शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

स्त्री और नियोग ?

‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास के क्रम सं0 120 से 149 तक की सामग्री पुनर्विवाह और नियोग विषय से संबंधित है। लिखा है कि

द्विजों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में पुनर्विवाह कभी नहीं होने चाहिए। (4-121)
स्वामी जी ने पुनर्विवाह के कुछ दोष भी गिनाए हैं जैसे -
(1) पुनर्विवाह की अनुमति से जब चाहे पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़कर दूसरा विवाह कर सकते हैं।
(2) पत्नी की मृत्यु की स्थिति में अगर पुरुष दूसरा विवाह करता है तो पूर्व पत्नी के सामान आदि को लेकर और यदि पति की मृत्यु की स्थिति में स्त्री दूसरा विवाह करती है तो पूर्व पति के सामान आदि को लेकर कुटुम्ब वालों में झगड़ा होगा।
(3) यदि स्त्री और पुरुष दूसरा विवाह करते हैं तो उनका पतिव्रत और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाएगा।
(4) विधवा स्त्री के साथ कोई कुंवारा पुरुष और विधुर पुरुष के साथ कोई कुंवारी कन्या विवाह न करेगी। अगर कोई ऐसा करता है तो यह अन्याय और अधर्म होगा। ऐसी स्थिति में पुरुष और स्त्री को नियोग की आवश्यकता होगी और यही धर्म है। (4-134)

किसी ने स्वामी जी से सवाल किया कि अगर स्त्री अथवा पुरुष में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है और उनके कोई संतान भी नहीं है तब अगर पुनर्विवाह न हो तो उनका कुल नष्ट हो जाएगा। पुनर्विवाह न होने की स्थिति में व्यभिचार और गर्भपात आदि बहुत से दुष्ट कर्म होंगे। इसलिए पुनर्विवाह होना अच्छा है। (4-122)
जवाब दिया गया कि ऐसी स्थिति में स्त्री और पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थित रहे और वंश परंपरा के लिए स्वजाति का लड़का गोद ले लें। इससे कुल भी चलेगा और व्यभिचार भी न होगा और अगर ब्रह्मचारी न रह सके तो नियोग से संतानोत्पत्ति कर ले। पुनर्विवाह कभी न करें। आइए अब देखते हैं कि ‘नियोग’ क्या है ?

अगर किसी पुरुष की स्त्री मर गई है और उसके कोई संतान नहीं है तो वह पुरुष किसी नियुक्त विधवा स्त्री से यौन संबंध स्थापित कर संतान उत्पन्न कर सकता है। गर्भ स्थिति के निश्चय हो जाने पर नियुक्त स्त्री और पुरुष के संबंध खत्म हो जाएंगे और नियुक्ता स्त्री दो-तीन वर्ष तक लड़के का पालन करके नियुक्त पुरुष को दे देगी। ऐसे एक विधवा स्त्री दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य पुरुषों के लिए अर्थात कुल 10 पुत्र उत्पन्न कर सकती है। (यहाँ यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यदि कन्या उत्पन्न होती है तो नियोग की क्या ‘शर्ते रहेगी ?) इसी प्रकार एक विधुर दो अपने लिए और दो-दो चार अन्य विधवाओं के लिए पुत्र उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर 10-10 संतानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है।
इमां त्वमिन्द्र मीढ्वः सुपुत्रां सुभगां कृणु।
दशास्यां पुत्राना धेहि पतिमेकादशं कृधि।
(ऋग्वेद 10-85-45)
भावार्थ  ‘‘हे वीर्य सेचन हार ‘शक्तिशाली वर! तू इस विवाहित स्त्री या विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य युक्त कर। इस विवाहित स्त्री से दस पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्री! तू भी विवाहित पुरुष या नियुक्त पुरुषों से दस संतान उत्पन्न कर और ग्यारहवें पति को समझ।’’ (4-125)

वेद की आज्ञा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णस्थ स्त्री और पुरुष दस से अधिक संतान उत्पन्न न करें, क्योंकि अधिक करने से संतान निर्बल, निर्बुद्धि और अल्पायु होती है। जैसा कि उक्त मंत्र से स्पष्ट है कि नियोग की व्यवस्था केवल विधवा और विधुर स्त्री और पुरुषों के लिए नहीं है बल्कि पति के जीते जी पत्नी और पत्नी के जीते जी पुरुष इसका भरपूर लाभ उठा सकते हैं। (4-143)

आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृराावन्नजामि।
उप बर्बृहि वृषभाय बाहुमन्यमिच्छस्व सुभगे पति मत्।
(ऋग्वेद 10-10-10)
भावार्थ ः ‘‘नपुंसक पति कहता है कि हे देवि! तू मुझ से संतानोत्पत्ति की आशा मत कर। हे सौभाग्यशालिनी! तू किसी वीर्यवान पुरुष के बाहु का सहारा ले। तू मुझ को छोड़कर अन्य पति की इच्छा कर।’’
इसी प्रकार संतानोत्पत्ति में असमर्थ स्त्री भी अपने पति महाशय को आज्ञा दे कि हे स्वामी! आप संतानोत्पत्ति की इच्छा मुझ से छोड़कर किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके संतानोत्पत्ति कीजिए।

अगर किसी स्त्री का पति व्यापार आदि के लिए परदेश गया हो तो तीन वर्ष, विद्या के लिए गया हो तो छह वर्ष और अगर धर्म के लिए गया हो तो आठ वर्ष इंतजार कर वह स्त्री भी नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकती है। ऐसे ही कुछ नियम पुरुषों के लिए हैं कि अगर संतान न हो तो आठवें, संतान होकर मर जाए तो दसवें और कन्या ही हो तो ग्यारहवें वर्ष अन्य स्त्री से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकता है। पुरुष अप्रिय बोलने वाली पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री से नियोग का लाभ ले सकता है। ऐसा ही नियम स्त्री के लिए है। (4-145)

प्रश्न सं0 149 में लिखा है कि अगर स्त्री गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए और पुरुष दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो ऐसी स्थिति में दोनों किसी से नियोग कर पुत्रोत्पत्ति कर ले, परन्तु वेश्यागमन अथवा व्यभिचार कभी न करें। (4-149)
लिखा है कि नियोग अपने वर्ण में अथवा उत्तम वर्ण और जाति में होना चाहिए। एक स्त्री 10 पुरुषों तक और एक पुरुष 10 स्त्रियों तक से नियोग कर सकता है। अगर कोई स्त्री अथवा पुरुष 10वें गर्भ से अधिक समागम करे तो कामी और निंदित होते हैं। (4-142) विवाहित पुरुष कुंवारी कन्या से और विवाहित स्त्री कुंवारे पुरुष से नियोग नहीं कर सकती।
पुनर्विवाह और नियोग से संबंधित कुछ नियम, कानून, ‘शर्ते और सिद्धांत आपने पढ़े जिनका प्रतिपादन स्वामी दयानंद ने किया है और जिनको कथित लेखक ने वेद, मनुस्मृति आदि ग्रंथों से सत्य, प्रमाणित और न्यायोचित भी साबित किया है। व्यावहारिक पुष्टि हेतु कुछ ऐतिहासिक प्रमाण भी कथित लेखक ने प्रस्तुत किए हैं और साथ-साथ नियोग की खूबियां भी बयान की हैं। इस कुप्रथा को धर्मानुकूल और न्यायोचित साबित करने के लिए लेखक ने बौद्धिकता और तार्किकता का भी सहारा लिया है। कथित सुधारक ने आज के वातावरण में भी पुनर्विवाह को दोषपूर्ण और नियोग को तर्कसंगत और उचित ठहराया है। आइए उक्त धारणा का तथ्यपरक विश्लेषण करते हैं।
ऊपर (4-134) में पुनर्विवाह के जो दोष स्वामी दयानंद ने गिनवाए हैं वे सभी हास्यास्पद, बचकाने और मूर्खतापूर्ण हैं। विद्वान लेखक ने जैसा लिखा है कि दूसरा विवाह करने से स्त्री का पतिव्रत धर्म और पुरुष का स्त्रीव्रत धर्म नष्ट हो जाता है परन्तु नियोग करने से दोनों का उक्त धर्म ‘ाुद्ध और सुरक्षित रहता है। क्या यह तर्क मूर्खतापूर्ण नहीं है ? आख़िर वह कैसा पतिव्रत धर्म है जो पुनर्विवाह करने से तो नष्ट और भ्रष्ट हो जाएगा और 10 गैर पुरुषों से यौन संबंध बनाने से सुरक्षित और निर्दोष रहेगा ?

अगर किसी पुरुष की पत्नी जीवित है और किसी कारण पुरुष संतान उत्पन्न करने में असमर्थ है तो इसका मतलब यह तो हरगिज़ नहीं है कि उस पुरुष में काम इच्छा ;ैमगनंस कमेपतम) नहीं है। अगर पुरुष के अन्दर काम इच्छा तो है मगर संतान उत्पन्न नहीं हो रही है और उसकी पत्नी संतान के लिए किसी अन्य पुरुष से नियोग करती है तो ऐसी स्थिति में पुरुष अपनी काम तृप्ति कहाँ और कैसे करेगा ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि नियोग प्रथा में हर जगह पुत्रोत्पत्ति की बात कही गई है, जबकि जीव विज्ञान के अनुसार 50 प्रतिशत संभावना कन्या जन्म की होती है। कन्या उत्पन्न होने की स्थिति में नियोग के क्या नियम, कानून और ‘शर्ते होंगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है ?

जैसा कि स्वामी जी ने कहा है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो भी पुरुष नियोग द्वारा पुत्र उत्पन्न कर सकता है। यहाँ यह तथ्य विचारणीय है कि अगर किसी स्त्री के बार-बार कन्या ही उत्पन्न हो तो इसके लिए स्त्री नहीं, पुरुष जिम्मेदार है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानव जाति में लिंग का निर्धारण नर द्वारा होता है न कि मादा द्वारा।
यह भी एक तथ्य है कि पुनर्विवाह के दोष और हानियाँ तथा नियोग के गुण और लाभ का उल्लेख केवल द्विज वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए किया गया है। चैथे वर्ण ‘शूद्र को छोड़ दिया गया है। क्या ‘शुद्रों के लिए नियोग की अनुमति नहीं है ? क्या ‘शूद्रों के लिए नियोग की व्यवस्था दोषपूर्ण और पाप है ?
जैसा कि लिखा है कि अगर पत्नी अथवा पति अप्रिय बोले तो भी वे नियोग कर सकते हैं। अगर किसी पुरुष की पत्नी गर्भवती हो और पुरुष से न रहा जाए अथवा पति दीर्घरोगी हो और स्त्री से न रहा जाए तो दोनों कहीं उचित साथी देखकर नियोग कर सकते हैं। क्या यहाँ सारे नियमों और नैतिक मान्यताओं को लॉकअप में बन्द नहीं कर दिया गया है ? क्या नियोग का मतलब स्वच्छंद यौन संबंधों ;ैमग थ्तमम) से नहीं है ? क्या इससे निम्न और घटिया किसी समाज की कल्पना की जा सकती है?

कथित विद्वान लेखक ने नियोग प्रथा की सत्यता, प्रमाणिकता और व्यावहारिकता की पुष्टि के लिए महाभारत कालीन सभ्यता के दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लिखा है कि व्यास जी ने चित्रांगद और विचित्र वीर्य के मर जाने के बाद उनकी स्त्रियों से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न की। अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और एक दासी से विदुर की उत्पत्ति नियोग प्रक्रिया द्वारा हुई। दूसरा उदाहरण पाण्डु राजा की स्त्री कुंती और माद्री का है। पाण्डु के असमर्थ होने के कारण दोनों स्त्रियों ने नियोग विधि से संतान उत्पन्न की। इतिहास भी इस बात का प्रमाण है।
जहाँ तक उक्त ऐतिहासिक तथ्यों की बात है महाभारत कालीन सभ्यता में नियोग की तो क्या बात कुंवारी कन्या से संतान उत्पन्न करना भी मान्य और सम्मानीय था। वेद व्यास और भीष्म पितामह दोनों विद्वान महापुरुषों की उत्पत्ति इस बात का ठोस सबूत है। दूसरी बात महाभारत कालीन समाज में एक स्त्री पांच सगे भाईयों की धर्मपत्नी हो सकती थी। पांडव पत्नी द्रौपदी इस बात का ठोस सबूत है। तीसरी बात महाभारत कालीन समाज में तो बिना स्त्री संसर्ग के केवल पुरुष ही बच्चें पैदा करने में समर्थ होता था।

महाभारत का मुख्य पात्र गुरु द्रोणाचार्य की उत्पत्ति उक्त बात का सबूत है। चैथी बात महाभारतकाल में तो चमत्कारिक तरीके से भी बच्चें पैदा होते थे। पांचाली द्रौपदी की उत्पत्ति इस बात का जीता-जागता सबूत है। अतः उक्त समाज में नियोग की क्या आवश्यकता थी ? यहाँ यह भी विचारणीय है कि व्यास जी ने किस नियमों के अंतर्गत नियोग किया ? दूसरी बात नियोग किया तो एक ही समय में तीन स्त्रियों से क्यों किया? तीसरी बात यह कि एक मुनि ने निम्न वर्ण की दासी के साथ क्यों समागम किया ? चैथी बात यह कि कुंती ने नियम के विपरीत नियोग विधि से चार पुत्रों को जन्म क्यों दिया ? विदित रहे कि कुंती ने कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन चार पुत्रों को जन्म दिया और ये सभी पाण्डु कहलाए। पांचवी बात यह कि जब उस समाज में नियोग प्रथा निर्दोष और मान्य थी तो फिर कुंती ने लोक लाज के डर से कर्ण को नदी में क्यों बहा दिया ? छठी बात यह है कि वे पुरुष कौन थे जिन्होंने कुंती से नियोग द्वारा संतान उत्पन्न की ? स्वामी जी ने बहुविवाह का निषेध किया है जबकि उक्त सभ्यता में बहुविवाह होते थे। अब क्या जिस समाज से स्वामी जी ने नियोग के प्रमाण दिए हैं, उस समाज को एक उच्च और आदर्श वैदिक समाज माना जाए ?
‘सत्यार्थ प्रकाश’ के ‘शंका-समाधान परिशिष्ट में पं0 ज्वालाप्रसाद ‘ार्मा द्वारा नियोग प्रथा के समर्थन में अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। लिखा है कि प्राचीन वैदिक काल में कुलनाश के भय से ऋषि-मुनि, विद्वान, महापुरुषों से नियोग द्वारा वीर्य ग्रहण कर उच्च कुल की स्त्रियां संतान उत्पन्न करती थी। जो प्रमाण पंडित जी ने प्रस्तुत किए हैं वे सभी महाभारत काल के हैं। क्या महाभारत काल ही प्राचीन वैदिक काल था ? क्या नियोग ही ऋषियों का एक मात्र प्रयोजन था?
यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि अगर स्वामी दयानंद सरस्वती नियोग को एक वेद प्रतिपादित और स्थापित व्यवस्था मानते थे तो उन्होंने इस परंपरा का खुद पालन करके अपने अनुयायियों के लिए आदर्श प्रस्तुत क्यों नहीं किया ? इससे स्वामी जी के चरित्र को भी बल मिलता और एक मृत प्रायः हो चुकी वैदिक परंपरा पुनः जीवित हो जाती। यह भी एक अजीब विडंबना है कि जिस वैदिक मंत्र से स्वामी जी ने नियोग परंपरा को प्रतिपादित किया है उसी मंत्र से अन्य वेद विद्वानों और भाष्यकारों ने विधवा पुनर्विवाह का प्रतिपादन किया है। निम्न मंत्र देखिए -
‘‘कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करतः कुहोषतुः।
को वां ‘ात्रुया विधवेव देवरं मंर्य न योषा कृणुते सधस्य आ।।
(ऋग्वेद, 10-40-2)
‘‘उदीष्र्व नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुप ‘ोष एहि।
हस्तग्राभस्य दिधिशोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।।’’
(ऋग्वेद, 10-18-8)
उक्त दोनों मंत्रों से जहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती ने नियोग प्रथा का भावार्थ निकाला है वहीं ओमप्रकाश पाण्डेय ने इन्हीं मंत्रों का उल्लेख विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में किया है। अपनी पुस्तक ‘‘वैदिक साहित्य और संस्कृति का स्वरूप’’ में उन्होंने लिखा है कि वेदकालीन समाज में विधवा स्त्रियों को पुनर्विवाह की अनुमति प्राप्त थी। उक्त मंत्र (10-18-8) का भावार्थ उन्होंने निम्न प्रकार किया है -
‘‘हे नारी ! इस मृत पति को छोड़कर पुनः जीवितों के समूह में पदार्पण करो। तुमसे विवाह के लिए इच्छुक जो तुम्हारा दूसरा भावी पति है, उसे स्वीकार करो।’’
इसी मंत्र का भावार्थ वैद्यनाथ ‘शास्त्री द्वारा निम्न प्रकार किया गया है -
‘‘जब कोई स्त्री जो संतान आदि करने में समर्थ है, विधवा हो जाती है तब वह नियुक्त पति के साथ संतान उत्पत्ति के लिए नियोग कर सकती है।’’
उक्त मंत्रों में स्वामी दयानंद ने देवर ‘शब्द का अर्थ जहाँ ‘द्वितीय नियुक्त पति’ लिया है वहीं पाण्डेय जी ने देवर ‘शब्द का अर्थ ‘द्वितीय विवाहित पति’ लिया है। निरुक्त के संदर्भ में पाण्डेय जी ने लिखा है कि यास्क ने अपने निरूक्त में देवर ‘शब्द का निर्वचन ‘द्वितीय वर’ के रूप में ही किया है। उक्त मंत्रों के साथ पाण्डेय जी ने अथर्ववेद का भी एक मंत्र विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में प्रस्तुत किया है। जो निम्न है -
‘‘या पूर्वं पतिं वित्त्वाथान्यं विन्दते परम्।
पत्र्चैदनं च तावजं ददातो न वि योषतः।।
समानलोको भवति पुनर्भुवापरः पतिः।
योऽजं पत्र्चैदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति।।’’
(अथर्वसंहिता 9-5-27,28)
उक्त से स्पष्ट है कि वेद भाष्यों में इतना अधिक अर्थ भेद और मतभेद पाया जाता है कि सत्य और विश्वसनीय धारणाओं का निर्णय करना अत्यंत मुश्किल काम है? यहाँ यह भी विचारणीय है कि विवाह का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति करना ही नहीं होता बल्कि स्वच्छंद यौन संबंध को रोकना और भावों को संयमित करना भी है। यहाँ यह भी विचारणीय है कि जो विषय (नारी और सेक्स) एक बाल ब्रह्मचारी के लिए कतई निषिद्ध था, स्वामी जी ने उसे भी अपनी चर्चा और लेखनी का विषय बनाया है।
बेहद अफसोस और दुःख का विषय है कि जहाँ एक विद्वान और समाज सुधारक को पुनर्विवाह और विधवा विवाह का समर्थन करना चाहिए था, वहाँ कथित समाज सुधारक द्वारा नियोग प्रथा की वकालत की गई है और इसे वर्तमान काल के लिए भी उपयुक्त बताया है। क्या यह एक विद्वान की घटिया मनोवृत्ति का प्रतीक नहीं है ? आज की फिल्में जो कतई निम्न स्तर का प्रदर्शन करती हैं, उनमें भी कहीं इस प्रथा का प्रदर्शन और समर्थन देखने को नहीं मिलता। स्वामी दयानंद को छोड़कर नवजागरण के सभी विद्वानों और सुधारकों द्वारा विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया गया है।
जब किसी कौम या समाज के धार्मिक लोग जघन्य नैतिक बुराइयों और बिगाड़ में गर्क हो जाते हैं, तो वह कौम नैतिक पतन की पराकाष्ठा को पहुंच जाती है। नैतिक बुराइयों में निमग्न होने के बावजूद कथित धार्मिक लोग अपने बचाव और समाज में अपना स्तर और आदर-सम्मान बनाए रखने के लिए और साथ-साथ अपने को सही और सदाचारी साबित करने के लिए उपाय तलाशते हैं। अपने बचाव के लिए कथित मक्कार लोग अपनी धार्मिक पुस्तकों से छेड़छाड़ करते हैं और उनमें फेरबदल कर उस नैतिक बुराई को जो उनमें है, अपने देवताओं, अवतारों, ऋषियों, मुनियों और आदर्शों से जोड़ देते हैं और जनसाधारण को यह समझाकर अपने बचाव का रास्ता निकाल लेते हैं कि यह बुराई नहीं है बल्कि धर्मानुकूल है। ऐसा तो हमारे ऋषि-मुनियों और महापुरुषों ने भी किया है। नियोग के विषय में भी मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है। जब कौम में स्वच्छंद यौन संबंधों की अधिकता हो गई और जो बुराई थी, वह सामाजिक रस्म और रिवाज बन गई तो मक्कार लोगों ने उस बुराई को अच्छाई बनाकर अपने धार्मिक ग्रंथों में प्रक्षेपित कर दिया। प्राचीन काल में धार्मिक ग्रंथों में परिवर्तन करना आसान था, क्योंकि धार्मिक ग्रंथों पर चन्द लोगों का अधिकार होता था। नियोग एक गर्हित और गंदी परंपरा है, इसे किसी भी काल के लिए उचित नहीं कहा जा सकता।
भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति अत्यंत दयनीय प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋषि, मुनियों और महापुरुषों द्वारा कुछ ऐसे नियम-कानून बनाए गए, जिन्होंने नारी को भोग की वस्तु और नाश्ते की प्लेट बना दिया। नियोग प्रथा ने विधवा स्त्री को कतई वेश्या ही बना दिया। जैसा कि आप ऊपर पढ़ चुके हैं कि एक विधवा 10 पुरुषों से नियोग कर सकती है। यहाँ विधवा और वेश्या ‘शब्दों को एक अर्थ में ले लिया जाए तो ‘शायद अनुचित न होगा। विधवाओं की दुर्दशा को चित्रित करने वाली एक फिल्म ‘वाटर’ सन् 2000 में विवादों के कारण प्रतिबंधित कर दी गई थी, जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर विधवाओं को वेश्याओं के रूप में दिखाया गया था। प्रायः विधवा स्त्रियाँ काशी, वृन्दावन आदि तीर्थस्थानों में आकर मंदिरों में भजन-कीर्तन करके और भीख मांगकर अपनी गुजर बसर करती थी, क्योंकि समाज में उनको अशुभ और अनिष्ट सूचक समझा जाता था।

‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने भी इस दशा का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘‘वृंदावन जब था तब था अब तो वेश्यावनवत्, लल्ला-लल्ली और गुरु-चेली आदि की लीला फैल रही है। (11-159), आज भी काशी में लगभग 16000 विधवाएं रहती हैं।
‘मनुस्मृति’ में विवाह के आठ प्रकार बताए गए हैं। (3-21) इनमें आर्ष, आसुर और गान्धर्व विवाह को निकृष्ट बताया गया है मगर ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों और मर्मज्ञों ने इनका भरपूर फायदा उठाया। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, मुनि पराशर, कौरवों-पांडवों के पूर्वज ‘ाान्तनु, पाण्डु पुत्र अर्जुन और भीम आदि ने उक्त प्रकार के विवाहों की आड़ में नारी के साथ क्या किया ? इसका वर्णन भारतीय ग्रंथों में मिलता है।
भारतीय ग्रंथों में नारी को किस रूप में दर्शाया गया है आइए अति संक्षेप में इस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं।
1. ‘‘ढिठाई, अति ढिठाई और कटुवचन कहना, ये स्त्री के रूप हैं। जो जानकार हैं वह इन्हें ‘ाुद्ध करता है।’’ (ऋग्वेद, 10-85-36)
2. ‘‘सर्वगुण सम्पन्न नारी अधम पुरुष से हीन है।’’
(तैत्तिरीय संहिता, 6-5-8-2)
3. नारी जन्म से अपवित्र, पापी और मूर्ख है।’’ (रामचरितमानस)
उक्त तथ्यों के आधार पर भारतीय चिंतन में नारी की स्थिति और दशा का आकलन हम भली-भांति कर सकते हैं। भारतीय ग्रंथों में नारी की स्थिति दमन, दासता और भोग की वस्तु से अधिक दिखाई नहीं पड़ती। यहाँ यह भी विचारणीय है कि क्या आधुनिक भारतीय नारी चिंतकों की सोच अपने ग्रंथों से हटकर हो सकती है ? आइए भारतीय संस्कृति में नारी की दशा का आकलन करने के लिए छांदोग्य उपनिषद् के एक मुख्य प्रसंग पर भी दृष्टि डाल लेते हैं।
नाहमेतद्वेद तात यद्गोत्रस्त्वमसि, बह्वहं चरन्ती
परिचारिणी यौवने त्वामलमे साहमेतन्न वेद यद्
गोत्रत्वमसि, जाबाला तु नामाहमस्मि सत्यकामो नाम
त्वमसि स सत्यकाम एव जाबालो ब्रुवीथा इति।
(छांदोग्य उपनिषद् 4-4-2)
यह प्रसंग सत्यकाम का है। जिसकी माता का नाम जबाला था। सत्यकाम गौतम ऋषि के यहाँ विद्या सीखना चाहता था। जब वह घर से जाने लगा, तब उसने अपनी माँ से पूछा ‘‘माता मैं किस गोत्र का हूँ ?’’ उसकी माँ ने उससे कहा, ‘‘बेटा मैं नहीं जानती तू किस गोत्र का है। अपनी युवावस्था में, जब मैं अपने पिता के घर आए हुए बहुत से अतिथियों की सेवा में रहती थी, उस समय तू मेरे गर्भ में आया था। मैं नहीं जानती तेरा गोत्र क्या है ? मेरा नाम जबाला है, तू सत्यकाम है, अपने को सत्यकाम जबाला बताना।’’
क्या उपरोक्त उद्धरणों से तथ्यात्मक रूप से यह बात साबित नहीं होती कि भारतीय चिंतन में नारी को न केवल निम्न और भोग की वस्तु बल्कि नाश्ते की प्लेट समझा गया है ?

