!

ये सारी की सारी ऊँची और नीची जाति की कोरी धोखेबाजी वाली कहानियां / गपोडे कुछ लोगो की खुद की राय और पिछली कुछ पीढ़ियों के खोखले सबूतों पर आधारित हैं. हम और आप ये बात भी जानते हैं कि आज की जातिप्रथा में कमी की वजह से ही कुछ  मक्कार / धोखेबाज लोग  ऊँची जाति का झूठा प्रमाणपत्र लेकर बाकी जनता को बेवकूफ बना सकते हैं. इसके बिलकुल उलट आज की जातिप्रथा में नकली तथाकथित ऊँची जाति के लोगों को ये प्रेरणा देने के लिए कोई भी व्यवस्था नही है जिससे कि ये लोग मान लें कि ये लोग असल में किसी चांडाल परिवार से रिश्ता रखते हैं क्योंकि ऐसा करने से इनका समाज में विशेष अधिकार और ओहदा मिट्टी में मिल जायेगा. इसीलिए जातिप्रथा के जिन्दा रहने से कुछ मक्कार / धोखेबाज लोग हमेशा ही शरीफ लोगों को दुःख और कष्ट ही देंगे. और इसकी तो और भी बहुत ज्यादा सम्भावना है कि आज की तथाकथित नीची जाति से पहचाने जाने वाले लोग ही हकीकत में  ऊँची जाति के लोग हैं जिन्हें कि असली नीची जाति के लोगों ने ठगा है. आखिरकार जाति प्रथा कुछ और नही बल्कि लोगों को धोखा देने का सिर्फ एक लालच मात्र है.

लक्षण तो खानदानी माहौल से भी मिल सकते हैं लेकिन  ?

4 . हद्द से हद्द कोई सिर्फ ये कह सकता है कि जन्म के समय के माहौल की वज़ह से कुछेक परिवारों में कुछ लक्षण प्रभावी रूप से दिखाई देते हैं. इसी तरह से लोग अपना-अपना पेशा भी पीढ़ियों से करते आये हैं. और इसमें कोई बुराई भी नही है. लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नही है कि एक डॉक्टर का बेटा सिर्फ इसलिए डॉक्टर कहलायेगा क्योंकि वो एक डॉक्टर के घर में पैदा हुआ है. अगर उसे डॉक्टर की उपाधि अपने नाम से जोड़नी है तो उसे सबसे पहले तो बड़ा होना पड़ेगा, फिर इम्तिहान देकर एम बी बी एस बनना ही पड़ेगा. यही बात सभी पेशों/व्यवसायों और वर्णों पर भी लागू होती है.

5 . लेकिन इसका मतलब कोई ये भी न समझे कि एक आदमी डॉक्टर सिर्फ इसीलिए नही बन सकता क्योंकि उसके पिता मजदूर थे. ईश्वर का शुक्र है कि ऐसा कुछ भी समाज में देखने के लिए नही मिलता. नही तो आज ये पूरी दुनिया नरक से भी बदतर बन जाती. अगर इतिहास की किताबें उठाकर देखें तो पता चलेगा कि आखिरकार जिन भी महान लोगों ने इस दुनिया को अपने ज्ञान, खोज, तदबीर/ आविष्कार और अगुवाई से गढ़ा है वो लोग पूरी तरह से अपने खानदान की परम्पराओं के खिलाफ गए हैं.

6. जातिप्रथा ने हमें सिर्फ बर्बाद ही किया है. 

जबसे हमारे भारत देश ने इस जात-पात को गंभीरता से लेना शुरू किया है तबसे हमारा देश दुनिया को राह दिखाने वाले दर्जे से निकलकर सिर्फ दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार और भिखारी देश बनकर रह गया है. और पश्चिमी दुनिया के देश इसीलिए इतनी तरक्की कर पाए क्योंकि उन्होंने अपनी बहुत सी कमियों के बावजूद सभी आदमियों को सिर्फ उनकी पैदाइश को पैमाना न बनाकर और पैदाइश की परवाह किये बगैर इंसान की  इज्ज़त के मामले में बराबरी का हक़/दर्जा दिया. इसी शैतानी जात-पात के चलते न सिर्फ हमने सदियों तक क़त्ल-ए-आम और बलात्कार को सहा है पर मातृभूमि  के खूनी और दर्दनाक बंटवारे को भी सहा है. अब कोई हमसे ये पूछने की गुस्ताखी हर्गिज न करे की इस शैतानी जात-पात के फायदे और नुकसान क्या हैं ?

हाँ ये जरूर है कि पिछले कुछ समय में जबसे इस शैतानी जात-पात की पकड़ काफी कम हुई है तो हमने राहत की एक सांस ली है. आप एक बात और समझ लें कि जहाँ भी इस शैतानी जात-पात का सरदर्द बना हुआ है उसकी एक बहुत बड़ी वज़ह है इस जात-पात का राजनीतिकरण. और इस राजनीतिकरण के गोरखधंधे और मक्कारी वाली दुकानदारी के बंद न होने लिए हम सब जिम्मेवार इसीलिए हैं कि हम सब खुद से आगे बढ़कर उन सब रस्मों, किताबों और रीति-रिवाजों, जो जन्म आधारित जाति-पाति को मानते हैं, को कूड़ा करकट जैसी गंदगी समझकर कूड़ेदान में नहीं डालते बल्कि इस गन्दगी को अपने समाज रुपी जिस्म पर लपेटे हुए हैं. लानत है उन सब लोगों पर जो इस शैतानी जात-पात को ख़त्म करने के लिए आगे नहीं आते.

7. जातिवादी दिमाग का उल्टा/ नकारात्मक योगदान 

अगर किसी भी जातिवादी दिमाग वाले आदमी से पूछा जाए कि वो पिछले 1000 सालों में किसी भी जातिवादी दिमाग का कोई महत्वपूर्ण योगदान गिनवा दे, तो या तो वो आदमी बगलें झाँकने लगेगा या फिर उसकी आँखों के सामने अन्धकार छा जाएगा और फिर आखिर में उसे कोई जवाब ही नहीं सूझेगा. ये भी हो सकता है कि कोई  जातिवादी दिमाग वाला आदमी कुछेक पागलपन और खुद की घडी हुई  साजिशों से भरपूर बिना सर पैर वाली कहानियां सुना कर आपका हल्का सा मनोरंजन भी कर दे. लेकिन मन को दुखी करने वाली और कड़वी सच्चाई ये है कि बकवास, बेवकूफाना और जिल्लत से भरे अंधविश्वास, सिद्धांतों और रस्मों के अलावा इन सब धर्म नगरियों के पेटू पंडो और पाक मजारों के मालिकों ने, जिन्हें ईश्वर ने खूब माल और धन दौलत दिया है कुछ भी आज तक ऐसा नहीं किया जो कि गिनती करने के भी लायक हो. [पद्मनाभन मंदिर से मिले धन-दौलत कि बात देख लें. अग्निवीर के मन में बार-बार ये विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर ये धन-दौलत इस देश पर हजारों सालों से हमला करने वालों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए या फिर इस देश को ऐसा बनाने में लगाया जाता कि यहाँ पर सिर्फ और सिर्फ लायक लोगो की ही  इज्ज़त होती].
वो सारे तथाकथित म्लेछ - आइन्स्टीन, न्यूटन और फैराडे जैसे लोग और दूसरे अनगिनत पश्चिमी लोग जिन्होंने दुनिया को नयी राह दिखाई है, इन सब जन्मजात  तथाकथित पंडितों जो कि बड़ी ही बेशर्मी से अपने पैदा होने में भी भगवान की प्रेरणा के साथ-साथ बड़ी ही मक्कारी और धूर्तता के साथ श्री हरी की विशेष कृपा और दया होने का खोखला दावा करते हैं, से ज्यादा शुद्ध और पवित्र मन, विचार और कर्म करने वाले हैं. केवल इतना ही फर्क है कि पिछले 300 सालों में पश्चिमी सभ्यता के लोगों ने बाइबिल की अनैतिक और विज्ञान विरुद्ध बातों को एक सिरे से खारिज कर दिया है और लगातार समाज के सभी वर्गों को बराबरी का हक़ दिया है. हम इसी निष्कर्ष के साथ ये वाली बात ख़त्म करना चाहेंगे कि एक जातिवादी रहित म्लेच्छ का दिमाग [जिसे कि इन भोंदू, मूर्ख और स्वयम घोषित ब्राह्मणों ने शूद्र से भी खराब माना है ] इन सारे के सारे तथाकथित ब्राह्मणों के ईश्वरीय प्रेरित दिमाग से हज़ारों गुणा ज्यादा बढ़िया बुद्धिमान  है. इस बात से ये भी साबित हो जाता है कि ये सारे के सारे ईश्वर के मुंह से पैदा होने का दावा करने वाले जन्म से ‘ब्राह्मण’ सिर्फ मुंगेरीलाल और तीसमारखां से बढ़कर दूसरे कारनामे नहीं कर सकते. हाँ इस देश और समाज को बर्बाद और जात-पात से कलंकित करने में तन, मन और धन से अपने योगदान दे सकते हैं.
अग्निवीर उन सब तथाकथित और स्वयम-घोषित [अपने मुंह मियां मिट्ठू ] लोगों को खुले तौर पर  ललकारता है कि जो भी लोग ये दावा करते हैं कि ऊँची जाति के लोग ज्यादा लायक होते हैं वो सभी हम पर ये बताने का एहसान करें और सबूत दें कि पिछले 300  सालों के इतिहास में उनकी अद्भुत लायिकी ने कौन सी  महान खोज कि है. उनके सबूत देने पर ही उनकी बात को गंभीरता से लिया जाएगा नहीं तो अकल्मन्द आदमी कि तरह उन्हें भी ये मानना होगा कि जाति-पाति एक बुराई है और वेदों कि खिलाफ है. उन्हें अग्निवीर कि तरह से ये भी कसम खानी होगी और हुंकार भरनी होगी कि अब जाति-पाति के जहरीले पेड़ को जड़ से उखाड़कर ही दम लेंगे और फिर एक जात-पात रहित भारत का निर्माण करेंगे.
ये बात भी याद रहे कि कुछेक वैज्ञानिक जैसे कि, रमण और चंद्रशेखर का नाम इन बारे में यहाँ लेना बहुत बड़ी बेवकूफी की बात होगी क्योंकि सभी अकल्मन्द लोगों को ये पता है कि इन महान आत्माओं ने जो भी किया वो सब म्लेछों की किताबें को अपनाकर और पढ़कर ही पाया है न कि तथाकथित और स्वयम-घोषित [अपने मुंह मियां मिट्ठू ] निरे निपट, कोरे और बंजर दिमाग वाले तथाकथित ऊँची जाति के लोगों के पोथे पढ़ कर. न केवल रमण और चंद्रशेखर ने जो भी किया वो सब म्लेछों की किताबें को अपनाकर और पढ़कर ही पाया है बल्कि इनके सिद्ध की हुई बातों को सिर्फ और सिर्फ पश्चिमी ‘म्लेछों’ ने ही माना और सराहा है.
बुद्धिमान लोगो को तो इन जातिवादी शिक्षा के गढ़ों; काशी,  कांची, तिरुपति आदि के सारे पाखंडी, मक्कार, धूर्त जातिवादियों से ये सवाल करना चाहिए की ये सब बताएं की उस गुप्त ज्ञान से जो इन्हें इनका महान और दैवीय जन्म होने से भगवान से तोहफे में मिला था इन्होने कौन सी महत्वपूर्ण खोज भारत देश और समाज की दी है ? इन जात-पात के लम्पट ठेकेदारों ने इन सब विश्वप्रसिद्द संस्थानों की महान वैज्ञानिक परंपरा का स्तर मिटटी में मिलाकर अपने घटिया किस्म की हथकंडे, तिकड़मबाज़ी और चालबाजी से इन्हें अपनी दक्षिणा का अड्डा बनाकर छोड़ दिया है. इस “महान” योगदान  के अलावा इन “महान” विश्वविद्यालयों का योगदान देश निर्माण में जीरो ही रहा है.
और ये भी याद रखें कि एक गैर-जातिवादी म्लेछ: योद्धा/लड़ाकू वीर एक जातिवादी क्षत्रिय से कही ज्यादा वीर और शक्तिशाली है. यही कारण था कि हम शूरवीर और पता नहीं क्या क्या दावे करने वाले राजपूतों के बावजूद हमें हजारों सालों तक उन लोगो ने गुलाम बनाकर रखा जिन्हें गुलामो के गुलाम माना जाता था (देखें गुलाम राजवंश).  हमें लड़ाई के मैदान में गजब बहादुरी दिखाने के बाद भी मजबूरी में अपनी बेटियों कि शादी अकबर जैसे मानसिक रोगी से करनी पड़ी थी. इन तथाकाहित वैदिक विद्वानों और भगवान के द्वारा बनाये गए वीर राजपूतों के होते हुए काशी विश्वनाथ को एक कुँए में छुपकर शरण लेनी पड़ी थी.  और गजिनी का सोमनाथ के मंदिर में हमारी माता-बहिनों का जबरन सामूहिक बलात्कार हम कैसे भूल सकते हैं. इन सारी उपलब्धियों के लिए हमें जन्म आधारित जातिप्रथा को ही धन्यवाद देना चाहिए जिसने सिर्फ कुछ गिने-चुने परिवारों को ही लड़ाई के गुर सीखने का हक़ दिया. इतना ही नहीं इन लोगो ने उसके बाद ये भी घोषणा कर दी कि जातिवादी क्षत्रिय सिर्फ उस समय तक हिन्दू रहने का अधिकारी है कि जब तक कोई म्लेछ: उसे छू नहीं लेता और अगर किसी कोई म्लेछ: भूल से भी उसे छू लेता है तो जातिवादी क्षत्रिय उसी समय हिन्दू धर्म से बाहर हो जाएगा.
निष्पक्ष सोचने से पता चलेगा कि हमसे कहीं कम गुणी अंग्रेज सिर्फ हम पर ही नहीं लगभग आधी दुनिया पर केवल इसी वज़ह से राज कर पाए कि उन्होंने अपने समाज के अन्दर नकली और घटिया भेदभाव को बिलकुल नकार दिया और और वो हमारे ढोंगी पंडो  जैसे लोगों के चक्कर में नहीं पड़े. 
8 . लेकिन ये बात निर्विविद रूप से सच है कि भारत देश ने सदियों से एक से बढ़कर एक उत्तम ‘गुलाम’ और ‘शूद्र’ पैदा किये हैं. अगर कुछेक विद्रोही अपवादों की बात छोड़ दें तो, एक समाज के तौर पर, हमारे ब्राहमण, क्षत्रिय और वैश्य होने के बड़े-बड़े दावों के बावजूद हम हमारे विदेशी और विधर्मी शासकों, चाहे जिसने भी हम पर राज किया हो,  के जूते चाटते और चापलूसी करते रहे हैं. हमने अपने आकाओं की नौकरी-चाकरी करने में हमेशा अपनी शान समझी है. मुग़ल सेनाएं मुख्य: रूप से राजपूत वीर और सेनापतियों से बनी हुई थीं. हल्दी-घाटी की लड़ाई में वो राजपूती सेनाएं ही थीं जो वीर प्रताप को हराने की कोशिशें कर रही थीं. इसी तरह से ज्यादातर लड़ाईयां जो वीर शिवाजी महाराज ने लड़ीं वो उन तथाकथित राजपूतों और मराठों के खिलाफ थीं जो मुग़ल सुल्त्नत के जूते चाटने में महारथी थे.
इसीलिए वो सभी लोग जो ऊँची जाति का होने का दावा करते हैं और जन्म आधारित जाति-प्रथा को जायज ठहराते हैं वो हकीकत में अपने कामों की वज़ह से गुलाम/दास और शूद्रों से भी बुरे हैं. अब ये बात साफ़ हो जाती है कि ऊपर लिखे गए कारणों की वज़ह से ही ये नकली ऊँची जाति वाले लोग जन्म आधारित जाति-प्रथा को जायज ठहराते हैं. लेकिन अग्निवीर ने आप सब समझदार लोगो के सामने इन सब जन्म आधारित जाति-प्रथा के ठेकेदारों कि पोल खोल दी है.

