गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

!! मुर्ख से बहस करना सबसे बड़ी मुर्खता है !!

जीवन में बहस अनिवार्य है। हमें तो बस यह देखना है कि हम किन बातों पर बहस करते हैं और अपनी बात किस तरीके से रखते हैं। हाल ही में मिशिगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने भी दावा किया है कि सार्थक बहस आपकी सेहत के लिए अच्छी होती है। इसकी वजह साफ है। पत्नी हो बॉस, या और कोई रिश्ता- अगर उनसे कोई असहमति है, तो वह तनाव बढ़ाती है। तनाव में स्रावित होने वाला कार्टिसोल हार्मोन दिल और गुर्दो पर ...बुरा असर डालता है।
इसके साथ ही, हमेशा ध्यान रखें कि बेअक्ल से बहस करना फिजूल है। कई बार जब आपको लगे कि आप किसी बेवकूफ के साथ बहस कर रहे हैं, तो उस समय अगला व्यक्ति भी किसी बेवकूफ के साथ ही बहस कर रहा होता है। इसलिए दुनियादारी यही कहती है कि जल्दी से जल्दी सामने वाले व्यक्ति के मानसिक स्तर की पहचान कर लें। यह रिश्तों से इतर बात है। दैनिक जीवन में हमें कई बार घर से बाहर भी तर्क करना पड़ता है। ऎसे में देख लें कि कहीं आप किसी पत्थर से तो सिर नहीं टकरा रहे हैं, क्योंकि ऎसे में नुकसान आपका ही होगा। बददिमाग, स्तरहीन व्यक्ति से भिड़ने पर जगहंसाई आपकी ही होगी, जो बहस हार जाने की तुलना में ज्यादा दुखदायी है।
बहस करने से पहले, बहस के दौरान या अंतिम क्षणों में- कभी भी, हमेशा बाल्तेसर ग्रेशियन की बात ध्यान में रखें। प्रसिद्ध रणनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ ग्रेशियन का कहना था कि किसी भी बहस में महज इसलिए गलत पक्ष से न चिपके रहें, क्योंकि आपका विरोधी सही पक्ष में है। मतलब साफ है कि सिर्फ विरोधी को नीचा दिखाने के लिए बहस न करें।

"थोथा चना बाजे घना"


अर्थः मूर्ख अपनी बातों से अपनी मूर्खता को प्रकट कर ही देता है।

पुरानी कहावतों के नये मतलब  हो गये हैं जी। बच्चों से बात करो तो पता चलता है। क्लास में मैंने पूछा-बच्चों बताओ थोथा चना, बाजे घना का क्या मतलब है।
एक बच्चे ने बताया-सर, इसका मतलब है कि घना बजाना हो, या फुलमफुल चारों तरफ अपना जलवा कायम करना हो, थोथा होना जरुरी है। वरना मामला घना नहीं होगा।
पर बेटा, घना होने के लिए थोथा होना क्यों जरुरी है-मैंने आगे पूछा।बच्चे ने बतायाकी सर जी

भारी चना, कोई पूछे ना-यह नयी कहावत हो सकती है।
चना भारी होगा, तो बजेगा कैसा। बजेगा नहीं, तो बिकेगा कैसे।

 कहने का मतलब ये है की ,जिन्हें बोलना चाहिए,वह खामोश हो जाते हैं,जिन्हे खामोश होना चाहिए,वह बोले जाते हैं,कहने वाले सही कह गये,‘थोथा चना बाजे घना’,पर किसे समझाने कौन सुने,कान बंद कर लें,अपना ध्यान इधर-उधर लें,किसी को करना नहीं बोलने से मना,अपने ही बोले और लिखे शब्द का अर्थ
लोग नही जानते,अनर्थ पर बहस को,लोकतंत्र का प्रतीक मानते
दूसरे के दोषों पर डालें नजर,अपने गुणों के बखान पर,गुजारे दिन-रात का हर पहर,दुरूपयोग करें हर पल का,और कीमती वक़्त बताएं अपना और दूसरो का ! बस यही है प्रजातंत्र का सही सदुपयोग ,,,,,,,

!! फेसबुक में सेखी बघारते लोग !!

 मेरे जान - पहचान में एक मित्र है .(नाम नहीं लिखुगा नहीं तो काली मिर्ची का तडका लग जाएगा)..ओ हमेसा ही फेसबुक में सेखी बघारते रहते है ओ कभी  अपनी सोने की पालकी तो कभी 40 KM रोड का ठेका प्राप्त करने की पोस्ट करते है FB में तो ...कभी क्रिकेट का मैच करा रहे है  तो कभी बांग्लादेश-पकिस्तान  के बार्डर पर घूमते हुए पोस्ट कर रहे है ....तो कभी किसी को धमकी देते है निपटने की तो कभी किसी को असली -नकली का प्रमाण  पत्र बाटते रहते है  तो कभी किसी को कुछ भी उखाड़ने (अरे भाई क्या सुवर पाल राखी है जो सुवर के बाल उखाड़ने का धंधा करते हो) को ललकार देते है .मतलब कुल मिलाकर अपनी  सेखी बघारते है FB में .!
    .अरे भाई इस FB में तो हजारो किलोमीटर दूर बैठ कर कोई कुछ भी लिख दे ..क्या मह्त्व है उसके लिखने का ? .....