बुधवार, 25 जुलाई 2012

ब्राह्मण कौन ?


 यस्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।

वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

अर्थात - व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।



- योग सूत्र व भाष्य के रचनाकार पतंजलि के अनुसार

 विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मणकारकम्।
विद्यातपोभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव स:॥

अर्थात- ''विद्या, तप और ब्राह्मण-ब्राह्मणी से जन्म ये तीन बातें जिसमें पाई जायँ वही पक्का ब्राह्मण है, पर जो विद्या तथा तप से शून्य है वह जातिमात्र के लिए ब्राह्मण है, पूज्य नहीं हो सकता'' (पतंजलि भाष्य 51-115)।



-महर्षि मनु के अनुसार

विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।

तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥

अर्थात- शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं'' (मनु; 11-35)।



-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार

"जो जन्म से ब्राह्मण हे किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं हे उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो"

(सन्दर्भ ग्रन्थ - महाभारत)



-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार

"जो निष्कारण (कुछ भी मिले एसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त हे और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण हे."

(सन्दर्भ ग्रन्थ - शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०., पराशर स्मृति)



-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार

"शम, दम, करुणा, प्रेम, शील(चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण हे" और "चातुर्वर्ण्य माय सृष्टं गुण कर्म विभागशः" (भ.गी. ४-१३) इसमे गुण कर्म ही क्यों कहा भगवान ने जन्म क्यों नहीं?



-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार

"ब्राह्मण वही हे जो "पुंस्त्व" से युक्त हे. जो "मुमुक्षु" हे. जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन हे. जो सरल हे. जो नीतिवान हे, वेदों पर प्रेम रखता हे, जो तेजस्वी हे, ज्ञानी हे, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदोका अध्ययन और अध्यापन कार्य हे, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों  का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण हे"

(सन्दर्भ ग्रन्थ - शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह, आत्मा-अनात्मा विवेक)

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किन्तु जितना सत्य यह हे की केवल जन्म से  ब्राह्मण होना संभव नहीं हे. कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन शकता हे यह भी उतना ही सत्य हे.

इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हे जेसे.....



(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|

(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)

(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |

(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

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मित्रों, ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक हे के नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी हे उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी. वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढे.

"कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम" साकारित करे.

सर्वं खल्विदं ब्रह्मं. ओम.

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

श्री राम जी के वजूद के प्रमाण



आज हम कहते हैं की राम जी थे ...पर आत्मा में कहीं ये न सोच ले की नहीं थे .....विश्वास को पुष्ट रखना मेरे मित्रों
दुश्मन की  शक्तियां हमारी आस्था की सच्चाई को न डिगाने पाए
... हम करें राष्ट्र आराधन ....तन से,मन से,जीवन से ...."""
भगवान रामचन्द्र जी के १४ वर्षों के वनवास यात्रा का विवरण >>>>
पुराने उपलब्ध प्रमाणों और राम अवतार जी के शोध और अनुशंधानों के अनुसार कुल १९५ स्थानों पर राम और सीता जी के पुख्ता प्रमाण मिले हैं जिन्हें ५ भागों में वर्णित कर रहा हूँ

१.>>>वनवास का प्रथम चरण गंगा का अंचल >>>
सबसे पहले राम जी अयोध्या से चलकर तमसा नदी (गौराघाट,फैजाबाद,उत्तर प्रदेश) को पार किया जो अयोध्या से २० किमी की दूरी पर है |
आगे बढ़ते हुए राम जी ने गोमती नदी को पर किया और श्रिंगवेरपुर (वर्त्तमान सिंगरोर,जिला इलाहाबाद )पहुंचे ...आगे 2 किलोमीटर पर गंगा जी थीं और यहाँ से सुमंत को राम जी ने वापस कर दिया |
बस यही जगह केवट प्रसंग के लिए प्रसिद्ध है |
इसके बाद यमुना नदी को संगम के निकट पार कर के राम जी चित्रकूट में प्रवेश करते हैं|
वाल्मीकि आश्रम,मंडव्य आश्रम,भारत कूप आज भी इन प्रसंगों की गाथा का गान कर रहे हैं |
भारत मिलाप के बाद राम जी का चित्रकूट से प्रस्थान ,भारत चरण पादुका लेकर अयोध्या जी वापस |
अगला पड़ाव श्री अत्रि मुनि का आश्रम

२.बनवास का द्वितीय चरण दंडक वन(दंडकारन्य)>>>
घने जंगलों और बरसात वाले जीवन को जीते हुए राम जी सीता और लक्षमण सहित सरभंग और सुतीक्षण मुनि के आश्रमों में पहुचते हैं |
नर्मदा और महानदी के अंचल में उन्होंने अपना ज्यादा जीवन बिताया ,पन्ना ,रायपुर,बस्तर और जगदलपुर में
तमाम जंगलों ,झीलों पहाड़ों और नदियों को पारकर राम जी अगस्त्य मुनि के आश्रम नाशिक पहुँचते हैं |
जहाँ उन्हें अगस्त्य मुनि, अग्निशाला में बनाये हुए अपने अशत्र शस्त्र प्रदान करते हैं |

३.वनवास का तृतीय चरण गोदावरी अंचल >>>
अगस्त्य मुनि से मिलन के पश्चात राम जी पंचवटी (पांच वट वृक्षों से घिरा क्षेत्र ) जो आज भी नाशिक में गोदावरी के तट पर है यहाँ अपना निवास स्थान बनाये |यहीं आपने तड़का ,खर और दूषण का वध किया |
यही वो "जनस्थान" है जो वाल्मीकि रामायण में कहा गया है ...आज भी स्थित है नाशिक में
जहाँ मारीच का वध हुआ वह स्थान मृग व्यघेश्वर और बानेश्वर नाम से आज भी मौजूद है नाशिक में |
इसके बाद ही सीता हरण हुआ ....जटायु की मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पार हुई जो इगतपुरी तालुका नाशिक के ताकीद गाँव में मौजूद है |दूरी ५६ किमी नाशिक से |
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इस स्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया क्यों की यहीं पर मरणसन्न जटायु ने बताया था की सम्राट दशरथ की मृत्यु हो गई है ...और राम जी ने यहाँ जटायु का अंतिम संस्कार कर के पिता और जटायु का श्राद्ध तर्पण किया था |
यद्यपि भारत ने भी अयोध्या में किया था श्राद्ध ,मानस में प्रसंग है "भरत किन्ही दस्गात्र विधाना "
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४.वनवास का चतुर्थ चरण तुंगभद्रा और कावेरी के अंचल में >>>>
सीता की तलाश में राम लक्षमण जटायु मिलन और कबंध बाहुछेद कर के ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढे ....|
रास्ते में पंपा सरोवर के पास शबरी से मुलाकात हुई और नवधा भक्ति से शबरी को मुक्ति मिली |जो आज कल बेलगाँव का सुरेवन का इलाका है और आज भी ये बेर के कटीले वृक्षों के लिए ही प्रसिद्ध है |
चन्दन के जंगलों को पार कर राम जी ऋष्यमूक की ओर बढ़ते हुए हनुमान और सुग्रीव से मिले ,सीता के आभूषण प्राप्त हुए और बाली का वध हुआ ....ये स्थान आज भी कर्णाटक के बेल्लारी के हम्पी में स्थित है |

५.बनवास का पंचम चरण समुद्र का अंचल >>>>
कावेरी नदी के किनारे चलते ,चन्दन के वनों को पार करते कोड्डीकराई पहुचे पर पुनः पुल के निर्माण हेतु रामेश्वर आये जिसके हर प्रमाण छेदुकराई में उपलब्ध है |सागर तट के तीन दिनों तक अन्वेषण और शोध के बाद राम जी ने कोड्डीकराई और छेदुकराई को छोड़ सागर पर पुल निर्माण की सबसे उत्तम स्थिति रामेश्वरम की पाई ....और चौथे दिन इंजिनियर नल और नील ने पुल बंधन का कार्य प्रारम्भ किया |
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!! पंडित किसे कहते हैं !!


यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ॥
श्रीमद भगवदगीता – (४:१९ )
...
अर्थ: जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निद्वारा भस्म हो गए हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं ॥

भावार्थ : कर्मका शास्त्रसम्मत होना परम आवश्यक है; अन्यथा कर्मफलके सिद्धान्त अनुसार अच्छे कर्मका फल पुण्यके रूपमें एवं बुरे कर्मका फल पापके रूपमें भोगना पडता है | कर्मफल ज्ञानरूपी अग्निमें तब भस्म होता है, जब कर्म करनेवाला बिना कर्तापनके कर्म करता है, अर्थात अपने कर्मके कर्तापनका श्रेय वह परमेश्वर या गुरुको अर्पण कर देता है | ऐसे कर्मयोगीद्वारा किये कर्म ‘अकर्म-कर्म’ होते हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें अपने कर्मोंका फल भोगना नहीं पडता और यह ८०% एवं उसके आगेके आध्यात्मिक स्तरसे साध्य हो पाता है | इससे पहले साधक, जो कर्तापन अर्पण करनेका प्रयास करता है, वह मानसिक स्तरपर होता और उसे कर्मोंके फल भोगने पड़ते हैं | अतः साधकको सतर्कतासे कर्म करना चाहिए | प्रत्येक चूक पापकर्म एवं संचित दोनोंको बढाती है | जिन्हें अपने कर्मोका कर्मफल नहीं भोगना पडता, ऐसे सतपुरुषको ज्ञानीजन पंडित कहते हैं .........

शनिवार, 14 जुलाई 2012

इन्टरनेट पर सोनिया जी और मनमोहन जी का अपमान क्यों ?

मैं कई महीनो से देख रहा हु की सोसल नेट्वर्किंग साइटों में नेताओं की बिरादरी में सबसे ज्यादा अपमान सोनिया जी और मनमोहन जी की की जा रही है ....जब मैं ये सोचता हु की आखिर यह अपमान क्यों किया जा रहा है .? मन में प्रश्न उठता है की इस अपमान का कारण सिर्फ और सिर्फ इनके कार्यकाल में लिए गए निर्णय से इस देश के आम जनता कही ना कही बहुत दुखी हो रही है .एक तरफ तो 26 और 32 रुपये के आकडे है गरीबो के लिए तो दुसरे तरफ योजना आयोग के 32 लाख में ताईलेट है ....सायद वही पीड़ा यहाँ पर दिखाई देती है सोनिया जी और मनमोहन जी  पर लगातार उबाल खा रहा है.पहले महंगाई की मार आम लोग झेल ही रहे थे कि केन्द्र की कॉंग्रेस सरकार ने विदेशों में काला धन को वापस लाने के मुद्दे पर बाबा रामदेव के अनशन को पुलिस की लाठी के जोर खत्म करा दिया.लोकपाल पर अन्ना को धोखा तो दिया ही,अब धमकी दे रहे हैं कि यदि अन्ना ने फिर से अनशन किया तो उनका भी वही हाल होगा जो रामदेव का हुआ.इस बीच केन्द्र के कई घोटाले भी सामने आये.हद तो तब हो गयी जब गैस व डीजल के दामों में भी भारी बढोतरी कर दी गयी और मार पड़ी लोगों के घर के चूल्हे पर.डीजल के दामों में वृद्धि का असर पूरी महंगाई पर दिखने लगा है.........
         विभिन्न पार्टियों और आम लोगों के द्वारा देश भर में तो सरकार के विरोध में जम कर प्रदर्शन हो ही रहे हैं, पर अपने अंदाज से प्रदर्शन में भारत के इंटरनेट यूजर्स भी पीछे नही है.भारत की सबसे ..लोकप्रिय सोशल नेटवर्किंग साईट फेसबुक पर तो यूजर्स ने मर्यादा की सीमाओं का भी उल्लंघन करना शुरू कर दिया है.यहाँ सोनिया और मनमोहन को अत्यंत ही भौंडेपन से दिखाना शुरू हो गया है जिससे ऐसा लगता है कि लोगों के मन में इनके प्रति नफरत और घृणा हद से ज्यादा बढ़ गयी है.फेसबुक पर जारी एक ताजा तस्वीर में सोनिया को अजीब कपड़े में दिखाते हुए बाबा रामदेव और अन्ना को उनके पीछे दिखाया जा रहा है.वहीं जारी एक अन्य तस्वीर में सोनिया और मनमोहन को नाचते हुए दिखाया गया है और तस्वीर पर लिखा गया है, मुन्ना बदनाम................
हुआ मुन्नी तेरे लिए
.वहीं एक अन्य तस्वीर में दोनों नेताओं को आधुनिक कपड़ों में एक दूसरे के करीब दिखाया गया है.इसके अलावे बहुत सी ऐसी ही तस्वीरों को नेटयूजर्स जारी कर रहे हैं और अन्य यूजर्स इन तस्वीरों पर खुल कर टिप्पणीयाँ भी कर रहे हैं....
        अगर देखा जाय तो किसी व्यक्तिविशेष को भौंडे अंदाज में प्रदर्शित करना आपत्तिजनक है....,पर इंटरनेट पर उपयोगकर्ता की स्वछंदता को दायरे में लाना भी काफी कठिन होता है.....वो भी तब जब इस तरह का प्रदर्शन लाखों यूजर्स के द्वारा किये जा रहे हों.यहाँ एक बात और है कि इन्हें रोकने के प्रयास से विवाद और भी बढ़ने की गुंजायश बनती है.................
      जो भी हो, लोग केन्द्र सरकार के प्रति अपने गुस्से का प्रदर्शन अलग-अलग ढंग से तो कर ही रहे हैं, और ये भी बात तय लगती है कि सरकार में महंगाई, भ्रष्टाचार और दमनात्मक कार्यवाही पर अगर शीघ्र रोक नही लगाए जाते हैं, तो अगले 2014 के चुनाव में केन्द्र की कॉंग्रेस सरकार को मुंह की खानी पड़ सकती...............? और इन बातो को हमारी केंद्र सरकार कितना समाजः रही है इसका भी कोई आसार नहीं दिखाई दे रहा है ..अभी अभी कल के ही समाचार में सुन रहा था की अब डीजल के दाम बढाए जायेगे ....अब आप स्वेम निर्णय ले सकते है की डीजल के दाम पढ़ने से यह महगाई कम होगी या बढ़ेगी ? मेरे हिसाब और मेरे गणित से जो निष्कर्ष निकलता है उससे तो यही लगता है डीजल के दाम से भारत की महगाई का बहुत सीधा नाता है ....निश्चय ही यह महगाई और बढ़ेगी ......जनता और नाराज होगी और इसका फायदा विपक्ष ले सकता है ...पर विपक्ष .....को आपस में लड़ने से हे फुर्सत नहीं है तो फायदा कैसे उठाएगा ?  

अभी-अभी का ताजा समाचार है की गैस की सिलेंडर में सब्सिडी ख़त्म कर दिया ....डीजल में 5 रूपये प्रति लीटर बढ़ा दिया ..FDI पर बिना राय मशविरा किये देश पर थोप दिया ...अब अपमान नहीं होगा तो क्या सम्मान मिलेगा इन्हें ? 

शुक्रवार, 13 जुलाई 2012

!!यज्ञ क्यों करना चाहिए!!

यज्ञ भारतीय संस्कृति का प्रतीक है । हिन्दू धर्म में जितना महत्व यज्ञ को दिया गया है उतना ओर किसी को नहीं दिया गया । हमारा कोई भी शुभ अशुभ धर्म कार्य इसके बिना पूरा नहीं होता । जन्म से मृत्यु तक सभी संस्कारों में यज्ञ आवश्यक है । हमारे धर्म में वेदों का जो महत्व है वही महत्व यज्ञों को भी प्राप्त है क्योंकि वेदों का प्रधान विषय ही यज्ञ है । वेदों में यज्ञ के वर्णन पर जितने मंत्र हैं उतने अन्य किसी विषय पर नहीं । यदि यह कहा जाये कि यज्ञ वैदिक धर्म का प्राण है तो इसमें भी अत्युक्ति नहीं । वैदिक धर्म यज्ञ प्रधान धर्म है । यज्ञ को निकाल दें तो वैदिक धर्म निष्प्राण हो जायेगा । यज्ञ से ही समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई ।

भगवान स्वयं यज्ञ रूप हैं और तदुत्पन्न सम्पूर्ण सृष्टि भी यज्ञ रूप है तो यज्ञ के अतिरिक्त संसार में कुछ है ही नहीं । चारों वेद भी इस यज्ञ रूप भगवान से उत्पन्न हुए है, अतः यह भी यज्ञ रूप है और उनमें जो कुछ भी है वह भी यज्ञ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ऋगवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्रश्न पूछा है कि
मैं तुमसे पूछता हूँ कि सम्पूर्ण जगत को बांधने वाली वस्तु कौन है? इसका उत्तर दिया है कि यज्ञ ही इस विश्व ब्रह्माण्ड को बांधने वाला है । हमारे पूर्वज भली प्रकार जानते थे कि-

स्वास्थ्य सुख सम्पत्ति दाता, दुःख हारी यज्ञ है ।
भूलोक से ले सूर्य तक, शुभ परम पावन यज्ञ है॥
सर्व भूतों के सभी विध, दुख नसावन यज्ञ है ।


इसलिए प्राचीन काल में घर-घर में यज्ञ होते थे इस पुण्य भूमि में इतने यज्ञ होते रहे कि हमारा देश ही यज्ञिय देश कहलाया गया । पहले बड़े-बड़े राजा महाराजा भी यज्ञ के रहस्य को भली प्रकार समझते थे ओर बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन किया करते थे । महाराजा रघु ने दिग्विजय के उपरान्त विश्वजित नामक यज्ञ में समस्तम खजाना खाली कर दिया था । उनके पास धातु का एक पात्र तक नहीं बचा था । पाण्डवों ने भगवान ने कृष्ण की अनुमति से महाभारत के बाद राजसूय यज्ञ कराया था । भगवान राम ने अश्वमेधादि बहुत बड़े-बड़े यज्ञ कराये थे । दैत्यराज बलि ने इतना बड़ा यज्ञ कराया था कि यज्ञ की शक्ति से सम्पन्न होकर उसने इन्द्र को स्वर्गलोक से निकाल दिया था । जिस पर उदिति की तपस्या करने पर, इन्द्र को इन्द्रासन वापिस दिलाने के लिये विवश होकर भगवान को स्वयं वामन रूप में उपस्थित होना पड़ा इन्द्र ने यज्ञों के बल पर ही इन्द्रासन प्राप्त किया था ।


रावण यज्ञ की शक्ति से ही सब देवताओं को कैद करने में समर्थ हुआ था अर्थात उसे सूक्ष्म शक्तियाँ प्राप्त हुई । महाभारत के शांति
पर्व में अश्वजित के पुत्र का अश्वमेध, दुष्यन्त के पुत्र भरत के एक सहस्त्र अश्वमेध, भागीरथ के अनेक अश्वमेध, दिलीप के एक सौ अश्वमेध इत्यादि का वर्णन मिलता है कैकई पुत्र महाराजा अश्वपति ने ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा हे-महाश्रोत्रियो! मेरे राज्य में कोई चोर, कृपण, शराबी विद्यमान नहीं है । ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जो प्रतिदिन यज्ञ न करता हो । मेरे राष्ट्र में कोई भी व्यक्ति व्यभिचारी नहीं है!

तीर्थों की स्थापना का आधार यज्ञ ही थे । जहाँ प्रचुर मात्रा में बड़े-बड़े यज्ञ होते थे उसी स्थान को तीर्थ मान लिया जाता था । प्रयाग, काशी, रामेश्वरम् कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य आदि सभी क्षेत्रों में तीर्थों का उद्भव यज्ञों से ही हुआ है ।


हमारे वेद शास्त्रों का पन्ना-पन्ना यज्ञ की महिमा से भरा पड़ा है । देखिये
ऋग्वेद में विश्व शान्ति का सवर्श्रेष्ठ आधार यज्ञ ही हैं,(10/66/2).......यज्ञ को आगे करके कार्य आरम्भ करो, यज्ञ के साथ आरम्भ किये हुये कार्य सफल होते हैं (10/101/2)...... यज्ञ से परमात्मा प्रसन्न होते हैं ।
(1/14/4)........मुक्ति के अधिकारी याजेय देव हैं, सचमुच यज्ञ के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती (1/45/2).....यह यज्ञ देव (परमात्मा) तक ले जाने वाला है, यह पवित्र है ओर पवित्र करने वाला है ।
यजुर्वेद में यज्ञ की महत्ता पर इस प्रकार प्रकाश डाला गया हैं यज्ञ तप का स्वरूप है (4/2/26)....यज्ञ में दी हुई आहुतियां कल्याण कारक होती हैं, जिन्हें कल्याण की इच्छा हो वह यज्ञ में आहुतियां दें (2/30)...... जो यज्ञ को छोड़ता है, उसे यज्ञ रूप परमात्मा भी छोड़ देता है (2/23).....यज्ञ ही मुख्य धर्म है (31/6) .......

मन, वाणी, बुद्धि की उन्नति तब होगी जब यज्ञ एवं यज्ञपति की उपासना की जाये । (30/1).......यज्ञ से सब दिशायें अनुकूल बन जाती है (13/5).....यह अग्नि सहस्त्रों संख्यावाले , बल का स्वामी है । धनों का मुख्य दाता और क्रान्ति दर्शक है (15/21)....... अग्नि विश्व का प्रेरक है (15/33).......
अथर्ववेद का कथन है यज्ञ करने वाले को स्वर्ग सुख प्राप्त होता है, जिन्हें स्वर्गीय सुख प्राप्त करना अभीष्ट हो वे यज्ञ किया करें (18/4/2).......

यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है अथवा अपनी तेजस्विता स्थिर रखने के लिये यज्ञ किया कीजिये........जो इस अग्नि के चारों ओर बैठकर दिव्य उद्देश्य से है । (6/75)
ब्राह्मण ग्रंथों में देखिये यज्ञ का पुण्य फल कभी नष्ट नहीं होता, बुद्विमानी पूर्वक यज्ञ का अक्ष्य पुहवि चढ़ाते हैं, उनके हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है (तै० व्र०114/9) यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है । ..... यह अग्नि होम निश्चय ही स्वर्ग सुख प्राप्त कराने वाली विशेष नौका है । ..... यज्ञ ही विष्णु है, यज्ञ ही प्रजापति है, यह ही सूर्य है । (शतपथ) गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है मैं ही यज्ञ हूँ और कई स्थलों पर उपदेश देते हुये बताया यज्ञ न करने वाले को यह लोक ओर परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता....... यज्ञ के निमित्त किये गये कर्मो के सिवाय दूसरे कर्मों के करने से यह मनुष्य कर्म बन्धन में बंधता है....... यज्ञ से बचे हुये अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से छूटते हैं । ...... हवन क्रिया ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, बह्म रूप अग्नि में हवन किया जाता है और ब्रह्म ही हवन कर्ता है । इस प्रकार जिस की बुद्धि में सभी कर्म ब्रह्म हो जाते हैं, वह ब्रह्म को ही प्राप्त होता है...... यज्ञ करने योग्य कर्म है ।

मनुजी ने लिखा है
महायज्ञ और यज्ञ करने से ही यह शरीर ब्रह्नमी या ब्राह्मण बनता है । पुराणों में इस प्रकार उल्लेख है । अग्नि होम (यज्ञ) से बढ़कर और कोई धर्म नहीं, यज्ञ करने वाला ही सच्चा धर्मात्मा है । (कर्म पुराण) यज्ञ ही कल्याण का हेतु है । पृथ्वी यज्ञ से धारण की हुई है । यज्ञ ही प्रजा को तारता है । (करलिका पुराण) यज्ञ से देवता तथा पितृ जीते हैं(विष्णु धमोर्त्तर पुराण)
कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला पुरुष ऋग्, यजु० साम-तीनों वेदों के साथ सम्बन्ध जोड़कर यज्ञ दान, तप-रूप तीनों कर्मों को करता रहने वाला मनुष्य जन्म मृत्यु से तर जाता है । अग्नि स्वर्ग को प्राप्त करने का, अनन्त जीवन का और सम्पूर्ण संसार के स्थिर होने के कारण है । (क्योंकि सूर्य की आकर्षण शक्ति से जगत स्थिर है) ।

प्रश्नोपनिषद् में यज्ञ को देवताओं, पितरों और ऋषियों का जीवन-प्राण बताया गया है ।
मुण्डकोपनिषद् का कथन है अग्नि होत्री को यह आहुतियां सूर्य की किरणें बनकर उस स्वर्ग लोक में पहुँचा देती हैं, जहां देवताओं का एकमात्र पति निवास करता है (द्वितीय खण्ड श्लोक 5) छांदोग्योपनिषद् में उदकोशल नामक एक ब्रह्मचारी को, जो सत्यकाम जावाल के यहां ब्रह्म विद्या सीखने गया था, अग्नियों द्वारा ब्रह्म विद्या का उपदेश मिलने का वर्णन मिलता है, क्योंकि उसने बारह वर्षों तक अग्नियों की सेवा की थी ।
रामायण में भी यज्ञ की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है ।

भगवान राम का जन्म यज्ञ द्वारा हुआ अथवा वह अपने
अवतार का श्रेय यज्ञ को ही देते हैँ । सीताजी का विवाह एक विशाल यज्ञ द्वारा सम्पन्न हुआ । महर्षि विश्वामित्र जी ने एक महायज्ञ किया था, जिसमें राक्षसों से रक्षार्थ राम और लक्ष्मण को मांग कर ले गये थे, चुंकि यज्ञ में दैवीतत्व बलवान होता हैं और असुरता का नाश होता है, इसलिये रावण ने राक्षसों को आदेश दिया था कि जहां जहां भी यज्ञ होते दिखाई दें उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करो रावण को जब अपनी हार दिखती है तो वह यज्ञ का ही सहारा लेता है और अपने पुत्र मेघनाथ को एक बड़ा तांत्रिक यज्ञ करके अजेय शक्ति को प्राप्त करने का आदेश देता है । यदि मेघनाथ इस यज्ञ को पूर्ण कर लेता तो उसने अजेय हो निष्फल कर दिया था ।

भगवान राम ने बनवास से वापिस लौटने पर प्रजा के लिये, समस्त संसार के लिये, समस्त प्राणी-मात्र के लिये बड़े से बड़े यज्ञों के आयोजन किये थे । यज्ञ को महत्वपूर्ण धर्मकार्य समझ कर उन्होंने प्रतिर्वष अश्वमेध दश सहस्त्र वर्ष तक किए और सहस्त्र वर्ष के पीछे वाजपेय यज्ञ किया ।

भागवत में भी यज्ञ की महिमा अकथनीय है । ऋषि राजा वेन को समझाते हैं हे राजन्! स्वर्ग लोक और देवता यज्ञ में निवास करते हैं, उन वेदत्रयीमय, दिव्यमय एवं मपोमय ईश्वर को विप्रगण आपके कल्याण तथा प्रजा की समृद्धि के लिए नाना विधि विधानों से, चित्र, विचित्र यज्ञों द्वारा यजन करते हैं

राजा पृथु ने ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसके फलस्वरूप उनके राज्य में किसी तरह का अभाव न था । क्षीर, दधि, गोरस तथा अनय रसों की उनके राज्य में सरितायें बह चलीं । विशालकाय तरुवरो में मधु श्रावि असंख्य फल देते ही रहते । सिन्धुओं ने अपार धन राशि प्रदान की । राजा पृथु के सौ अश्वमेध समाप्त होने पर इन्द्र को इन्द्रसन छिन जाने की आशंका हुई और उसने दो बार घोड़ा चुराया । पहली बार उसका पुत्र घोड़ा छुड़ा लाया परन्तु दूसरी बार पृथु को क्रोध आ गया । जिस पर उसने धनुष पर भयंकर बाण चढ़ा कर इन्द्र का नाश करने की ठानी । ऋषियों ने पृथु को रोक कर कहा कि इससे तो इन्द्र सहित सारे देवलोक का ही नाश हो जायेगा अतः उस अनर्थकारी, ईर्ष्यालु और अभिमानी इन्द्र को यज्ञ के सार पूर्ण मंत्रों द्वारा आवाहन करके इस यज्ञ अग्नि में होम कर देंगे । राजा पृथु के यज्ञों से इतनी शक्ति उत्पन्न हो गई थी कि उसके एक बाण से ही सारा देवलोक नाश हो सकता था । ऋषियों को वेद मंत्रों तथा यज्ञ की शक्ति पर इतना दृढ़ विश्वास था कि उनके लिये इन्द्र का आवाहन करना कुछ असम्भव नहीं था और वस्तुतः हुआ भी ऐसा ही ।

भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत, जिसके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष हुआ, ने यज्ञों द्वारा ही इस देश की तपोभूमि विश्वब्रह्मांड का सवर्श्रेष्ठ भाग बना दिया था । उन्होंने सौ-सौ बार अश्वमेध यज्ञ किये थे । इसलिये उस समय किसी पुरुष की दूसरे पुरुष से अपने लिये स्वप्न में भी कुछ भी प्रार्थना करने की इच्छा नहीं होती थी और कोई दूसरे की वस्तु पर लोभ दृष्टि नहीं करता था । सभी में सदा स्नेह और शील का उद्रेक होता था राजर्षि और प्रसिद्ध भक्त अम्बरीष अनेक अश्वमेधाधि महायज्ञों द्वारा यज्ञपति भगवान की आराधना किया करते थे । यज्ञाराधन में तल्लीन रहने के कारण उनके पलक भी नहीं गिरते थे । यज्ञ द्वारा उत्पादित पवित्रता के प्रवाह से अम्बरीष की प्रजा में भी स्वर्ग सुख भोग की वासना नहीं रह गई थी । सभी केवल निष्काम भाव से यज्ञ द्वारा यज्ञेश्वर भगवान की अर्चना, पूजा, भक्ति और गान एवं ध्यान में प्रवृत्त रहते थे ।


राजा बलि ने विश्व विजय यज्ञ किया था । उस अग्नि में से स्वर्ण के पट से बंधा एक रथ, इन्द्र के घोड़ों के समान हरित वर्ण के घोड़े, स्वर्ण बन्दों से बंधा हुआ विव्य धनुष, अक्षय बाणी से पूर्ण दो तुण ओर दिव्य कवच, ये वस्तुयें निकली । यज्ञ से शक्ति प्राप्त करके उस रथ पर बैठ कर दिव्य अस्त्र शस्त्रादि एवं सैन्य लेकर बलि ने इन्द्रलोक पर आक्रमण कर दिया । सभी देवगण घबड़ा उठे और बृहस्पति के पास गये । उन्होंने कहा
बिना लड़ाई किये हट जाने में ही भलाई है क्योंकि बलि देवों से अधिक शक्तिशाली है । यज्ञ से उत्पन्न हुई शक्ति का इससे अधिक और क्या प्रमाण मिल सकता है ।
परीक्षित के सर्प से काटे जाने पर क्रोधित होकर राजा जनमेजय ने सर्प यज्ञ किया था, जिसमें विश्व के कोने-कोने से सर्प आ आकर यज्ञाग्नि में भस्म हो रहे थे ।

यज्ञ में महान् शक्ति का यह कितना ज्वलन्त प्रमाण है । एक बार शौनक आदि 88000 ऋषियों ने स्वर्ग प्राप्ति के हेतु नैमिषारण्य के पवित्र क्षेत्र में दस हजार वर्ष तक लगातार एक दीर्घ महायज्ञ करने का संकल्प किया । इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था जिसके कारण उसे ब्रह्महत्या लगी । उसी के निवारणार्थ इन्द्र ने अश्वमेध यज्ञ किया था । युधिष्ठिर संध्या आदि के पश्चात् नित्य अग्नि होत्र करते थे ।


भगवान कृष्ण की दिनचर्या का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि वह प्रतिदिन विधिपूवर्क संध्या उपासना, गायत्री जाप आदि कर्म करने के उपरांत अग्निहोत्र करते थे । भगवान कृष्ण भक्तराज उद्धव को वर्णाश्रम धर्म का निरूपण करते हुये बतलाते हैं कि
गृहस्थ आश्रम में यज्ञ करना,पढ़ना और दान देना यह धर्म तो द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के लिये विहित हैं ।) और आगे चलकर क्रिया योग का वर्णन करते हुये अग्निहोत्र को नित्यप्रति करने का आवश्यक धर्म कृत्य बतलाते हैं । सूर्यग्रहण के अवसर पर कुरुक्षेत्र में आये हुये वसुदेव जी ऋषियों से यह पूछते हैं कि जिन कर्मों का परिहार किया जा सकता है वह आप हमें सुनाइये । उन मुनीश्वरों ने वसुदेव जी को इस प्रकार उत्तर दिया कर्म द्वारा कर्म-निरास करने का उपाय सबसे अच्छा यही बताया गया है कि यज्ञ आदि द्वारा सवर्यज्ञपति भगवान का पूजन करे । विद्वानों ने शास्त्र दृष्टि से यही चित्त की शान्ति का उपाय, सुगम मोक्ष साधन और चित्त को प्रसन्न करने वाला धर्म बतलाया है । अपने न्यायार्जित धन से श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान का यजन करना यही सद् गृहस्थ के लिये कल्याणकारी मार्ग है ।

राजा परीक्षित ने कलियुग को सम्बोधित करते हुए कहा
हे अधर्म के मित्र! धर्म और सत्य के रहने योग्य स्थान इस ब्रह्मवर्त देश में तू न रहना, क्योंकि यहाँ यज्ञ विधि के जानने वाले महात्मागण यज्ञों द्वारा पूजित होकर याजकों का कल्याण करते हैं । याजकों की महत्ता प्रगट करते हुये महामुनि शमीक अपने पुत्र से, जिसने परीक्षित को शमीक के गले में सर्प उडेलने के अपराध में शाप दिया था, कहा था कि परिक्षित अश्वमेधों द्वारा यजन करने वाले परम भागवत भक्त हैं ।

नारद पुराण में आया है कि महाराजा बाहू ने सातोंद्वीपों में सात अश्वमेध यज्ञ किये थे । उन्होंने चोर डाकुओं को यथेष्ट दण्ड देकर शासन में रखा और दूसरों सन्ताप दूर करके अपने को कृतार्थ माना । उसके राज्य काल में यज्ञों की महिमा से पृथ्वी पर बिना जोते-बोये अन्न पैदा होता था और वह फल-फूलों से भरी रहती थी । देवराज इन्द्र उनके राज्य की भूमि पर समयानुसार वर्षा करते थे और पापाचारियों का अन्त हो जाने के कारण वहाँ की प्रजा धर्म से सुरक्षित थी ।भविष्य पुराण में च्यवन
ऋषि का अश्विनी कुमारों का यज्ञ करके देवलोक में सुरदुर्लभ् ऐश्वर्य प्राप्त करने का वर्णन मिलता है । स्कन्दपूराण में आया कि इन्दद्युम्न ने सहस्त्रों यज्ञ किये और वह इन यज्ञों के साथ-साथ परम पुनीत दिव्यता को प्राप्त करता गया ।

महाभारत में जाजलि और तुलाधार के संवाद में तुलाधार जाजलि से कहना है
हे महामुने! जो बुद्धिमान विप्रश्रेष्ठ सदा यज्ञ करते हैं, वे यज्ञ करने से ही देवलोक को प्राप्त होते हैं । भीष्म पितामह या को आवश्यक कर्तव्य बतलाते हैं और चेतावनी देते हैं कि जो यज्ञ नहीं करते वे उस लोक अर्थात परलोक को नहीं प्राप्त करते । कोई भी व्यक्ति चाहे वह चोर हो, पापी हो, पाप करने वालों में भी सबसे नीच हो, यदि वह यज्ञ करना चाहता है तो वह सज्जन ही है । यज्ञों से संतुष्ट हुये देवता संसार का कल्याण करते हैं । यज्ञ द्वारा लोक परलोक का सुख प्राप्त होता है । यज्ञ से स्वर्ण की प्राप्ति होती है । यज्ञ के समान कोई दान नहीं, यज्ञ के समान कोई विधि-विधान नहीं । यज्ञ में ही सब धर्मों का उद्देश्य समाया हुआ है । असुर और सुर सभी पुण्य के मूल हेतु यज्ञ के लिए प्रयत्न करते हैं । सत्पुरुषों को सदा यज्ञ परायण होना चाहिए । यज्ञों से ही बहुत से सत्पुरुष देवता बने हैं । पापियों की शुद्धि यज्ञादि से हो जाती है ।-महाभारत

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मंगलवार, 10 जुलाई 2012

!!यज्ञ क्यों ?

इस समग्र सृष्टि के क्रियाकलाप ' यज्ञ' रूपी धुरी के चारों ओर ही चल रहें हैं । ऋषियों ने ''अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः'' (अथर्ववेद ९. १५. १४) कहकर यज्ञ को भुवन की-इस जगती की सृष्टि का आधार बिन्दु कहा है । स्वयं गीताकार योगिराज श्रीकृष्ण ने कहा है-
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्िवष्ट कामधुक्॥

अर्थात-''प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ कर्म के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो ।'' यज्ञ भारतीय संस्कृति के मनीषी ऋषिगणों द्वारा सारी बसुन्धरा को दी गयी ऐसी महत्वपूर्ण देन है, जिसे सर्वाधक फलदायी एवं पर्यावरण केन्द्र इको सिस्टम के ठीक बने रहने का आधार माना जा सकता है ।

गायत्री यज्ञों की लुप्त होती चली जा रही परम्परा और उसके स्थान पर पौराणिक आधार पर चले आ रहे वैदिकी के मूल स्वर को पृष्ठभूमि में रखकर मात्र माहत्म्य परक यज्ञों की श्रृखला को पूज्यवर ने तोड़ा तथ्ाा गायत्री महामंत्र की शक्ति के माध्यम से संम्पन्न् यज्ञ के मूल मर्म को जन-जन के मन में उतारा । यह इस युग की क्रान्ति है । इसे गुरु गोरक्षनाथ द्वारा तंत्र साधना का दुरुपयोग करने वालों-यज्ञों को मखों-तांत्रिक यज्ञों के स्तर पर ही प्रयोग करने वालों के विरुद्ध की गयी क्रांति के स्तर से भी अत्यधिक ऊँचे स्तर की क्रांति माना जा सकता है कि आज घर-घर गायत्री यज्ञ संपन्न हो रहे हैं व सतयुग की वापसी का वातावरण स्वतः बनता चला जा रहा है ।


यज्ञ शब्द के अर्थ को समझाते हुए परमपूज्य गुरुदेव समग्र जीवन को यज्ञमय बना लेने को ही वास्तविक यज्ञ कहते हैं ।
''यज्ञार्थ्ाात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः'' के गीता वाक्य के अनुसार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन जीकर किये गये कर्मो वाला जीवन ही श्रेष्ठतम जीवन है । इसके अलावा किये गयेे सभी कर्म बंधन का कारण बनते हैं व जीवात्मा की परमात्म सत्ता से एकाकार होने की प्रक्रिया में बाधक सिद्ध होते हैं । यज्ञ शब्द मात्र 'स्वाहा'-मंत्रों के माध्यम से आहुति दिये जाने के परिप्रक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए, यह स्पष्ट करते हुए उनने इसमें लिखा है कि यज्ञीय जीवन से हमारा आश्शाय है-परिष्कृत देवोपम व्यक्तित्व । वास्तविक देव पूजन यही है कि व्यक्ति अपने अंतः में निहित देव शक्तियों को यथोचित सम्मान देते हुए उन्हें निरन्तर बढ़ाता चले । महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः की मनुस्मृति की उक्ति के अनुसार सर्वश्रेष्ठ यज्ञ वह है, जिससे व्यक्ति ब्रह्ममय-ब्राह्मणत्व भरा देवोपम जीवन जीते हुए स्वयं-को अपने शरीर, मन, अन्तःकरण को परिष्कृत करता हुआ चला जाता है ।

यज्ञ परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है । अन्तर्जगत में दिव्यता का समावेश कर प्राण की अपान में अपना की प्राण में आहुति देकर जीवन रूपी समाधि को समाज रूपी यज्ञ में होम करना ही वास्तविक यज्ञ है । भावनाओं में यदि सत्प्रवृत्ति का समावेश होता चला जाय तो यही वास्तविक यज्ञ है । युग
ऋषि ने यज्ञ की ऐसी विलक्षण परिभाषा कर वैदिक वाङ्मय के मूलभूत स्वर को ही गुंजामान किया है । यज् धातु से बना यज्ञ देवपूजन, परमार्थ के बाद तीसरे अंतिम अर्थ 'संगतिकरण' सज्जनों के संगठन, राष्ट्र को समर्थ सशक्त बनाने वाली सत्ताओं के एकीकरण के अर्थ परिभाषित करता है ।

चौबीस अवतारों में एक
अवतार यज्ञ भगवान भी है । यज्ञ हमारी संस्कृति का आराध्य इष्ट रहा है तथा यज्ञ के बिना हमारे किसी दैनन्दिन् क्रिया कलाप की कल्पना तक नहीं की जा सकती । यज्ञ का विज्ञान पक्ष समझाते हुए पूज्यवर ने बताया है कि सारी सृष्टि की सुव्यवस्था बनाये रखने के लिए यज्ञ कितनी महत्वपूर्ण है । देव तत्वों की तुष्टि से अर्थ है- सृष्टि संतुलन बनाये रखने वाली शक्तियों का पारस्परिक संतुलन । यज्ञ एक प्रकार की टैक्स है- कर है -देव सत्ताओं के प्रति इसे न देने पर जैसे राज्य-प्रशासन, जन समुदाय को दण्डित करता है, उसी प्रकार विभीषिकाएँ भिन्न-भिन्न रूपों में आकर सारी जगती पर अपना प्रकोप मचा देती है । दैवी प्रकोपों से बचने का वैज्ञानिक आधार है-यज्ञ ।
अपने इस प्रतिनपादन की पुष्टि में परमपूज्य गुरुदेव ने यज्ञ की महिमा का वेदों में, उपनिषदों में, गीता में, रामायण में, श्रीमद्भागवत में, महाभारत में, पुराणों में, गुरु ग्रन्थ साहब आदि में कहाँ-कहाँ किस प्रकार वर्णन किया गया है-यह प्रमाण सहित विस्तार से इस खण्ड में दिया है । यज्ञ मात्र समस्त कामनाओं की पूर्ति का ही मार्ग नहीं है । ''यज्ञोऽयं सर्वकामधुक्'' अपितु जीवन जीने की एक श्रेष्ठतम विज्ञानसम्मत पद्धति है, यह जानने-समझने के बाद किसी भी प्रकार का संशय किसी के मन में भारतीय संस्कृति की अनादि काल से मेरुदण्ड रही इस व्यवस्था के प्रति नहीं रह जाता ।

!! ज्योतिष और रुद्राक्ष !!

रूद्राक्ष का शब्दिक अर्थ है रुद्राक्ष रूद्राक्ष रूद्र माने भगवान शिव तथा अक्ष का अर्थ होता है आशु यानि भगवान शिव के आसुओं से रूद्राक्ष की उत्पत्ति हुयी है। रूद्राक्ष की महत्ता और उपयोग हिन्दू धर्म की परम्परा से जुड़ा है। धर्म, तन्त्र, योग एवं चिकित्सा की नजर में रूद्राक्ष काफी प्रासगिंक और प्रशसंनीय है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में रूद्राक्ष को महाऔषधि के रूप में वर्णित किया गया है।
रूद्राक्ष की जड़ से लेकर फल तक सभी का अलग-अलग तरीके से प्रयोग करके विभिन्न प्रकार के रोगों को दूर किया जा सकता है। स्कन्द पुराण और लिंग पुराण के अनुसार रूद्राक्ष आत्म शक्ति एवं कार्य क्षमता में वृद्धि करने वाला एंव कार्य व व्यवसाय में प्रगति करवाता हैं। जिस प्रकार सें भगवान शिव कल्याणकारी है, उसी प्रकार से रूद्राक्ष भी अनेक प्रकार की संमस्याओं का निष्पादन करने में सक्षम हैं।
रूद्राक्ष की भारतीय ज्योतिष में भी काफी उपयोगिता है। ग्रहों के दुष्प्रभाव को नष्ट करने में रूद्राक्ष का प्रयोग किया जाता है, जो अपने आप में एक अचूक उपाय है। गम्भीर रोगों में यदि जन्मपत्री के अनुसार रूद्राक्ष का उपयोग किया जाये तो आश्चर्यचकित परिणाम देखने को मिलते है। रूद्राक्ष की शक्ति व सामथ्र्य उसके धारीदार मुखों पर निर्भर होती है। एक मुखी से लेकर एक्कीस मुखी तक जो रूद्राक्ष देखें गये है, उनकी अलौकिक शक्ति और क्षमता अलग-अलग रूप में प्रदर्शित होती है। इसकी क्षमता और शक्ति उत्पत्ति स्थान से भी प्रभावित होती हैं।
जावा ,बाला और मलयद्वीप में उत्पन्न रूद्राक्ष तथा भारत और नेपाल में उत्पन्न रूद्राक्षों से कहीं अधिक सामर्थयवान एवं ऊर्जाशील होते है। हिमालय तथा तराई-क्षेत्र में उत्पन्न रूद्राक्ष, दक्षिण भारत में उत्पन्न रूद्राक्षों की अपेक्षा अधिक प्रभावशली होते है। नेपाल में उत्पन्न गोल और कांटेदार एक-मुखी रूद्राक्ष बेहद ऊर्जावान एवं शक्तिशाली होता है। एक मुखी, दस मुखी तथा चैदहमुखी रूद्राक्ष मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। पन्द्रह से इक्कीस मुखी तक रूद्रास बाजार में उपलब्ध नहीं है। जहाँ -कहीं पर भी उपलब्ध है। वे पूजनघर में स्थान पाये हुये हैं
उपयोगः-
रूद्राक्ष का उपयोग तीन प्रकार से किया जाता है।
1-पूजन में । 2-शरीर में धारण करने में, 3-औषिध के रूप में ।
एकमुखी रूद्राक्ष को शिवरूप मानकर विधिवत पूजन करने का विधान है। दो मुखी से चैदहमुखी तक के रूद्राक्ष को शरीर में धारण करना चाहिए। रूद्राक्ष को बाजू में, शिखा में, हाथों में व माला रूप में तथा औषधी आदि के रूप में रूद्राक्षा का उपयोग किया जाता है। रूद्राक्ष को भस्म बनाकर घिसकर तथा रूद्राक्ष को गंगाजल से शुद्ध करके खाया-पिया और चाटा जाता हैं। रूद्राक्ष का सर्वोत्कृष्ट और गोपनीय उपयोग तन्त्र साधना में भी किया जाता है| रुद्राक्ष तन्त्र साधना में कुण्डली जाग्रत कराने का मुख्य साधन है।
पहचानः-वर्तमान में कौन सी वस्तु असली और कौन नकली यह समझ पाना टेढी खीर हैं । जब लोग अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए खाद्य पदार्थो में मिलावट कर देते हैं, जो स्वास्थ्य और जीवन दोनों कें लिए घातक है, तो भला कैसी उम्मीद की जाये कि अन्य वस्तुयें बाजार में असली ही मिलेगी। रूद्राक्ष का किसी भी प्रकार में उपयोग करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि जिसे हम उपयोग में ला रहे है,वह असली है या नकली ,अन्यथा लाभ करने के बजाय हानि ही करेगा।
1-रूद्राक्ष को जल में डालने से यह डूब जाये तो असली अन्यथा नकली। किन्तु अब यह पहचान व्यापारियों के शिल्प ने समाप्त कर दी। शीशम की लकड़ी के बने रूद्राक्ष आसानी से पानी में डूब जाते हैं।
2-तांबे का एक टुकड़ा नीचे रखकर उसके ऊपर रूद्राक्ष रखकर फिर दूसरा तांबेका टुकड़ा रूद्राक्ष के ऊपर रख दिया जाये और एक अॅगुली से हल्के से दबाया जाये तो असली रूद्राक्ष नाचने लगता है। यह पहचान अभी तक प्रमाणिक हैं।
3- शुद्ध सरसों के तेल में रूद्राक्ष को डालकर 10 मिनट तक गर्म किया जाये तो असली रूद्र्राक्ष होने पर वह अधिक चमकदार हो जायेगा और यदि नकली है तो वह धूमिल हो जायेगा।

                                           !! दो मुखी रूद्राक्ष !!
दो मुखी रूद्राख गौ हत्या से लगने वाले पाप से मुक्ति दिलाने वाला होता है। यह रूद्राक्ष अपने-आप में आलौकिक शक्ति धारण किये रहता है। द्विमुखी रूद्राक्ष को शरीर के किसी भी अंग में धारण से मानसिक शन्ति एंव पारिवार में आपसी प्रेम व सौहार्द्ध बना रहता है। यदि कार्य व व्यापार में निरन्तर हानि हो रही है, तो दो मुखी रूद्राक्ष धारण करने से लाभ मिलता है।
मन, बुद्धि, विवेक पर इस रूद्राक्ष का विशेष प्रभाव रहता है। जिन जाताकों के वैवाहिक जीवन में आपसी अनबन की स्थिति बनी रहती है तो वह लोग पति व पत्नी दोनों को दो मुखी रूद्राक्ष भिमन्त्रित करके गले में धारण करने से शीघ्र ही मतभेद दूर होकर उनमें एकता व परस्पर प्रेम की भावना बलवती होने लगती है। जिन युवक-युवितियों के विवाह में बिलम्ब या बाधा आ रही है, उन्हे यह रूद्राक्ष धराण करने से शुभ परिणाम मिलते है।
दोमुखी रूद्राक्ष धारण करने से चन्द्र ग्रह से सम्बन्धित दोष भी दूर हो जाते है।
धारण विधि- किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन ताम्रपाद में बेल पत्र रखकर, उसके उपर द्विमुखी रूद्राक्ष रखकर कुश या बेल पत्र से शुद्ध जल से, 11 बार निम्न मन्त्र से-
'ॐ नमस्ते देवदेवाय महादेव मौलिने।

जगद्धात्रे सवित्रे च शंकराय शिवाय च''।। जल छिड़कर तत्पश्चात दूध छिड़के। फिर गंगा जल से परिमार्जित कर रूद्राक्ष को ताम्रपाद में रख दें। तीसरे दिन पूर्णमासी को उसी भांति सामने रखकर गंगाजल से स्नान करायें। उसके पश्चात हवन कुण्ड में अष्ठांग हवन सामग्री से 108 बार '' नमः शिवाय'' से स्वाहा करते हुये हवन करना चाहिए। हवन के बाद रूद्राक्ष का श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करें। प्रार्थना के बाद रूद्राक्ष को माथे से स्पर्श से कराकर धारण करना चाहिए। उपरोक्त विधि से शुद्ध करके रूद्राक्ष को धारण करने पर आशा के अनुरूप लाभ प्राप्त होगा।

सोमवार, 9 जुलाई 2012

!! भारतीय संस्कृत पर कुठाराघात !!