9. जातिवाद से हिन्दू धर्म में गिरावट आई है.

ये इन मक्कार, पाखंडी, धूर्त और नकली, जातिवादी पंडों की काली करतूत ही थी कि इन्होने जबरन दूसरे धर्म को अपनाने वाले अपने हिन्दू भाइयों को हिन्दू धर्म में लेने से मना कर दिया और जिन धर्मवीर लोगों ने ऐसा किया इन अकल के दुश्मन, बदजात, देशद्रोही, समाजद्रोही और धर्मद्रोहियों ने उन लोगों को भी धर्म से ऐसे बाहर निकल फेंका जैसे कि हिन्दू धर्म इनके बाप, दादाओं ने इन्हें वसीयत में दिया था. इन्ही की काली करतूतों की वज़ह से हमारे लाखों हिन्दू भाई गुलामी का जीवन जीने को मजबूर रहे और आखिर में इन नीच लोगों की वज़ह से हमें 1947 का खूनी बंटवारा भी सहना पड़ा. आप लोगों को ये जानकार अजीब लगेगा कि आज भी पूरी दुनिया में हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमे ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि जिससे इसमें किसी और धर्म में पैदा होने वाला व्यक्ति शामिल हो सके. बेशक, अगर आपके पास पैसा है तो आजकल आप वाराणसी में जाकर इन पंडो से हिन्दू रिवाजों के हिसाब से शादी करवा सकते हैं ताकि आप अपने फोटो वगैरह निकाल सकें. लेकिन ये न भूलें कि ये सब भी आर्य समाज के शुद्धि आन्दोलन के बाद शुरू हुआ है. आर्य समाज का शुद्धि आन्दोलन लगभग 125 साल पहले शुरू हुआ था जिसका पुरजोर विरोध भी इन नकली, नीच और ढोंगी पंडो ने अपना धर्म समझकर किया था. अग्निवीर के विचार से ऐसे लोग तो ‘शूद्र’ से भी बुरे हैं.
बहुत सारे तथाकथित नकली ब्राहमण [ नकली इसीलिए कि अग्निवीर की खुली ललकार के बावजूद  इनमे से कोई भी अपने ब्राह्मण होने का डीएनए प्रमाण  नहीं दे पा रहा है] आपको ये खोखली बात कहते मिलेंगे कि गैर-हिन्दुओं को हिन्दू धर्म में लिया तो जा सकता है लेकिन सिर्फ शूद्र के रूप में और न कि ब्रह्मण या क्षत्रिय के रूप में. इससे बड़ी बदमाशी की बात और क्या हो सकती है कि समाज का एक वर्ग अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए साजिश रचने में लगा हुआ है और वो भी इस बात की परवाह किये बिना कि उसकी इस नापाक हरकत से देश, समाज और धर्म का कितना बड़ा नुक्सान हो चुका है और लगातार हो भी रहा है. ये वो ही बेवकूफ पण्डे [धर्म के ठेकेदार] हैं जिन्होंने उस स्टीफन नेप, जिसने कि वाराणसी के सभी पंडो से ज्यादा अकेले ही हिन्दू धर्म के लिए काम किया है, को काशी विश्वनाथ में अन्दर जाने से सिर्फ इसीलिए मना कर दिया क्योंकि वो जन्म से ही ब्राह्मण नहीं है. अब इन धूर्त पंडों  की बात को अगर  स्टीफन नेप माने तो उसे काशी विश्वनाथ में अन्दर जाने के लिए इस जन्म में तो प्रायश्चित करना पड़ेगा और अगले जन्म में इन्ही जैसे किसी  पण्डे के घर पैदा होना पड़ेगा! हिन्दू धर्म के लिए इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और क्या होगी? हमारा देश बर्बाद करने के लिए क्या हमें बाहर/ विदेश के दुश्मनों की जरूरत है ?
हम हिन्दू धर्म को मानने वाले भोले-भाले लोग सदियों से इस जात-पात की बेवकूफी को मानते आये हैं और दुर्भाग्य से अब भी समझने को तैयार नहीं हैं. ए मेरे भोले-भाले और सदियों से लुटने-पिटने वाले हिन्दू, क्या तुम्हे मालूम भी है कि पूरी दुनिया में कोई भी आदमी दुनिया कि किसी भी मस्जिद में जाकर अपने मुस्लिम बनने की ख्वाहिश को जाहिर कर सकता है? ऐसा होने पर उस मस्जिद का  मौलवी सब कुछ छोड़-छाड़कर, हमारे मोटे-ताज़े और गोल-मटोल  पंडों के बिलकुल उल्टा, फटाफट एकदम से सारे इंतजामात करके उस आदमी को जल्दी से मुसलमान बना लेता है? इसी तरह अगर कोई आदमी किसी चर्च में जाता है तो वहां का फादर इसाई बन जाने पर पैसा भी देता है और इसके साथ-साथ ईसाई बनने वाले की नौकरी भी लगवाई जाती है?
लेकिन अगर कोई हमारा बिछुड़ा हुआ भाई जिसे सदियों पहले जबरन मुसलमान या इसाई बनाया गया था किसी भी हिन्दू धर्म के मंदिर में अपने पुरखों के धर्म में लौटने के लिए जाता है तो सबसे पहले तो ये मक्कार, लोभी, लम्पट, धूर्त, धर्मद्रोही, समाजद्रोही, राष्ट्रद्रोही जातिवादी उस भोले-भाले आदमी को ऐसी ख़राब और पैनी नज़र से देखते हैं कि जैसे उसने कोई समलैंगिक मजाक सुन लिया हो. उसके बाद वो पंडा अपने किसी बड़े पुरोहित को बुलाता है. हाँ, कुछेक मंदिरों में तो वो भोला-भला आदमी अन्दर भी नहीं जा सकता. उदाहरण के लिए जैसे कि काशी विश्वनाथ के मंदिर के आंतरिक भाग में सिर्फ तथाकथित ब्राहमण ही जा सकते हैं. इन सब के बाद उसे प्रायश्चित की एक लम्बी सी  लिस्ट दी जायेगी ताकि वो हिन्दू धर्म में आकर एक शूद्र” बन सके. एक करपात्री जी महाराज और उनके जैसे स्वनामधन्य कुछ लोगों के अनुसार प्रायश्चित के लिए हिन्दू बनने वाले को हिन्दू धर्म में आकर एक शूद्र” बनने के लिए कई दिनों तक गाय का गोबर खाना जरूरी है. कुछ दूसरे संप्रदाय जैसे कि ISKCON ने हिन्दू धर्म में आकर एक शूद्र” बनने के लिए काफी हद्द तक तरीका आसन किया है क्योंकि वो उन कुछ लोगों में से हैं जिन्होंने हमारे बहुत दिनों से खोये हुए भाइयों को अपने धर्म में वापस लाने के काम की जरूरत को समझा है.
लेकिन ISKCON को उनके इस काम के लिए बाकी स्वयम-घोषित दूसरे संप्रदाय वाले धर्म के ठेकेदार धोखेबाज़ मानते हैं. इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि हिन्दू धर्म में आने के बावजूद वो लोग कांचीपुरम, जगन्नाथ और द्वारका के  मंदिरों में प्रवेश तक नहीं पा सकते वहां पर पूजा करके पुजारी बनने की बात तो आप भूल ही जाओ. वो लोग किसी भी तथाकथित ऊँची-जाति के हिन्दू से शादी नहीं कर सकते. वो लोग न तो वेद पढ़ सकते हैं और न ही पढ़ा सकते हैं. यहाँ तक कि ISKCON भी संभलकर कदम रखना चाहता है और इसी बात पर जोर/ ध्यान देना पड़ता है कि वो लोग सिर्फ गीता और भागवत पुराण आदि ही पढ़ें और वेद न पढ़ें.
आर्य समाज के अलावा किसी भी दूसरे हिन्दू धर्म के लोगों में ये हिम्मत/ हौसला नहीं है कि एक मस्जिद के मौलाना को वेद पढ़ने और पढ़ाने वाला पंडित बना सकें. और इसी कारण उन्हें पिछले 125 साल से रास्ते से भटका हुआ माना जाता रहा है. दुःख की बात ये है कि आज आर्य समाज भी सिर्फ एक KITTY PARTY बनकर रह गया है और अपने मुख्य उद्देश्य [जातिप्रथा का जड़ से विनाश] को भूल चुका है. आज आर्य समाज भी सिर्फ भगोड़े लड़के-लड़कियों की शादी करवाकर एक दान-दक्षिणा बटोरने वाली संस्था बनकर रह गयी है.

10. क्या कोई इसाई या मुसलमान पागल है जो अपनी इज्ज़त/आत्म-सम्मान की कीमत पर हिन्दू धर्म को अपनाएगा?