!! कौवे की तरह काव - काव करना मुर्खता भरी हरकत है !!
क्या इस तरह से सेखी बघारना ब्यक्ति के हलके पन का साबुत नहीं है ?                यह पोस्ट उन सभी के लिए है जो अपने ज्ञान और धन का ढिढोरा पीटते है , अपनी आर्थिक और राजनातिक हैसियत को दिन भर बखान करते है ! ज्ञानी कितनी गहरी बात कहते हैं। 'अधजल गगरी छलकत जाय' यह किसी ज्ञानी के कथन से ही प्रचलित हुई कहावत है। कितनी ठोस बात कही है कि घडा आधा भरा हुआ हो तो आवाज करता है, पानी छलक कर गिर जाता है और पूरा भरा हो तो बिल्कुल भी न आवाज करता है, न छलकता है। पूरे भरे घडे में गहनता आ जाती है। छिछलापन नहीं रहता। मतलब साफ है, छिछलापन आवाज करता है, गहराई में शांति होती है।
पहाडो  से, चट्टानों से गुजरती हुई नदी खूब आवाज करती है क्योंकि छिछली होती है, गहराई नहीं होती, कंकड-पत्थरों से टकराते हुए, रास्ता बनाते हुए चलती है, आवाज करते हुए चलती है। वही नदी जब मैदानी क्षेत्र में होती है, दूर-दूर तक समतल क्षेत्र होता है, पानी गहरा होता है तो नदी उदास मालूम पडती है, उसकी गति मंथर हो जाती है। आवाज नहीं होती। लहरों का पता नहीं चलता। लहरें उछल-कूद नहीं करतीं। नदी छिछली होती है तो शोरगुल करती है। शोरगुल हमेशा उथलेपन का सबूत है।
यही बात उस व्यक्ति पर भी लागू होती है। ज्ञानी व्यक्ति बडबोला नहीं होता। ज्यादा नहीं बोलता। व्यर्थ नहीं बोलता। तोल-तोल कर बोलता है। बार-बार कुरेद कर पूछने पर भी उतना ही बोलेगा जितने की आवश्यकता है। यह गहन अनुभूति के कारण होता है, उसकी विद्वता के कारण होता है। दिखने में वह उदास दिखाई देगा क्योंकि उसमें अनावश्यक चंचलता नहीं होती। नदी जैसी गहराई होती है। अंदर से गहरापन होता है। बाहरी छिछलापन नहीं होता। उसे यह बताने की जरूरत नहीं होती कि वह कितना विद्वान है, कितना गुणी है, कितना भला है, कितना परोपकारी है, कितना सदाचारी है। उसके गुण उसके व्यवहार में, उसके आचरण में, उसकी वाणी में स्पष्ट झलकते हैं। ऐसे व्यक्ति को किसी के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होती, किसी के प्रचार की जरूरत नहीं होती। ऐसे लोगों के आचरण की सौरभ सर्वत्र बिना किसी विशेष प्रयास के स्वत: फैल जाती है।
जो लोग अंदर से खोखले होते हैं वे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं। उनके लिए यह जरूरी भी है। जिनका प्रचार दूसरे नहीं करते हों, जिनके लिए लोग कुछ नहीं कहते या कहते भी हैं तो अच्छा नहीं कहते, उनको अपना प्रचार खुद करना पडता है। अपने गुणगान भी खुद के श्रीमुख से करना उनके लिए जरूरी हो जाता है।FB में दो-चार लोग राजा साहब की जय हो ,पंडित जी आप तो महान है .आदि आदि सब्दो से उनकी च्प्लुशी करते हुए बहुत से मिल जायेगे ... ऐसे लोग छलकते ज्यादा हैं क्योंकि अंदर से अधूरे होते हैं। आधे भरे होते हैं, उथले होते हैं, छिछले होते हैं। छिछलापन ही आवाज करता है, शोरगुल करता है।
             मैं गहराई या छिछलेपन की बात केवल ज्ञान, धर्म या आध्यात्म के लिए नहीं कर रहा हूं, हर क्षेत्र में ऐसा होता है। आपको अनेक समाजसेवी मिलेंगे जो अपनी गतिविधियों का स्वयं ही बखान करेंगे। समाजसेवा के क्षेत्र में उन्होंने क्या-क्या किया, इसकी पूरी सूची आपके जेहन में पेल देंगे और साथ में मुस्कुराहट के साथ यह भी कहते जाएंगे कि वे करते तो बहुत से काम हैं, पूरा जीवन ही समाज की भलाई में लगा रखा है परंतु किसी को बताना नहीं चाहते। वे कहेंगे कि वे काम करने में विश्वास करते हैं, बात करने में नहीं, प्रचार करने में नहीं। यह कहते हुए वे आपको अपने जीवन के सारे 'समाजसेवी कार्यों' का आंखों देखा हाल सुना देंगे। अब तो ऐसे समाजसेवी भी उभर आए हैं जो 'दानदाता-कम-समाजसेवी' के रूप में अपनी छवि बनाने के प्रयासों में लगे हैं। यहां मेरा तात्पर्य अंग्रेजी के डोनर-कम-सोशलवर्कर' से है।
ऐसे समाजसेवी सज्जनों से आप बात करके देखिए, इतनी डींगें हांकते मिलेंगे कि आपका माथा चकरा जाए। राजनीति से लेकर धर्म तक को अपनी मुट्ठी में बताएंगे। क्षेत्र का पार्षद भी भले इन्हें नहीं जानता हो परंतु मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या किसी पार्टी विशेष के आलाकमान तक अपनी सीधी पहुंच का दावा करने में ऐसे लोगों को कोई झिझक नहीं होती। तथाकथित अतिविशिष्ट व्यक्तियों के साथ खिंचवाए गए अपने चित्रों का एलबम आपके हाथों में यह कहकर देखने के लिए थमाएंगे कि न चाहते हुए भी लोग इनको विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित करते हैं, इस कारण वे व्यस्त भी रहते हैं। वे किस-किस ट्रस्ट से जुडे हैं, किस-किस संस्था में पदाधिकारी हैं, किस-किस संगठन से पहले जुडे रहे हैं, सबका आपको पूरा विवरण बताएंगे।
           आजकल अपने धन से लेकर दान-पुण्य, समाजसेवा, आध्यात्मिक व धार्मिक रुचि एवं बौध्दिक क्षमता का बढ-चढक़र बखान करने वालों की कोई कमी नहीं है बल्कि देखा जाए तो ऐसे लोगों की संख्या में इतनी तेजी से बढाेतरी हो रही है कि कभी-कभी ऐसीर् ईष्या होने लगती है कि हमारे देश का विकास इस गति से क्यों नहीं हो पाता। परंतु फिर एक संतोष भी होता है कि देश का विकास इतना खोखला होने से तो धीमी गति से होना ज्यादा अच्छा है।
               इसी तरह से आजकल पत्रकार बिरादरी में भी ऐसे लोग घुस आए हैं। अधकचरा ज्ञान लिए, अपने आपको और अपने अखबार को 'बडा' बताने वाले ऐसे पत्रकार या तो मस्का लगाकर, जी हजूरी कर या फिर डरा-धमकाकर समाचारों के एवज में पैसा ऐंठने का काम करते हैं। ऊपर से 'ज्यादा होंसियारी' की बातें करते हैं। बुध्दिजीवियों की जमात में भी आधी भरी गगरियां प्रविष्ट कर गई हैं। ऐसे कवि-साहित्यकार अपना ढोल पीट रहे हैं कि जैसे उनके कद जितना कोई कैसे पहुंच पाएगा। छलक रहे हैं। आवाज कर रहे हैं। ओछी बातें करते हैं। उथलापन है उनमें। गहराई नहीं है। अंदर से खोखले, आधे भरे ऐसे समाजसेवी, ऐसे दानदाता, ऐसे पत्रकार, ऐसे बुध्दिजीवी, ऐसे धर्मप्रेमी छलकते ज्यादा हैं, बोलते ज्यादा हैं, प्रदर्शन ज्यादा करते हैं, दिखाते अधिक हैं क्योंकि यह सब अधजल गगरी छलकत जाय के समान होते हैं। जो सच्चे समाजसेवी हैं, परमार्थ के लिए सच्चे हृदय से दान करते हैं, परोपकार में अपना समय लगाते हैं उनको अपना बखान करने की जरूरत नहीं होती। लोग उनके पीछे-पीछे दौडते हैं, उनको अपने मन की आंखों पर सम्मानजनक स्थान देते हैं, उनके सत्कार्यों की भीनी-भीनी सुगन्ध अपने आप फैलती है। उनके पुण्य का प्रमाण उनके दान से लाभान्वित होने वाले जरूरतमंद अपनी दुआओं से देते हैं। वे गली-कूचों पर, प्रीतिभोज समारोहों में, धार्मिक कार्यक्रमों में अपने क्रियाकलापों का स्वयं बखान करते नहीं फिरते। उनमें गहराई होती है और गहराई में उथलापन नहीं होता। काश, यह गहराई सभी में विकसित होती। खास कर मेरे मित्र सज्जन पाल सिंह राठौर में यह गहराई आ जाए तो कितना अच्छा होता ,,भगवान् से प्रार्थना है की सभी देश वासियों में गहराई भर दो ,भगवान् से यही  बिनती करता हु !
दोस्तों कोयल की तरह कू-कू करना सीखिए और मधुर आवाज में बोलिए