दो और दस रुपये के सिक्के पर जो क्रूसेडर क्रॉस
खुदा हुआ है वह असल में फ़्रांस केशासक लुई द पायस
(सन् 778 से सन् 840) द्वारा जारी किये गये
सोने के सिक्के में भीहै। लुई का शासनकाल फ़्रांस में
सन् 814 से 840 तक रहा, और उसी ने इस
क्रूसेडर क्रॉसवाले सिक्के को जारी किया था।
(लुई द पायस के सिक्के का चित्र देखें) अब चित्र
मेंविभिन्न प्रकार के “क्रॉस” देखिये जिसमें सबसे
अन्तिम आठवें नम्बर वाला क्रूसेडरक्रॉस है जिसे
दस रुपये के नये सिक्के पर जारी किया है, जिसे
सन् 2006 में ही ढालागया है, लेकिन
जारी अभी किया।
जैसा कि चित्र में दिखाया गया है इस क्रूसेडर
क्रॉस में चारों तरफ़ आड़ी और खड़ीलाइनों के बीच
में चार बिन्दु हैं। RBI अधिकारियों का एक
हास्यापद तर्क है कि यह चिन्ह असल में देश
की चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करता है,
जिसमें चारों बिन्दु एकता को प्रदर्शित करते हैं,
तथा“अंगूठे” और “विक्ट्री साइन” का उपयोग
नेत्रहीनोंकी सुविधा के लिये किया गया है…
अर्थात सूर्य, कमल, गेहूँ की बालियाँ, अशोक
चक्र, सिंह आदि देश की एकता और
संस्कृति को नहीं दर्शाते? तथा इसके पहले
जो भी सिक्के थे उन्हें नेत्रहीन नहीं पहचान पाते
थे? किसे मूर्ख बना रहे हैं ये?
माइनो सरकार जबसे सत्ता में आई है, भारतीय
संस्कृति के प्रतीक चिन्हों पर एक के बाद आघात
करती जा रही है। सिक्कों से भारत माता, भारत
के नक्शे और अन्य राष्ट्रीय महत्व के चिन्ह गायब
करके “क्रॉस”, “अंगूठा” और “विक्ट्री साइन”
के मूर्खतापूर्ण प्रयोग किये गये हैं, केन्द्रीय
विद्यालय के प्रतीक चिन्ह “उगते सूर्य के साथ
कमल पर रखी पुस्तक” को भी बदल दिया गया है,
सरकारी कागज़ों, दस्तावेजों और वेबसाईटों से
धीरे-धीरे “सत्यमेव जयते” हटाया जा रहा है,
दूरदर्शन के “स्लोगन” “सत्यं शिवम् सुन्दरम्” में
भी बदलाव किया गया है, बच्चों को “ग” से
“गणेश” की बजाय “गधा” पढ़ाया जा रहा है,
तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति के प्रतीक
चिन्हों को समाप्त करने के लिये धीरे-धीरे अन्दर
से उसे कुतरा जा रहा है, और “भारतीय ”
जैसा कि वे हमेशा से रहे हैं, अब भी गहरी नींद में
गाफ़िल हैं।
किसी कौम को पहले मानसिक रूप से खत्म करने के
लिये उसके सांस्कृतिक प्रतीकों पर
हमला बोला जाता है, उसे सांस्कृतिक रूप से
खोखला कर दिया जाता है, पहलेअपने
“सिद्धान्त” ठेल दिये जाते हैं,
दूसरों की संस्कृति की आलोचना करके, उसे
नीचा दिखाकर एक अभियान चलाया जाता है,
इससे संस्कृति परिवर्तन का काम आसान
हो जाता है और वहकौम बिना लड़े
ही आत्मसमर्पण कर देती है,
क्योंकि उसकी पूरी एक पीढ़ी पहले ही मानसिक
रूप से उनकी गुलाम हो चुकी होती है। वेलेंटाइन-
डे, गुलाबी चड्डी, पब संस्कृति, अंग्रेजियत, कम
कपड़ों और नंगई को बढ़ावा देना,
आदि इसी “विशाल अभियान” का एक
छोटा सा हिस्सा भर हैं।
किसी भी देश के सिक्के एक ऐतिहासिक धरोहर
तो होते ही हैं, उस देश की संस्कृति औरवैभव
को भी प्रदर्शित करते हैं। पहले एक, दो और पाँच
के सिक्कों पर कहीं गेहूँ कीबालियों के, भारत के
नक्शे के, अशोक चिन्ह के, किसी पर
महर्षि अरविन्द, वल्लभभाईपटेल
आदि महापुरुषों के चेहरे की प्रतिकृति,
किसी सिक्के पर उगते सूर्य, कमल के
फ़ूलअथवा खेतों का चिन्ह होता था, लेकिन ये “
क्रूसेडर क्रॉस”, “अंगूठा” और “विक्ट्री साइन”
दिखाने वाले सिक्के ढाल कर सरकार
क्या साबित करना चाहती है, यह अबस्पष्ट
दिखाई देने लगा है।इस देश में “राष्ट्र-
विरोधियों” का एक मजबूत नेटवर्क तैयार
हो चुका है, जिसमें मीडिया, NGO, पत्रकार,
राजनेता, अफ़सरशाही सभी तबकों के लोग मौजूद
हैं, तथा उनकी सहायता के लियेकुछ प्रत्यक्ष और
कुछ अप्रत्यक्ष लोग “कांग्रेसी-वामपंथी” के नाम
से मौजूद हैं।
इन सिक्कों के जरियेआनेवाली पीढ़ियों के लिये
यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि,
सन् 2006 के काल में भारत पर “इटली की एक
महारानी”राज्य करती थी… तथा भारत
की जनता में ही कुछ “जयचन्द” ऐसे भी थे जो इस
महारानी की चरणवन्दना करते थे और कुछ
“चारण-भाट” उसके गीत गाते थे................

!! क्या हिन्दू' शब्द विदेशियों का दिया हुआ नाम है ?

क्या हिन्दू' शब्द विदेशियों का दिया हुआ नाम है ? क्या हिन्दू नाम का कोई धर्म नहीं ?
इन्ही सब प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए कुछ तथ्य प्रस्तुत हैं जो ये दर्शाते हैं की "हिन्दू'" शब्द ईरानियों के आने से बहुत पहले ही सनातन धर्म में प्रयोग होता था| सनातन को मानने वालों को "हिन्दू" कहा जाता था , ईरानियों ने तो बस केवल इसे प्रचलित किया|
कुछ उधाहरण देखते है सनातन में हिन्दू शब्द के बारे में :-

१-ऋग व...ेद में एक ऋषि का नाम 'सैन्धव' था जो बाद में " हैन्दाव/ हिन्दव " नाम से प्रचलित हुए

२- ऋग वेद के ब्रहस्पति अग्यम में हिन्दू शब्द

हिमालयं समारभ्य यावत इन्दुसरोवरं ।
तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते ।।

( हिमालय से इंदु सरोवर तक देव निर्मित देश को हिन्दुस्थान कहते हैं)

३- मेरु तंत्र ( शैव ग्रन्थ) में हिन्दू शब्द
'हीनं च दूष्यत्येव हिन्दुरित्युच्चते प्रिये'
( जो अज्ञानता और हीनता का त्याग करे उसे हिन्दू कहते हैं)

४- यही मन्त्र शब्द कल्पद्रुम में भी दोहराई गयी है
'हीनं दूषयति इति हिन्दू '

५-पारिजात हरण में "हिन्दू" को कुछ इस प्रकार कहा गया है |
हिनस्ति तपसा पापां दैहिकां दुष्टमानसान ।
हेतिभिः शत्रुवर्गं च स हिंदुरभिधियते ।।

६- माधव दिग्विजय में हिन्दू
ओंकारमंत्रमूलाढ्य पुनर्जन्म दृढाशयः ।
गोभक्तो भारतगुरूर्हिन्दुर्हिंसनदूषकः ॥
( वो जो ओमकार को ईश्वरीय ध्वनी माने, कर्मो पर विश्वाश करे, गौ पालक, बुराइयों को दूर रखे वो हिन्दू है )

७- ऋग वेद (८:२:४१) में 'विवहिंदु' नाम के राजा का वर्णन है जिसने ४६००० गएँ दान में दी थी|
विवहिंदु बहुत पराक्रमी और दानी राजा था ऋग वेद मंडल ८ में भी उसका वर्णन है................

शनिवार, 7 जुलाई 2012

!! सुद्रो के प्रति गलत धारणाये !!

‎1.शूद्रों के लिएकहा जाता है कि वे अनार्य थे, आर्यों के शत्रु थे। आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेदके ॠषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं?शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा क्यों प्रकट करते हैं?
2.शूद्रों के लिएकहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास,ऋषि द्रिघत्मा,काक्सिवत और उसकी पुत्री घोषा ऋग्वेद के मन्त्रों के रचनाकार कैसे हुए?ऐतरेय,रेक्वा ने उपनिषद लिखा ऐलुष ने
ऋगवेद पर शोध किया ।नारद,वशिष्ठ,व्यास,वाल्मिकी शुद्र हि माने जाते हैँ । 
3.शूद्रों के लिए कहाजाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास ने अश्वमेध कैसे किया? शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिए, इसके लिए शब्द भी बताता है।
4.शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें उपनय...न संस्कार का अधिकार नहीं है। यदिआरम्भ से ही ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा? बदरि और संस्कारगणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार है ?
5.शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह सम्पत्ति संग्रह नहीं कर सकता। ऐसा थातो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनीऔर समृद्ध शूद्रों का उल्लेख कैसे है?महाभारत मेँ उषीनारा,काक्शीब त,देवका जैसे शुद्र राजाओँ का वर्णन है देखेँ (1:114), (2:21, 12:172)
6.शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसाथा तो महाभारत में राजाओं के मंत्री शूद्र थे, ऐसा क्यों कहा गया?


वेदों के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों में से एक यह भी है कि वे ब्राह्मणवादी ग्रंथ हैं और शूद्रों के साथ अन्याय करते हैं | हिन्दू/सनातन/वैदिक धर्म का मुखौटा बने जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आन्दोलन इस देश में चलाया जा रहा है |
परंतु, इस से बड़ा असत्य और कोई नहीं है | इस श्रृंखला में हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए, वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि -
१.चारों वर्णों का और विशेषतया शूद्र का वह अर्थ है ही नहीं, जो मैकाले के मानसपुत्र दुष्प्रचारित करते रहते हैं |
२.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती |
३.वेद ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही सभी के लिए समान अवसरों की बात कहता हो | जिसके बारे में आज के मानवतावादी तो सोच भी नहीं सकते |
आइए, सबसे पहले कुछ उपासना मंत्रों से जानें कि वेद शूद्र के बारे में क्या कहते हैं  -

यजुर्वेद १८ | ४८
हे भगवन!  हमारे ब्राह्मणों में, क्षत्रियों में, वैश्यों में तथा शूद्रों में ज्ञान की ज्योति दीजिये | मुझे भी वही ज्योति प्रदान कीजिये ताकि मैं सत्य के दर्शन कर सकूं |
यजुर्वेद २० | १७
जो अपराध हमने गाँव, जंगल या सभा में किए हों, जो अपराध हमने इन्द्रियों में किए हों, जो अपराध हमने शूद्रों में और वैश्यों में किए हों और जो अपराध हमने धर्म में किए हों, कृपया उसे क्षमा कीजिये और हमें अपराध की प्रवृत्ति से छुडाइए |
यजुर्वेद २६ | २
हे मनुष्यों ! जैसे मैं ईश्वर इस वेद ज्ञान को पक्षपात के बिना मनुष्यमात्र के लिए उपदेश करता हूं, इसी प्रकार आप सब भी इस ज्ञान को ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र,वैश्य, स्त्रियों के लिए तथा जो अत्यन्त पतित हैं उनके भी कल्याण के लिये दो | विद्वान और धनिक मेरा त्याग न करें |
अथर्ववेद १९ | ३२ | ८
हे ईश्वर !  मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य सभी का प्रिय बनाइए | मैं सभी से प्रसंशित होऊं |
अथर्ववेद १९ | ६२ | १
सभी श्रेष्ट मनुष्य मुझे पसंद करें | मुझे विद्वान, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझे देखे उसका प्रियपात्र बनाओ |
इन वैदिक प्रार्थनाओं से विदित होता है कि -
-वेद में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण समान माने गए हैं |
 -सब के लिए समान प्रार्थना है तथा सबको बराबर सम्मान दिया गया है |
 -और सभी अपराधों से छूटने के लिए की गई प्रार्थनाओं में शूद्र के साथ किए गए अपराध भी शामिल हैं |
 -वेद के ज्ञान का प्रकाश समभाव रूप से सभी को देने का उपदेश है |
-यहां ध्यान देने योग्य है कि इन मंत्रों में शूद्र शब्द वैश्य से पहले आया है,अतः स्पष्ट है कि न तो शूद्रों का स्थान अंतिम है और ना ही उन्हें कम महत्त्व दिया गया है |
इस से सिद्ध होता है कि वेदों में शूद्रों का स्थान अन्य वर्णों की ही भांति आदरणीय है और उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त है |

यह कहना कि वेदों में शूद्र का अर्थ कोई ऐसी जाति या समुदाय है जिससे भेदभाव बरता जाए  -  पूर्णतया निराधार है |

अगले लेखों में हम शूद्र के पर्यायवाची समझ लिए गए दास, दस्यु और अनार्य शब्दों की चर्चा करेंगे |


http://en.wikipedia.org/wiki/Sudra_Kingdom
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http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_Shudra_Hindu_saints
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शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

!! इस वीडियो में आप क्या देख रहे है प्रेम या पुनर्जन्म ?

http://www.youtube.com/watch?v=h87VoR-9vRA&feature=player_embedded

देवरिया। बात करीब दो साल पुरानी है। सन् 2009 के उन दिनों यूपी के देवरिया में रहने वाला यह परिवार हैरान और परेशान रहता था। उनके घर पैदा हुई एक बच्ची से मिलने एक मेहमान रोज आती थी। घंटों मिलती और प्यार करती थी। बच्ची भी इस मेहमान के साथ ऐसा सलूक करती थी जैसे कितने वर्षों से जानती हो। इनका प्यार देख लोग दांतों तले उंगलियां दबा लेते थे।

इनके इस प्यार को देख कोई इसे पूर्वजन्म का खेल मानता था, तो कोई बंदरियां का बच्चे के प्रति प्यार। लोगों का मानना था कि यह बच्ची इस बंदरिया से पूर्व जन्म में कोई ना कोई संबंध जरूर रखती है। तभी तो अचानक गांव में आई इस बंदरिया को यही लड़की दिखी और वह उसे प्यार करने लगी। यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। आज बच्ची बड़ी हो चुकी है, लेकिन इस बंदरिया के आने का सिलसिला थमा नहीं है। वह आज भी आती है।

यह वीडियो करीब दो साल पहले बनाया गया था, आज बच्ची बड़ी हो चुकी है। हम आपके सामने इस वीडियो को पेश कर रहे हैं। इसे देख आप भले ही पूर्वजन्म आदि के बारे में विश्वास नहीं करते हों, लेकिन एक जानवर और मासूम बच्ची के प्यार के बारे में जरूर सोचेंगे। 


http://www.youtube.com/watch?v=h87VoR-9vRA&feature=player_embedded

!! वेदों में हिग्स बोसोन !!

इतना ना इतराए दुनिया, पहले ही हम कर चुके हैं यह 'महाखोज' http://www.bhaskar.com/article/NAT-higgs-boson-is-also-mentioned-in-the-vedas-3484556.html?HF-27

नई दिल्ली. यूरोपीय वैज्ञानिकों ने जिस हिग्स बोसॉन से मिलते-जुलते कण को खोजने का दावा किया है उसका व बिग बैंग सिद्धांत का सबसे पहला जिक्र वेदों में आता है। वैज्ञानिकों ने हिग्स बोसॉन को गॉड पार्टिकल यानी ब्रह्म कण का नाम दिया है।

सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में वर्णित नासद सूक्त में प्राचीन मानव और अंतरिक्ष को समझने की उसकी मूलभूत जिज्ञासा का पता चलता है। नासद सूक्त में कहा गया है कि सृष्टि से पहले कुछ भी नहीं था, न आकाश था, न जमीन, न जल। इस श्लोक में ब्रह्म की चर्चा करते हुए बताया गया है कि सृष्टि से पहले ब्रह्म ही विद्यमान थे और उन्हें से सारी सृष्टि का विकास हुआ है।

वैज्ञानिकों का बिग बैंग सिद्धांत भी इस समझ को अधिक विस्तृत बनाते हुए कहता है कि 13.7 अरब वर्ष पहले समूचा अंतरिक्ष एक पिन की नोक के बराबर के बिंदु पर केंद्रित था। बिग बैंग कहलाने वाले इस महाविस्फोट के बाद इस बिंदु में विस्तार होता चला गया जिसने अंतरिक्ष का आकार लिया। हमारा अंतरिक्ष अभी भी फैल रहा है। अंतरिक्ष के सृजन के साथ ही हिग्स बोसॉन अस्तित्व में आया जिससे नक्षत्रों, ग्रहों, आकाशगंगाओं और जीवन का भी सृजन संभव हो सका।

वेदों और उपनिषदों के बाद आए पुराणों में अंतरिक्ष के सृजन के सिद्धांत से आगे बढ़ते हुए युगों की शुरुआत और उनके खात्मे का जिक्र किया गया। पुराणों में ब्रह्म के एक दिन को चार अरब 32 करोड़ वर्ष के बराबर बताया गया है जो एक महायुग और चार युगों के बराबर होता है। एक महायुग की समाप्ति के बाद प्रलय आती है और सबकुछ नष्ट हो जाता है और एक नई सृष्टि का सृजन होता है।

बोस के आखिरी बोसॉन की खोज

गॉड पार्टिकल या हिग्स बोसॉन की खबर भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए सम्मान और निराशा की दोहरी अनुभूति लेकर आया। हिग्स बोसॉन का 'हिग्स' तो पीटर हिग्स के नाम पर है जिन्होंने इस खोज के अहम सिद्धांत और बुनियाद रखी।

हालांकि बहुत कम लोग खासकर गैर-वैज्ञानिक यह जानते हैं कि इस नाम का दूसरा हिस्सा बोसॉन एक भारतीय वैज्ञानिक के नाम पर है। भारतीय भौतिकविद सत्येंद्रनाथ बोस ने 1924 में बताया कि परमाणु में मौजूद कण प्रोटॉन एक जैसे नहीं होते।

उनसे निकलने वाली ऊर्जा अलग-अलग होती है। इसी आधार पर बोस-आइंस्टीन फार्मूला सामने आया। सब-एटॉमिक पार्टिकल को बोसॉन कहा गया। स्टैंडर्ड मॉडल ऑफ फीजिक्स में दो अहम समूह फर्मिओंस और बोसॉन ही हैं। छह बोसॉन में से 5 की खोज हो चुकी है। बस हिग्स बोसॉन का खोजा जाना बाकी है।http://www.jagran.com/news/national-god-particle-theory-in-regveda-9440669.html 

वेदों में भी था बिग बैंग और हिग्स बोसोन का जिक्र
http://www.livehindustan.com/news/desh/national/article1-european-scientist-higs-boson-ved-book-39-39-241271.html

यूरोपीय वैज्ञानिक ने जिंस हिग्स बोसोन से मिलते जुलते जिस कण को खोजने का दावा किया है, उसका एवं बिग बैंग सिद्धांत का सबसे पहला जिंक्र वेदों में आता है !

वैज्ञानिकों ने हिग्स बोसोन को गॉड पार्टिकल अर्थात ब्रह्म कण का नाम दिया है ! सबसे प्राचीन वेद ऋगवेद में वर्णित नासद सूक्त में प्राचीन मानव और अंतिरक्ष को समझने की उसकी मूलभूत जिज्ञासा का पता चलता है। नासद सूक्त में कहा गया है कि सृष्टि से पहले कुछ भी नहीं था, न आकाश था, न जमीन और न जल। इस पौराणिक श्लोक में ब्रह्मा की तुलना हिरण्‍यगर्भ से करते हुए बताया गया है कि सृष्टि से पहले ब्रह्म ही विद्यमान थे और उन्हें से सारी सृष्टि का विकास हुआ है ! वेदों और उपनिषदों के बाद आई पुराणों में अंतिरक्ष के सृजन के सिद्धांत से आगे बढ़ते हुए युगों की शुरुआत और उनके खात्मे का जिक्र किया गया ! पुराणों में ब्रह्म के एक दिन को चार अरब 32 करोड़ वर्ष के बराबर बताया गया है जो एक महायुग और चार युगों के बराबर होता है! एक महायुग की समाप्ति के बाद प्रलय आती है और समूचा ज्ञान और सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं और एक नई सृष्टि का सृजन होता है..............

बुधवार, 4 जुलाई 2012

!! अवतारवाद की अवधारणा !!

यह आयातित और सुधारा हुआ ब्लॉग है ..........

अभी हमारे मित्रो के बीच में एक गरमा गरम बहस छिडी हुई है की दो दो अवतार (भगवान् राम और परशुराम ) एक साथ कैसे आ गए इस धरा पर ? बस वही से मन में ये सभी बिचार उठ रहे हैऊ किया सचमुच में अवतार हुए है या फिर हम सभी अपने इतिहास के महापुराशो को ही अवतार घोषित कर दिया मैं भी इसी अवधारणा को बचपन से पाल रखा हु और मानता हु और आगे भी मानता रहूगा ..पर जब बात कही पर अपने मन की गहराइयो की सत्यता पर जाती है तो मन आंदोलित हो उठता है ....आज हम जगह जगह पर हर किसी को भगवान् घोषित कर देते है ..कही पर निर्मल बाबा तो कही पर राधे माँ ....अभी मैं कुछ दिन पहले शिर्डी गया था जहा पर साईं बाबा के भक्त ....साईं भगवान् ,,साईं भगवान् की रट लगाए हुए थे ..क्या साईं बाबा भगवान् है ? ऐसे ही बहुत से भगवान् बना दिया हमने ..सत्य साईं बाबा भी एक भगवान् बन गए ?  बस इन्ही सभी बातो से मन धोखा खाने से मना कर देता है ..फिर बात आ जाती है अपने अवतारों पर  !
       कृष्ण भगवान् ने भी यही कहा था की ....

 यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत !
अभ्युत्थ्ससनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् !!


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् !
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे !!

अभी  क्या कम पाप और अन्याय है इस भारतभूमि में फिर क्यों नहीं आ रहे है कोई अवतार बनकर ?
 