अग्निवीर किसी एक संप्रदाय/आदमी विशेष को अपराधी नहीं ठहरा रहा है बल्कि अग्निवीर की नज़र में इसका अपराधी एक “जातिवादी दिमागी सोच” है. आज के समय की सबसे बड़ी समस्या ये बेवकूफाना जातिप्रथा और “जातिवादी दिमागी सोच” की वज़ह से इसका समर्थन करने वाले लोग ही हैं. अगर हम कभी दास/ गुलाम बने तो वो भी इसी की वज़ह से था. अगर हमारा कभी बलात्कार और क़त्ल-ए-आम हुआ तो वो भी इसी की वज़ह से हुआ. अगर हम आतंकवाद का सामना कर रहे हैं तो वो भी इसी की वज़ह से ही है. और फिर भी हम आगे बढ़कर इसे छोड़ना नहीं चाहते. ये बात हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि इसका न तो कोई आधार है, न कोई बुनियाद है  और न ही ऐसा कोई तरीका है जिससे की इन बातों की जांच-परख हो सके, इसके बावजूद भोला-भाला और सदियों से लुटता-पिटता रहा हिन्दू, आज भी उसी सांप को खिला-पिला रहा है जिस सांप ने हमारे सगे-सम्बन्धियों को सदियों से न सिर्फ डसा है बल्कि बेरहमी से उनकी जान भी ली है.

11 . जातिवाद ने भारत का खूनी बंटवारा तक करवा दिया.

आज की तारिख में हिन्दू समाज का एक हिस्सा 1947 के भारत के बंटवारे का रंज मनाता है और उसी तरह से तथाकथित इस्लामी कट्टरवाद का भी रोना बड़े बड़े आंसू टपकाकर रोता है. लेकिन शायद सिर्फ कुछ ही लोगों को मालूम हो कि मोहम्मद अली जिन्ना” के परदादा/पुरखे हिन्दू ही थे जो किन्ही बेवकूफाना कारणों की वज़ह से ही मुसलमान बनने के लिए मजबूर हुए थे. इकबाल के दादा एक ब्राहमण परिवार में पैदा हुए थे. हमारे जातिवाद के हिसाब से तो हिन्दू धर्मी किसी म्लेछ: के साथ सिर्फ खाना खाने से ही  म्लेछ हो जाता था और उसके पास अपने सत्य सनातन हिन्दू धर्म में वापस लौटने का कोई भी रास्ता इन नीच, पापी पंडों ने नहीं छोड़ा था.
बाद के समय में जब स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आन्दोलन शुरू किया और स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने शुद्धि आन्दोलन को खुले तौर पर समर्थन दिया तब इन मौकापरस्त धर्म के दलालों को दुःख तो बहुत हुआ लेकिन इन्हें हिन्दू धर्म के दरवाजे अपने भाइयों के लिए खोलने पड़े. लेकिन फिर भी ये मौकापरस्त धर्म के दलाल अपनी नापाक हरकतों से बाज़ नहीं आये और अपने बिछुड़े भाइयों को तथाकथित छोटी जाति में जगह दी. अब भी क्या आपको कोई शक या मुगालता है कि हिन्दू धर्म के सबसे बड़े दुश्मन ये मौकापरस्त धर्म के दलाल ही हैं?
सारे भारतीय उपमहाद्वीप की मुसलमान और इसाई जनसँख्या आज हमारे ही उन पापों और अपराधों का परिणाम है जिसके हिसाब से किसी भी आदमी को कैसे भी काम की वज़ह से हिन्दू धर्म से बाहर निकला जा सकता था. आज हमें जरूरत इस बात की है कि हम दूसरों  के धर्मों  की बुराइयाँ और उसमे कमियां निकालने कि बजाय, खुद से ये सवाल करें कि क्या हमारे पास ऐसी कोई भी चीज़ ऐसी है जिससे कि सदियों पहले अपने छोटे-छोटे  दूध पीते बच्चों  की जान बचाने के लिए, बहू-बेटियों की इज्ज़त बचाने के लिए, डर और मजबूरी से अलग हुए हमारे अपने ही भाइयों को इज्ज़त के साथ हिन्दू धर्म में आने के लिए मना सकें और उन्हें आपने दिल से लगा सकें.” “क्या हमारे पास उन्हें भला-बुरा कहने का कोई हक़ है जब हम अपने झूठे और बकवास तथकथित नकली किताबों को मानते हैं और जातिप्रथा और पुरुष-स्त्री में भेदभाव को सही मानते हैं ?” 

जातिवादियों को पहले अपने पापों / अपराधों को देखना चाहिए.
अगर हम हिन्दू और कुछ भी नहीं कर सकते तो कम से कम खुद के साथ तो इमानदार बनें. अग्निवीर एक निष्पक्ष आलोचक के तौर पर एक वैज्ञानिक की तरह से इस्लाम के इतिहास, कुरान और बाइबल को सबके सामने रखता है. अग्निवीर किसी भी धर्म या संप्रदाय से नफरत नहीं करता. अग्निवीर विचारों पर लिखता है न कि किसी खास आदमी पर. इसके साथ अग्निवीर अपने साहस, हिम्मत और हुंकार के साथ ये भी कहता है कि उन सभी किताबों को एकदम बिना कोई देर किये जो  किसी भी तरीके से जातिवाद और स्त्री-पुरुष में भेदभाव जैसे शर्मनाक रस्मों को सही मानती हैं, या तो कूड़ेदान में डाल देना चाहिए या फिर आग के हवाले कर देना चाहिए. अग्निवीर इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं करता कोई आदमी ऐसी किसी किताब, रस्म और पूजा के तरीके से कितने भावनात्मक रूप से और किस हद तक जुड़ा हुआ है. अग्निवीर फिर भी इन खून चूसने वाली जोंक/ परजीवियों से छुटकारा पाने के लिए संघर्ष करता रहेगा.
जब तक हम सभी धर्म और संप्रदाय के लोग इतनी इमानदारी नहीं दिखा सकते तब तक तुलनात्मक धर्म पर कोई भी बहस करना अपने घृणित पापों और अपराधों पर पर्दा डालने की एक बेशर्म कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं होगा.

12 . जातिवाद जाए भाड़ में

और तथाकथित नीची-जाति के लोगों के पास तथाकथित ऊँची-जाति बनने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी.  हिन्दू ने कहा “योग्यता जाए भाड़ में ” तो नियति ने कहा ”हिन्दू  जाए भाड़ में”.

मोर पंख क्यों शुभ है ?

मयूर पंख बाल्यकाल में जब बलराम और श्री कृष्ण को मुकुट पहनाया जा रहा था तो भगवान् कृष्ण मुकुट पहन ही नहीं रहे थे.अंतत: जब नन्द बाबा नें मोर पंख वाला मुकुट पहनाया तो उसे ही भगवान कृष्ण नें सर पर सुशोभित किया.इससे मोर पंख का महत्त्व सामने आता है.असुर कुल में संध्या नाम का प्रतापी दैत्य उत्त्पन्न हुआ.वो परम शिव भक्त था.उसने विन्द्यांचल पर्वत पर कठोर तप कर शिवजी को प्रसन्न किया.ब्रह्मा जी भी उसके घोर तप से प्रसन्न हुए..बर प्राप्त करने के बाद वो हर एक घर में अपना एक रूप बना कर विष्णु भक्तों को प्रताड़ित करने लगा.देवताओं पर आक्रमण कर उसने अलकापुरी जीत ली.देवताओं को बंदी बना वो शिव आराधना में फिर लीन हो गया.उसकी भक्ति के कारण भगवान् विष्णु भी उसका व्ध करने में समर्थ नहीं थे. तो सभी देव देवताओं ने मिल कर एक रण नीति तैयार कि जब शिवजी महासमाधि में लीन थे ; उस समय संध्या दैत्य सागर के तट पर अपनी रानी के साथ विहार कर रहा था ; तो देवताओं ने योगमाया को सहायता के लिए पुकारा. सभी मात्तृ शक्तियों के तेज से व नव ग्रहों सहित देवताओं के तेज से एक पक्षी पैदा हुया जो मोर कहलाया . उस दिव्य मोर के पंखों में सभी देवी देवता छुप गए और शक्ति बढ़ाने लगे. अति विशाल मोर को आक्रमण करने आया देख संध्या दैत्य उससे युद्ध करने लगा लेकिन योगमाया भगवान् विष्णु सहित नव ग्रहों एवं देवताओं कि शक्ति से लड़ रही थी तो इसी कारण संध्या नाम का दैत्य युद्द में वीरगति को प्राप्त हुया. तभी से मोर के पंखों में नव ग्रहों देवी देवताओं सहित अन्य शक्तियों के अंश समाहित हो गए. इस लिए पक्षी शास्त्र में मोर , गरुड़ और उल्लूक के पंखों का महत्त्व हो गया. किन्तु केवल वहीँ पंख इन गुणों को संजोता हैं जो स्वभावतय: पक्षी त्याग देता है. गणेशजी को भी मोरपंख प्रिय है . शास्त्रों में एकाध जगह उल्लेख किया है की राम जी ने भी वनवास के समय मोरपंख धारण किया था . यह घर की सजावट में तो काम आता ही है साथ ही इसका वास्तु शास्त्र में बहुत महत्त्व है ----- - मोर पंख सांपों को हमारे घर से दूर रखता है।सांप मोर पंख से डरते हैं क्योंकि मोर ही इसे मार कर खा जाता है। अत: सांप उस क्षेत्र में जाता है ही नहीं है जहां मोर या मोर पंख दिखाई देता है। - इसे घर में रखने से वातावरण में मौजूद नकारात्मक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं और सकारात्मक ऊर्जा अधिक सक्रिय हो जाती है। इससे हमारी सोच पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं। - शास्त्रों में शिव-पार्वती के बड़े पुत्र भगवान कार्तिकेय के वाहन मोर की महिमा बताई गई है। - मोर सरस्वती देवी का भी वाहन है इसलिए विद्यार्थी इस पंख को अपनी पाठ.पुस्तकों के मध्य भी प्राचीन काल से रखते आ रहें है - आयुर्वेद में भी मोर के पंख से टीद्बी टीबी, फालिज,दमा, नजला तथा बांझपन जैसे रोगों का सफलतापूर्वक उपचार संभव होता है. - घर के दक्षिण.पूर्व कोण में लगाने से बरकत बढती है व अचानक कष्ट नहीं आता है - यदि मोर का एक पंख किसी मंदिर में श्री राधा.कृष्ण कि मूर्ती के मुकुट में ४० दिन के लिए स्थापित कर प्रतिदिन मक्खन.मिश्री काभोग सांयकाल को लगाए ४१ वें दिन उसी मोर के पंख को मंदिर से दक्षिणा भोग दे कर घर लाकर अपने खजाने या लाकर्स में स्थापित करें तो आप स्वयं ही अनुभव करेंगे कि धन-सुख.शान्ति कि वृद्धि हो रही है सी रुके कार्य भी इस प्रयोग के कारण बनते जा रहे है - काल.सर्प के दोष को भी दूर करने की इस मोर के पंख में अद्भुत क्षमता है काल.सर्प वाले व्यक्ति को अपने तकिये के खौल के अंदर ७ मोर के पंख सोमवार रात्री काल में डालें तथा प्रतिदिन इसी तकिये का प्रयोग करे और अपने बैड रूम की पश्चिम दीवार पर मोर के पंख का पंखा जिसमे कम से कम ११ मोर के पंख तो हों लगा देने से काल सर्प दोष के कारण आयी बाधा दूर होती है - बच्चा जिद्दी हो तो इसे छत के पंखे के पंखों पर लगा दे ताकि पंखा चलने पर मोर के पंखो की हवा बच्चे को लगे धीरे.धीरे हव जिद्द कम होती जायेगी - मोर का पंख घर के पूर्वी और उत्तर. पश्चिम दीवार में या अपनी जेब व डायरी में रखा हो तो राहू का दोष की भी नहीं परेशान करता है तथा घर में सर्प मच्छर बिच्छू आदि विषेलें जंतुओं का य नहीं रहता है - नवजात बालक के सिर की तरफ दिन.रात एक मोर का पंख चांदी के ताबीज में डाल कर रखने से बालक डरता नहीं है तथा कोईभी नजर दोष और अला.बला से बचा रहता है - यदि शत्रु अधिक तंग कर रहें हो तो मोर के पंख पर हनुमान जी के मस्तक के सिन्दूर से मंगलवार या शनिवार रात्री में उसका नाम लिख कर अपने घर के मंदिर में रात र रखें प्रातःकाल उठकर बिना नहाये धोए चलते पानी मेंभी देने से शत्रुए शत्रुता छोड़ कर मित्रता का व्यवहार करने लगता है - घर का द्वार यदि वास्तु के विरुद्ध हो तो द्वार पर तीन मोर पंख स्थापित करें , मंत्र से अभिमंत्रित कर पंख के नीचे गणपति भगवान का चित्र या छोटी प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए - यदि पूजा का स्थान वास्तु के विपरीत है तो पूजा स्थान को इच्छानुसार मोर पंखों से सजाएँ, सभी मोर पंखो को कुमकुम का तिलक करें व शिवलिं की स्थापना करें पूजा घर का दोष मिट जाएगा, - यदि रसोईघर वास्तु के अनुसार न बना हो तो दो मोर पंख रसोईघर में स्थापित करें, ध्यान रखें की भोजन बनाने वाले स्थान से दूर हो, दोनों पंखों के नीचे मौली बाँध लेँ, और गंगाजल से अभिमंत्रित करें - हिंदुओं में मोर के पंख को लेकर यह विश्र्वास हें कि मोर के पंख के प्रयोग से अमंगल टल जाता है विशेष रूप से दुरात्माएतो पास ही नहीं आती है,......