          कभी किसी ने सोचा है कि सामने वाला अधजल गगरी है, हम कैसे फैसला कर सकते हैं? क्या पता की अधजल गगरी हों? मुझे तो अधजल गगरी में भी कोई बुराई नजर नहीं आती। कुछ लोगों की फिदरत होती है, हमेशा सिक्के के एक पहलू को देखने की। कभी किसी ने विचार किया ...है कि अधजल गगरी छलकती है तो सारा दोष उसका नहीं होता, कुछ दोष तो हमारे चलने में भी होगा। मुझे याद है, जब खेतों में पानी वाला घड़ा उठाते थे, तो वहाँ भरा हुआ भी छलकता था, और अध भरा भी छलकता था, क्योंकि खेतों में जमीं समतल नहीं होती, जब जमीं समतल नहीं होगी, तो हमारे पाँव भी सही से जमीं पर नहीं टिक पाएंगे।और इसी कारन गगरी छलक... जाती है ....इसमें उस  बेचारी  गगरी का क्या दोष हैं .....??
                                तो भाई मेरी बात मानो तो ये हल्कापन छोड़ कर अपने स्वभाव में गंभीरता लाये और चापलूसों से दुरी बनाए .....ok ...

मुझे जो लिखना था लिख दिया किसी को मिर्ची लगे तो लगे क्या करू ...?

वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण..

वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे -
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है|
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थ...े | परन्तु बाद मेंउन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किय...े|ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)
अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |
(m) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना |
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |
(q) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |
९. वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है | कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है | और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययनसे वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है |

प्रकाश की गति का आकलन - ऋग्वेद से देखे

वेदों में देवताओं की स्तुति हेतु अनेक ऋचाएँ पढ़ने के लिए मिलती हैं। ऋग् वेद में सूर्य की स्तुति के लिए एक ऋचा हैः
तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिष्कुदसि सूर्य। विश्वमाभासि रोचनम्
इस ऋचा को पढ़कर ...सायनाचार्य (c.1300's) ने टिप्पणी के रूप में सूर्य की एक और स्तुति लिखी, जो इस प्रकार हैः
तथा च स्मर्यते योजनानां सहस्त्रं द्वे द्वे शते द्वे च योजने एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते॥
यहाँ पर "द्वे द्वे शते द्वे" का अर्थ है "2202" और "एकेन निमिषार्धेन" का अर्थ "आधा निमिष" है। अर्थात सूर्य की स्तुति करते हुए यह कहा गया है कि सूर्य से चलने वाला प्रकाश आधा निमिष में 2202 योजन की यात्रा करता है।
आइए योजन और निमिष को आज प्रचलित इकाइयों में परिवर्तित करके देखें कि क्या परिणाम आता हैः
अब तक किए गए अध्ययन के अनुसार एक योजन 9 मील के तथा एक निमिष 16/75 याने कि 0.213333333333333 सेकंड के बराबर होता है।
2202 योजन = 19818 मील = 31893.979392 कि.मी.
आधा निमष = 0.106666666666666 सेकंड
अर्थात् सूर्य का प्रकाश 0.106666666666666 सेकंड में 19818 मील (31893.979392 कि.मी.) की यात्रा करता है।
याने कि प्रकाश की गति 185793.750000001 मील (299006.056800002) कि.मी. प्रति सेकंड है।
वर्तमान में प्रचलित प्रकाश की गति लगभग 186000 मील (3 x 10^8 मीटर) है जो कि सायनाचार्य के द्वारा बताई गई प्रकाश की गति से लगभग मेल खाती है।
आखिर सायनाचार्य ने ऋग वेद के उस ऋचा को पढ़कर टिप्पणी में प्रकाश की गति दर्शाने वाली सूर्य की स्तुति कैसे लिखी? कहीं ऋग वेद की वह ऋचा कोई कोड तो नहीं है जिसे सायनाचार्य ने डीकोड किया? ये पूरब वालो की दें है जो आज से सैकड़ो बर्ष पहले लिख दिया  था  समझे पश्चिमी सभ्यता बखान करने वाले .......जय श्री राम  .....

निंदक नियरे राखिये ....