अवतारवाद की अवधारणा पुराणकारों की मौलिक प्रतिभा, विराट कल्पना और उनके स्वतंत्रा चिन्तन की भविष्योन्मुखी दृष्टि का प्रमाण है, जिसकी सहायता से उन्होंने छिन्न भिन्न हो चुकी वर्णव्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित कर वर्ण धर्म की रक्षा करने में सफलता अर्जित की थी। इस प्रव्यि में कृष्ण को ही पूर्णावतार क्यों मान लिया गया ? इसे समझना आवश्यक प्रतीत होता है। वस्तुतः भारत की सांस्कृतिक परम्परा के विकास में कृष्ण केन्द्रित विभिन्न आख्यानों का महत्वपूर्ण योगदान है! ऐतिहासिक प्रवाह में कृष्ण का बहुआयामी व्यक्तित्व कई बार इतिहासकारों के लिए रहस्यमयी पहेली साबित हुआ है !मिथकीय संश्लिष्टताओं में उलझा हुआ कृष्ण का चमत्कारी व्यक्तित्व आर्य और अनार्य, निगम और आगम, ब्राघ्मण और अब्राघ्मण आदि न जाने कितने परस्पर विरोधी युग्मों के बीच सामंजस्य सेतु बनता आया है,, वैदिककाल का नर देवता, पुराणकाल में विष्णु का पूर्णावतार, द्वापर युग का निर्माता, गीता का महान कर्मयोगी, नटखट बाल गोपाल, गोपियों का पे्रमी, राधा का अनन्य अनुरागी, नटनागर लीला पुरुष, जलपरियों के साथ कीड़ा करने वाला, अप्सराओं के साथ रमण करने वाला, परम वीर्यवान और संभोगी; आश्चर्य होता है कि इतने सारे चेहरे क्या एक ही कृष्ण के चेहरे हैं ? परस्पर विरोधी गुणों वाला ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व ही परस्पर विरोधी परम्पराओं में सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित कर सकता था,, कितना मिथकीकरण किया गया है यदु कबीले के नर देवता का, यज्ञ विरोधी गोरक्षक कृष्ण का, इंद्र को अपदस्थ करने वाले जननायक का! वह जिस भी रूप में आया, मनुष्यता सदैव उसके साथ रही,, वैदिककाल से लेकर मध्यकालीन सूरदास के गोचारी काव्य तक कृष्ण की ऐतिहासिक यात् वस्तुतः जननायक से लोकनायक बनने की ही अंतर्यात्रा है; भले ही समय समय पर उसे ईश्वर का मुकुट भी पहनाया जाता रहा हो !  किन सूरदास के लिए वह मुकुट किसान संस्कृति के किसी प्रभावशाली मुखिया की पगड़ी से ज्यादा अहमियत नहीं रखता............

वैदिककाल का सीमांत और उनर वैदिककाल का आरम्भ भारतीय इतिहास का वह समय है जब आयो का पशुचारी जीवन कृषि जीवन में रूपांतरित हो रहा था,, कृषि केन्द्रित इस नयी जीवन पद्धति में इंद्र के वर्चस्व वाली यज्ञ प्रणाली और निरंतर होने वाले युद्ध बहुत महंगे और घातक सिद्ध हो रहे थे; उस स्थिति में तो और भी जब यज्ञों के लिए मवेशी तथा अन्य पशु बिना मूल्य चुकाये ही हथिया लिए जाते थे,,जाहिर है कि ऐसे यज्ञ, पशुपालक किसानों के आर्थिक शोषण के जटिल कर्मकांड बन गये थे। सामाजिक जीवन के इस परिवर्तित मोड़ पर किसानों के हित में यज्ञ और इंद्र का विरोध एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन गया था,,, ऐसे ही समय, यज्ञ और इंद्र का विरोध करने के कारण गोरक्षक कृष्ण ने किसानों का प्रवक्ता बन, जननायक का गौरव अर्जित कर लिया और लगातार बढ़ती लोकप्रियता ने उसे पूज्य बना दिया ! यही कारण है कि इंद्र पूजा को अपदस्थ कर कृष्ण पूजा का प्रचलन आरम्भ हुआ। पुराणकाल तक आते आते इंद्र का वर्चस्व टूटने लगा और ऋग्वेद के उपेक्षित देवता विष्णु सहसा महत्वपूर्ण हो उठे.....
पुराणकाल वस्तुतः सांस्कृतिक संगम का काल है,,बुद्ध के व्यापक प्रभाव के चलते ब्राघ्मण धर्म काफी कमजोर हो चला था,बुद्ध ने वैदिक यज्ञ प्रणाली और उसके जटिल कर्मकांड का विरोध किया और वर्णव्यवस्था की असंगतियों और ब्राघ्मण श्रेष्ठता को चुनौती देते हुए उ+पर के दो वणो का व्म ही उलट दिया। आकस्मिक नहीं है कि पालि साहित्य में कहीं कहीं क्षत्रिय पहले पायदान पर और ब्राघ्मण दूसरे पायदान पर दिखायी देते हैं....अतः पूरी तरह छिन्न भिन्न हो चुकी वर्णव्यवस्था की रक्षा करना और श्रेष्ठता का गौरव पुनः अर्जित करना वर्णाश्रम समर्थक बुद्धिजीवियों की प्राथमिक चिन्ता थी,, बुद्ध के व्यापक प्रभाव को निरस्त करने के लिए उन्हें एक ऐसे सामंजस्यशील व्यक्तित्व की आवश्यकता थी जिसके माध्यम से आर्य और वैदिक परम्परा के शुद्धतावादी मूल चरित्रा को सुरक्षित रखते हुए प्रबल हो चली आर्येतर और निगम विरोधी सांस्कृतिक परम्पराओं का सामंजस्य हो सके जिनका समाज पर गहरा प्रभाव था, खासतौर पर कला संस्कृति के क्षेत्रा में,इसके लिए कृष्ण के अलावा कोई दूसरा हो भी नहीं सकता था जो आर्येतर और आगमिक परम्पराओं के नृत्य, गीत, संगीत के कला मूल्यों और कला विलास के लालित्य का सामंजस्य कर सके,यह सामंजस्य शुद्धतावादी आर्य परम्परा के वाहक राम के द्वारा सम्भव ही नहीं था!