क्यों कराये सत्यनारायण की कथा ??

भला हिन्दू धर्म का कौन सा ऎसा व्यक्ति होगा, जो कि सत्यनारायण की कथा से परिचित न हो.इस कथा की लोकप्रियता का आंकलन आप इसी बात से कर सकते हैं कि यह कथा उतर भारत के हिन्दू परिवारों के तो जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है.हालाँकि धर्म शास्त्रों में इस व्रत कथा को कोई स्थान नहीं, किन्तु रूढ-धर्म में इसका स्थान बेहद उच्च है. लोगों की यह धारणा है कि इस कथा से मनोकामनाऎँ सिद्ध होती हैं. लेकिन इस कथा में जो एक अजीब सी बात है और जिसके बारे में अक्सर बहुत से लोगों के मन में शंका और जिज्ञासा भाव भी रहता हैं, वो ये कि-----इसके सम्पूर्ण अध्यायों में सिर्फ कथा महात्मय का ही वर्णन पढने को मिलता है, मूल कथा क्या है ? यह कहीं नहीं मिलता. 
इस व्रत में सत्यनारायण की पूजा, कथा-श्रवण और प्रसाद भक्षण ऎसे तीन मधुर विभाग हैं. शायद इसी कारण इस व्रत में सत्य की जो महिमा है, वह लोगों को ध्यान में नहीं आती. लोगों का ध्यान उस ओर आकर्षित करने के लिए यह एक छोटा सा प्रयास किया जा रहा है. इस रहस्य को पढने से पूर्व जिन्हे सत्यनारायण की कथा मालूम न हो, उन्हे उसे जान लेना परम आवश्यक है.
धर्म मानव ह्रदय की अत्यन्त उच्च वृ्ति है; और वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में व्यापत रहती है. हमारा जीवन जैसा ही उत्तम, मध्यम अथवा हीन होता है, वैसा ही रूप हम धर्म को भी देते हैं. बुद्धि-प्रधान तार्किक लोग जहाँ धर्म-वृति को तत्वज्ञान का दार्शनिक रूप देते हैं, प्रेमी लोग उपान का रूप देते हैं, कर्मप्रधान कला-रसिक लोग पूजा-अर्चना इत्यादि तान्त्रिक विधियों द्वारा धर्म-वृति का पोषण करते हैं, तहाँ साधारण अज्ञ जन-समुदाय कथा-कीर्तन द्वारा ही धर्म के उच्च सिद्धान्तों का आंकलन कर सकता है.
धर्माचरण के फल के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त् लागू होता है. धर्माचरण का फल अन्तस्थ और उच्च होता है, यह बात जिनके ध्यान में नहीं आ सकती, उनको सन्तोपार्थ पौराणिक कथाओं द्वारा बाह्य फल दिखलाने पडते हैं. धर्मतत्व कितने ही ऊँचें हों, किन्तु यदि उन्हे समाज में रूढ करना हो तो उन्हे समाज की भूमिका प्रयन्त नीचे उतरना पडता है. भगवान बुद्ध के उपदिष्ट तत्व उच्च, उदात्त और नैतिक थे, किन्तु जब उन्हे देवी-देवता, पूजा-अर्चना तथा मन्त्र-तन्त्र आदि का तान्त्रिक स्वरूप देकर महायान-पन्थ अवतरित हुआ, तभी वे तत्व अथवा उनका अंश आधे से अधिक एशिया को भाया. यह सत्यनारायण का व्रत भी इसी किस्म का उदाहरण है. इस व्रत के विस्तार और लोकप्रियता को देखकर यह कहने में कोई बाधा नहीं है कि लोगों के ह्रदय में निवास करने वाले धर्म का स्वरूप इस व्रत में दृष्टिगोचर होता है.
संसार का बहुत सा व्यवहार अल्प-प्राण लोगों के हाथ में होता है. बहु-जन-समाज की सत्य पर श्रद्धा बहुत थोडी होती है. संसार में चाहे जैसी हानि को सहन करने योग्य पुरूषार्थ लोगों में नहीं दिखाई देता. सत्यासत्य का कोई-न-कोई विधि-निषेध रक्खे बिना क्षणिक और दृष्यमान लाभ के लिए लोग पल में वचन भंग कर डालते हैं, नियमों को लात मार देते हैं और झूठे को सच्चा कर दिखलाते हैं. अतएव यह एक भारी प्रश्न है कि कामना-सिद्धि के लिए सत्य को धत्ता बताने वाले अज्ञ जनों को सत्य की लगन किस तरह लगनी चाहिए और ऎसी श्रद्धा किस तरह दृड करनी चाहिए, कि------सत्य-सेवन ही से अन्त में सर्वकामना-सिद्धि होती है. साधु-सन्तों नें, नियमों की रचना करने वालों नें तथा समाज के नेताओं नें अनेकों प्रकार से प्रयत्न कर देखे हैं. सत्यनारायण-व्रत के प्रवर्तक नें इस प्रश्न को अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार सत्यनारायण की पूजा और कथा द्वारा हल करने का प्रयत्न किया है.
लोगों में सत्यनारायण की पूजा प्रचलित करने से दो हेतु सिद्ध होते हैं. लोग सत्य-सेवी हों यह एक उदेश्य; और सत्य की महिमा समाज में निरन्तर गाई जाया करे यह दूसरा उदेश्य हुआ. इस पूजा का नाम उत्सव या अनुष्ठान नहीं वरन् व्रत रक्ख गया है, यह बात भी इस जगह ध्यान में रखने योग्य है. उत्सव में हम लोग किसी भूत-वृतान्त का अथवा किसी धार्मिक तत्व का उत्साहपूर्वक सहर्ष स्मरण करते हैं, और व्रत में हम अपना जीवन उच्चतर बनाने के लिए किसी दीक्षा को ग्रहण करते हैं.
सत्यनारायण की कथा श्रवण करने और स्वादिष्ट प्रसाद भक्षण करने मात्र से सिर्फ यही कहा जाएगा कि घर में सत्यनारायण का कीर्तन हुआ. पर वह व्रत किसी तरह नहीं माना जा सकता. जिसे सत्यनारायण का व्रत करना हो उसे सर्वदा, सभी स्थानों में और सभी प्रसंगों में सत्य के आचरण की और अवसर आ पडने पर सभी लोगों को सत्य का महत्व समझा कर सत्य का कीर्तन करने की, दीक्षा ग्रहण करनी होगी. यदि इस तरह व्रताचरण किया जाए तो ही कर्ता को सत्यनारायण व्रत के करने का फल प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं.
संसार में सभी लोग सामर्थ्य और सम्पति चाहते हैं. धर्म कहता है कि "तुम्हे भूतदया और सत्य-आचरण के द्वारा ही सच्ची सामर्थ्य और सम्पति प्राप्त हो सकती है". पुराणों नें इसी सिद्धान्त को एक सुन्दर रूपक देकर हमारे मन में बिठाया है. पुराणों का कथन है कि सामर्थ्य और सम्पत्ति, अर्थात शक्ति और लक्ष्मी, क्रमश: कल्याण की अभिलाषा और सत्य अर्थात शिव और सत्यनारायण के अधीन रहते हैं; क्योंकि शक्ति तो शिव की पत्नि है, और लक्ष्मी सत्यनारायण की. यदि तुम पति की आराधना करोगे तो पत्नि तुम पर अवश्य ही अनुग्रह करेगी. इस तरह धन, धान्य, सन्तति और सम्पत्ति आदि ऎहिक लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले मनुष्यों को सत्य की अर्थात सत्यनारायण की आराधना करना इस व्रत में कहा गया है.
हिन्दूधर्म और हिन्दू-नीतिशास्त्र में सत्य का बहुत ही व्यापक अर्थ किया गया है. श्रीवेदव्यास नें महाभारत में सत्य के तेरह प्रकार कल्पित किए हैं. हिन्दू-शास्त्र और पुराणों को उलट-पुलट कर देखा जाए तो परस्पर बिल्कुल ही विभिन्न ऎसी तीन वस्तुऎं सत्य शब्द में समाविष्ट होती हैं.
पहली वस्तु----सत्य अर्थात यथार्थ कथन. जो बात जैसी हो, हम उसे जिस स्वरूप में जानते हों, अथवा जिस स्वरूप में बनी हुई हमने देखी हो, जिस स्वरूप में हमने उसकी विवेचना की हो, उसे ठीक ज्यों-की-त्यों कह देने का नाम है सत्य.
दूसरी वस्तु----सत्य अर्थात ऋतम, सृ्ष्टि का नियम अथवा किसी भी महाकार्य का विधान. 'सत्य ही से सूर्य उदय होता है','सत्य ही से वायु बहती है','सत्य ही से यह दुनिया चल रही है' इत्यादि शास्त्र-वचनों का अर्थ अनुलंघनीय नियम होता है.
तीसरी वस्तु-----सत्य अर्थात प्रतिज्ञा पालन. यहाँ सत्य के मानी हैं मुँह से एक बार निकले वचन का पालन करने की टेक. एक बार मुँह से निकले वचन को व्यर्थ न जाने देने की टेक. इसी सत्य के लिए कर्ण नें अपने कवच-कुण्डल दे दिए थे. इसी सत्य के लिए हरिश्चन्द्र नें राज्य का दान कर दिया और इसी सत्य के लिए श्रीराम बनवास गए थे. और तो क्या मातृभक्त पांडवों नें माता के वचन को सत्य करने के लिए एक द्रौपदी के साथ पाँचों भाईयों का विवाह कर लेने जैसे निन्दनीय कर्म को भी कर डाला. (लेकिन आजकल हमारी सत्य की धारणा अधिक विशुद्ध हो गई है. आज के जमाने में माँ के मुँह से निकले वचन को सत्य करने के लिए यदि पाँच भाई सम-विवाह करने को उद्यत हों जाएं, तो हम उन्हे मूर्ख और अय्याश कह डालेंगें.! अस्तु! पर यहाँ तो हम पुरानी धारणा के अनुसार सत्यनारायण की कथा का रहस्य खोलने चले हैं)
जन-समुदाय की दो वृतियाँ खास तौर पर बलवती होती हैं----लोभ और भय. इन दोनों वृतियों से लाभ उठाकर सत्यनारायण के कथाकार नें सत्य की महिमा गाई है. यदि आप सत्य का सेवन करें तो आपको सन्तति और सम्पत्ति आदि सभी सामग्री मिल जाएगी, समस्त संकट दूर होगें और मनोकामनाऎं परिपूर्ण होंगीं; यह तो हुआ लाभ. सत्य को भूल जाने से, सत्य को छिपाने से, तुरन्त ही आपके बाल-बच्चे मर जायेंगे, धन-धान्य का नाश हो जाएगा, दामाद पानी में डूब जाएगा, यदि राजा किसी को अन्याय से जेल में ठूँस देगा तो उसकी राजसत्ता नष्ट हो जाएगी और उस पर सभी तरह के संकट उमड पडेंगें; यह हुआ भय.
सत्य का फल सबके लिए समान फलप्रद है. सत्य-पालन का धर्म सभी वर्णों के लिए है, ऎसा बतलाने के लिए इस कथा में ब्राह्मण, राजा, बनिया और ग्वाला तथा लकडहारे लाए गए हैं और ऎसा मालूम होता है कि ऊपर बतलाये हुए सत्य के तीनों अर्थ सत्यव्रत में अभिप्रेत हैं. साधु और उसका दामाद दोनों अपनी की हुई प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं; इसलिए उनपर सत्यदेव का कोप होता है. उसी के परिणामस्वरूप राजा चन्द्रकेतु भी उन दोनों से परामुख होता है. इन दुर्दैवी लोगों की स्त्रियों के ह्रदय में प्रतिज्ञा पालन का धर्म-भाव जागृत होते ही तुरन्त चन्द्रकेतु राजा के ह्रदय में भी न्याय-भाव जागृत होता है. साधु और उसका दामाद चोर-भय से दण्डी बाबा के सम्मुख झूठ बोलते हैं, इसलिए हमारे कथाकार उनके मिथ्याभाषण के कारण उन के सर्वस्व नाश हो जाने का अनुभव दिखलाकर निनाश-भय द्वारा उन्हे सत्यनिष्ठ बनाते हैं. कलावति पति-दर्शन के मोह में पडकर सत्यनारायण व्रत के नियम का भंग करती है. तुंगध्वज राजा भी अपनी वर्णोच्चता के अभिमान और सता के मद में सत्य का अनादर करता है. इससे कलावति का पति और तुंगध्वज का राज्य नष्ट हो जाता है, किन्तु उन का वह मोह और वह मद नष्ट हो जाने पर फिर से उनको अनन्त सौभाग्य प्राप्त हो जाता है. ऎसा बताकर कथाकार लोगों से कहते हैं, कि भाईयो! सच ही बोलो; अपने वचन का भंग मत करो तथा समाज के अथवा नैसर्गिक सर्वव्यापी नियमों का भंग मत करो, उनका उललंघन न करो. यदि इस तरह का व्यवहार करोगे तो तुम्हारा ऎहिक और पारलौकिक कल्याण अवश्य होगा. क्योंकि जो सत्य पर चलता है वह-------सर्वान कामानवाप्नोति, प्रेत्य सायज्य माप्नुयात !!( जीते जी सभी कामनाओं को पा जाता है और मरने पर सायुज्य, मोक्ष पाता है)
इस लोक-काव्य में सत्य को सर्व-रंग परित्यागी दण्डी का स्वरूप दिया है, यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है. सत्यपूर्वक चलने से सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय होकर मनुष्य में सन्यस्तवृति आ जाती है, और सत्याचरणी मनुष्य में अन्त:स्थ वृतियों के और बाह्य समाज के नियमन अथवा दण्डन करने की दण्डी शक्ति आ जाती है, यह इस कथा के रचनाकार नें बडी सुन्दरता के साथ सूचित किया है. सत्यनारायण की पूजा में सत्य का स्वरूप और महिमा बतलाने वाले कितने ही श्लोक बडे उच्च भाव से भरे हुए हैं, उन्हे यहाँ देकर श्रीसत्यनारायण की यथामति की गई इस उपासना को मैं यहाँ समाप्त करता हूँ------
नारायणस्त्वमेवासि सर्वेषां च ह्रदि स्थित:

प्रेरक: पैर्यमाणानां त्वया प्रेरित मानस: !!

त्वदाज्ञां शिरसा धृत्वा भजामि जनपावनम

नानोपासनमार्गणां भावकृद भावबोधक : !!


नेट से साभार .... 

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

!! भगवान राम जी से आज की मीडिया के सवाल ??


किसी ग्रुप से कापी पेस्ट
====================
Savi Impossible
भगवान राम जब अयोध्या लौट कर आये थे,
यदि उस समय
...
हमारी मिडिया रही होती तो प्रेस
कांफ्रेंस में कैसे कैसे सवाल करती.....

-आपके टीम के श्री हनुमान को लंका सन्देश
देने भेजा था पर उन्होंने वहाँ आग
लगा दी.... क्या आपकी टीम में अंदरूनी तौर
पर वैचारिक मतभेद है?

- क्या हनुमान के ऊपर अशोक
वाटिका उजाड़ने के आरोप में वन विभाग
द्वारा मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए?

- आपके सहयोगी श्री सुग्रीव पर अपने भाई
का राज्य हड़पने का आरोप है|....क्या आपने
इसकी जांच करवाई?

- क्या ये सच है कि सुग्रीव की राज्य हड़पने
की साजिश के मास्टर माइंड आप है?

- आप चौदह साल तक वनवास में रहे...
आपको अपने खर्चे चलाने के लिए फंड कहाँ से
मिले ?

- क्या आपने उस फंड का ऑडिट करवाया है?

- आपने सिर्फ रावण पर हमला क्यों किया,
जबकि राक्षस और भी थे? क्या ये
लंका की डेमोक्रेसी को अस्थिर करने
की साजिश थी?

- क्या ये सच नहीं है कि रावण को परेशान
करने के मकसद से आपने उनके परिवार के
निर्दोष लोगो जैसे कुम्भकरण पर
हमला किया?

- क्या आपकी टीम के हनुमान
द्वारा संजीवनी बूटी की जगह पूरा पहाड
उखाड़ लेना सरकारी जमीन के साथ छेड़छाड़
नहीं?

- क्या ये सच नहीं कि आपने हमले से पहले
समुद्र पर पुल बनाने का ठेका अपने
करीबी नल और नील को नहीं दिया?

- आपने पुल बनाने के लिए
छोटी छोटी गिलहरियों से काम
करवाया..... क्या इसके लिए आप पर बाल
श्रम कानून के तहत
मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए?

- आपने बिना किसी पद पर रहते हुए युद्ध के
समय इन्द्र से सहायता प्राप्त की और
उनका रथ लेकर रावण पर हमला किया..
क्या आप इन्द्र की टीम ए है?

- इस सहायता के बदले में क्या आपने इन्द्र
को ये
वादा नहीं किया कि अयोध्या का राजा बनने
के बाद आप उन्हें अयोध्या के आस पास
की जमीन दे देंगे?

- आप युद्ध में अयोध्या से रथ न मंगवा कर
इन्द्र से रथ लिया.... क्या ये इन्द्र
की कंपनी को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से
किया गया?

- क्या आपने जामवंत को सहायता के बदले
राष्ट्रपति बनाने का वादा नहीं किया?
विभीषण अपने टीम में शामिल करके आपने
दल-बदल क़ानून का सरासर उलंघन
नहीं किया ?

- और आखिरी सवाल, कि आपने भरत
को राजा बनाया ...
क्या आपको अपनी नेतृत्व क्षमता संदेह था?

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

सिंन्धु सभ्यता का उदभव

सिंन्धु सभ्यता का उदभव


सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता वर्तमान पकिस्तान में स्थित शहर से लगभग २०० कि.मी. दक्षिण पश्चिम में राबी एवं सतलज नदियों के बीच में है. सिंधु नदी के पाकिस्तान देश में अरब सागर में गिरने के लगभग ४५० कि.मी. पहले नदी के किनारे मोहन जोदड़ो नामक स्थान है, जिसकी खोज जान मार्शल के निर्देशन में श्री राखलदास बनर्जी ने सन १९२२ ई. में किया. पुरातत्विक खोजों की वरीयता क्रम में हडप्पा संस्कृति कहा जाता है, पर व्यवहार में यह सिंन्धु सभ्यता कहलाने लगी. अनेकों वर्षों तक यह शोध का विषय रहा कि सिंन्धु सभ्यता के जनक कौन थे, वे स्थानीय थे व बाहरी थे. स्थानीय अर्थात द्रविणों के पूर्व से रहने वाले या जो कि बाद में द्रविण कहलाये तथा बाहरी का आशय दजला फरात नदियों के मुहाने में स्थित मेसापोटामियां की सभ्यता या अफगानिस्तान व बलूचिस्तान के लोग जो कि हिब्रु भाषा बोलतें थे, जो द्रविण भाषा से मिलती जुलती थी.

डॉ. व्हीलर कहतें हैं कि सिंन्धु सभ्यता के लोग भवन निर्माण कार्य में कच्ची ईटों का प्रयोग करते थे तथा भवन निर्माण में लकड़ी के छतों से (नशेनी, मंचान) का उपयोग करते थे. इस कार्य में मेसोपोटामियां के भवन निर्माता सिद्धहस्त थे. डी.एच गार्डन कहते हैं- मेसापोटामिया से लोग सिंधु घाटी में जलमार्ग से आये अपने साथ कम से कम सामान लाये जिसे यहाँ जोड़-जोड़कर काम लायक बनाये ताकि हड़प्पा की कृषि भूमि पर कब्जा करके कृषि का विकास किया. सांकलिया कहते हैं- तंदूरी चूल्हों को कालीबंगा के उत्खनन स्थल पर मिलना  ईरान तथा दक्षिण एशिया के प्रभाव दर्शातें हैं. डॉ. व्हीलर महोदय तो सिंधु सभ्यता के चबूतरों और मेसापोटामियां जिगुरेत के टीलों को एक ही प्रकार के राजतंत्र की प्रेरणा से निर्मित होने की संभावना मानते हैं. सिंधु सभ्यता में नगर का नियोजन एवं सार्वजनिक स्वछता की व्यवस्था को मेसापोटामियां ही नहीं वरन विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में श्रेष्ठ पाया गया है. यदि मेसापोटामियां के लोग समुद्री मार्ग से आकर भवन निर्माण का कार्य करते तो काम चलाऊ ही बनाते, इसके अलावा महत्वपूर्ण यह कि मेसापोटामियां सभ्यता में चबूतरों पर मंदिर निर्माण के अवशेष मिलते हैं. जबकि सिंधु सभ्यता में मंदिर मिर्माण के एक भी अवशेष प्राप्त नहीं हैं. दोनों सभ्यताओं की विधि में अन्तर है. यदि व्हीलर महोदय मानतें हैं कि सिंधु सभ्यता के विकास में मेसापोटामियां सभ्यता का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. किन्तु अलकानंद घोस कहते हैं कि भरत के ही लोगों ने सिंधु सभ्यता का विकास किया. डॉ. सांकलिया का विचार है कि सिंधु घाटी सभ्यता के मूल तत्व की जानकारी हेतु सिंध प्रान्त पाकिस्तान के जकोबाबाद से २२ किलोंमीटर दूर जुड़ेईजोदड़ो की खुदाई एवं बलूचिस्तान के अबरकोट की खुदाई से रहस्य उजागर हो सकते है. बलूचिस्तान के मेहारगढ़ में खुदाई से सिंधु सभ्यता के मूल तत्व प्राप्त नहीं हुये तथा मेहारगढ़ से ७ कि.मी. दूर नौशादों में भी विकसित सिन्धु सभ्यता के चरण नहीं मिले. केश सलाईम खां पाकिस्तान से १० कि.मी. दूर गुमला एवं २३ किमी. दूर रहमान ढेरी में खुदाई से भी कुछ विशेष प्राप्ति नहीं हुई. फेयर सर्विस कहतें हैं कि सिन्धु के पूर्व की सभ्यता के अवशेष जो उपरोक्त स्थालों पर मिले उनमे मेसापोटामियां सभ्यता, ईरानी सभ्यता के स्वरूप देखने को मिले हैं. प्रो. एस. इंगनाथ राव के अनुसार राजस्थान के सीरी एवं लोथल में खुदाई से जो साक्ष्य मिले हैं उनके अनुसार स्थानीय संस्कृतियों व्दारा धीरे-धीरे क्रमशः सिन्धु सभ्यता को विकसित कर दिया गया. मार्क केन्योर के अनुसार सभ्यता का विकास चार कारणों के दीर्घकाल में हुआ. प्रथम काल में गेंहू का प्रचुर उत्पादन, द्वितीय काल में इन्हें सहेजकर रहने हेतु मिट्टी के बड़े-बड़े बर्तन बनाये गये. तृतीय काल में मुद्रा बाँट एवं व्यपार की विकसित सभ्यता सामने आयी और अंत में सिंधु सभ्यता का विघटन काल आया. जिसे क्रमशः ६५०० ई.पू. से १६०० ई.पू. तक के काल में विभाजित किये हैं. विभिन्न स्थलों की खुदाई से हडप्पा सभ्यता के पूर्व की सभ्यता होना बताया है. जिनका क्रमिक विकास हुआ है, जिनमे नगर नियोजन, देश विमुख भवन, योजना आवास, सुरक्षा दिवार, गढ़ी, कच्ची पक्की ईट का प्रयोग, अन्नागार, मृदभाण्ड तथा मनकें आदि व्यपार-व्यसाय बढ़ने से बाँट का प्रयोग गिनती, लेखन कला, सामान के बंडलों पर मुद्रा लगाने के लिए मुदाओं का विकास, नगर नियोजन, विशालभवन, नारियों के लिये सुन्दर आभूषण आदि विकसित सिंधु सभ्यता की विशेषताएँ हैं. मार्क केन्योर का स्पष्ट मत है कि सिंधु सभ्यता उसी स्थल पर सदियों तक स्थित ग्रामो के विकसित रूप थे. भारत के मानचित्र को तथा उसके भागौलिक बनावट को ध्यान से देखने से ज्ञात होता है कि हडप्पा सभ्यता का उदभव एकाएक नहीं हुआ है. मानचित्र के अनुसार जो हडप्पा सभ्यता है वह वर्तमान मुबई से उत्तर की ओर लाहौर (पाकिस्तान) के मध्य भाग तथा समुद्री तट मुंबई से कंराची (पाकिस्तान) के मध्य विस्तृत नदी घाटियों के मैदानी प्रदेश में स्थित है. हडप्पा एवं मोहन जोदड़ो दो अलग-अलग स्थल है, जहाँ से सिंधु सभ्यता के मुहरें (सील) खुदाई में पाये गये हैं. हडप्पा नामक स्थान रावी नदी के दक्षिण किनारे पर रावी एवं सतलज नदी के मध्य स्थित है, जबकि मोहन जोदड़ो नामक स्थान सिंधु नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है. सिंधु नदी जब अरब सागर में गिरती वहाँ से मोहन जोदड़ो की दूरी ४५० कि.मी. और हडप्पा की दूरी लगभग ११५० कि.मी. है. हडप्पा और मोहन जोदड़ो में ७० कि.मी. दूरी है. सिंधु सभ्यता ई. पु. ६५०० से १५०० तक कुल ५००० ई.पू. वर्षों क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढते हुये गये हैं. मनुष्य शिकारी अवस्था से कृषक अवस्था की ओर क्रमशः बढता गया है. कंदराओं एवं गुफाओं से निकल शिकारी जीवन को छोड़ते हुये कृषि कार्य एवं पशुपालन कार्य हेतु नदी के मैदानी क्षेत्र में बढता गया है. उपरोक्त कथन का तात्पर्य यह है कि सिंधु सभ्यता के पूर्ण ५०० वर्ष ई.पू. ५००० वर्ष से पहले भी सभ्यता रही है. ये लोग गुफाओं एवं कंदराओं में रहते थे. गुफा मानव जंगलों में एवं पहाड़ों में शिकारी जीवन जीते थे. नर्मदा नदी तो अति प्राचीन है. नर्मदा एवं तापती नदियों का बहाव पश्चिम की ओर है. उन नदी घाटियों में आमूरकोट (अमरकंटक) को मानव का उत्पत्ति स्थल कहा जाता है. कोया संस्कृति में आमूरकोट नर्मदा नदी के उदगम स्थल में सर्वप्रथम नर व मादा का जन्म हुआ. नर-मादा से नदी का नाम नर्मदा प्रचलित हुआ है. इस प्रकार नर्मदा घाटी की जो आदिम सभ्यता थी, यहाँ से ही लोग उत्तर की ओर क्रमशः बढ़ते गये है. सिंधु नदी एवं इसकी सहायक नदियों के कछारी उपजाऊ प्रदेश में गेहूं अनाज, दलहन फसलों की उत्कृष्ट कृषि करने लगे. कृषि उत्पादन की मांग सुदूर उत्तर पश्चिम के प्रदेश में जो कि भौगोलिक दृष्टिकोण से पठारी एवं कम उपजाऊ थे, वहाँ से अनाज, पशु पक्षियों की मांग उठने लगी तब नदियों के नौकायन से व्यापार अन्य देश से किया जाता रहा. अनाजों के भरपूर उत्पादन, उनके भंडारण उनकी सुरक्षा की व्यवस्था आदि का क्रमिक विकास हुआ. वही हडप्पा सभ्यता कहलायी. हडप्पा सभ्यता में प्राप्त मुहरों (सीलों) का उद्वाचन गोंड़ी भाषा के रूप में किया जा चुका है. अत: हडप्पा सभ्यता के जनक कोयावंशी कोयतुर (गोंड) ही प्रमाणित होता है.