कबीर ने कहा है, निंदक नियरेराखिए..।इसका अर्थ है कि हमें निंदक को अपने निकट रखना चाहिए। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा है कि हम दूसरों की निंदा में ही अपना समय व्यतीत करें। सच तो यह है कि हम स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए उनकी निंदा करते हैं।
वास्तव में, मानव मन निर्मल और पवित्र होता है। आप अपने मन में जैसी भावनाओं का संचार करते हैं, दूसरों के सम्मुख वैसे ही विचार प्रकट करते हैं। फिर मानव मन अपने संकल्प सागर में निंदा के कंकड-पत्थरकी सृष्टि क्यों करता है? हो सकता है कि इसके पीछे हमारा दूसरे व्यक्ति को सुधारने का विचार काम करता हो! पर क्या निंदा करने का उद्देश्य उस व्यक्ति की भूलें बताकर उसे सन्मार्ग पर लाना होता है? यदि यह सच है, तो पीठ पीछे दोष- चर्चा से कोई लाभ सिद्ध नहीं हो सकता है। प्रत्यक्ष में संबंधित व्यक्ति की भूलों की ओर संकेत करने से ही यह संभव हो सकता है। वास्तव में, निंदा का उद्देश्य सहज प्रयत्न से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना होता है। अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना मानवीय अहम की दुर्बलता है। जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं, तो उसके पीछे यह भाव छिपा होता है कि दूसरे व्यक्ति कितने अधूरे हैं और बुराइयों के पुतले हैं, लेकिन मैं जिन बुराइयों की ओर संकेत कर रहा हूं, इनसे अछूता हूं। जिस व्यक्ति से हम किसी और व्यक्ति की निंदा करते हैं, तो उस पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है। निंदा सुनने वाला व्यक्ति निंदा करने वाले को ऐसा कमजोर व्यक्ति मान लेता है, जो स्वयं अधूरा है। दूसरे व्यक्ति पर निंदा का कीचड फेंककर वह स्वयं उजला बनने की कोशिश कर रहा है। निंदा करने वाले व्यक्ति का यह तर्क हो सकता है कि वह बुराइयां बताकर संबंधित व्यक्ति को आगाह कर रहा है। यानी वह सामने वाले व्यक्ति को अपना मित्र मान रहा है। इसके ठीक उलट नीतिकारकहते हैं कि सच्चा मित्र वही है, जो मित्र की बुराइयों को छिपा लेता है और केवल गुणों को ही प्रकट करता है।
यहां पर यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि हमारा प्रिय व्यक्ति, अपने आचरण में परिवर्तन नहीं ला पा रहा है, तब उसके अनुचित व्यवहार को समाप्त कैसे किया जाए? नीतिकारकहते हैं कि ऐसी स्थिति में दो उपाय बचते हैं-उसके अवगुणों पर कोई ध्यान न दिया जाए या कोई टीका-टिप्पणी न की जाए। दूसरा उपाय यह है कि संबंधित व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से उसके अवगुणों की चर्चा की जाए और उसे समाप्त करने का निवेदन किया जाए। वहीं दूसरी ओर, निंदा का प्रयोग न केवल निष्फल, बल्कि प्रत्येक दशा में आत्मघाती ही है।
निंदा करने से मनुष्यों को स्वयं की क्षति होती है। वह न केवल हीन भावना का शिकार होता है, बल्कि उसका आत्मविश्वास भी प्रभावित होता है।
जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं, तो इसका मतलब यह है कि हमारी स्वयं की तलाश समाप्त हो चुकी है, इसीलिए हम बाहर की ओर देखने लगे हैं। इस प्रक्रिया में हम दूसरे व्यक्ति की बुराई करने लगते हैं। यदि हम दूसरों की निंदा करने के बजाय स्वयं के भीतर में झांके, यानी आत्मा की आवाज सुनें, तो यह हमारे लिए बेहतर होगा। आत्मा आनंद का अनंत भंडार है। आनंद के इस स्रोत पर नियंत्रण करना है, तो निंदा के हलाहल को फेंकना ही होगा। सचमुच यह एक ऐसी मदिरा है, जिसे छोडने के लिए तीव्र संकल्प और सजगता की आवश्यकता होती है।

क्या आप जानते है ?? कुछ ऐतिहासिक तथ्य ...

  • ईसा पूर्व 7000 – साम्भर राजस्थान में पौधे बोने के प्रथम साक्ष्य
  • ईसा पूर्व 6000 – सिंध-बलूचिस्तान सीमा पर स्थित मेहरगढ़ तथा कश्मीर के बुर्जाहोम में भारत के प्राचीनतम आवास, कृषि तथा पशुपालन के अवशेष
  • ईसा पूर्व 5000 -4000  – बागौर भीलवाड़ा और आदमगढ़ होशंगाबाद के समीप आखेटकों द्वारा भेड़-बकरी पालन के प्रथम अवशेष
  • ईसा पूर्व 4000 -3000  – कृषकों तथा पशुपालकों की स्थानीय सभ्यताएँ
  • ईसा पूर्व 2500 – सिंधु घाटी में पूर्व हड़प्पा सभ्याता के नगरों का विकास, अस्थियों, प्रस्तरों, मनकों आदि से बने आभूषणों के अवशेष
  • ईसा पूर्व 2500 -1750  – रेडियो कार्बन तिथि-निर्धारण के आधार पर हड़प्पा सभ्यता का काल विस्तार
  • ईसा पूर्व 2250 -2000  – हड़प्पा सभ्यता का पूर्ण विकास, विघटन तथा स्थानीय समस्याओं का आरम्भ
  • ईसा पूर्व 1500 – भारत में आर्यों का आगमन, ऋग वेद की रचना, वैदिक काल का आरम्भ, गंगा मैदान में आर्योत्तर ताम्र सभ्यता
  • ईसा पूर्व 1000 – आर्यों का गंगा मैदान तक विस्तार, उत्तर-वैदिक काल का आरम्भ, ब्राह्मण ग्रंथों की रचना, वर्ण-व्यवस्था का आरम्भ, लौह धातु के प्रयोग का आरम्भ
  • ईसा पूर्व 950 – महाभारत युद्ध
  • ईसा पूर्व 800 – व्यास द्वारा महाभारत महाकाव्य की रचना, आर्यों का दक्षिण-पूर्व में विस्तार, रामायण का प्रथम वृत्तान्त
  • ईसा पूर्व 600 -550  – उपनिषदों की रचना, आर्यों का दक्षिण में विदर्भ तथा गोदावरी तक विस्तार, सोलह महाजनपदों की स्थापना, आर्य सभ्यता में कर्मकाण्डीय अनुष्ठानों की प्रतिस्थापना
  • ईसा पूर्व 566 -486  – गौतम बुद्ध तथा बौद्ध धर्म का काल
  • ईसा पूर्व 560 -450  – भारतीय दर्शन एवं धर्म चिन्तन का काल, कोशल में प्रसेनजित का राज्यकाल
  • ईसा पूर्व 599 -527  – वर्द्धमान महावीर तथा जैन धर्म का काल
  • ईसा पूर्व 542 -490  – बिंबिसार का राज्यकाल तथा मगध की श्रेष्ठता
  • ईसा पूर्व 517 -509  – ईरान के अखमनी वंश के सम्राट डेरियस प्रथम का आक्रमण, आर्यों की पराजय, यूनानी नौसेनापति स्काइलैक्स द्वारा सिंधु नदी पर गवेषणा अभियान
नोट- कुछ तथ्य प्रमाणित नहीं है 

क्रोध और क्रोध पर नियत्रण ..