 अतः उन्हें केवल बारह कलाओं का अवतार और कृष्ण को सोलह कलाओं का पूर्णावतार माना गया। यह सामंजस्य, उनरोनर अलग थलग पड़ते जा रहे ब्राघ्मण धर्म की लाचारी थी जिसे प्रायः हिन्दू धर्म की उदारता के नाम पर प्रचारित किया जाता है। किसी समय अनार्य देवता माने जाने वाले लोकशक्ति के नायक कृष्ण की स्वीकृति वस्तुतः एक प्रकार का समझौता था जिसके माध्यम से ब्राघ्मण धर्म को पुनरुज्जीवित किया गया।
आकस्मिक नहीं है कि उस काल में लिखी गयी सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक कृति ÷गीता' जो आज भी हिन्दू आस्था की प्रतीक है, उसमें कृष्ण को न केवल नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया बल्कि सर्वेश्वर का गौरव भी प्रदान किया गया, लेकिन इस शर्त के साथ कि वर्ण धर्म की रक्षा और उसके विरोधियों के संहार के लिए समय समय पर अवतार लेते रहना पड़ेगा। इस प्रकार जननायक कृष्ण को अपने ही लोक के विरुद्ध खड़ा कर पुराणकारों ने स्वयं अपने पक्ष में उन्हें झुका लिया और न केवल अपने वर्तमान बल्कि भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया। शर्तनामे पर हस्ताक्षर करते हुए योगिराज कृष्ण ने न केवल ÷सम्भवामि युगे युगे' का आश्वासन दिया बल्कि ÷चातुर्वर्ण मया स्रष्टं' का प्रमाणपत्रा भी प्रदान किया।
दाद देनी पड़ती है उन हिन्दू शास्त्राकारों की प्रतिभा और कम्प्यूटर की तरह काम करने वाले उनके दिमाग की जिन्होंने वर्णव्यवस्था को पोख्ता और अकाट्य बनाने के लिए समय समय पर पूर्वजन्म, कर्मफल, भाग्यवाद, अवतारवाद और प्रतिपक्ष के लिए कलिकाल जैसी अवधारणाओं का विकास किया। शतरंज के मंजे हुए खिलाड़ी की तरह वे हारी हुई बाजी को भी जीतना जानते थे और यह भी कि किस मोहरे को किस मोहरे से पीटा जा सकता है। अवतारवाद के उद्देश्य को चरितार्थ करने और उसके प्रचार प्रसार के लिए उन्हें कृष्ण के रूप में एक कारगर मोहरा मिल गया था जिससे वे किसी भी मोहरे को मात दे सकते थे। अवतारवाद की पौराणिक कल्पना शतरंज की तरह ही ऐसा दिमागी खेल है जिसमें कभी महावीर को, कभी बुद्ध को तो कभी कृष्ण को कारगर मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया है। इस खेल की विशिष्टता यह है कि मोहरे चाहे काले हों या सफेद, जीत हमेशा ईश्वर की ही होती है। वस्तुतः यह वर्चस्व और प्रतिरोध की संस्कृति के बीच शह और मात का ऐसा खेल है जो धरती की पुकार पर ईश्वर और असुरों के बीच खेला जाता है और ÷रिमोट कंटल' गगन विहारी देवताओं के हाथ में होता है। आकाश से फूल बरसा कर विजय की घोषणा वही करते हैं। इस खेल में लोक की भूमिका नगण्य है। इसका सुसंगत विकास तुलसीदास के रामचरित मानस में देखने को मिलता है जहां सभी मोहरों को मात देने वाला कृष्ण का शक्तिशाली मोहरा राम में रूपांतरित हो गया है और टीकाकारों की चिन्ता से चिन्तित गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी चतुराई के साथ इस खेल में लोक को भी शामिल कर लिया है। लोक और शास्त्रा के द्वंद्वात्मक संघर्ष ने अवतारवाद के खेल को और भी दिलचस्प और आकर्षक बना दिया हैद्र सभी खुश, शास्त्रावादी भी और लोकवादी भी। पता ही नहीं चलता कि इस द्वंद्व में तुलसीदास कहां हैं? कबीर जैसी दोटूक स्पष्टता के अभाव में तुलसी के पक्ष का निर्णय करना इतना आसान भी नहीं है क्योंकि रामचरित मानस में शास्त्रा भी है और लोक भी, वर्णधर्म है तो लोकधर्म भी, पौराणिक पुनर्जागरण है तो लोक जागरण का किन्चित स्वर भी। इन परस्पर विरोधी युग्मों का सामंजस्य कैसे हो सकता है? समन्वय का दर्शन अपने आप में बड़ा खतरनाक दर्शन है। वर्णाश्रम विरोधी वंतिकारी विचारों को निरस्त करने के लिए यह वर्णाश्रम समर्थक बुद्धिजीवियों का पुराना हथकंडा है। इसके अनुसार पहले तो विरोधी विचारों का जम कर विरोध करना, फिर उसे विकृत करके प्रचारित करना और इसके बाद भी यदि वे समाज में जीवित रह जाते हैं तो उनकी धार को कुंद बना कर आत्मसात्‌ कर लेना। गोस्वामी तुलसीदास ने भी शंकर और कुमारिल की तरह इसी अमोघ अस्त्रा का इस्तेमाल करते हुए ÷अलख जगाने वालों', ÷साखी सबदी दोहरा' एवं ÷कहनी उपखान' कहने वालों के साथ वही सलूक किया है। जब समन्वय की विराट चेष्टा में सब कुछ समाहित हो गया तो अलग से उनके साहित्य का क्या महत्व? अतः तुलसी के पौराणिक मतवाद से पूरी तरह सहमत आचार्य रामचंद्र शुक्ल यदि उसे साहित्य ही न मानें तो क्या आश्चर्य ?
कहने की आवश्यकता नहीं कि पूरे भक्तिकाव्य का मूल्यांकन करने के लिए आचार्य शुक्ल ने अपनी आलोचना के प्रतिमान, दो विरुद्धों का सामंजस्य करने वाले ÷रामचरित मानस' और तुलसीदास की विचार पद्धति के आधार पर ही निर्मित किये हैं किन्तु शुक्ल जी की आलोचना में सामंजस्य का परिणाम यह हुआ कि पौराणिक मत ही लोकमत और वर्णधर्म ही लोकधर्म बन गया। इसी तरह पौराणिक अवतारवाद के उद्देश्य की चरितार्थता को वे लोक संग्रह कहते हैं और उनके अनुसार सूरसागर में उसका अभाव है। ईश्वर के सामने सभी बराबर हैं, जाति पांति विरोधी भक्ति आंदोलन का यही मूल सिद्धांत था और वर्णधर्म की रक्षा पर आधारित अवतारवाद की धार्मिक अवधारणा तो भक्ति के समतावादी सिद्धांत को ही खंडित करती है तो फिर पुनरुत्थानवादी चेतना को विकसित करने वाले अवतारवाद की सामाजिक चरितार्थता क्या है? उसके समाजशास्त्राीय आधार को नजरंदाज कर धर्मशास्त्राीय आधार पर लोक संग्रह के अभाव और विस्तार की चर्चा बेमानी है। सच तो यह कि सूरदास ने पौराणिक अवतारवाद से उतनी ही प्रेरणा ली है जितनी वह जाति पांति विरोधी भक्ति के अनुकूल पड़ती थी और तुलसीदास ने समतामूलक भक्ति को वहीं तक स्वीकार किया है जहां तक वह शास्त्राानुकूल हो सकती थी। जाहिर है कि सूर के लिए भक्ति मुख्य थी तो तुलसी के लिए शास्त्रा। सूरदास के लिए पौराणिक पुनरुत्थान की वह अहमियत नहीं थी जो पुराणमतावलम्बी तुलसीदास के लिए। अवतारवाद को सिद्धांतः स्वीकार करने के बावजूद सूरदास के सामाजिक विचार और उनकी भक्ति का स्वरूप, दोनों तुलसी की अपेक्षा कबीर के अधिक निकट प्रतीत होते हैं।
÷भ्रमर गीत' प्रसंग सूरदास की मौलिक उद्भावना का सर्वोनम उदाहरण और सूरसागर का सबसे काव्यात्मक अंश भी है, लेकिन उसके सामाजिक सांकृतिक आधार की उपेक्षा कर केवल दार्शनिक आधार पर निर्गुण सगुण विवाद के रूप में देखते समय हमें यह न भूलना चाहिए कि उद्धव गोपी संवाद कबीर की तरह ही पोथी बंद ज्ञान को व्यावहारिक ज्ञान की चुनौती हैद्र ÷नयनन मूंदि मूंदि किन देखौ बंध्यो ज्ञान पोथी को।' क्कभ्रमर गीत सार; सम्पा. रामचंद्र शुक्ल, पद 22, पृ. 64त्र् इतना ही नहीं, सूर की गोपियां तो पौराणिक ज्ञान की खिल्ली उड़ाती हुई उद्धव पर व्यंग करती हैंद्र ÷परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टांडे+।' क्कवही; पद 25, पृ. 65त्र् मौलिक प्रतिभा और स्वतंत्रा चिन्तन से रहित, पोथियों की रटी रटायी भाषा बोलने वाले उद्धव जैसे पोथी पंडित ही कबीर के भी निशाने पर हैं जो पंडिताई को बोझ की तरह ढोते फिरते हैं। कबीर के सामने जैसे पोथी पंडित लाचार हैं, वैसे ही गोपियों के सामने उद्धव भी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल पंडितों की इस फटकार पर सिद्धों, नाथों और कबीर को यों ही नहीं कोसते! इन पोथी पंडितों में उन्हें न जाने कहां से ÷शास्त्राज्ञ विद्वानों' का चेहरा दिखायी पड़ने लगता है जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी ÷चिन्ता पारतंत्रय' के शिकार इन पंडितों की इकहरी समझ पर तरस खाते हैं और लक्षित करते हैं कि भारतीय मनीषा इतनी जड़ और स्तब्ध कभी नहीं हुई थी जितनी मध्यकाल में। आचार्य द्विवेदी मध्यकाल को ÷टीकायुग' यों ही नहीं कहते!
वस्तुतः ÷उद्धव गोपी संवाद' कबीर की तरह ही शास्त्रा से लोक का सार्थक संवाद है जो वाद विवाद के बिना सम्भव नहीं है। यह बौद्ध दार्शनिकों के समाज सापेक्ष वाद विवाद की तार्किक पद्धति की याद दिलाता है। इस पूरे संवाद में सूरदास गोपियों के साथ लोक के पक्ष में खड़े हैं, शास्त्रा क्कउद्धवत्र् के पक्ष में नहीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का लोक और लोकधर्म आचार्य शुक्ल के वर्णाश्रमधर्मी लोक और लोकधर्म से सर्वथा भिन्न है और व्यापक भी। द्विवेदी जी के अनुसारद्र ह्यलोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं। ये लोग नागर में परिष्कृत, सुरुचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा सरल और अकृत्रिाम जीवन के अभ्यस्त होते हैं। और परिष्कृत रुचि वाले तमाम लोगों की विलासिता और सुकुमारिता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएं आवश्यक होती हैं, उन्हें उत्पन्न करते हैं।ऋ क्कजनपद; अंक 1, वर्ष 1त्र् कबीर सहित निर्गुण धारा के संत और सूर की गोपियां इसी लोक के प्राणी हैं। लोक की इसी जमीन से उन्होंने अपने व्यावहारिक ज्ञान द्वारा पोथी पंडितों को चुनौती दी थी। यही लोक हिन्दी कविता की जन्मभूमि है जो समय समय पर उसको उ+र्जा प्रदान करती है और निष्प्राण होती कविता में प्राण का संचार कर उसे पुनर्नवा बनाती है।
मध्यकालीन सामंती पुरोहिती समाज व्यवस्था में दलित और स्त्रिायां ही शास्त्राों के सर्वाधिक कोपभाजन रहे हैं और सामंती उत्पीड़न के शिकार भी। इसलिए उस अलगाववादी समाज व्यवस्था और उसके पोषक शास्त्राों एवं शास्त्राकारों के प्रति कबीर, मीरा और सूर की गोपियों का साहसिक प्रतिरोध स्वाभाविक भी है और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भी। कबीर और सूर की गोपियों की तरह मीराबाई ने भी जीवगोस्वामी को चुनौती देते हुए उनके ज्ञान के अहंकार और पुरुष श्रेष्ठता के मिथ्या दम्भ को चकनाचूर किया था। इतना ही नहीं, मीराबाई मध्यकाल की ऐसी अकेली रचनाकार हैं जिन्होंने सामंतवाद के गढ़ में सामंतवाद को चुनौती देते हुए सिंहासनारूढ़ राणा को मूर्ख और हत्याराद्र ÷मूरख जण सिंहासण राजां' ÷राणा भगत संहारा'द्र कहने का साहस दिखाया था और उनके सामंती समाज को कूड़ा कह कर उसे ठुकरा दिया थाद्र ह्यराणा जी थारौं देसड़लौ रंगरूड़ौ। थांरां देसां मां रांणा साध नहीं छै, लोग बसै सब कूड़ौ।ऋ क्कमीरां माधुरी; सम्पा. ब्रजरत्न दास; पद 113त्र् अतः प्रतिरोध की इस सामाजिक वैचारिकी की दृष्टि से कबीर, मीरा और सूर की गोपियां एक कतार में खड़ी दिखायी देती हैं और यह कतार ÷शूद्र पशु नारी' की पौराणिक कतार के प्रतिरोध में खड़ी लोकधर्मी कतार है। निर्गुण सगुण का विवाद वस्तुतः ब्रघ्म के स्वरूप को लेकर अवतारवाद के पक्ष में खड़ा किया गया एक दार्शनिक विवाद है जो हिन्दी के अलावा अन्य भाषाओं के भक्ति काव्य में नहीं मिलता। यह हिन्दी आलोचना का संकट है, रचना का नहीं। स्वयं कबीर और तुलसी यह स्वीकार करते हैं कि निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं है। मीराबाई का एक पांव निर्गुण भक्ति में है तो दूसरा सगुण भक्ति में। सगुण भक्ति में भी जितने करीब वह सूरदास के हैं उससे कहीं ज्यादा गुजरात के नरसी मेहता के निकट प्रतीत होती हैं। इतना ही नहीं, मीराबाई अंदाल के माध्यम से दक्षिण की अलवार भक्ति और नृत्य संगीत की कला संस्कृति को उनर भारत से जोड़ती हैं तो सूरदास के साथ पूरब के जयदेव और विद्यापति की कृष्ण भक्ति को पश्चिम से जोड़ती हैं। जाहिर है कि अखिल भारतीय स्तर पर सांस्कृतिक सम्बंध स्थापित करने वाली मीराबाई की भक्ति का दायरा कहीं ज्यादा व्यापक और विस्तृत है जिसे निर्गुण और सगुण की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। यदि कृष्ण पूर्णावतार हैं तो मीराबाई की कृष्ण भक्ति उस पूर्णता की सच्ची विरासत है। अतः कबीर, मीरा और सूर की भक्ति के स्वरूप को निर्गुण सगुण के आधार पर नहीं, उनके सामाजिक चिन्तन के आधार पर समझा जाना चाहिए।
सूरदास ने भी कहीं निर्गुण भक्ति का खंडन किया हो, ऐसा संकेत तो नहीं मिलता; हां उपासना की दृष्टि से उन्होंने निर्गुण भक्ति को कठिन अवश्य कहा हैद्र
रूप रेख गुन जाति जुगुत बिनु, निरालम्ब मन चकृत धावै।
सब विधि अगम विचारहिं ताते, सूर सगुन लीला पद गावै॥
क्कसूरसागर; भाग 1, स्कंध 1, पृष्ठ 1त्र्
निर्गुण के खंडन का यह अर्थ भी नहीं लगाना चाहिए कि कबीर के ज्ञान मार्ग का खंडन कर सूरदास ने प्रेममार्गी भक्ति का मंडन किया है। इस संदर्भ में हमें यह न भूलना चाहिए कि निर्गुण और सगुण दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं, एक वर्णाश्रम धर्म की विरोधी है तो दूसरी उसकी समर्थक; एक शास्त्रा निरपेक्ष है तो दूसरी शास्त्रा सापेक्ष। सूरदास कबीर की शास्त्रा निरपेक्ष विचारधारा के जितने निकट हैं उतने तुलसी की शास्त्रा सापेक्ष विचारधारा के नहीं। अतः सामाजिक सांस्कृतिक आधार की उपेक्षा कर केवल निर्गुण सगुण की दार्शनिक शब्दावली से उनके वैचारिक मतभेद को नहीं समझा जा सकता। आखिर निर्गुण और सगुण तथा संत और भक्त का विवाद हिन्दी आलोचना में ही क्यों खड़ा हुआ? हिन्दी भक्ति आंदोलन बंगाल, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्टᆭ के भक्ति आंदोलन से मूलतः भिन्न क्यों हैं? क्या कारण है कि निर्गुण भक्ति आंदोलन वर्णविरोधी समान विचारधारा के चलते विभिन्न प्रांतीय भक्ति आंदोलनों से जुड़ा रहा और सूर की समतामूलक भक्ति के साथ भी उसका बहुत कुछ सामंजस्य बना रहा लेकिन शास्त्रा समर्थक तुलसीदास के साथ ही वह समाप्त क्यों हो गया? निर्गुण भक्ति का वंतिकारी तेवर सगुण भक्ति के अंतिम पड़ाव पर समझौतापरस्त कैसे हो गया? यदि शास्त्राीय मर्यादा और सामंती नैतिकता का बंधन इतना ही अमोघ होता तो महान्‌ मर्यादावादी तुलसीदास के बाद भक्तिकालीन レाृंगार को रीतिकालीन अश्लीलता में नंगा न होना पड़ता।
लोकधर्म की तरह लोकसंग्रह का प्रतिमान भी वर्णाश्रमधर्मी समाज की मर्यादा और अवतारवाद के पौराणिक निहितार्थों से सम्बद्ध है। देखने से तो यही लगता है कि ये लोकवादी प्रतिमान हैं किन्तु ये पौराणिक मतवाद के दायरे से बाहर के प्रत्यय नहीं हैं। लोकसंग्रह का निहितार्थ तो तभी समझ में आता है जब आचार्य शुक्ल सूर सागर में लोकसंग्रह का अभाव बताते हुए उसका कारण स्पष्ट करते हैंद्र ह्यअसुरों के अत्याचार से दुखी पृथ्वी की प्रार्थना पर भगवान का कृष्णावतार हुआ, इस बात को उन्होंने केवल एक ही पद में कह डाला है।ऋ क्कभ्रमर गीत सार; पृ. 14त्र् दूसरा कारण यह कि पौराणिक अवतारवाद के प्रतिपादन में सूर की वृनि लीन नहीं हुई है क्योंकि ह्यजिस ओज और उत्साह से तुलसीदास जी ने मारीच, ताड़का, खर दूषण आदि के निपात का वर्णन किया है उस ओज और उत्साह से सूरदास जी ने बकासुर, अघासुर, कंस आदि के वध और इंद्र के गर्व मोचन का वर्णन नहीं किया है।ऋ क्कवही; पृ. 13त्र् वस्तुतः वर्णाश्रम धर्म की रक्षा और यथास्थितिवाद को बनाये रखना ही पौराणिक अवतारवाद का प्रमुख उद्देश्य है जिसे चरितार्थ करने के लिए तुलसीदास ने पूरे विस्तार के साथ एक पुराण काव्य ही लिख डाला और सूरदास ने धार्मिक पुनरुत्थान को नगण्य और निरर्थक मान कर केवल एक पद में उसका उल्लेख कर छुट्टी पा ली। यह धार्मिक पुनरुत्थान ही यदि शुक्ल जी का लोक संग्रह है तो सूरसागर में उसका अभाव सूरदास को पुनरुत्थान की प्रतिगामी प्रवृनि से बहुत कुछ मुक्त करता है। अतः पौराणिक पुनरुत्थान के प्रति यदि सूरदास ने तुलसीदास की तरह गहरी रुचि नहीं दिखायी और अवतारवाद के सुसंगत प्रतिपादन में उनकी वृनि उतनी लीन नहीं हुई तो जाहिर है कि वह तुलसीदास की अपेक्षा कहीं ज्यादा प्रगतिशील हैं। यह अकारण नहीं है कि भक्ति आंदोलन के लोक जागरण का स्वर सूरसागर में तो बहुत कुछ सुरक्षित है लेकिन रामचरित मानस में वह पुनर्जागरण में रूपांतरित हो जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का दृष्टिकोण लोक जागरण के प्रति बहुत कुछ नकारवादी है तो तुुलसीदास के यथास्थितिवादी पुनर्जागरण के प्रति उनकी पूरी आस्था है।
सूर और तुलसी का यही दृष्टि भेद उनके काव्य नायकों, कृष्ण और राम के व्यक्तित्व निर्माण में भी अपनी भूमिका अदा करता है। सूर के कृष्ण पौराणिक कृष्ण नहीं है। हां, तुलसी के राम में पौराणिक कृष्ण का सीधा रूपांतरण अवश्य हुआ है। ÷चातुर्वर्ण मया स्रष्टं' और ÷सम्भवामि युगे युगे' का पुनर्पाठ तुलसी के राम प्रस्तुत करते हैं, सूर के कृष्ण नहीं। सूरदास ने पुराणकारों से सर्वथा भिन्न अपने कृष्ण का स्वयं निर्माण किया है और सूरसागर में कृष्ण की जो छवि उभरती है वह धर्मरक्षक कृष्ण की नहीं बल्कि लोकनायक और लोकरक्षक कृष्ण की। नटखट बाल गोपाल तो सूर की नितांत मौलिक कल्पना है। सूरदास के कृष्ण सामान्य मनुष्य का जीवन जीते हैं जबकि तुलसी के राम प्रायः ईश्वर ही बने रहते हैं। राम मर्यादा के बंधन में बंधे हुए हैं और कृष्ण उन्मुक्त और स्वच्छंद हैं। रामचरित मानस का समाज सूरसागर के समाज से बिल्कुल भिन्न समाज है, वह तुलसी का समय समाज भी नहीं, पौराणिक समाज है जिसमें ÷रामराज्य' की अतिरंजित कल्पना की गयी है। उस कल्पित रामराज्य में सभी वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आचरण करते हैं, घर घर में पुराण पाठ होता है, सागर अपनी मर्यादा में रहता है, चारों तरफ सुख, संतोष और विवेक का साम्राज्य है...आदि आदि। जाहिर है कि तुलसी युगीन समाज से इसका कोई सामंजस्य नहीं बैठता। रामचरित मानस विगत युगों की नैतिकता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। यहां तुलसी नहीं उनका मुखौटा बोलता है, पुराणकार का मुखौटा! मुखौटा सहायता भी करता है और रक्षा भी। शूद्रों और स्त्रिायों को अपमानित कीजिए, विप्रों की पूजा कीजिए, जो मन में आये सो कीजिए पाठ कुपाठ, पद कुपद; जवाबदेही के लिए मुखौटा तैयार! बड़े काम की चीज है यह मुखौटा! पता ही नहीं चलता कि आप बोल रहे हैं या मुखौटा! लेकिन बहुत देर तक आप इसे लगाये नहीं रख सकते, सांस फूलने लगती है, दम घुटने लगता है, और तब मुखौटे का मोह छोड़ना ही पड़ता है। सो, तुलसीदास को भी मुखौटा उतारना ही पड़ा, आखिर कब तक अपना असली चेहरा उसमें छिपाये फिरते? रामचरित मानस में इस मुखौटे ने पहचान का संकट खड़ा कर दिया था।
तुलसीदास का रामचरित मानस पूर्वार्द्ध की रचना है और विनय पत्रिाका, कवितावली, हनुमान बाहुक आदि को उनरार्द्ध के अंतर्गत रखा जा सकता है। पूर्वार्द्ध से उनरार्द्ध तक तुलसी की काव्य यात्राा वस्तुतः उनके मोहभंग की अंतर्यात्राा है जिसमें पौराणिक बोध से मुक्त होने और आधुनिक बोध से जुड़ने का द्वंद्वात्मक संघर्ष स्पष्ट दिखायी देता है। तुलसी को देखना है तो उनको उनरकालीन काव्य यात्राा में देखा जा सकता है, जहां वह पुराणकार की खोल से बाहर निकलते हुए एक सच्चे भक्त कवि के रूप में देखे जा सकते हैं, जहां तुलसी का अपना समय समाज है, जीवन के दुःख दर्द हैं,जददेजहद है। यहां असुर उत्पीड़न का कल्पित हाहाकार नहीं बल्कि अपने युग की कड़वी सच्चाई से सीधा साक्षात्कार है जिसमें तुलसी की आप बीती भी है और जग बीती भी। विनय पत्रिाका और कवितावली के जिस समाज का सामना तुलसीदास को करना पड़ता है वह उनका देखा सुना और भोगा हुआ समाज है। यही असली समाज है। दुख, दारिद्य, भूख, अकाल, लाचारी आदि के कितने ही यथार्थ चित्रा खींचे हैं महाकवि ने, जिनमें आपबीती का दर्द भी है और जगबीती की लोकपीड़ा भीद्र÷आगि बड़वागि से बड़ी है आगि पेट की। 1 किसान न खेती कर पा रहा है और न भिखारी को भीख मिलती है। दरिद्रता रूपी दशानन ने पूरे समाज को अपनी गिर त में ले रखा है जिसके कारण ÷जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोचबस/कहैं एक एकन सों कहां जाई का करी'2 की चिन्ता और अपने ही बनाये ÷रामराज्य' के कल्पित आदर्श से मोहभंग की पीड़ा सतत घनीभूत होती जाती है। ÷कहां जाई का करी' की चिन्ता चारों ओर से निराश थके हारे मनुष्य की चिन्ता है। जिस राम भक्ति को सारे रोगों का एकमात्रा इलाज मान लिया था उससे न दरिद्रता जा रही थी न दुख कम हो रहे थे। न अकाल दूर किया जा सकता था, न रोग शोक! यहां आकर ÷कलिमलहरनी' राम भक्ति का जादू टूटने लगता है। रामभक्ति और कलिकाल का द्वंद्व व्मशः प्रबलतर होता जाता है। कलिकाल के त्राास से तुलसी त्रास्त, पस्त और बेहाल हैं। विनयपत्रिाका में तो कलिकाल को देख कर ही वह हहर उठते हैं, नाम महिमा की याद दिलाते हुए राम से कष्ट मुक्ति की प्रार्थना करते हैं, अनुनय विनय करते हैं लेकिन सब व्यर्थ जाता है। कवितावली और हनुमान बाहुक में तो रामभक्ति और कलिकाल का द्वंद्व और घनीभूत हो जाता है। वर्णाश्रम के प्रति गहरी आस्था भी चरमराने लगती है और मृत्यु का त्राास तो सारी पुरानी आस्थाओं से विचलित कर देता है।
वस्तुतः रामभक्ति और कलिकाल का द्वंद्व आदर्श और यथार्थ का द्वंद्व है जिसमें यथार्थ की विजय होती है क्योंकि रामभक्ति पर कलिकाल का त्राास बराबर हावी है; यह बात दूसरी है कि थके हारे और पस्त होने के बावजूद तुलसी की आस्था अडिग बनी रहती है। मोहभंग की अंतर्यात्राा का अंतिम पड़ाव हनुमान बाहुक तो मृत्यु पीड़ा की चीख पुकार और आर्तनाद की करुण व्यथा का काव्य बन गया है। यहां सभी प्रार्थनाएं और आत्मव्ंदन अंततः मौन में विलीन हो जाते हैं और मोहभंग की इस चरम अवस्था में तुलसीदास पौराणिक बोध से मुक्त आधुनिक बोध के निकट दिखायी देते हैं। वैसे देखा जाय तो रामचरित मानस के अंत में ही मोहभंग की स्थिति प्रकट होने लगती है जहां उनरकांड के अंत में कलिकाल के लक्षण गिनाये गये हैं। तुलसीदास ने कलिकाल वर्णन दोहरे अथो में किया है। एक तो यह तुलसी युगीन सामाजिक यथार्थ का प्रतीक है और दूसरे धार्मिक ह्रास का पौराणिक प्रतीक। वर्णाश्रम के ह्रास के बाद ही कलिकाल प्रकट होता है। भारतीय काल विभाजन की परम्परा में यह ह्रासोन्मुखता का प्रतीक है और काल विभाजन का आधार धार्मिक है। सतयुग, त्रोता, द्वापर और कलियुग के रूप में प्रचीन युग विभाजन को उत्थान पतन और आशा निराशा के ऐसे परिवर्तन चव् के रूप में देखा गया है जो अनंत काल से चलता चला आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा। इन चार युगों के विश्वास के मूल में एक ऐसी निराशावादी मनोवृनि है जो यह मानती है कि मनुष्य नैतिक दृष्टि से व्मशः पतन की ओर बढ़ता जा रहा है। यह भी माना गया है कि सतयुग में धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा थी जो त्रोता युग में तीन चौथायी और द्वापर युग में आधी रह गयी। कलियुग में धर्म का प्रभाव पर्याप्त क्षीण हो गया और वह एक चरण पर खड़ा रह गया है।
इस तरह कलियुग को पतनोन्मुख मनोवृनि का युग माना गया है, जिससे यह अनादरसूचक घृणा का प्रतीक बन कर रह गया है। प्रायः सभी पुराणों में कलियुग के नैतिक ह्रास और चारित्रिाक पतन का बड़ा ही निराशाजनक वर्णन किया गया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ह्यप्रायः हर पुराण में बताया गया है कि इस युग में लोगों का नैतिक चरित्रा पतित हो जायेगा। श्रुति स्मृति में जिस आचार का निर्देश है, वह मिटने लगेगा। वर्णाश्रम व्यवस्था में गड़बड़ी आ जायेगी। शूद्र लोग संन्यास लेकर उच्च वणो को उपदेश देने का ढोंग रचेंगे।ऋ क्कहजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली; खंड-5, पृ. 20-21त्र् जाहिर है कि यह परिस्थिति बुद्ध के आंदोलन ने पहले ही पैदा कर दी थी और बौद्ध चिन्तक बड़े तार्किक ढंग से वर्णव्यवस्था और ब्राघ्मण श्रेष्ठता के पाखंड पर कड़ा प्रहार कर रहे थे। भारतीय इतिहास में बुद्ध का काल प्रगति और विकास का काल है और यही काल पुराणकारों का कलिकाल है। तुलसीदास का कलिकाल वर्णन इसी पौराणिक कलिकाल का पुनर्पाठ है। फर्क इतना ही है कि यहां निशाने पर बौद्ध आंदोलन के स्थान पर उसी से प्रभावित सिद्धों, नाथों और निर्गुण संतों का वंतिकारी आंदोलन आ गया है जो उसी तरह वर्णव्यवस्था और ब्राघ्मण श्रेष्ठता को चुनौती दे रहा था। इस आंदोलन से उत्पन्न कलियुगी प्रभाव का आकलन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने उनरकांड के अंत में कलियुग के कवियों को किस भाषा में याद किया है, बानगी के तौर पर कुछ उद्धरण दिये जा सकते हैंद्र
1. साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निन्दहिं वेद पुरान॥ 3
2. श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संजुत विरति विवेक।
तेहि परिहरहिं विमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥ 4
3. बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम तें कछु घाटि।
जानहिं ब्रघ्म सो विप्रवर आंखि देखावहिं डांटि॥ 5
4. असुभ वेष भूषन धरे भच्छा भच्छ जे खांहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलियुग मांहिं॥ 6
5. दंभिन निज मति कल्प करि प्रगट किये बहु पंथ। 7
6. बरन धरम नहिं आश्रम चारी/ श्रुति विरोध रत सब नर नारी। 8
7. सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना/ बैठि वरासन कहहिं पुराना॥ 9
क्या विडम्बना है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने पौराणिक पुनर्पाठ में कोल किरात आदि वन्य जातियों एवं निम्न वर्ग से आने वाले संत कवियों के साथ जो सलूक किया, बौद्ध, सिद्धों और अवधूतों को दम्भी और पाखंडी कहा; वही सलूक रूढ़िवादी ब्राघ्मणों ने स्वयं तुलसीदास के साथ किया। सतत्‌ अकेले पड़ते जाने की वेदना को तुलसीदास ने मोहभंग की अंतर्यात्राा में बराबर महसूस किया है। अकेलेपन की अनुभूति तब और गहरा जाती है जब उनकी जाति पांति के विरुद्ध उंगली उठने लगती हैद्र
धूत कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ। जोलहा कह कोउ+।
काहू की बेटी सों बेटा न व्याहब काहू की जाति बिगारि न सोउ+॥ 10
वर्णाश्रमधर्मी स्थिति से बाहर निकल कर इस नयी स्थिति में वह जाति पांति से परे हैं, किसी की बेटी से बेटा ब्याह कर उसकी जाति नहीं बिगाड़नी है। एकाकी पड़ते जाने की अंतर्व्यथा और स्वयं निर्मित वर्णाश्रमधर्मी संरचना से आत्म निर्वासन की पीड़ा, उस परिस्थितिजन्य मनोदशा का अहसास कराती है जिसके चलते शंकराचार्य को ÷प्रच्छन्न बौद्ध' कहे जाने का दंश झेलना पड़ा होगा। आकस्मिक नहीं है कि दोनों अपने अपने समय के महान समाहार कर्ना माने जाते हैं। दोनों को घर की ÷बिलबिल' और बाहर के ÷दुर दुर' से दो चार होना पड़ा। तुलसीदास रटते रह गये ÷पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना' 11 लेकिन यह उन पूजनीयों के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना यह कि ब्राघ्मण होकर तुलसीदास नीची जाति के संत महात्माओं के साथ उठता बैठता ही नहीं बल्कि खाता पीता भी है। उन्होंने ÷कागद की लेखी' पर विश्वास न कर ÷आंखिन देखी' पर ही विश्वास किया और उनकी दृष्टि में वर्णच्युत तुलसीदास जुलाहे कबीर और ÷भच्छाभच्छ' खाने वाले पाखंडी एवं धूर्त अवधूतों की कतार में ही रहने लायक समझे गये। कितना कठिन हैद्र ÷दो विरुद्धों का सामंजस्य', इसे तुलसीदास ने स्वयं महसूस किया थाद्र ÷हंसब ठठाइ फुलाउब गालू'। और हम हैं कि समन्वयवाद का झुनझुना बजाये चले जा रहे हैं। कागज पर समन्वय कर देना एक बात है, सामाजिक जीवन में दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं का सामंजस्य बिल्कुल दूसरी बात।
निर्गुण भक्ति आंदोलन अपने समय की एक वंतिकारी विचारधारा है जो वर्चस्ववादी संस्कृति के विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करती है। यदि रामचरित मानस में इन परस्पर विरोधी विचार परम्पराओं का सामंजस्य हो गया तो वर्णाश्रमधर्मी ÷रामराज्य' के ठीक नाक के नीचे प्रतिरोध की संस्कृति का वाहक कलिकाल कहां से प्रकट हो गया? रामराज्य अलग, कलिकाल अलगद्र ÷ज्ञान दूर कुछ व्यिा भिन्न' की शैली में, फिर समन्वय की ÷इच्छा' पूरी कैसे हो गयी? कहां हैं रामराज्य में दलित और अल्पसंख्यक, शूद्र और स्त्रिायां? शूद्रों और स्त्रिायों के लिए यदि किन्चित ÷स्पेस' है भी तो वह सदियों की गुलामी के साथ, कर्तव्य के बोझ से दबी हुई और अधिकारों से वंचित घृणा की सीमा तक अपमानित और तिरस्कृतद्र ÷अधम ते अधम अधम अति नारी।' 12 आकस्मिक नहीं है कि पौराणिक समाज में निरीह पशुओं की कतार में खड़े किये गये हैंद्र शूद्र और स्त्रिायां! पशुओं की तरह ही अपने मालिक के खूंटे से बंधे हुए हैं। जरा सी ढील देने से इनके बिगड़ जाने की चिन्ता पुराणकारों को बराबर सताती रहती हैद्र ÷जिमि सुतंत्रा भएं बिगरहिं नारी।' 13 आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसी को कर्तव्य की पुष्ट व्यवस्था कहते हैं और तुलसीदास के रामराज्य में स्थापित कर्तव्य की इस पुष्ट व्यवस्था को और पोख्ता बनाने का प्रयास करते हैं जिसे निर्गुणधारा के संतों ने बहुत कुछ छिन्न भिन्न कर दिया था।
तुलसीदास के कलिकाल वर्णन से जो सात उद्धरण उ+पर दिये गये हैं, उनमें से तीन आरम्भिक उद्धरणों के आधार पर आचार्य शुक्ल तुलसी की पुष्ट कर्तव्य व्यवस्था का आकलन करते हुए एक बार फिर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि ह्यसगुण धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को यदि किसी ने पहचाना तो गोस्वामी जी ने। उन्होंने देखा कि उनके वचनों से जनता की चिनवृनि में एक घोर विकार की आशंका है जिससे समाज विレाृंखल हो जायगा, उसकी मर्यादा नष्ट हो जायगी।ऋ क्करामचंद्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास; पृ. 134-35त्र् तुलसीदास ने जो देखा, सो देखा; उसे देख कर आचार्य शुक्ल ने कुछ और भी देखा जिसे देखने से तुलसीदास भी चूक गये थे। वह यह कि सगुण भक्ति भारतीय है और निर्गुण भक्ति अभारतीय, जबकि कबीर और तुलसी दोनों निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं मानते। दूसरी बात यह कि वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा पैदा करने वाले कबीर आदि के जाति पांति विरोधी विचारों से किस जनता की चिनवृनि में घोर विकार की आशंका है? शिक्षित जनता या अशिक्षित जनता? स्वयं शुक्ल जी के अनुसार ह्यइस पंथ क्कनिर्गुणत्र् का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता पर नहीं पड़ा... पर अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन संत महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है।ऋ क्कहिन्दी साहित्य का इतिहास; पृ.-73त्र् फिर कबीर के उपकार को खासतौर से रेखांकित करते हुए लिखते हैंद्र ह्यइसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और उसे भक्ति के उ+ंचे से उ+ंचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।ऋ क्कहिन्दी साहित्य का इतिहास; पृष्ठ-67त्र्
निश्चय ही कबीर की प्रशंसा में लिखी गयीं आचार्य शुक्ल की ये पंक्तियां न केवल कबीर के वंतिकारी व्यक्तित्व की ओर संकेत करती हैं बल्कि ठीक मौके पर जनता के बहुत बड़े भाग को संभाल लेने वाले और निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाने वाले कबीर के लोकजागरण की सामाजिक भूमिका की पहचान भी कराती हैं। सवाल यह है कि एक नाजुक मोड़ पर बहुत बड़े जन समुदाय को सही मार्ग दिखाने वाले, जनता में आत्मगौरव का बोध कराने वाले और भक्ति के उ+ंचे से उ+ंचे सोपान की ओर बढ़ने की पे्ररणा देने वाले कबीर के वंतिकारी विचार आखिर किस जनता की चिनवृनि में विकार पैदा कर रहे हैं? कहीं यह वही जनता तो नहीं जिसे कबीर सौ साल पहले फटकार चुके थे? और उस फटकार में पंडितों को फटकार भी शामिल थी जिसकी चर्चा आचार्य शुक्ल सिद्धों, नाथों और कबीर के मूल्यांकन में बार बार करते हैं, बाकायदा शीर्षक लगा करद्र ÷पंडितों की फटकार।' इस डांट फटकार वाली आलोचना का स्रोत भी तुलसी का वह उद्धृत दोहा है जिसका अंतिम बंद हैद्र ÷आंखि देखावहिं डांटि।' क्या कारण है कि सौ साल पहले कबीर के वंतिकारी विचार सौ साल बाद तुलसी तक आते आते विकार में बदल जाते हैं?
आश्चर्य तो इस बात का है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानस की धर्म भूमि के रास्ते तुलसी तक पहुंचते ही कबीर सम्बंधी अपने प्रगतिशील मूल्यांकन और कबीर की ÷प्रखर प्रतिभा' को वैसे ही भूल जाते हैं जैसे दुष्यंत शकुंतला कोद्र पता नहीं जानबूझ कर या किसी अभिशाप के कारण! जब तुलसी की आंख से कबीर को दुबारा देखते हैं तो अपनी आंख से उनका विश्वास ही उठ जाता है; अपने ही प्रगतिशील मूल्यांकन को खारिज कर कबीर का एक दूसरा ही चेहरा पेश कर देते हैं जो ÷मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि' कर रहा है। वह लिखते हैंद्र ह्यसाथ ही उन्होंने क्कतुलसीत्र् यह भी देखा कि बहुत से अनधिकारी और अशिक्षित वेदांत के कुछ शब्दों को लेकर यों ही ज्ञानी बने हुए मूर्ख जनता को लौकिक कर्तव्यों से विचलित करना चाहते हैं और मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि कर रहे हैं।ऋ क्कहिन्दी साहित्य का इतिहास; पृ. 135त्र् क्या उलटवांसी है कि यहां आते ही जनता में आत्मगौरव का भाव जगाने वाला ज्ञान ÷मूर्खता मिश्रित अहंकार' में बदल जाता है और आत्मगौरव के बोध से जागरूक जनता भी ÷मूर्ख जनता' में रूपांतरित हो जाती है। दूसरी बात यह कि ÷यों ही ज्ञानी बने हुए' का मतलब क्या है? ज्ञानी तो आपने ही बनाया ÷ज्ञानाश्रयी शाखा' से नाम जोड़ कर! देखने की बात यह है कि क्या कबीर की निम्नलिखित पंक्तियां शुद्धतावाद की वर्जनाओं से घिरे यथास्थितिवादियों के अलगाववाद के विरुद्ध लोकजागरण का संदेश दे रही हैं या मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि कर रही हैंद्र
1. चारिउ वेद पढ़ाइ करि, हरि सूं न लाया हेत।
बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूंढ़ै खेत॥ 14
2. बांम्हण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि पुरझि करि मरि रह्‌या, चारिउं बेदां माहिं॥ 15
3. पांडे+ कौन कुमति तोहिं लागी, तू राम न जपहिं अभागा। 16
4. काहें को कीजै पांडे+ छोति विचारा।
छोतिहीं तैं उपना सब संसारा॥ 17
5. हमारे कैसे लोहू तुम्हारैं कैसे दूध।
तुम्ह कैसे बांम्हण पांडे हम कैसे सूद॥ 18
6. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ॥ 19
7. सुन्नत कराय तुरुक जो होना, औरत को क्या कहिये।
अर्धशरीरी नारि बखानी, ताते हिन्दू रहिये॥
पहिरि जनेउ+ जो ब्राघ्मण होना, मेहरी क्या पहिराया।
वो तो जन्म की शूद्रिन परसे, तू पांडे+ क्यों खाया॥ 20
8. पांड़े बूझि पियहु तुम पानी।
जेहि मटिया के घर में बैठे, तामें सृष्टि समानी॥ 21
9. एकै जनी जना संसारा। कौन ज्ञान से भयउ निनारा॥ 22
जाहिर है कि यहां जाति व्यवस्था के पोषक अलगाववादियों को सम्बोधित इन उद्धरणों में जाति व्यवस्था की असंगतियों पर प्रश्न खड़ा करने वाले एक जागरूक रचनाकार का अपने विपक्षी की आंखों में आंखें डाल कर किया गया संवाद है, एक सार्थक संवाद जो वाद विवाद के बिना सम्भव भी नहीं है। इन उद्धरणों को तुलसीदास के उन सात उद्धरणों के साथ मिला कर देखा जाय तो वाद विवाद की एक विमर्शकारी स्थिति स्पष्ट दिखायी देती है। कबीर के इन प्रश्नों को तुलसीदास पूर्वपक्ष के रूप में लेते हुए अपने उनर पक्ष का प्रतिपादन करते हैं और इस विमर्श में आचार्य शुक्ल तुलसीदास के साथ खड़े हैं। अतः संतुलित दृष्टि वाले कबीर के इन वंतिकारी विचारों में यदि कोई विद्वान सामाजिक सांस्कृतिक अंतर्विरोधों को नजरंदाज कर उसमें केवल पंडितों और मुल्लाओं को फटकार ही सुन पाता है तो वह न केवल सरलीकरण का सहारा लेता है बल्कि जाने अनजाने उन्हीं यथास्थितिवादियों की कतार में स्वयं अपने को भी खड़ा कर लेता है। यदि कर्तव्य की पुष्ट व्यवस्था करने वाले वर्णाश्रमधर्मी समाज की मर्यादा रक्षा ही लौकिक कर्तव्य है और वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा करने वाला कबीर ÷मूर्ख जनता' को उन्हीं लौकिक कर्तव्यों से विचलित करना चाहता है तो निश्चय ही यह जनजागरण प्रगतिशील भी है और सराहनीय भी। कबीर और तुलसी सम्बंधी आचार्य शुक्ल की आलोचना के अंतर्विरोधों पर लीपापोती करने और अपने पूज्य की प्रतिमा की चमक बनाये रखने के लिए समन्वयवाद का दर्शन बड़ा सहायक सिद्ध होता है। यदि पूरे मध्यकालीन साहित्य को लोकजागरण का साहित्य मान लिया जाय तो तुलसीदास का पुनरुत्थानवादी स्वर अपने आप लोकजागरण में अंतर्भुक्त हो जायगा।
तुलसीदास ने भक्ति आंदोलन के समतामूलक सिद्धांत को स्वीकार तो किया लेकिन जनता को यह बताते हुए कि सामाजिक जीवन में तो जाति पांति के बंधन को मानना ही पड़ेगा, क्योंकि यह व्यवस्था तो भगवान की बनायी हुई है। तुलसी के राम यह घोषणा अवश्य करते हैंद्र
सब मम प्रिय सब मम उपजाये। सबते अधिक मनुज मोहिं भाये। 23
लेकिन ब्राघ्मण श्रेष्ठता को रेखांकित करना नहीं भूलतेद्र
तिन्ह मंहु द्विज द्विज मंह श्रुति धारी/तिन्ह मंहु निगम धरम अनुसारी। 24
सूर की भक्ति में सेवा, श्रद्धा और पूज्य भाव की अपेक्षा समतामूलक प्रेम भाव की प्रमुखता है जबकि तुलसीदास की शास्त्रासम्मत भक्ति दास्य भाव की भक्ति है जो स्वामी और सेवक के सामंती आदर्श को पुष्ट करती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि रामचरित मानस में दोहरी व्यवस्था कायम की गयी है जिससे वर्णाश्रम धर्म और भक्ति साथ साथ चलते दिखायी पड़ते हैं। समतामूलक भक्ति से वर्णाश्रम धर्म का सामंजस्य हो भी कैसे सकता है? कई एक बार शबरी और निषाद के प्रसंग को उद्धृत कर उसे समतामूलक भक्ति के प्रमाणपत्रा की तरह पेश किया जाता है। सवाल यह है कि क्या यह वही समतामूलक भक्ति है जिसे वर्णाश्रम व्यवस्था और ब्राघ्मण श्रेष्ठता को चुनौती देने वाले निर्गुण भक्ति आंदोलन में स्थापित किया था? यदि वही है तो देखने की बात यह है कि क्या इस भक्ति से वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा पर कोई आंच आती है या नहीं? तर्क तो यही दिया जाता है कि रामचरित मानस का समाज वर्णाश्रमधर्मी समाज नहीं, भक्ति समाज है अन्यथा ÷निषाद को गले लगाना किस स्मृति की व्यवस्था है?'25 निषाद को गले लगाने का प्रसंग निम्नलिखित हैद्र
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू/कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू।
राम सखा रिसि बरबस भेंटा/जनु महि लुटत सनेह समेटा॥
रघुपति भगति सुमंगल मूला/नभ सराहिं सुर बरसहिं फूला।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं/बड़ वशिष्ठ सम को जग माहीं॥ 26
कहां है यहां वर्णाश्रमधर्मी समाज से भक्ति का सामंजस्य? समाज अलग, भक्ति अलग! पहली और चौथी पंक्ति में वर्णाश्रम धर्म अपनी पूरी मर्यादा के साथ उपस्थित है तो दूसरी और तीसरी पंक्ति में भक्ति, उ+पर नीचे वर्णाश्रम धर्म से घिरी हुई। पहली पंक्ति में वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा का पालन और ब्राघ्मण श्रेष्ठता का सम्मान करते हुए केवट ने अपना परिचय देकर दूर से ही पूज्य के चरणों में दंडवत क्कजमीन पर लेट करत्र् प्रणाम किया। वर्णाश्रमधर्मी समाज में प्रजा के लिए ऐसे ही दंडवत प्रणाम का विधान है जिसे स्वीकार करने के लिए पूज्य के चरण ही काफी हैं। दूसरी पंक्ति में भक्ति है जहां वशिष्ठ राम सखा से गले मिलते हैं। इसलिए ब्राघ्मण वशिष्ठ ÷निपट नीच' केवट से कहां मिले? वह तो रामसखा से गले मिले और यह जान लेने के बाद कि वह कोई सामान्य केवट नहीं बल्कि मर्यादा पुरुषोनम राम का सखा निषादराज है जिसे उन्होंने स्वयं सम्मानित किया है। पहली पंक्ति में वर्णधर्म है तो दूसरी में लोकधर्म। लोकधर्म का पालन करते हुए वशिष्ठ रामसखा से गले मिलते हैं लेकिन वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा पर कोई आंच नहीं आती। तीसरी पंक्ति में भक्ति की महिमा का मंगल गान है तो चौथी पंक्ति में वर्णाश्रम धर्म और ब्राघ्मण श्रेष्ठता का गौरव गान। इसी को कहते हैंद्र सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे। वर्णाश्रम धर्म और लोकधर्मी भक्ति की यही समानांतरता भरत निषाद मिलन और शबरी प्रसंग में भी देखी जा सकती है। भरत निषाद मिलन भी ठीक उसी शैली मेंद्र
लोक वेद सब भांतिहिं नीचा/जासु छांह छुइ लेइअ सींचा।
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता/ मिलत पुलक परिपूरन गाता॥ 27
डॉ. रामविलास शर्मा यदि पूछ ही बैठें कि ÷निषाद को गले लगाना किस स्मृति की व्यवस्था है?' तो पूछा जाना चाहिए कि केवट के लिए ÷लोक वेद सब भांतिहिं नीचा/जासु छांह छुइ लेइअ सींचा' अथवा ÷एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं/बड़ वशिष्ठ सम को जग माहीं।' यदि स्मृति और शास्त्रा की व्यवस्था नहीं तो क्या इस व्यवस्था के विरोध में उठ खड़े हुए भक्ति आंदोलन की सामाजिक व्यवस्था है? वर्ण धर्म को पुष्ट करने वाला सेवा धर्म ही क्या राम भक्ति की मौलिक विशेषता नहीं है? राम की इस सेवा भक्ति में विभोर शबरी के आतिथ्य के प्रसंग में दासानुदास तुलसीदास ने लिखाद्र
÷कंद मूल फल सुरस अति, दिये राम कहुं आनि!
प्रेम सहित प्रभु खाये, बारम्बार बखानि!! 28
तो पता नहीं उन्होंने कैसे पढ़ लियाद्रऔरतों का जूठा खाना, वह भी बेर.. शबरी का प्रसंग उठा कर वह पूछते हैंद्र ह्यक्षत्रियों के लिए औरतों का जूठा खाना, वह भी बेर, किस शास्त्रा में लिखा है.ऋ29 माना कि नहीं लिखा है, लेकिन शबरी के परिचय में जो स्त्रा प्रशस्ति के कसीदे काढे गये हैंद्र अधम ते अधम अधम अति नारी' क्या वह भी शास्त्राीय विधान नहीं है ?   डॉ. रामविलास शर्मा भी चाहते तो अन्य तुलसी भक्तों की तरह कह सकते थे कि यह तुलसी का नहीं शबरी का कथन है, लेकिन उन्हें पता था कि रामचरित मानस में तुलसीदास कहां कुछ कहते हैं? जो कहना है वह ÷नानापुराणनिगमागम' कहते हैं, मानस के पात्रा कहते हैं, पशु पक्षी कहते हैं; यहां तक कि जड़ जंगम भी कहते हैं, नहीं कहते तो केवल तुलसीदास! हालांकि कुछ न कह कर भी सब कुछ वही कहते हैं। लेकिन ÷तुलसीदास ने यह नहीं कहा है' ऐसा बहुधा विघोषित वाक्य है जिसका तुलसीदास के पक्ष में, सुरक्षा कवच की तरह इस्तेमाल किया जाता है..........
इसी प्रकार भए सब साधु किरात किरातिनी/रामदास मिटि गयी कलुषाई' को उद्धृत करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैंद्र ह्यजब किरात और किरातिनें भी साधु होने लगीं तो कलियुग आ गया कि नहीं ? क्या इससे स्पष्ट नहीं कि तुलसी की भक्ति मानव मात्रा की साम्य भावना लेकर चली है,ऋ30 इस उद्धरण से डॉ. शर्मा क्या साबित करना चाहते हैं, स्पष्ट ही नहीं हो पाता, यह तो सही है कि कलिकाल वर्णाश्रम विरोधी चेतना का प्रतीक है और वर्णाश्रम व्यवस्था के छिन्न भिन्न होने पर ही प्रकट होता है,यह भी सही है कि किरात किरातिनों का साधु बनना यथास्थितिवादियों के लिए कलिकाल का लक्षण है, लेकिन इस कलिकाल से तुलसी की भक्ति को मानव मात्रा की साम्य भावना लेकर चलने वाली कैसे सिद्ध किया जा सकता है? यदि कलिकाल से तुलसी की भक्ति का सामंजस्य मान भी लिया जाय तो तुलसी ने रामकथा को लिमलहरनी' क्यों कहा? कलिकाल आया, इसमें संदेह नहीं; पर वह तो तुलसी से सौ साल पहले आया और लाने वाले थे कबीर, दादू आदि वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा करने वाले संत कवि, तुलसीदास के कलिकाल वर्णन में कोल किरात आदि वन्य जातियों सहित अलख जगाने वाले सिद्धों अवधूतों तथा ÷साखी सबदी दोहरा' कहने वाले कबीर आदि संतों को सूचीबद्ध किया गया है जिनकी भक्ति ने स्वयं आचार्य शुक्ल के अनुसार ÷मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे कर निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव' जगाया, निम्न श्रेणी की जनता के बीच से आने वाले किरात किरातिनों का साधु बनना उसी लोक जागरण का परिणाम है,यदि डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार तुलसी की भक्ति भी मानव मात्रा की उसी साम्य भावना को लेकर चली है तो कलिकाल के कवियों में उनका भी नाम होना चाहिए था पर वह तो ÷बरन धर्म नहिं आश्रम चारी/श्रुति विरोध रत सब नर नारी' 31 की चिन्ता से चिन्तित, वर्णाश्रम धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा में लगे हुए हैं जिसे कलियुगी कवियों ने छिन्न भिन्न कर दिया था। वर्णाश्रमधर्म की प्रतिष्ठा भी हो और मानवमात्रा की साम्य भावना पर आधारित वर्णाश्रम विरोधी भक्ति की स्वीकृति भी, ये दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं?
आकस्मिक नहीं है कि भक्ति आंदोलन के अंतर्विरोधों और तुलसी के मूल्यांकन में प्रगतिवादी आंदोलन के भटकाव को लक्ष्य कर, प्रगतिवादी आलोचकों को आगाह करते हुए मुक्तिबोध को लिखना पड़ा थाद्र ह्यआश्चर्य की बात है कि आजकल प्रगतिवादी क्षेत्रां में तुलसी के विषय में जो कुछ लिखा गया है, उसमें जिस सामाजिक, ऐतिहासिक प्रव्यिा के तुलसीदास जी अंग थे, उनको जानबूझ कर भुलाया गया है, पंडित रामचंद्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवाद ग्रस्त सामाजिकता और सच्चे जनवाद को एक दूसरे से ऐसे मिला दिया गया है मानो शुक्ल जी क्कजिनके प्रति हमारे मन में अत्यंत आदर हैत्र् सच्ची जनवादी सामाजिकता के पक्षपाती हो,ऋ क्कमुक्तिबोध रचनावलीः खंड-5, पृ. 294त्र् जाहिर है कि मुक्तिबोध ने न केवल तुलसी की पुराण मतवादी चेतना और समन्वयवाद की दोहरी व्यवस्था का विरोध किया है बल्कि उसे पुष्ट करने वाले ÷पंडित रामचंद्र शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवाद ग्रस्त सामाजिकता' और ÷सच्ची जनवादी सामाजिकता' में सामंजस्य स्थापित करने वाली प्रगतिवादी आलोचना के प्रति अपना आश्चर्य भी प्रकट किया है! इसलिए तुलसी के अंतर्विरोधों पर लीपापोती करने से न तो तुलसी महान्‌ हो जायेंगे और न ही अंतर्विरोधों को उजागर करने से उनका कद छोटा हो जायेगा.,,तुलसीदास मध्यकाल के सबसे बड़े कवि हैं तो केवल रामचरित मानस के कारण ही नहीं बल्कि अपनी उनरकालीन रचनाओंद्र विनय पत्रिाका, कवितावली और हनुमान बाहुक के कारण भी जहां उनकी अनुभूति की प्रामाणिकता असंदिग्ध है और वे पौराणिक मतवाद से मुक्त भी हैं। क्या कारण है कि तुलसीदास को वर्णाश्रमधर्मी जातिवाद ग्रस्त सामाजिकता के आरोपों से मुक्त बताने के लिए उद्धरण प्रायः इन्हीं उनरकालीन रचनाओं से जुटाये जाते हैं। विशेषतः कवितावली से जहां असुर उत्पीड़न के कल्पित हाहाकार के स्थान पर तुलसी के अपने समय समाज का करुण चीत्कार सुनायी पड़ता है; जहां भूख, अकाल, गरीबी और लाचारी के न जाने कितने कारुणिक चित्रा उकेरे हैं तुलसीदास ने। अतः उनरकालीन काव्य यात्राा में ही तुलसीदास के मध्यकालीन बोध की आधुनिकता भी दिखायी देती है।
सूरदास के सूरसागर में चित्रिात समाज, रामचरित मानस के पौराणिक समाज से बिल्कुल भिन्न समाज है। प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में चित्रिात कृष्ण का गोचारी जीवन, उन वैदिक आयो के स्वच्छंद जीवन की याद दिलाता है जो अपने पशुओं के रेवड़ के साथ सिन्धु और गंगा घाटी के मैदानों में उन्मुक्त विचरण किया करते थे। अतः सूरसागर में चित्रिात समाज चाहे वैदिक समाज की स्मृति क्कनास्टेल्जियात्र् हो अथवा भावी समाज का स्वप्न क्कयूटोपियात्र्, दोनों ही स्थितियों में वह मानस के बंद समाज से कहीं ज्यादा खुला हुआ आधुनिक समाज है और कभी कभी तो स्त्राी पुरुष सम्बंधों की सामाजिक उन्मुक्तता के कारण उनर आधुनिक जैसा भी प्रतीत होता है। इस जनतांत्रिाक समाज में न तो पुुरुष वर्चस्व की घुटन है और न वर्णाश्रमधर्म के विनाश की चिन्ता; न शूद्र, पशु, नारी की प्रताड़ना है और न ही किसी स्त्राी को अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता। यह एक स्वस्थ और हंसमुख समाज है जिसमें जीवन की चहल पहल है, राग रंग है और आनंद का उल्लास भी। मीराबाई की तरह लोकलाज और कुल मर्यादा को तार तार करने वाला विवाहित गोपियों का कृष्ण प्रेम स्त्राी मुक्ति का उद्घोष भी है और तत्कालीन सामंती पुरोहिती समाज व्यवस्था के लिए कड़ी चुनौती भी। आकस्मिक नहीं है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस उन्मुक्त प्रेम की प्रशंसा करते समय अंगे्रजी के युवा कवि शेली को याद करते हैंद्र ह्यसूर के कृष्ण और गोपियां पक्षियों के समान स्वच्छंद हैं। वे लोक बंधनों से जकड़े हुए नहीं दिखाये गये हैं। जिस प्रकार के स्वच्छंद समाज का स्वप्न अंगे्रज कवि शेली देखा करते थे उसी प्रकार का यह समाज सूरदास ने चित्रिात किया है।ऋ क्कभ्रमर गीत सार : सम्पा. रामचंद्र शुक्ल, भूमिका पृ. 17त्र्
लीला गान की परम्परा लोक परम्परा है और सूरसागर लोक परम्पराओं और लोक तत्वों का आकर ग्रंथ है जिसमें नटखट गोपाल की बाल लीलाओं से लेकर प्रेमलीला के मधुर मनोरम चित्रा भरे पड़े हैं। इसलिए सूरसागर के लोकनायक कृष्ण लीला पुरुषोनम भी हैं तथा कला विलास के लालित्य एवं नाटकीय व्यक्तित्व के कारण शिव की तरह नटनागर भी, लेकिन राम को लोकरक्षक और कृष्ण को लोकरंजक कहना अंतिम सत्य नहीं हो सकता,माना कि सूर के कृष्ण धर्म रक्षा के लिए अवतार लेने वाले कृष्ण नहीं हैं लेकिन लोक रक्षा को धर्म रक्षा का पर्याय माने बिना क्या राम को लोकरक्षक कहा जा सकता है? लोक रक्षा क्या धर्म रक्षा तक ही सीमित है? कहीं इसलिए तो नहीं कि सूर के कृष्ण भी कबीर के राम की तरह धनुर्धर नहीं हैं। लेकिन कबीर ने तो अवतारवाद को स्वीकार ही नहीं किया और धुनर्धर राम को निर्गुण ब्रघ्म में रूपांतरित कर भक्ति के क्षेत्रा में एक नया प्रयोग किया, भले ही उसकी निर्गुण भक्ति को परम्परा बाघ्य घोषित कर दिया जाय! पर वह कबीर ही क्या जो परम्परा की रूढ़ियों को स्वीकार करता फिरे; आखिर अस्वीकार का अदम्य साहस लेकर जो पैदा हुआ था! पैदाइशी विद्रोही, शायद मध्यकाल का आदि विद्रोही भी!  शंकराचार्य जी का क्रांतिकारी  अद्वैत सिद्धांत वर्णवाद का समर्थन करने के कारण कोरा सिद्धांत बन कर रह गया था ! उसकी अंतर्विरोधी असंगतियों पर अनेक प्रश्न खड़ा कर सामाजिक जीवन में उसे चरितार्थ करने का श्रेय तो कबीर को ही जाता है ! रही बात सूरदास के कृष्ण की तो वे धनुर्धर न सही, वंशीधर तो हैं और सूरसागर के स्वच्छंद समाज के अनुकूल बांसुरी की भूमिका ही महत्वपूर्ण है....
अतः यदि धर्म रक्षा को ही लोक रक्षा का पर्याय मान लिया जाय और तुलसीदास के मोह एवं पुराण मतवादी दुराग्रह से मुुक्त होकर विचार किया जाय तो रावण का वध करने के कारण जैसे राम लोकरक्षक हैं वैसे ही कंस का वध करने के कारण कृष्ण भी लोकरक्षक हैं। इसी प्रकार रावण के साथी मारीच, खरदूषण और ताड़का का निपात यदि राम को लोकरक्षक बना सकता है तो कंस के साथी अघासुर, बकासुर और शकटासुर का निपात कृष्ण को लोकरक्षक क्यों नहीं बना सकता? सच बात तो यह है कि आचार्य शुक्ल में वीरपूजा का भाव इतना प्रबल है और वीरधर्म, राजधर्म और क्षात्राधर्म के प्रति इतनी गहरी आस्था है कि न केवल सगुण भक्ति काव्य बल्कि वीर गाथाओं के मूल्यांकन में भी इनकी भूमिका निर्णायक रही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वर्ण धर्म के संरक्षक क्षात्राधर्म में शुक्ल जी की आस्था उतनी ही अडिग है जितनी मोहभंग के बावजूद राम भक्ति में तुलसीदास की आस्था, आचार्य शुक्ल को सूरदास से यही शिकायत है कि धर्मरक्षा के लिए क्षात्राधर्म के जिस तेजस्वी व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, सूर ने अपने कृष्ण को उस रूप में ढालने का प्रयत्न ही नहीं किया !  थोड़ा बहुत जो प्रयत्न मिलता है, वह बाललीला के अंतर्गत आता है, प्रेमलीला से पहले!  अब कृष्ण को भी, पता नहीं ऐसी क्या जल्दी थी कि दूध के दांत भी नहीं निकले कि पूतना सहित कागासुर, शकटासुर और तृणावर्न का काम तमाम कर दिया और जब गोचारण के लिए वन जाने लगे तो इसी बीच बकासुर और अघासुर को भी किनारे लगा दियाद्र बिना किसी शोरशराबे के; न कोई चीत्कार न हाहाकार! इसीलिए तो देवताओं ने भी कोई ÷नोटिस' नहीं ली, जाहिर है कि सूरदास ने कल्पित असुर संहार की पौराणिक घटनाओं को ज्यादा तूल न देकर उसे भी अन्य लीलाओं की तरह बाललीला के अंतर्गत बाल कौतुकी के रूप में ही चित्रिात किया है
जब हम जानते हैं कि पौराणिक पुनरुत्थान के सुसंगत विस्तार में सूरदास की न कोई विशेष रुचि है और न असुरों के निपात चित्राण में उनकी वृनि लीन हुई है तो सूर के असुर निपात चित्राण में तुलसीदास जैसा, ओज, उत्साह और उल्लास ढूंढना बेकार है,इसलिए सूरसागर में असुरों का अत्याचार यदि आचार्य शुक्ल को ÷सभ्य अत्याचार' जान पड़े तो क्या आश्चर्य ?
आचार्य शुक्ल के अनुसार कंस और उसके सहायक असुर, रावण और उसके साथी राक्षसों की तरह लोक उत्पीड़क या लोकशत्राु नहीं हैं। इसका कारण बताते हुए उन्होंने लिखा हैद्र ह्यरावण के साथी राक्षसों के समान वे ब्राघ्मणों को चबा चबा कर हड्डियों का ढेर लगाने वाले या स्त्री  चुराने वाले नहीं दिखायी पड़ते ! उनके कारण वैसा हाहाकार नहीं सुनायी पड़ता!उनका अत्याचार ÷सभ्य अत्याचार' जान पड़ता है, ऋ क्कभ्रमर गीत सार : सम्पा.द्र रामचंद्र शुक्ल; भूमिका; पृ. 13त्र् रावण के साथी राक्षसों द्वारा स्त्राी चुराये जाने का कोई प्रसंग तो याद नहीं आताद्र हां, रावण द्वारा सीताहरण की घटना तो सभी जानते हैं, इसलिए रावण को लोक उत्पीड़क या लोकशत्राु मान लेने में कोई कठिनाई नहीं है लेकिन ÷ब्राघ्मणों को चबा चबा कर हड्डियों का ढेर लगाने वाले' रावण के साथी राक्षसों को भी लोक उत्पीड़क या लोक शत्राु क्यों मान लिया जाय? जबकि कंस को लोक शत्राु मानने में आचार्य शुक्ल काफी कठिनाई का अनुभव करते हैं,,दूसरी बात यह कि रावण के साथियों के अत्याचार के विषय में तुलसीदास ने लिखा कुछ, और शुक्ल जी ने पढ़ा कुछ और,इस संदर्भ में तुलसीदास ने लिखा हैद्र
अस्थि समूह देखि रघुराया/पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया !!
निसिचर निकल सकल मुनि खाये/ सुनि रघुवीर नयन जल छाये !!
 