भूमि के निसर्पण (सरकने) के सिद्धांत के अनुसार भूमि का बहुत बड़ा टुकड़ा टूटकर अलग हुआ और उत्तर पूर्व की ओर सरकता गया. इस विसर्पण से टेथिस सागर का जल सागर तट को छोडकर मैदानी भाग में आता गया. इससे महाजल प्लावन (कलडूब) की विभीषिका उत्पन्न हुई. यह उत्तर पूर्व की ओर कोयामुरी व्दीप में सरकने से टेथिस सागर उथला होता गया. सागर में स्थित कीचड़ व दलदल वाला भाग दबाव से उपर उठाया गया, जो कि हिमालय पर्वत श्रंखला पश्चिम से पूर्व एवं दक्षिण से पूर्व की ओर बनता गया. थेटिस सागर समाप्त हो गया. वहाँ हिमालय श्रंखला बन गई. कालांतर में सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रम्हपुत्र एवं अन्य सहायक नदियों ने जन्म लिया. किन्तु नर्मदा एवं ताप्ती पर्वत बहती रही है. कोयामुरी भूखण्ड आफ्रिका के पूर्वी तट जंजीबार तट से जुड़ा था. वहाँ ये नदियाँ करोड़ो वर्ष पूर्व विक्टोरिया झील में समाहित होती थी तथा अमूरकोट से प्रथम नर-मादा की उत्पत्ति के प्रमाण स्वरूप सर्वाधिक प्राचीन मानव खोपड़ी झील के आसपास ही पाये गए हैं.

अत्यंत प्राचीन काल करोड़ो वर्ष पहले अमूरकोट स्थल से चलकर विश्व के चारो ओर फैले हैं, जो कि विश्व विभिन्न प्राचीन जातियों के डी.एन.ए. टेस्ट से प्रमाणित हुआ कि विश्व में मानव जातियों का विस्तार इसी अमूरकोट स्थल एवं आफ्रिका में विक्टोरिया झील प्रदेश स्थल से होना प्रमाणित है. अत: अमूरकोट कोइतुरों के दाई-दादा का जन्म स्थल है.

जब कोयामूरी व्दीप आफ्रिका जंजीबार तट से जुड़ा था तब नर्मदा ताप्ती नदी का प्रदेश भूमध्य रेखा के पास था. यहाँ भू-मध्य रेखीय जलवायु थी. करोड़ो वर्षों तक यहाँ अत्यधिक वर्षा होती थी. सघन एवं ऊचे-ऊचें वृक्ष थे. घनघोर जंगल थे. इन जंगलों में विशालकाय शाकाहारी डायनासोर निवास करते थे. करोड़ों वर्ष पूर्व भूमि का विसपर्ण (सरकाव) शुरू हुआ तथा कोयामुरी व्दीप का सरकाव शुरू हुआ और अब नर्मदा ताप्ती का प्रदेश २२/१.२ अंश उत्तर पूर्व की ओर सरक गया. तब आमूरकोट कर्करेखा पर स्थित हो गया. इसी अमूरकोट स्थल के जबलपुर शहर की पहाड़ियों में डायनासोर के अनेक अंडे भू-गर्भवेताओं व्दारा माँह जनवरी २००७ में खोज निकाले गये हैं. अंडों का जीवाश्म मिलना प्रमाणित हुआ कि अमूरकोट की सभ्यता कोयतुर सभ्यता है जो कालांतर में हडप्प सभ्यता बन गया.

सिंधु हड़प्पा सभ्यता का विस्तार

सिंधु सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता में भवन निर्माण योजना, नालियों के निर्माण, स्नानागार का निर्माण ईटों, मिट्टी के बड़े-बड़े घड़े, आयुधों, आभूषणों, मुद्राओं एवं मापतौल के वस्तुओं में लगभग एकरूपता पाई जाती है. गुजरात में उपरोक्त वस्तुओं में समानता पाये जाते हुये भी कुछ नये सामग्रियाँ प्राप्त हुये हैं. १९२१ ई. तक मिश्र नदी, नील नदी की प्रभुता एवं दक्षता उपरोक्त नदियों की समानता से मेसापोमिया को विश्व की उत्कृष्ट नगरीय सभ्यता में गिना जाता था, किन्तु. १९२१ में हडप्पा की खोज राय बहादुर दयाराम साहनी ने एवं १९२२ में मोहन जोदड़ो का राखलदास बनर्जी ने खोज की. इससे तीसरी शताब्दी के महान सभ्यताओं की खोज हुई. सौराष्ट्र के रैगपुर में भी इसी सभ्यता की कड़ी पाई गयी तथा राजस्थान और बहावलपुर में भी नगरीय सभ्यता के उत्खनिज सामग्रियां प्राप्त हुई.

आजादी के बाद १९४७ में लोथल, रोपड़, कालीबंगा, वर्णावलीकक, धौलाकीटा में भी उत्खनन से नगरीय सभ्यताओं के अवशेष मिले. उधर पाकिस्तान में सिंध प्रांत में कोटदीजी, गामनवाला, गावेरीवाला में भी सिंधु सभ्यता के स्थलों की सामग्री मिली.

भारतीय प्रायव्दीप के सुदूर उत्तर में पंजाब प्रांत के रोपड़ को ही उत्तरीसीमा कहा जाता था. खोजों से गुमला सरायखोला नामक पाकिस्तान के स्थल उत्तरी सीमा मानी हैं. नर्मदा घाटी में मेधम, हरेलोद एवं गवभाव तथा तापती नदी के निचली घाटी में मालवण (जिला सूरत) समुद्र सीमा से लगा हुआ है. दक्षिण में महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के संगम पर दाइमाबाद इस सभ्यता की उत्तरी सीमा जम्मू में स्थित मांण्डा तथा जमुना नदी की सहायक नदी हिण्डन नदी के किनारे आलमगीरपुर (जिला मेरठ, उत्तरप्रदेश) इसकी पूर्वी सीमा है. यह सभ्यता पश्चिम में मकरान के समुद्री तट करांची से लगभग पचासी कि.मी. पश्चिम में स्थित सुत्कागेंडोर तक विस्तृत है.

पश्चिम में सुत्कागेंडोर से पूर्व में आलमगीर तक लगभग १८०० कि.मी. है और उत्तर में जम्मू में माण्डा से लेकर दक्षिण में दाइमाबाद तक लगभग १४०० कि.मि. है. इस विस्तृत भू-भाग में विशाल नगर (यथा हड़प्पा सभ्यता मोहन जोदड़ो) कुछ कहके यथा रोपण तथा कुछ ग्राम यथा आलमगीरपुर लोथल समुद्री व्यापार का केन्द्र रहा होगा जबकि मकरान के समुद्रतटवर्ती सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह और बालकोट ने बंदरगाहों में पश्चिमी एशिया के साथ होने वाले व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी. हाल ही में तुर्कमेनिया क्षेत्र उत्खनन से स्पष्ट हो गया है कि सिंधु सभ्यता का मध्य एशिया के साथ भी सम्पर्क था. इस तरह सिंधु सभ्यता का विस्तार प्राचीन मेसापोटामिया, मिश्र तथा फारस के प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र में कहीं अधिक था. यदि सभ्यता के विस्तार क्षेत्र को संस्कृति ही नहीं माने जाएँ तो रोमन साम्राज्य से पहले विश्व में शायद ही इतना विशाल राज्य कहीं रहा हो.

पुराविदों ने इस सभ्यता के कुछ नाम सुझायें हैं तथा सिंधु सभ्यता के कुछ नाम सुझायें हैं या सिंधु सभ्यता, भारतीय सभ्यता, वृहत्तर सिंधु सभ्यता, सरस्वती सभ्यता, सिंधु सरस्वती पुरातत्व की परम्परा के अनुसार सभ्यता का नामकरण उसके प्रथम ज्ञात स्थल के नाम पर किया जाना चाहिये. इसलिये इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी अभिहित किया जाता है.

नर्मदा ताप्ती एवं गोदावरी नदियों के कछार में चांवल की कृषि करते हुये, क्रमशः उत्तर की ओर गेहूं उत्पादन के लायक वातावरण वाले क्षेत्र तथा कपास उत्पादन वाले क्षेत्र एवं गुजरात सौराष्ट्र एवं पंजाब सिद्ध की ओर सभ्यता विकसित हुई. चूँकि गोदावरी घाटी के गोंडियन लोग चावल का उपयोग मुख्य भोजन के रूप में करते रहे. इसलिये वस्त्र के लिये सौराष्ट्र को चुना. गेहूँ सिंधु घाटी में उपजाने लगे और अधिक मात्रा में उत्पादन होने से इसका भण्डारण भी करते रहे. अब चूँकि मध्य एशिया के लोंगों का मुख्य भोजन गेहूं तथा अन्य वस्तुओं का लोथल, मकरान, बालाकोट बंदरगाहों से समुद्र मार्ग से व्यापार करने लगे. मध्य एशिया में कड़ाके की ठंड से अनाज उत्पादन नगण्य होने लगा. गेहूं की रोटी की खुसबू आर्यों को सिंधु घाटी की ओर बढ़ने के लिये एवं इसे प्राप्त करने के लिये मजबूर कर दिया. व्यापार एवं उन्नति, वैभवशाली नगर के सीधे लोग, मेहमानों की आवगमन की प्राचीन व्यवस्था ने सभ्यता को समूल नष्ट करने का मार्ग प्रशस्त किया. किन्तु अब कुछ लुटाकर साहित्य, संस्कृति को स्वाहा होता देखकर अदम्य साहस का परिचय देते हुये हमारी माताओं ने हमे पुनः स्थापित किया. हमे अपने छाती का दूध पिलाया. यही दूध गोंडवाना संस्कृति का सबसे बड़ा गोंडवाना का कर्जा है. इसे ही चुकाने के लिये हम मामा-फुफूँ में शादी-ब्याह स्थापित करने, दूध का कर्ज उतारते हैं. माताओं ने जो हमारी पालन-पोषण, सेवा की है, इसलिये उनको इस सेवा की हम जय जयकार करते हैं. जय सेवा कहते हैं.