राग और द्वेष क्रोध के मूल हैं ,क्रोध ऐसा जहर है, जिसे पीने के बाद तरक्की के मार्ग खुलते हैं, फिर आप वहीं बन जाते हैं, जो आप बनना चाहते हैं। क्रोध मनुष्य को लक्ष्य से भटकाता है, लेकिन जब आप लक्ष्य प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प लेते हैं, तब क्रोध कमजोर पड़ जाता है। क्रोध दूर भगाईए और संयम से रहना सीखिए, क्रोध ,चिड़चिड़ापन और संकुचित दृष्टिकोण से मानसिक शक्तियां नष्ट हो जाती हैं इसलिए अपने ''व्यक्तित्व'' में गंभीरता लाइए और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा । सुबह से शाम तक व्यक्ति काम करके इतना नहीं थकता, जितना कि क्रोध या चिंता से एक घंटे में थक जाता है।जब किसी व्यक्ति का क्रोध बढ़ रहा हो, तब उसका विरोध करने के बजाय,उसे शांत करना होगा, फिर उसका क्रोध खुद खत्म हो जाएगा। ''महान व्यक्ति वही बनता हैं, जिसमें हमेशा ''मुस्कराते'' रहने की आदत के साथ साथ ""क्रोध रूपी"" जहर को पीना सीख लिया हो ।''
किसी भी व्यक्ति के स्वभाव का एक प्राकृतिक भाव है- क्रोध। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि क्रोध की भी अपनी अहम् भूमिका रही है। अनेक अवसरों पर क्रोध ने इतिहास को नए मोड़ दिए हैं। क्रोध को शारीरिक शक्ति और अहंकार का सूचक भी माना गया है। भय पैदा करने में भी क्रोध की अपनी भूमिका रही है। क्रोध ने बडे-बड़े ऋषियों को शाप देने जैसी नकारात्मक भूमिका में डाला है। दुर्वासा और लक्ष्मण के व्यक्तित्व क्रोध के ही पर्याय भी बने।
कौन व्यक्ति होगा इस पृथ्वी पर जिसे क्रोध नहीं आता? क्रोध अनेक प्रकार के आवेशों और आवेगों का निमित्त बनता है। अपराधों का मूल निमित्त क्रोध को ही माना जाता है। यही कारण है कि क्रोध अपनी अतुल शक्ति के उपरान्त भी अवांछनीय माना जाता है। क्रोध को उपशान्त करने के बारे में लगभग सभी धर्म-ग्रंथ एकमत हैं। हर व्यक्ति अपने क्रोध को दबाना चाहता है। शांत और निर्मल प्रकृति का दिखाई देना चाहता है। क्रोध को जीवन में किसी भी प्रकार का सम्मान प्राप्त नहीं है।
हमारा जीवन प्राण और ऊर्जा के सहारे चलता है। मन, बुद्धि, शरीर आदि सभी का संचालन प्राण और ऊर्जाओं से होता है। पर हम इस उर्जा को क्रोध करके कम करते है !

व्यक्तित्व के अनुसार ऊर्जा शक्तियों की अभिव्यक्ति होती है। क्रोध भी एक अभिव्यक्ति है। एक भाव को रोकने का प्रयास करें तो दूसरी अभिव्यक्ति होने लगेगी। क्रोध भी इसी प्रकार स्वयं में कुछ नहीं है। एक अभिव्यक्ति मात्र है, जिसकी नकारात्मक भूमिका होने के कारण उसको उत्तम नहीं कहा जाता,यह क्रोध हमेशा ही दुखदाई और नुक्सान दायक होता है!
आप क्रोध आने पर क्या करेंगे, इसका आकलन करें। क्या-क्या करेंगे, यह क्रम देखें तो इसकी परिणति का अनुमान भी होगा। भाव-परिवर्तन के साथ आप क्रोध के आवेग की दिशा बदल सकते हैं। आपने भी अनेक बार अनुभव किया होगा कि कुछ विचार करने के बाद जब क्रोध शान्त होता प्रतीत होता है तो अन्य प्रकार की अभिव्यक्ति की अभिलाषा तुरन्त मन में उठने लगती है। यह अभिव्यक्ति भी जीवन-शक्ति की तरह दिखाई देती है, जो उतनी ही गहन होती है जितना कि क्रोध, अर्थात- क्रोध भी एक जीवन-शक्ति है, ऊर्जा से ओत-प्रोत है। मात्र इसको दिशा देने की जरूरत है।
क्रोध आने का अर्थ यह भी है कि मूलाधार में ऊर्जा गतिमान है। यदि इस ऊर्जा का पूरा उपयोग नहीं किया जाए तो क्या होगा? ऊर्जा घटकर वहीं समाप्त हो जाएगी। “करो या मरो” वाली बात है। आप या तो ऊर्जा का उपयोग कर लें, अन्यथा यह व्यर्थ जाएगी। उपयोग भी सकारात्मक होना चाहिए, तभी विकास हो सकता है।तो क्रोध रूपी उर्जा का सकारात्मक उपयोग करे !
 शक्ति का शान्त होना ही मृत्यु है। सकारात्मक दृष्टि से देखा जाए तो क्रोध जीवनसूचक है। मूलाधार को गतिमान रखता है। मूलाधार के अनेक अवरोध क्रोध के कारण हटते भी हैं। मात्र भावनात्मक धरातल पर कार्यरत होने की जरूरत है।
          क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें?

मोहर्रम क्या खुशियों का पर्व है ???

मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है। इस माह की बहुत विशेषता और महत्व है। सन् 680 में इसी माह में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा अधर्मी यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या)के बीच हुआ। इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हज़रत इमाम हुसैन अ० की हुई। प‍र जाहिरी तौर पर यजीद ने हज़रत इमाम हुसैन अ० और उनके सभी 72 साथियों को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के  सिर्फ़ मुसलमान   क़ौमों के लोग ही इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनकी याद करते हैं। हजरत इमाम हुसैन (अ.स) ने अपने व अपने इकहत्तर साथियों ,रिश्तेदारों की अज़ीम , बेमिसाल अलौकिक व अदभुद क़ुरबानी पेश करके दुनिया को पैगाम दिया है की:“ए दुनिया के हक परस्तों कभी भी बातिल के आगे सर ख़म ना करना (शीश ना झुकाना ), बातिल चाहे कितना भी ताक़तवर और ज़ालिम क्यों ना हो.”  आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था। कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकोंसे लोग वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर गौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की जरुरत है। इमाम और उनकी शहादत के बाद सिर्फ उनके एक पुत्र हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन, जो कि बीमारी के कारण युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे। आज यजीद का नाम दुनिया से ख़त्म हो चुका है। कोई भी मुसलमान और इस्लाम पर आस्था रखने वाला शख्स अपने बेटे का नाम यजीद नही रखता। जबकी दुनिया मे अपने बच्चों का नाम हज़रत हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबो मुसलमान हैं। यजीद कि नस्लो का कुछ पता नही पर इमाम हुसेन कि औलादे जो सादात कहलाती हैं दुनियाभर में फैली हुयी हैं। जो इमाम जेनुलाबेदीन  से चली।

दुनिया काएम होने से लेकर हर युग मैं हमेशा न्याय -अन्याय, सत्य -असत्य ,नेकी-बड़ी ,अच्छाई-बुराई एव हक और बातिल के दरमियान जंग होतो रही है. जिसमें जीत हमेशा न्याय, सत्य ,नेकी, अच्छाई ,एवं हक की ही हुई है. चाहे उसे ताक़त से जीता गया हो या कुर्बानियां दी गयी हों.जिसके लिए इतिहास गवाह है !

कर्बला भी धर्म और अधर्म के लिए घटित हुई थी जिसमें यजीद जैसा अधर्मी शासक ने महान धर्म परायण व पवित्र शक्सियत का क़त्ल कर के दुनिया के सामने अपनी हठधर्मिता एवं अविजेता का प्रदर्शन करना चाहता था.