क्करामचरित मानस : अरण्य कांड; दोहा 9त्र्
पुराणों में असुरों के वध को न्यायसंगत ठहराने के लिए उनके अत्याचार को बढ़ा चढ़ा कर कहने की परम्परा है। तुलसीदास का यह प्रसंग उसी का पुनर्पाठ है। इसके साथ ही रामचरित मानस में दलित और स्त्राी विरोधी पौराणिक कुपाठों के और भी अनेक पुनर्पाठ मिलते हैं जिन्हें तुलसी का कमजोर पक्ष कह कर टाला नहीं जा सकता। लेकिन यहां पर फिर भी तुलसीदास ने असुरों के असभ्य अत्याचार के प्रमाण रूप में मुनियों के ÷अस्थि समूह' के संयमित चित्राण द्वारा राम को असुर संहार के लिए उत्प्रेरित किया है और द्रवीभूत राम पृथ्वी को राक्षस विहीन करने का संकल्प भी करते हैं लेकिन आचार्य शुक्ल को तुलसी का असभ्य अत्याचार वर्णन कुछ कम असभ्य प्रतीत हुआ इसलिए उसे कुछ और असभ्य बनाने की प्रव्यि में उन्होंने ÷अस्थि समूह' को ÷हड्डियों के ढेर' में बदल दिया जिससे कुछ ज्यादा ही व्रता का बोध हो सके !  मुनि कहने से तो जैन मुनि का भी बोध होता है और ब्राघ्मणेतर वणो से भी मुनि होते ही आये हैं इसलिए आचार्य शुक्ल ने न जाने किस ÷डी.एन.ए. टेस्ट' से यह साबित करके ही दम लिया कि यह ÷अस्थि समूह' ब्राघ्मणों की ही हड्डियों का ढेर है। इससे लोकव्यापी हाहाकार में वृद्धि तो होती ही है, ब्रघ्महत्या के कारण असुरों का अपराध और भी अक्षम्य हो जाता है; सामाजिक उनेजना फैलती है, सो अलग, जिसे तुलसीदास ने भरसक बचाने का ही प्रयास किया है। यहां तो आचार्य शुक्ल तुलसीदास से कहीं ज्यादा पुराणपंथी प्रतीत होते हैं। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि कंस कृष्ण का व्यक्तिगत शत्राु है तो ब्राघ्मणों की हत्या करने वाले रावण के साथी ब्राघ्मण शत्राु न होकर लोक शत्राु कैसे हो गये? यदि गोकुल और उसके नायक कृष्ण का उत्पीड़न लोक उत्पीड़न नहीं है तो ब्राघ्मणों के उत्पीड़न को लोक उत्पीड़न मानने का तार्किक आधार क्या है ? क्या ब्राघ्मण लोक का पर्याय है?
माना कि पौराणिक मतवाद के अनुसार गो, ब्राघ्मण और स्त्राी अबध्य हैं और उनकी हत्या करने वाला पाप का भागी और मृत्युदंड का अधिकारी होता है। अतः ब्राघ्मणों की हत्या करने वाले मारीच और खरदूषण का निपात न्यायसंगत और उचित है, लेकिन ताड़का का निपात? वह भी मर्यादा पुरुषोनम के हाथों ? फिर भी उनकी मर्यादा पर कोई आंच नहीं आती ? वह तो खैर भगवान हैं, सर्व शक्तिमान हैं, पाप और दंड से परे हैं लेकिन महान्‌ मर्यादावादी तुलसीदास की मर्यादा को तो देखिये कि जिस ओज और उत्साह के साथ वे मारीच और खरदूषण के निपात का वर्णन करते हैं, उसी ओज और उत्साह के साथ ताड़का निपात का भी ! हैरानी की बात तो यह कि आचार्य शुक्ल भी उसी उत्साह के साथ गोस्वामी जी की पीठ थपथपाने लगते हैं जैसे उन्होंने कोई बड़े पुण्य का काम कर दिया है। वस्तुतः आचार्य शुक्ल पौराणिक मतवाद, तुलसी और रामचरित से इतने आवंत हैं कि मानस में तुलसी के कमजोर पक्ष को भी शक्तिशाली मान लेने से उन्हें मानस में सब कुछ हरा हरा ही दिखायी देता है प्रखर समाजवादी चिन्तक डॉ. राम मनोहर लोहिया के मन में ÷तुलसी की रामायण' के प्रति अपार श्रद्धा थी। रामायण मेला के आयोजन द्वारा वह जनता में विवेक जगाना चाहते थे इसलिए अंधश्रद्धा के शिकार नहीं हुए !मेले के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा हैद्र ह्यतुलसी की रामायण में निश्चय ही सोना, हीरा, मोती बहुत है, लेकिन कूड़ा और उच्छिष्ट भी काफी है! इन दोनों को धर्म से इतना पवित्रा बना दिया गया है कि भारतीय जन की विवेक दृष्टि लुप्त हो गयी है ! इस मेले का उद्देश्य है कि भारतीय जनता वह विवेक दृष्टि पुनः प्राप्त करे।ऋ क्कमर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व : रामायण मेला शीर्षक लेख, पृ. 35त्र् जाहिर है कि डॉ. लोहिया के लिए तुलसीकृत रामायण एक धर्मग्रंथ मात्रा नहीं बल्कि ऐसा बेशकीमती हीरा था जिसकी चमक वह पूरे विश्व को दिखाना चाहते थे और हीरे में चमक लाने के लिए उसे तराशना पड़ता है.......
अवतारवाद के तमाम पौराणिक नुस्खों के प्रति आचार्य शुक्ल पूरी तरह आस्थावान हैं। यही कारण है कि रामचरित मानस के आदर्श पर वे असुरों के निपात के अवसर पर देवताओं की पुष्प वृष्टि को इतना महत्व देते हैं कि उसी को किसी असुर के लोक उत्पीड़क या लोकशत्रा होने तथा उसके उत्पीड़न के लोकव्यापी प्रभाव को मापने का प्रतिमान मान लेते हैं..दृष्टि धरती की ओर नहीं आकाश की ओर लगी है, इस प्रतिमान को जब वह सूरसागर पर लागू करते हैं तो किन्चित निराश हो जाते हैं क्योंकि सूरदास ने देवताओं को फूल बरसाने का अवसर ही बहुत कम दिया है ,आचार्य शुक्ल लिखते हैंद्र ह्यकागासुर, बकासुर और शकटासुर को हम लोक उत्पीड़कों के रूप में नहीं पाते हैं,,केवल प्रलम्ब और कंस के वध पर देवताओं का फूल बरसाना देख कर उक्त कर्म के लोकव्यापी प्रभाव का कुछ आभास मिलता है, ऋ क्कभ्रमर गीत सार : सम्पा. रामचंद्र शुक्ल, भूमिका, पृ. 14त्र् यदि देवता फूल न बरसाते तो प्रलम्ब और कंस को लोक उत्पीड़क था लोकशत्रा मानने को शुक्ल जी तैयार न थे ! सच तो यह है कि सूरदास देवताओं के उतने मोहताज न थे, उनकी दृष्टि धरती की ओर है आकाश की ओर नहीं ! इसीलिए देवताओं की प्रसन्नता की अपेक्षा वह मनुष्यों की प्रसन्नता को और देव लोक की अपेक्षा मानव लोक को ज्यादा महत्व देते हैं..सूरसागर में असुर निपात से किन्चित भयभीत कृष्ण के दोस्त मित्रा फूल मालाओं से अपने लोकनायक का अभिनंदन कर परस्पर हर्षोल्लास मनाते हैं.. देवता फूल बरसायें या न बरसायें, इससे सूरदास को कोई फर्क नहीं पड़ता.......
असुर निपात के अवसर पर देवताओं का फूल बरसाना वस्तुतः अत्याचार से पीड़ित पृथ्वी की पुकार, देवताओं के कान और आंख तथा ईश्वर के धनुषबाण के बीच असुरों के साथ खेले जाने वाले अवतारवादी पौराणिक खेल का एक हिस्सा है जिसमें सूरदास की विशेष दिलचस्पी नहीं है! ईश्वरीय चमत्कार के इस खेल में सूरदास के बाल कृष्ण भी शामिल अवश्य हैं किन्तु उनकी बालक्रीड़ा का ईश्वरीय चमत्कार पौराणिक खेल से किन्चित भिन्न है ! यहां लक्ष्य असुर संहार नहीं बल्कि असुरों के आघात से आत्मरक्षा का संघर्ष है ! कृष्ण की आत्मरक्षा ही ब्रज की लोकरक्षा है। वह ब्रजनाथ हैं, ब्रज वल्लभ हैं, ब्रज के प्राण हैं और सब मिला कर ब्रज की नाभि हैं कृष्ण। कहते हैं कि राम रावण युद्ध के लगातार खिंचते चले जाने से, अशोक वाटिका में व्याकुल सीता ने जब त्रिाजटा से रावण के मारने का उपाय पूछा तो उसने यही बताया कि रावण की नाभि में सीता बसती हैं अतः नाभि पर प्रहार करके ही उसे मारा जा सकता है!  इस तरह रावण की नाभि में सीता और सीता के प्राणों में मर्यादा पुरुषोनम, सो, रावण का संहार हुआ और सीता का उद्धार भी, लेकिन यहां तो ब्रज की नाभि में लीला पुरुषोनम बसते हैं अतः नाभि पर किया जाने वाला हर आघात आत्मघाती सिद्ध होता है, पालने में सोये हुए शिशु कृष्ण तो पूतना, कागासुर और शकटासुर के आघातों से आत्मरक्षा का प्रयत्न करते हैं, अब इस प्रयास में उनका संहार हो जाता है तो इसमें शिशु कृष्ण का क्या दोष? वह तो ईश्वरीय चमत्कार का खेल खेल रहे हैं जिसे ब्रजवासियों सहित नंद और यशोदा जान भी नहीं पाते, उनके लिए तो यह कोई दुर्घटना या दैवी आपदा थी जो टल गयी ! इसके लिए वे ईश्वर का लाख लाख शुव्यि अदा करते हैं कि पालने में खेलने वाला उनका प्यारा शिशु, किसी अज्ञात आपदा की चपेट में आने से बाल बाल बच गया,,मां यशोदा लोन राई से नजर उतार कर शिशु कृष्ण की बलैया लेना नहीं भूलतीं......
गोकुल से आरम्भ हुआ आत्मरक्षा का संघर्ष आगे चल कर ब्रज की लोकरक्षा में धनीभूत हो जाता है.. वे ब्रघ्मा द्वारा चुरायी गयी नंद घोष की गायों को वापस लाते हैं, दावाग्नि में घिरे ब्रजवासियों को बचाते हैं और इंद्र के कोप से डूबते ब्रज की रक्षा कर ब्रघ्मा और इंद्र का गर्व मोचन करते हैं,,अतः सूरसागर में चित्रित कृष्ण का जीवन संघर्ष सतह से उठते हुए सामान्य मनुष्य का संघर्ष है जो आगे चल कर लोकरक्षा के अपने प्रयत्नों से लोकनायक का गौरव अर्जित करता है, ईश्वर होकर भी कृष्ण सूरसागर में एक सामान्य मनुष्य का जीवन जीते हैं. बाल्यावस्था में सामान्य ग्वाल बालों के साथ उसी प्रकार खेलना कूदना, हंसना हंसाना, हारना जीतना, चिढ़ना चिढ़ाना, माखन चोरी करते रंगे हाथ पकड़े जाने पर तरह तरह के बहाने बनाना, अपनी गलती दूसरों पर थोप कर साफ साफ बच निकलना आदि बालक कृष्ण की कतिपय विशिष्टताएं हैं जो उन्हें सामान्य बालकों से थोड़ा अलग करती हैं और इसी के चलते वे साथियों के बीच टोली नायक बन जाते हैं जो लोकनायक बनने का पूर्वाभ्यास जैसा प्रतीत होता है ,ब्रज का समाज हंसमुख समाज हेै तो इसलिए कि वह नारी प्रधान समाज है जो मातृ सनात्मक समाज की याद दिलाता है, कहने को तो नंद कुल परिवार के मुखिया हैं पर हुक्म तो मां यशोदा का ही चलता है,समता और स्वतंत्राता का सम्मान स्त्राी प्रधान समाज की विशेषता है, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां ज्यादा मुखर हैं ! कहीं कोई दबी सहमी स्त्री  नहीं दिखायी देती, गोपियां उद्धव की ही नहीं, कृष्ण की भी खिंचायी करती हैं, खरी खोटी सुनाती हैं और कभी कभी तो बड़ी चुभने वाली बात भी कह जाती हैंद्र दोटूक और स्पष्ट, अधिकार भरे दर्प का ऐसा कठोर संवाद क्या किसी ईश्वर के साथ सम्भव है? राम ने धर्म रक्षा के लिए अवतार लिया था और रामचरित मानस में ईश्वर का ही जीवन जिया। जहां कहीं तुलसीदास ने पौराणिक घटना की अपेक्षा लोक जीवन को अधिक महत्व दिया है वहां राम का व्यक्तित्व कहीं ज्यादा सहज, सामान्य और मानवीय लगता है और ईश्वरत्व की दूरी मिट जाने से वे हमारे अपने ही बीच के लगने लगते हैं,अयोध्या के सामंती परिवेश से बाहर निकल कर दंडाकारण्य तक कल कल बहती राम कथा में विशेष रूप से राम के इस व्यक्तित्व की विशेषताएं देखने को मिलती हैं। लेकिन बीच बीच में राम के ईश्वरत्व की याद दिलाते रहने से सहज मानवीयता जड़ीभूत हो जाती है, शक्ति बाण से घायल लक्ष्मण के प्रति राम का विलाप भी भाई के प्रति भाई के दुख और सच्चे प्रेम की अभिव्यक्ति न होकर ईश्वरीय लीला का अभिनय बन जाता है,मानस के श्रोताओं में समय समय पर राम के मनुष्य होने का संदेह और वक्ताओं द्वारा उनके भ्रम निवारण का प्रयत्न तो चलता ही रहता है, अवतारवाद के पौराणिक दुराग्रह के कारण ही मां कौशल्या को भी जमुहाई के बहाने मुंह खोल कर त्रिलोक दर्शन कराते हुए स्वयं राम अपने त्रालोकी नाथ होने का अहसास कराते रहते हैं, ईश्वरीय विशिष्टता के सतत अहसास के कारण राम के साथ परिवारीजनों का सहज स्वाभाविक रिश्ता न बन कर एक पूज्य भाव का आदर्श बराबर हावी रहता है.....
पौराणिक अवतारवाद का सुसंगत विकास यदि रामचरित मानस में हुआ है तो जाहिर है कि असुर उत्पीड़न का लोकव्यापी कल्पित हाहाकार और धर्मरक्षा के प्रयत्नों का विस्तार भी वहीं देखने को मिलेगा, अकारण नहीं है कि रामचरित मानस में कदम कदम पर पुष्प वृष्टि के मनोरम दृश्य देखने को मिलते हैं लेकिन रावण वध के अवसर पर देवताओं ने दिल खोल कर जितनी पुष्प वृष्टि की है उतनी तो पूरे रामचरित मानस में सब मिला कर भी न हुई होगी ! रावण के बड़े लोकशत्रा होने का इससे बड़ा प्रमाणपत्रा भला और क्या होगा ? अतः सीताहरण के लिए रावण का अपराध अक्षम्य है और सहायकों सहित उसका मृत्युदंड भी न्यायसंगत है लेकिन हजारों की संख्या में स्त्रियों बच्चों सहित लंकावासियों का क्या दोष ? भीषणतम आगजनी की आतंकवादी कार्रवाई अत्याचार की किस कोटि में आती है  ? सभ्य अत्याचार या असभ्य अत्याचार? खासतौर से तब और विचारणीय है जब वह सभ्य समाज के महानायक मर्यादा पुरुषोनम के पक्ष से की गयी हो,,,,,,,,
अपने समय समाज के उत्पीड़न को अनेदखा कर कल्पित देवासुर संग्राम की स्मृति में खो जाना और पौराणिक उत्पीड़न को अनावश्यक इतना महत्व देना वस्तुतः समाज के वास्तविक तकाजों से जनता का ध्यान हटा कर उसे एक काल्पनिक मायालोक में भटकाना है,, क्या राम रावण का युद्ध और उसका तानाबाना इतना इकहरा और सपाट है ? हजारों साल के इतिहास में परस्पर विरोधी सांस्कृतिक परम्पराओं की द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति का प्रतीक हैद्र वह संघर्ष  ! देवासुर संग्राम की तो कार्बन कापी ही है, उसमें आर्य और अनार्य, निगम और आगम, ब्राघ्मण और अब्राघ्मण, वैष्णव और शैव तथा सगुण और निर्गुण की परस्पर विरोधी स्थितियां भी मौजूद हैं..सब मिला कर देखा जाय तो राम रावण के प्रतीकात्मक संघर्ष का निहितार्थ वर्चस्व की संस्कृति बनाम प्रतिरोध की संस्कृति का संघर्ष है जिसमें तमाम जातीय विजातीय परम्पराओं की जय पराजय की स्मृतियां समाहित हैं और ये स्थितियां सपाट और एकतरफा कभी नहीं रहीं,इसलिए यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यथास्थितिवाद को बनाये रखने के लिए दी गयी ÷नानापुराण निगमागम' की साक्षी किसी समन्वय की विराट चेष्टा है। वर्चस्ववादी संस्कृति की रक्षा और प्रतिरोध की संस्कृति का नकार ही रामकथा का पौराणिक लक्ष्य है !मर्यादा पुर्श्तोत्तं  राम इस वर्चस्ववादी संस्कृति के महानायक हैं और प्रतिरोध की लम्बी सांस्कृतिक परम्परा जिसके प्रति घृणा और हिकारत का भाव व्यक्त किया गया है, उसे प्रतिपक्ष के व्यक्तित्व में आरोपित कर दिया गया है ! इस प्रकार जब विपक्ष के प्रति घृणा और हिकारत तथा आत्मपक्ष के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव बद्धमूल कर दिया जाय तो न्याय और अन्याय का विवेक सम्मत निर्णय आस्था का प्रश्न बन जाता है जो अंधश्रद्धा की ओर ले जाता है और ऐसी स्थिति में अपना पक्ष न्याय का पक्ष और विपक्ष पूरी तरह अन्याय का पक्ष बन कर रह जाता है........
अतः विवेकहीन रूढ़ संस्कारों से न्याय और अन्याय का निर्णय नहीं किया जा सकता..घटनाओं को अपने पक्ष में न्यायसंगत ठहराने के लिए चाहे जितने भी तर्क गढ़ लिए जायें, सच हमेशा सच ही रहेगा!  क्या यह सच नहीं है कि राम ने ताड़का का निपात किया, छिप कर बालि की हत्या की और क्या यह भी सच नहीं है कि झूठ का सहारा लेकर मर्यादा पुरुषोनम ने सुुपर्णखा को लक्ष्मण के पास जाने के लिए उकसाया? दलीलें चाहे जितनी भी गढ़ ली जायें, सच यही है कि किसी स्त्राी का उत्पीड़न और अपमान पूरी स्त्राी जाति का अपमान है; चाहे पक्ष की हो या विपक्ष की......यह सच है कि रावण ने सीता का अपहरण कर घोर अन्याय किया लेकिन यह भी सच है कि उसने सीता को अपने महल से बाहर अशोक वाटिका में स्त्रिायों की सुरक्षा के बीच सम्मान के साथ रखा। हां, इतना जरूर है कि अपनी बात मनवाने के लिए और न मानने पर डराने धमकाने के लिए वहां जाता अवश्य था लेकिन सीता की इच्छा और मान मर्यादा के विरुद्ध उसने कोई दुराचरण किया हो, ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता, दूसरी बात यह कि उत्पीड़न का हाहाकार सिर्फ हाहाकार होता है, चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का,ऐसा नहीं है कि अपने पक्ष का उत्पीड़न तो गगनभेदी और लोकव्यापी हाहाकार पैदा करे और विपक्ष का उत्पीड़न एकदम बेआवाज और फुस्स हो जाय,लंकादहन की घटना से रावण के लोक में भी वैसा ही हाहाकार मचा होगा जैसा मुनियों के उत्पीड़न और सीताहरण की घटना से हमारे लोक में, हम उसे न सुनें या न सुनना चाहें, यह बात दूसरी है,,
लंकादहन के हाहाकार की तो खैर बात छोड़िये, रावण द्वारा सीताहरण के उत्पीड़न से होने वाले लोकव्यापी हाहाकार को तो आचार्य शुक्ल सुन लेते हैं और देख भी लेते हैं लेकिन सूरसागर में द्रौपदी की हाहाकारी चीत्कार को न सुन पाते हैं न देख पाते हैं ! यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जो लोक सीता क्कमाया कीत्र् के उत्पीड़न पर हाहाकार कर उठता है, वही लोक द्रौपदी के चीत्कार के समय अपने कान भी बंद कर लेता है और आंखें भी मूंद लेता है। बहरहाल, लोक देखे या न देखे; सूरदास ने अपनी बंद आंखों से छूकर द्रौपदी की अंतर्व्यथा को देखा, उसके चीत्कार को सुना और मनोभावों में हो रही हलचल को महसूस भी कियाद्र
जितनी लाज गुपालहिं मेरी !
तितनी नाहिं बधू हौं जिनकी, अम्बर हरत सबन तन हेरी !
पति अति रोष मारि मन हीं मन, भीषम दई बचन बंधि बेरी !!
क्कसूरसागर : पहला खंड; प्रथम स्कंध; पद 252त्र्
किसी स्त्री  का हरण एक बात है, किसी का चीरहरण बिल्कुल दूसरी बात, हरण दुखद है पर चीरहरण दुख की किसी परिभाषा से परे; तब तो और भी जब वह भरी सभा के बीच पांचों पतियों सहित तमाम पुरुषोंद्र महापुरुषों की उपस्थिति में किया जा रहा हो, यह तो किसी एकांतिक बलात्कार से भी ज्यादा मर्मांतक ऐसा सामाजिक बलात्कार है जो असहनीय भी है और अनिर्वचनीय भी, इसकी कोई पुरुष व्याख्या तो सम्भव नहीं, कोई स्त्राी व्याख्या भी शायद ही उतनी प्रामाणिक हो,,कहीं अनुभूति की भी कोई व्याख्या होती है ? और वह अनुभूति तो सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्रा की जा रही कोई द्रौपदी ही कर सकती है.सूरदास उसका अनुभव कर सके तो इसलिए कि वह स्त्राी की मान मर्यादा और उसकी स्वतंत्राता का सम्मान करना जानते हैं.. इसलिए वह द्रौपदी की पीड़ा को पढ़ भी सके और लिख कर दिखा सके............
द्रौपदी ने बड़ी कातर दृष्टि से सबकी ओर निहारा और पाया कि सभी उसका उघरता शरीर देख रहे हैं। निर्वस्त्रा करने वालों का निर्लज्ज अट्टहास तो पूरे बदन को क्षत विक्षत कर ही रहा है। लज्जा और ग्लानि से भरी द्रौपदी ने ÷जूए के दांव पर ज्यों गथ हारे थकित जुवारी' पांचों पतियों की आंखों में भी झांका, पर वहां आंख मिला सकने वाला पानी कहां? ऐसी बेपानी आंखें देख वह खुद सहम गयी। पर इतना तो पढ़ ही लिया कि उन आंखों में एक नपुंसक वेध रह रह कर जरूर उबल रहा है लेकिन किस काम का? कहीं से कोई जुम्बिश नहीं..पतियों सहित उन तमाम पु+रुषोंद्र महापुरुषों में एक भी पुरुष नहीं जो आगे आये. श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठजनों की उस सभा में ÷यत्रा नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्रा देवता' का पाठ पढ़ाने वाले ज्ञानी भी थे और नीतिशास्त्रा के विज्ञानी भी; क्षात्राधर्म, राजधर्म वीरधर्म के तेज से तेजस्वित वीर योद्धा भी थे और धर्म की ध्वजा फहराने वाले धर्मराज भी..लेकिन उनके सामने ही क्षात्राधर्म का तेज लम्पट विसासिता में नंगा हो रहा था और वे सब मौन थे. झूठी मर्यादा, थोथी नैतिकता और वचनबद्धता के पाखंड ने उनके पौरुष को लुंजपुंज कर दिया था. अंत में चारों ओर से निराश कृष्णा ने अपने सखा कृष्ण को याद किया और कृष्ण ने उस मौन पुकार को सुना भी, देखा भी और आने की कृपा भी की  उनकी आंखों में कृपा के कान जो लगे थेद्र ÷कृपा कान मधि नैन ज्यों विश्वास था द्रौपदी को अपने सखा पर ! जितना भरोसा वह कृष्ण पर करती थी, उतना तो अपने पांचों पतियों पर भी नहीं ! द्रौपदी की पुकार धर्म रक्षा के लिए की गयी पृथ्वी की पौराणिक पुकार नहीं बल्कि अस्मिता की रक्षा के लिए उत्पीड़िता नारी की सच्ची पुकार है,यहां पर दुःशासन और दुर्योधन का अत्याचार तो असुरों के कल्पित अत्याचार से कहीं ज्यादा असभ्य प्रतीत होता है; तब फिर इन्हें कंस और रावण की तरह का बड़ा लोकशत्रा क्यों न माना जाय? क्या इसलिए कि ये हमारे लोक के प्राणी हैं, असुर लोक के नहीं? कहने की आवश्यकता नहीं कि कृष्ण ने केवल द्रौपदी की लाज नहीं बचायी बल्कि समूची स्त्राी जाति की मान मर्यादा और उसके आत्म सम्मान की भी रक्षा की। क्या स्त्राी की जातीय अस्मिता और उसके मान सम्मान की रक्षा से बढ़ कर भी कोई लोक रक्षा हो सकती है ? यहां तो लोकरक्षक कृष्ण, सीता की अग्निपरीक्षा लेने वाले मर्यादा पुरुषोनम की मर्यादा को भी आईना दिखाते प्रतीत होते हैं !लोकरक्षा और लोकसंग्रह का ऐसा मार्मिक चित्रा तो पूरे भक्तिकाव्य में दुर्लभ है !अतः लोक और लोकमत के समाजशास्त्राय आधार की उपेक्षा कर अवतारवाद के पौराणिक प्रतिमानों से समूचे भक्तिकाव्य का मूल्यांकन हमें प्रतिरोध की संस्कृति के विरुद्ध वर्चस्ववादी संस्कृति के संरक्षण की ओर ही ले जाता है, समन्वय के नाम पर दलीलें चाहे जितनी भी क्यों न दी जायें........