हड़प्पा सभ्यता के सुदूर दक्षिण में गोदावरी तट पर पूरा स्थल दाईमाबाद है, जो की वस्तुतः दाऊमाँबाद है. यह अपभ्रंश होकर प्रचलित है. दाऊ याने पिता, माँ याने माता, बाद याने स्थल अर्थात माँ-बाप का स्थल. हमारे पुरखा लोगों का स्थल. हमारे लिंगों जंगों का यही स्थान है. हम कोयावंशी हैं. कोयतुर हैं. माँ की कोख से उत्पन्न हुये हैं. हम अपने दाई के वीर हैं. दाईनोरवीर हैं. जो अब अपभ्रंश होकर द्रविड़ हो गया.

सुदूर उत्तर में जम्मू के पास माण्डा नामक स्थान है, जिसको गोंडी में आशय हिंसक पशुओं की गुफा होता है. मुमला का आशय नीलकंठपक्षी होता है तथा अवरकोट का आशय हल के निचे चीपा के रूप में लकड़ी का गढ़. इसका भावार्थ- गुफाओं में निवास करने वाले कोयावंशियों ने शिकारी व्यवस्था को छोड़कर कृषि कार्य किया और विपुल उत्पन्न प्राप्त किया, जो की नीलकंठ पक्षी की तरह बेजोड़ है. पूर्वी भाग में ‘आलमगीरपुर’ है, जो की हिन्डन नदी के पास है. इसका आशय- यहाँ पर पहाड़ी इलाके में आलू की खेती अच्छी होती है.  पश्चिम भाग में ‘मकरान’ नामक स्थान है. इसका आशय- यहाँ के उथले सागर तट एवं नदियों में छोटी एवं बड़ी मछलियाँ प्राप्त होती रही है.

क्या हड़प्पा संस्कृति गोंड़वाना संस्कृति है ?

संस्कृति का आशय सभाकृति अच्छे कार्य से हैं. वे कौन-कौन से अच्छे कार्य हैं अथवा कार्यकलाप है, जिनसे कोई सभ्यता उत्कृष्टता की सीढ़ी को प्राप्त करता है, ऐसे अनेक पहलुओं पर विश्लेषण आवश्यक है. इनसे यह प्रिपादित होगा कि क्या हड़प्पा संस्कृति या हड़प्पा सिंधु सभ्यता गोंडवाना संस्कृति के समान हैं ?

अब तक प्रचीन पुरातत्वविदों के अध्ययन से मोटे तौर पर जो सिंधु/हड़प्पा लिपियाँ प्राप्त हैं, उनसे सभी ने सही निष्कर्ष निकला है, कि यह दक्षिण पूर्व की लिपि है, किसी ने भी यह साहस नहीं दिखाया कि इस लिपि को गोंडी में उद्वाचित किया जाता है. इस दिशा में डॉ. मोतीरावण कंगाली की कृति-‘सैधवी लिपि की गोंडी में उद्वाचन’ एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ है. अब हड़प्पा की लिपि को गोंडी में उद्वाचित कर पढ़ा जा सकता है. तब निःसंदेह द्रविण पूर्व की भाषा, गोंडी है, जो कि आज भी प्रचलन में है. अत: हड़प्पा संस्कृति गोंडी-संस्कृति ही कही जावेगी.

नगर विन्यास एवं स्थापत्य

हड़प्पा सभ्यता के नगर विश्व के प्राचीनतम सुनियोजित नगर हैं. अधिकांश नगर सुरक्षा दीवारों से चारों ओर घिरे हुये थे, ऊचें स्थान को जिसे गढ़ी कहते हैं, गोंडी में आज भी प्रचलित भाषा में टिकरापारा कहा जाता है तथा इसके निचले नगर को खाल्हेपारा से संबोधित किया जाता है.

नगर तथा नगर में घर/कमरे निर्माण में वायु प्रकाश, नाली, सड़क की सुविधा को ध्यान में रखा गया है. सडकें १० मीटर चौड़ी मिली है. नगर/घर में स्नानागार महत्वपूर्ण है. तदनुसार गंदे पानी की निकासी के लिये नालियां बनी हैं. मकान में अनाज रखने की कोठियां बनी है. गंदे पानी के नालियों से बहने की व्यवस्था सिंधु सभ्यता में अत्यंत सुन्दर ढंग से किया गया है. ऐसा उदाहरण विश्व में इस सभ्यता के बाद शताब्दियों तक नहीं मिलतें है. लोग साफ सफाई पसंद के थे. हड़प्पा में अन्न भंडारण की कोठियां तथा अनाज को कूटने एवं पीसने की व्यवस्था रही है. आज भी गोंड समुदाय के लोग सामूहिक रूप से अनाज लूटने के लिये घर में विषेश प्रकार “ढेंकी” का उपयोग करते हैं. पीसने के लिये “जाता” का उपयोग करते हैं “मुसल” एवं “बाहना” का उपयोग व्यक्तिगत/अकेले व्यक्ति के व्दारा अनाज कूटने के लिये अभी भी किया जाता है. किन्तु मशीन युग में अब यह प्रथा समाप्त हो रही है. मोहन जोदड़ो में सार्वजनिक विशाल स्नानागार जो कि लगभग ५५,३३,२३३ मीटर के माप के हैं. ऐसा जलाशय गोंडवाना में चन्द्रपुर, सिंगौरगढ़, देवगढ़, नामनगर (मोतीमहल) आदि में आज भी स्थित है. नौशेरों चहुदड़ों में ईंट पकाने की बड़ी-बड़ी भट्टियां मिली है. लोथल में बंदरगाह, अन्नागर, जहाजों में सामान लादने की गोदियां मिली हैं. धौलावीरा में अनेक कुएं एवं विशाल जलाशय बने हैं जैसा कि- रायपुर का बुढातालाब, भोपाल सागर और आधारताल. गोंडवाना में धार्मिक अनुष्ठान एवं पेयजल व्यवस्था हेतु कुएं तालाब बनाने की परंपरा थी. धौलावीरा, सुरकोटला एवं अलीबंगा में राजा, मुखिया, पुजारी, अधिकारी रहा करते थे, जैसा कि धौलावीरा के लेख जो कि दस शब्दों के उद्वाचन से प्रतीक होता है. इसके भवन सुरक्षित एवं संरक्षित बनाये गये हैं. वणावी में व्यपारी वर्ग के लिये विशेष मकान, व्यापार, व्यवसाय की व्यवस्था करने वाले अधिकारी के माकन भी बने है.

पाषाण मूर्तियाँ

मोहन जोदड़ो में जो पाषण मूर्तियाँ मिली है, उन्हें लेखकों ने पुरोहित/पुजारी कहा है. वस्तुतः वे कोइतुर राजा हैं, जिसके चेहरे चौड़े, होठ मोटे, नाम चपटा, आँखे, खुली हुयी भाषा है. दाहिने बांह में एवं माथे में सिक्का/सील बंधा है, जो कि अलंकरण सामाग्री नहीं हैं. इसके पद प्रतिष्ठा के अनुकूल यह पट्टी सिक्का नुमा बंधा हैं. गोलतीर पत्तियों वाली छाप की किनारी का शाल ओढ़े हैं, जो बाएं कंधे को ढंका हुआ है. चेहरे का भाव किसी प्रश्न के उत्तर देने की प्रत्याशा में गंभीरता से प्रश्न को सुन, समझ रहा है तथा किसी प्रश्न का उत्तर देने हेतु या आदेश निर्देश हेतु तत्पर सा है.

हड़प्पा में जो बिना सिर की मूर्ति प्राप्त हुई है वह उपर की गले से उपर पुरुष आकृति एवं गले से निचे स्त्री आकृति की है. संभावना व्यक्त की गई है कि यह शिव एवं शक्ति की सम्मीलित प्रतिमा है. गोंडवाना की जंगो-लिंगों या शंभुशेक की शिव-पार्वती की सम्मिलित अवस्था की मूर्ति है. शंभुशेक इतने शक्तिशाली थे कि वे अपने को अर्द्धनारीश्वर के रूप में नटराज नृत्य करते हुये प्रकट कर सकते थे. यह पितृशक्ति एवं मातृशक्ति का सम्मिलित रूप ही है.

कास्य मूर्तियाँ

मोहनजोदड़ो से कांस्य धातु से निर्मित नग्न स्त्री की आकृति प्राप्त हुई है. जिसका दाहिना हाथ कमर पर अवलंबित है तथा इसमें दो चूड़ी कलाई में एवं दो कोहनी के उपर भुजा पर अलंकृत है. बायां हाथ बाएं घुटने में टिका है. हाथ में कोई पात्र है. पात्र का उपयोग संभवतः नृत्य के उपरांत इनाम या भेटराशी प्राप्त करने हेतु किया जाता होगा. एक हाथ में कोहनी से ऊपर सम्पूर्ण भुजा में चूड़ीयां पहनी है. गले में तीन गुटियाँ वाला कंठहार है. केश पीछे कि ओर गोलाई में बांधकर रखा गया है. माथा चौड़ा, नाम चपटी, होट मोटे आँखे आधी खुली हुयी है. चेहरे पर मुस्कान भाव नहीं हैं. पुराविद मार्शल कहतें हैं- यह किसी आदिवासी युवती का चित्रांकन है.

मिट्टी की मूर्तियाँ

यहां प्राप्त मिट्टी की मूर्तियाँ अलंकृत हैं. घुटने से ऊपर तक पहनावा है. कमर में कमरबंध अलंकृत है. यह पहनावा सुदूर बस्तर के माडिया स्त्रियों की तरह का है. छोटे बच्चों की मूर्तियाँ भी अलगढ़ रूप में मिली है. यह दर्शाने का प्रयास किया है कि माटी कि कोख से बच्चों की उत्पत्ति हुयी है. उन्हें माता ही संरक्षक के रूप में पालती पोसती है, मातृदेवी है. इनके साथ पशु पक्षियों की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई है.

मुद्रायें मुद्रा छापे

हड़प्पा एवं मोहन जोदड़ो से जो मुद्रायें एवं शील प्राप्त हुयी है और उनमे जो लिपि लिखी है साथ में चित्र भी दर्शाया गया है. उसके साथ ही गोंड़ी उद्वाचन से यह स्पष्ट हो गया है कि हड़प्पा संस्कृति गोंडवाना संस्कृति है. इसमें शांम शंभु, शंभुशेक, मातृदेवी, फिरकियाँ, पारी कुपार लिंगों की चित्रलिपि अत्यंत महत्वपूर्ण है.

मनकें

पत्थरों को काटकर तराशकर चाहुदड़ों में मनकें बनाये जातें थे. एवं व्यपार किया जाता था. आज भी आदिवासी बहुल ग्रामीण अंचलों में छोटे बच्चों को मनके पहनाये जाते हैं कहीं-कहीं माड़ीया महिलाएं भी मनकें पहनती हैं. अब यह समाप्त प्राय हो गया है.

मृदभांड़

अब तो हम स्टील धातू के बर्तनों का उपयोग करने लगे हैं, किन्तु आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने, पानी भरने में किया जाता था. उन्हें चित्रित भी किया जाता था. कई प्रकार के मिट्टी के बर्तन हड़प्पा सभ्यता में प्राप्त हुये हैं.

औजार

उपयोग के लिये धातु, पत्थर के औजार एवं उपकरण, मिट्टी के उपकरण, हाथी दांत के उपकरण की यह अवस्था आज भी कोयतुर समाज में है.

 वर्तमान ग्रामीण क्षेत्रों में आज परंपरागत ढंग के औजार, कारीगरी, मिस्त्री, बढ़ई, सोनार, सुतार, सोनझरा, जनजातियों के उपकरण, शिकारी जनजाति के उपकरण, बंसोड कंडरा समाज के उपकरण, मछुवारे समाज के उपकरण पाये जाते हैं. हड़प्पा की यह व्यवस्था आज भी कोइतुर समाज में प्रचलन में है.