ताज़िया बाँस की कमाचिय़ों पर रंग-बिरंगे कागज, पन्नी आदि चिपका कर बनाया हुआ मकबरे के आकार का वह मंडप जो मुहर्रम के दिनों में मुसलमान लोग हजरत इमाम हुसेन की कब्र के प्रतीक रूप में बनाते है,और जिसके आगे बैठकर मातम करते और मासिये पढ़ते हैं। ग्यारहवें दिन जलूस के साथ ले जाकर इसे दफन किया जाता है।
करबला की जंग :
करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा।
10 अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को समाप्त हुई।
इसमें एक तरफ 72 (शिया मत के अनुसार 123 यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे) और दूसरी तरफ 40,000 (प्रमाणित नहीं है )की सेना थी।
हजरत हुसैन की फौज के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे। उधर यजीदी फौज की कमान उमर इब्ने सअद के हाथों में थी।
हुसैन इब्ने अली इब्ने अबी तालिब
(हजरत अली और पैगंबर हजरत मुहम्मद की बेटी फातिमा के पुत्र)
जन्म : 8 जनवरी 626 ईस्वी (मदीना, सऊदी अरब) 3 शाबान 4 हिजरी
शहादत : 10 अक्टूबर 680 ई. (करबला, इराक) 10 मुहर्रम 61 हिजरी।


इस सभी बातो की जानकारी होने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न बार -बार उठ रहा है की मोहर्रम जब गम मनाने का त्यौहार है तो फिर बड़े -बड़े लाउड स्पीकर लगा कार जोर -शोर से फ़िल्मी गानों की धुन में सहादत के गीत क्यों गाते है ?जबकि गम में तो दुःख होता तो क्या दुःख को इस तरह से इजहार (प्रस्तुत) करना तर्कसंगत है क्या ? मेरे जो भी मुस्लिम मित्र है मैं उनसे मेरे मन की संकाओ का समाधान चाहता हु .....
नोट --यह ब्लॉग मैंने मेरे फेसबुक खाते से नोट्स में से लिया हुआ है  

क्या धर्म को आस्था से अलग देख सकते है ???


  मैं उज्जैन में महाकाल मंदिर में कई बार जाने का मौका मिला है , पर वहाँ का भीतरी कमरा जहाँ भगवान महाकाल की प्रतिमा है वह उस समय बंद था, क्योंकि "यह प्रभु के विश्राम का समय था". पुजारी जी बोले कि अगर मैं समुचित दान राशि दे सकूँ तो विषेश दर्शन हो सकता है. यानि पैसा दीजिये तो प्रभु का विश्राम भंग किया जा सकता है. उज्जैन  के प्राचीन और भव्य महाकाल  मंदिर में, पहले दो पुजारियों में आपस में झड़प देखी कि कौन मुझे जजमान बनाये. भीतर पुजारियों ने सौ रुपये के दान की छोटेपन पर ग्यारह सौ रुपये की माँग को ले कर जो भोंपू बजाया तो सब प्रार्थना और श्रद्धा भूल गया.क्यों ??

मंदिर में फोटो खींचना मना है पर विदेशी, अहिंदू पर्यटकों के लिए अलग से छज्जा बनाया गया है जहाँ से तस्वीर खींच सकते हैं, क्योंकि उन्हें मंदिर में घुसना वर्जित है. उस छज्जे पर खड़ा हो कर धर्म और आस्था की बात को सोच रहा था कि क्यों हर धर्म में रूढ़िवाद का ही राज होता है? भगवान की पवित्रता बड़ी है या विदेशी अहिंदू पर्यटकों की अपवित्रता, तो क्यों नहीं अहिंदू पर्यटक मंदिर में घुस कर पवित्र हो जाते  ? कोई भगवान अपने ही बनाये मानवों से अपवित्र हो सकता है क्या?

वैसे व्यक्तिगत रूप में मेरे लिए धार्मिकता और मंदिर में जा कर पूजा करने में कोई विषेश सम्बंध नहीं क्योंकि मेरे लिए धार्मिकता अधिक आध्यात्मिक एवं अंतर्मुखी है. धर्म और आस्था पर बात करना मुझे कठिन भी लगता है क्योंकि महसूस करता हूँ कि इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट नहीं, और कई बार अंतर्विरोधी भी है. यह भी लगता है कि कितना भी लिख लो, कुछ न कुछ बात अधूरी ही रह जायेगी.

ब्रिटिश पत्रकार और लेखक क्रिस्टोफर हिचिन्स ने धर्म और आस्था के बारे में बहुत कुछ लिखा है. इस विषय में उनकी दृष्टि अधिकतर आलोचक ही है और कई बार मुझे सोचने को मजबूर करती है. कुछ समय पहले की उनकी एक पुस्तक, "भगवान बड़ा नहीं" में उन्होंने आस्था के विषय पर लिखा है,
"धार्मिक आस्था को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि मानव जाति अभी अपने विकास मार्ग पर है, पूरी विकसित नहीं हुई. यह आस्था कभी नहीं मिटेगी, या यह कहें कि तब तक नहीं मिटेगी जब तक हम मृत्यु, अँधेरे, अज्ञान और अन्य भयों पर विजय नहीं पा लेंगे. (...) पर मुझमें और मेरे धार्मिक मित्रों में एक अंतर है. जो मित्र गम्भीरता, सच्चाई और ईमानदारी में विश्वास रखते हैं वह इस अंतर को मान लेंगे. मैं उनके बार मित्ज़वाह समारोहों में जाने को तैयार हूँ, मैं उनके विशालकाय गोथिक गिरजाघरों की प्रशंसा करने को तैयार हूँ, मैं यह मानने को तैयार हूँ कि कुरान को भगवान ने लिखवाया और कहा कि यह सिर्फ अरबी भाषा में हो और इसका मसीहा एक अनपढ़ व्यक्ति हो. मैं यह सब मानने को तैयार हूँ पर बदले में मैं कहता हूँ कि वे लोग मुझे छोड़ दें, मैं जैसा रहना चाहूँ जैसा करना चाहूँ, पर धार्मिक लोग यह नहीं कर सकते."
हर धर्म के धार्मिक इन्सानों को यह सोचना कि उनके पास सत्य का असली उत्तर है और केवल उनका सत्य ही असली सत्य है और उन्हें यह सत्य दुनिया में सब लोगों को समझाना है, कितनी लड़ाईयों का कारण बन चुका है.  क्या हम धर्म परिवर्तन को व्यक्तिगत मामला मान ले या फिर यह सामाजिक मामला है ?

मुस्लिम धर्म और आस्था पर तो कोई भी बहस नहीं हो सकती क्योंकि कहते हैं कि कुरान शरीफ़ तो सीधा भगवान ने पैगम्बर मुहम्मद को लिखवायी थी. यानि आप इस्लाम की किसी बात की न आलोचना कर सकते हैं न ही कुछ बदलाव की माँग कर सकते हैं चाहे बातें कितनी ही पिछड़ी क्यों न हों, चाहे उसमें धर्म के नाम पर मानव अधिकारों का कितना भी हनन क्यों न हो.