संदर्भ
1. कवितावली; उनरकांड, कविन सं. 96, पृ. 112 2. कवितावली; उनरकांड; कविन सं. 97, पृ. 112 3. दोहावली : कलियुग का वर्णन, दोहा सं. 554 4.9. तक उनरकांड दोहा सं. 100ख, 99ख, 98क, 97क, 98क एवं 100क 10. कवितावली; उनरकांड, कविन सं. 106, पृ. 116-17 11. रामचरित मानस : अरण्य कांड- दो. 34 12. वही; दोहा-35 13. रामचरित मानस; किष्किन्धा कांड; दोहा-15 क 14. कबीर ग्रंथावली : सम्पा. श्याम सुंदर दास; चांणक कौ अंग- सारवी-9 15. वही, साखी 10 16. वही, पद 39 17. वही, पद 42 18. वही 19. साखी क्ककबीर वा3्‌मय : खंड - 3त्र् सम्पा. डॉ. जयदेव सिंह, वासुदेव सिंह ÷कथनी बिना करनी को अंग'- साखी सं. 4 20. बीजक क्ककबीरत्र् शब्द - 84 21. वही; शब्द - 47 22. वही; रमैनी - 1 23. रामचरित मानस : उनरकांड; दोहा-86 24. वही 25. राम विलास शर्मा : आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना; पृ. 111 26. रामचरित मानस : अयोध्याकांड; दोहा-243 27. वही, दोहा 194 28. वही, अरण्य कांड; दोहा-34 29. आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना; पृ.-111 30. वही 31. रामचरित मानस : उनरकांड दोहा 98क 32. घनानंद कविन : वाणी वितान प्रकाशन, ब्रंनाल, वाराणसी, सोरठा-22