जाति निर्धारण

मोहन जोदड़ो से प्राप्त कंकालों के परीक्षण में चार प्रकार की जातियां निर्धारित की गई है-
१)                  आध आस्ट्रेलायड- नाटे कद, खोपड़ी सकरी व लंबी, नाक चौड़ी, चपटी ठुड्डी बाहर की ओर निकली हुई, रंग काला, बाल काले घुंघराले. उक्त सभी गुण जनजातियों में पाये जातें हैं, श्रीलंका, की बेड्डा जनजाति इसी वर्ग में आतें हैं.

२)                  भूमध्य सागरीय- खोपड़ियां कुछ लंबी, नाक छोटी व नुकीलीपूर्ण है.

३)                  मंगोलजाति – कोई बाहरी व्यक्ति सैनिक थे.

४)                  अल्पाइन जाति – इनमे से आधे आस्ट्रेलायड व हड़प्पा सभ्यता के जनक थे. दक्षिण भारत में इस प्रकार की जनजातियां आज भी निवासरत है. वर्गभेद में नगर के गढ़ी में शासक वर्ग तथा निचले सागर में सामान्य जन रहते थे.

राजनैतिक सत्ता

मोहन जोदड़ो, हड़प्पा एवं धौलावीरा सभ्यता के प्रमुख नगर एवं राजधानियाँ रही है धौलावीरा से प्राप्त दस अक्षरों के लेख से स्पष्ट होता है कि वो राजधानियों का शासक/राजा का यह नगर है. इतिहासकार कुषाण वंश का नामकरण क्योंकर किये हैं, छठवी शताब्दी के पूर्व सोलह जनपद का पाया जाना, कुषाणवंश की दो राजधानी पेशावर एवं मथुरा, मौर्यवंश के सम्पूर्ण भारत में प्रमुख सम्राट अशोक का बैल व शेर की आकृति वाले पत्थर की चिन्ह यह सभी बातें स्पष्ट करती है कि इतिहास विशेषकर प्राचीन भारत के इतिहास लेखन में हड़प्पा संस्कृति को जोड़कर नहीं देखा गया है. बाहरी आक्रमण से हडप्पा के लोग भागकर कहाँ गये ? विश्व की एक मात्र नगरीय सभ्यता कहाँ विलुप्त हो गई ? इसी बात को इतिहासकार नहीं बता पाये है. जबकि कुषाण का पुत्र सांढ़, सोलह्त्र नौ, अठारह जनपद, अठारह भाइयों का गढ़ सम्राट अशोक चिन्ह का बैल, मौर्य का मुरा (पह्यों की धुरी) या पहिये की धुरी पर आश्रित सोलह नाग आरे, यह सभी शब्द हड़प्पा के पशुपति की ओर इशारा करते हैं, हड़प्पा संस्कृति है. इसे इतिहासकारों ने स्वेच्छा से जानबूझकर सत्तासीन लोगों के विरोध की वजह से बदल दिया गया है, परिवर्तित कर दिया गया है. यह क्यों बदला गया है ? यह शोध का विषय है.

धार्मिक विश्वास और अनुष्ठान

गोंडवाना संस्कृति में मंदिर नहीं होता है. हडप्पा संस्कृति में भी देवालय,  मंदिर नहीं पाये गये हैंसल्ले गागरां के पुजारी बड़ादेव, मातृदेव के उपासक हडप्पा सभ्यता के लोग संभवतः चैत्र नवरात्र एवं अक्षय तृतीय जैसे पावन पर्व पर सूर्योदय से पूर्व एक साथ सम्पूर्ण नगरवासी स्नान कर सकें, ऐसे स्नानाकर बनाये गये थे.

हडप्पा सभ्यता के लोग वृक्ष पूजा करते थे. पशु पूजा पशु बली देते थे गोंडवाना में साजा वृक्ष में बड़ादेव की स्थापना व पूजा की जाती है.

आर्थिक जीवन

हडप्पा सभ्यता के लोग कृषि कार्य करते थे. पशुपालन करते थे. मछली पालन बदख, मयूर का पालन करते थे. मुख्य रूप से अनाज कपास, कपड़े सूत का व्यापार करते थे. महिलाएं आभूषणों लगे में मनके की माला पहिनते थे, जैसे की आज भी बैगा जनजाति की महिलाएं पहनती है. आमोद-प्रमोद के साधन में पासे का खेल, गोलियों का खेल खेला जाता था. मनोरजन हेतु मांदर, ढोल, बजाकर नृत्य गायन किया जाता था. आज भी बस्तर के सुदूर अंचलों में मांदर एवं ढोल की थाप पर नृत्य किये जाते हैं. आज भी हम गौरा-पार्वती के विवाह को मनाते हैं. गौरा शिव की सवारी बैल एवं गौरी की सवारी कछुआ बनाकर गोंडवाना संस्कृति में धारण किये हुये हैं.

शव वित्सर्जन

मोहन जोदड़ो में शवों को जलाये जाने का बोध नहीं होता है. किन्तु हडप्पा में गोंडवाना के रीतिरिवाज अनुरूप शव का सिर उत्तर की ओर व पैर दक्षिण की ओर रखकर पीठ के बल लिटाया जाता था तथा सिर एक तरफ पूर्व की ओर मुड़ा हुआ होता था. इसके अतिरिक्त एक क्रम से शवों को क्रमशः दफनाया गया पाया गया. संभवतः यह किसी गोत्र विषेश के लोगों का कब्र हो. शवों के सिर के पास ही मिट्टी के पात्र पैर की तरफ दिया या दीपक रखे पाए गये हैं. बर्तनों के खाद्य सामग्री, मृतक के दैनिक उपयोग की वस्तुएं, चूड़ी, अंगूठी मनकेहार आभूषण मिले हैं. शवों को जलाने की प्रथा आर्य लोगों की मुख्यतः है, ऐसा लगता है. आर्य जन यहाँ आकर बस गये व्यपार आदि मोहनजोदड़ो से करने लगे.

सभ्यता का अंत: सभ्यता का संस्कृति के उदभव एवं पतन ठीक-ठीक कारण ज्ञात करना अत्यंत कठिन है. अनेक कारण हो सकतें हैं. यथा प्रकाशनिक शिथिलता, व्यापार की अवनति, नैतिक पतन, वनों की कटाई, जलवायु में परिवर्तन, नदियों का मार्ग बदलना, भीषण बाढ़, जलतल का ऊपर उठना, समुद्र तटीय भूमि का ऊपर उठना, बाहरी आक्रमण आदि. आर्य. लोग एशिया माइना के अजखेन नामक स्थान में निवास करते थे. ऋग्वेद की रचना व्दितीय शताब्दी के मध्य हुयी. वीलर के अनुसार- सिंधु सभ्यता के विनाश के लिये आर्ये को उत्तरदायी मानते हैं. पतन लम्बे समय तक क्रमशः और विनाशक था. हडप्पा की पहचान ऋग्वेद के हरियूपिया नगर के मान्य की जाती है.
अंत में वे प्रमुख कारण या सार जिससे हडप्पा संस्कृति को गोंडवाना संस्कृति कह सकतें हैं-

·       १. वे लोग देवी देवता की पूजा करते थे.

२. वे लोग माता शक्ति के पुजारी थे.

३. वे लोग शिवपशुपतिनाथ (बड़ादेव) के उपासक थे.

४. वे लोग सल्ले गागरां की पूजा करते थे, शिवलिंग पूजा करते थे.

५. वे लोग विषेश आसन लगाकर पूजाकार्य में बैठते थे. योगसन जानते थे.

६. वे लोग पूजा के पूर्व माता सेवा के लिये सामूहिक स्नान किया करते थे.

७. वे लोग विभिन्न देव, देवी शक्ति के लिये अलग-अलग ध्वज/झंडे का उपयोग करते थे.

८. वे लोग पृथ्वी के दायें से बायें घूमने एवं सिंधुलिपि दायें से बायें की प्रथा के प्रतीक हेतु “फिरकी चक्र” चिन्ह दाहिने से बायें ओर घूमता हुआ, उपयोग पूजा स्थल पर करतें थे.

९. वे लोग बिदरी प्रथा, ब्याह करने कि पूजा रात में, बिना वस्त्र धारण करते थे जैसा की बैगा समाज में आज भी प्रचलित है.

१०. वे लोग पशुओं का सम्मान करते थे. सांडिया सृश्य आदर करते थे.

११. वे लोग पूजा कार्य अनुष्ठान में पशुबलि एवं कहीं-कहीं, कभी-कभी युद्ध में नरबलि भी देते थे.

१२. वे लोग वृक्षों की पूजा करते थे. यथा साजा वृक्ष में बुढादेव की स्थापना, सेमर वृक्ष में पारी कुपार लिंगों की स्थापना.

१३. वे लोग ताबीज को रक्षा कवच के रूप में धारण करते थे.

१४. वे लोग शक्ति की पूजा करते थे. नवरात्रि आदि में अग्निकुण्ड बनाकर अस्कनी पूजा करते थे.

१५. वे लोग बाघों के पुजारी थे. तीन बाघों को एक-एक करके चित्रण किये. सारनाथ सम्राट ने अपना राज्य चिन्ह बनाया. अशोक चक्र का बाघ छैदैया “जगत” का पशुओं के रूप में इष्टदेव होता है. अत: नाम भी बाघदेव, बघधरा गोंडवाना में रखा जाता है.

१६. वे लोग अपने घर की छत को नुकीला बनाते थे तथा घर के बीच में आंगन और चारो तरफ, मकान बनाते थे. गोंडवाना की यही परंपरा है.

१७. वे लोग गढ़ी के चारो ओर ऊंची दीवारों से घेरकर बनाते थे. जैसा कि सिंग्रामपुर का      दलपतशाह के सिंगोरगढ़ का किला.

१८. वे लोग सामूहिक स्नानागार बनाते थे. जैसे चन्द्रपुर तथा गोंडवाना के राजधानी में बने स्नानागार.

१९ वे लोग परिवहन के लिये बैलगाड़ी का प्रयोग करते थे.

२०. वे लोग हाथी पालते थे. रानी दुर्गावती की सफेद हाथी “सरवन” मुगल गोंडवाना युद्ध का का एक कारण बना था.

२१. वे लोग बांह पर चूड़ी पहनते थे. राजस्थान के मीना जनजातियों में प्रचलित है.

२२. वे लोग बच्चों को मनके, कौड़ी, आदि पहनाते थे. आज भी गोंडवाना में पहनाया जाता है.

२३. वहाँ की स्त्रियां घुटने तक का कपड़ा लपेटकर, साड़ी, कपड़ा पहनती थी. अधोभाग खुला होता था, आज भी बस्तर में प्रचलित है.

२४. वे लोग केश सज्जा हेतु ककई, ककवा (कंघी) का उपयोग करते थे. आज भी ककई, ककवा (कंघी) प्रचलित है.

२५. वे लोग घड़ों पर चित्रकारी करते, आज भी गौरा पूजा में कलस को चित्रकारी से सजाते हैं.

२६. वे लोग शवों को दफनाते थे. सिर उत्तर एवं पैर दक्षिण में. गोंडवाना रीतिरिवाज अनुसार सिर को थोड़ा सा पूर्व की ओर घुमाकर दफनाते हैं.

२७. वे लोग केश विन्यास में बालों का खोपा बनाते थे, जो कि आज भी बस्तर एवं उड़ीसा में प्रचलित है.
२८. वे लोग कमर में करधनी पहनते थे. आज भी करधनी का रिवाज है.
२९. वे लोग देव पुजारी को सिरमौर से सजाते थे. आज भी सुदूर बस्तर में नर्तक दल के नायक गौर के सींग से सिंगमौर बनाकर पहनते हैं.
३०. वे लोग नृत्य करते समय मांदर का उपयोग करते थे. यह वाद्य यंत्र आज भी झारखंड, मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़ के बस्तर आदि विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित है.
३१. वे लोग मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते थे. आज भी खाना बनाने, रोटी बनाने, झकने के बर्तन-तवा, तलई, परई, गघरी, गंगार, कुडेरा, हांड़ी प्रचलित है.
३२. वे लोग शवों को दफनाते समय उसके साथ हंडी में भरकर खाद सामग्री एवं जरूरत की चीजें रखते थे. आज भी रखते हैं.
३३. वे लोग अपने कान में छेद कराते थे. पुरष लुरकी या स्त्रियां खिनवा (कर्णफूल) पहनती थी.
३४. वे लोग सेमल से वृक्ष के देवता की पूजा करते थे. इस अवसर पर नृत्य भी करते थे सर्व सगा समाज मानते थे. उनके सभी अपने ध्वज होते थे, जिन्हें हम सप्तरंगी ध्वज कहते हैं.


साभार अभिनंदन ग्रन्थ