मैं उड़ीसा के बारे में सूना था, उन दिनों भी राज्य के कुछ हिस्सों से धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा के समाचार आ रहे थे. इस बारे में बात छिड़ी तो एक सज्जन बोले, "अन्य सब धर्मों वाले आ कर हिंदुओं का धर्म बदल रहे हैं तो हिंसा होगी ही. अब तो हिंदूओं को भी बाहर जा कर अपना धर्म फ़ैलाना चाहिये". मैं उस समय तो चुप रहा पर मन में सोच रहा था कि स्वयं को निक्ष्पक्ष रूप से देखना आसान नहीं, वरना वे कैसे भूल गये कि हिंदू धर्म भी भारत से सारे पूर्वी एशिया में फैला था और दुनिया का सबसे बड़ा हिंदु मंदिर, कम्बोदिया में अंगकोरवाट इसी की निशानी है.

दुनिया में होने वाले कितने झगड़ों और युद्धों के पीछे धर्म और आस्था की बातें जुड़ीं हैं इसकी सूची बहुत लम्बी होगी. झगड़े केवल विभिन्न धर्मों के बीच हों यह बात नहीं. एक ही धर्म के अनुयायी, अलग अलग टुकड़ों में बँटें हैं और आपस में अधिक से अधिक अनुयायी बनाने में एक दूसरे से लड़ रहे हैं. संगठित धर्मों में कहाँ धर्मग्रँथों के दिये गये संदेश समाप्त होते हैं और कहाँ ताकत और पैसे का लालच शुरु होता है, यह कहना कठिन हो जाता है.

मेरे एक मित्र है (यहाँ पर सुरक्षा के कारण नाम नहीं लुगा ) जो कैथोलिक थे पर अब बुद्ध धर्म के
अनुयायी बन गये हैं, कहते हैं कि धर्म का सम्बंध मन से है, जो धर्म मेरे मन को आकर्शित करता है उसे अपनाने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. पर मुझे लगता है कि गरीबी में यह बात इतनी सरल नहीं. लेकिन जब भगवान एक ही है तो फ़िर क्या फर्क पड़ता है कि कौन किस धर्म का अनुयायी है या फ़िर कौन धर्म बदलता है ?

वैचारिक दृष्टि से मैं इस बात से सहमत हूँ कि धर्म व्यक्तिगत बात है लेकिन मुझे लगता है कि धर्म के साथ रीति रिवाज़, लोक कथाँए, पहनना ओढ़ना, खाना पीना, त्योहार, भाषा, बहुत सी अन्य बातें भी जुड़ी हैं. मुझे लगता है कि धर्म बदलने के साथ साथ बाकी सब रीति रिवाज, लोककथाँए, पहनना ओढ़ना, भाषा, सबमें भी बदलाव आ जाता है और मानव जाति की विविधता कम हो जाती है. दक्षिण अमरीका में रहने वाली जनजातियों ने यूरोपीय देशों के साम्राज्यवाद के तले अपने धर्म और संस्कृति को खोया और मानव जाति की विविधता को कमजो़र किया कुछ वैसे ही जैसे मेकडोन्ल्ड जैसे रेस्टोरेंट का प्रभाव देशों के खाने के तरीके पर पड़ रहा है या फ़िर हालीवुड की फ़िल्मों के प्रभाव यूरोपीय भाषा संस्कृति पर पड़ रहा है या मुम्बई की फ़िल्मों का प्रभाव भारत की विभिन्न बोलियों, उनके लोकसंगीत पर पड़ रहा है. मैं मानता हूँ कि मानव जाति की विविधता में उसकी सुंदरता है.!मेरा तो यह सोचना है की बुराई धर्म में नहीं धर्म से जुड़े आडम्बर में है. भारत के ९०% हिंदू मंदिरों में पुजारियों की ओछी प्रबित्त  को देख मन खिन्न हो जाता है. इश्वर के सदा साथ रहने वालों का यदि ये हाल है तो जो बाकि लोगों का क्या हाल होगा सोचने वाली बात है. लेकिन शायद जहाँ पुजारी हैं आडम्बर है वहाँ इश्वर है ही नहीं. अपने दो शेर सुना कर अपनी बात की पुष्टि करना चाहूँगा...
१-इबादत के लिए तुम दूंदते फिरते कहाँ रब कों
गुलों में उसको हँसते खेलते हरदम मैं पाता हूँ
२.दिल की बातें हुई तभी रब से
बीच जब ना कोई दलाल रहा (नीरज)
बस ज्यादा नहीं लिखुगा ,नाहे तो मेरे बहुत से भाई कहेगे की मैं नास्तिक हु ,,,,

अंध बिश्वास और हम

आज के समय में सभी जगहों पर अंधबिश्वास का बोलबाला है , क्या टी वी...क्या अखबार...क्या मैगजीन...सब जगह  टैरो-कार्ड, फेंग-सुई-वास्तु का और अन्य अंध बिश्वास का जाल फैला नजर आता है ! देश की आजादी के पश्चात संपन्न वर्ग के ज्यादातर लोग कभी इतने अन्धविश्वासी नहीं रहे जितने कि आज हैं ! आज समाज का शिक्षित और सुविधाभोगी वर्ग जिस तरह अपने जीवन में तर्क-विरोधी होता जा रहा है - वो शर्मनाक व निराशाजनक है !

अन्तर केवल इतना है कि संपन्न लोगों के ओझा और बाबा भी खाते-पीते वर्गों से आने लगे हैं ... धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए लेटेस्ट टेक्नोलोजी से संपन्न ! हाथों में पचास हजार का मोबाईल है तो उँगलियों में शनि निवारण हेतु गोमेद धारित अंगूठी भी है ! आज मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत मोटी तनखाहें लेने वाले अधिकारी, करोड़ों में खेलने वाले फिल्म और ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोग, बुद्धिजीवी समझे जाने वाले प्रोफेसर, आधुनिकता का पर्याय फैशन डिजायनर व इंटीरिअर डेकोरेटर वगैरह काटैरो-कार्ड, फेंग-सुई-वास्तु के प्रति विशवास देखकर कौन कह सकता है कि इनका ज्ञान, शिक्षा, आधुनिकता और शेष जगत से कोई रिश्ता भी है !

इनके डिजाईनर कपड़े इनके आतंरिक खोखलेपन और उनके इस मानसिक दिवालियेपन को बस किसी तरह छुपा लेते हैं ! आज स्थिति यह है कि समाज के सबसे संपन्न तबकों के लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किसी भी तरह की हास्यास्पद और ऊलजलूल की सीमा तक जाने को तैयार हैं , हर तरह के टोटके करने को तैयार हैं !


हमारा आज का पढ़ा-लिखा, संपन्न वर्ग जो ऊपर से तो अत्याधुनिक, आत्मविश्वासी दिखायी पड़ता है, मगर अन्दर से पिछडा और डरा हुआ है ! इसीलिये बाबाओं-तांत्रिकों के धंधे भी अब ज्यादा तेजी से पनप रहे हैं ! इन्हे मीडिया का भरपूर समर्थन भी मिल रहा है ! इनके पास आने वाले ऐसे लोग बहुत हो गए हैं, जिन्हें जल्दी से जल्दी बहुत ज्यादा पैसा चाहिए, बहुत बड़ी पदोन्नति चाहिए, अपने बच्चे का किसी ख़ास शिक्षा संस्थान में दाखिला चाहिए, किसी को अपने पति या पत्नी को किसी प्रेमिका या प्रेमी से चक्कर से छुड़वाना है तो किसी को पुत्र प्राप्ति के बिना स्वर्ग का द्वार बंद दिखायी दे रहा है !

यह स्थिति दर्शाती है कि जिस वर्ग ने आजादी के बाद समृद्धि की सबसे ज्यादा मलाई उल्टे-सीधे तरीके से बटोरी है, वही इस समय सबसे अधिक हताश और परेशान है क्योंकि उसे अपने सिवाय दुनिया में कुछ नहीं दिखता ! स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में इतनी तेजी से आई हैं कि स्त्री-पुरूष समीकरण बदल गए हैं और उससे जो नई-नई जटिलताएं पैदा हो रही हैं, उनसे न तो स्त्रियाँ निपट पा रही हैं और न पुरूष ! समस्या को समझने के बजाय इसका वे काल्पनिक समाधान ढूँढने में लगे हैं !

इस वर्ग के लोगों ने सफलता का गुरुमंत्र अपने पास रखने के लिए धार्मिक होकर देख लिया, साम्प्रदायिक होकर देख लिया, जातिवाद भी आजमाकर देख लिया, मगर समस्या वहीँ की वहीँ है और यह होना ही था ! बेईमानी, भ्रष्टाचार और आपाधापी से कमाया गया धन जीवन को निश्चिंतता नहीं दे पा रहा है ! शायद इसी से घबराकर और परिवर्तन की किसी भी मुहिम में शामिल होने में अक्षम इन वर्गों के लोग अब अतार्किकता और अंधविश्वास की शरण में हैं ताकि वहां से शायद कोई प्रकाश, कोई उजाला, कोई उम्मीद दिखायी दे जाए और उनका उद्धार हो जाए, लेकिन क्या ऐसा होगा ? क्या वक्त नहीं आ गया है कि लोग पूरे समाज की स्थिति की तमाम जटिलताओं को तर्कसंगत ढंग से समझने की कोशिश पहले से ज्यादा करें !

यहाँ तक मैं खुद ही यह सब लिख रहा हु पर मेरे हाथ में भी तीन अगुठिया (नग. लगी हुई) पहन रखा हु ,गले में माला भी पहन रखा हु ,हलाकि इनके फायदे भी मुझे नजर आ रहे है ,क्या यह मेरा अंध बिश्वास है ? या फिर रत्नों के ऊपर बिश्वास है ?

!! हिन्दू सनातन धर्र्म में मांसाहार बर्जित है !!

ऋग्वेद, यजुर्वेद, महाभारत, रामायण तथा अन्य वैदिक ग्रंथो में मदिरा सेवन व् मांसाहार की घोर निंदा की गई हे.और इसके कई सारे प्रमाण ग्रंथो में मिलते हे. दीर्घ द्रष्टा ऋषियो ने इसको दुर्व्यसन व् अधःपतन का प्रमुख कारण माना हे. मनुस्मृति, पराशर स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति में भी इसका निषेध किया गया हे.

आर्य संस्कृति और सनातन धर्म ऐसे दुर्व्यसनो का हमेसा विरोधी रहा हे. यह बात का ध्यान रखा जाए. अगर कोई हिन्दू वैदिक काल का प्रमाण देकर मदिरापान और मांसाहार करता हे तो वह गलत होगा. और साथ ही आज वर्तमान में भी कुछ देवी-देवताओ को मदिरा व् पशु बलि अर्पण की जाती हे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं हे की इसका सम्बन्ध वैदिक संस्कृति से हे. यह एक अंधश्रद्धा मात्र हे. क्युकी देवी देवता को मांस और बलि अर्पण करना वैदिक संस्कृति में नहीं हे.

जिसके कुछ प्रमाण यहाँ उपस्थित हे.

- यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:

तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यत:

यजुर्वेद ४०। ७

जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |

- ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्

एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च

अथर्ववेद ६।१४०।२

हे दांतों की दोनों पंक्तियों ! चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |

यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता – पिता बनने की योग्यता रखते हैं |

- अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि

- यजुर्वेद १।१

- हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा बंद की जाए... सनातन हिन्दू धर्म में हिंसा नहीं हे... म्लेच्छ एवं यवन जेसे अन्य जातिओ के लोगो ने वैदिक काल में हिंसा घुसाई हे... हिंसा करके अभक्ष्य खाने वाले लोग सनातनी नहीं हे. आर्य हिंसक नहीं थे. जिसका ज्वलंत उदहारण महाभारत में दर्शाया गया हे ..."सूरा- मत्स्या -मधु -मांसमासवं क्रूसरौदनम धुर्तेह प्रवर्तितं ह्येत्न्नेताद वेदेषु कल्पितम" अर्थात - शराब, मछली आदि का यज्ञ में बलिदान धूर्तो द्वरा प्रवर्तित किया गया हे ! वेदों में मांस बलि का विधान निर्दिष्ट नहीं हे. (महा. शांति. २६४.९) "मांस पाक प्रतिशेधाश्च तद्वत" अर्थात- वैदिक कर्मो में विहाराग्नी में मांस पकाने का निषेध हे, (मीमांसा. १२.२.२) और इसे कई प्रमाण भारतीय शास्त्र में हे... अगर इतने बड़े वैदिक शास्त्र बलि का विरोध करते हे तो आज के मंदिरों और खास कर माई मंदिरों और शाक्त उपासको द्वारा हो रहे बलि विधानों की प्रमाणिकता प्रश्नीय हे...में दावे के साथ उनको गलत, मुर्ख एवं ढोंगी कहता हु. वह धार्मिक न होकर पाखंडी हे. बलि निषेध हे. हमारा हिन्दू धर्म "सर्वं खल्विदं ब्रह्मं" मानने वाला हे... यह ध्यान रखा जाए... और एसे दुष्टों का विरोध किया जाए. सोमरस का नाम लेकर उसका प्रमाण दे कर वर्तमान में दारु का सेवन करने वाले और उसी तरह वैदिक काल में मांसाहार के प्रचलन का प्रमाण दे कर वर्तमान में मांसाहार करने वाले हिंदू समाज गलत रास्ते पर जा रहा हे और खास कर आज के हिंदू नव युवक "कभी-कभी" के नाद में जम कर दारु व् मांसाहार करते हे जो गलत हे. दुखद बात हे वर्तमान में समाज को सही रास्ता दिखने वाले ब्रह्मिन भी इससे अलिप्त नहीं रहे. हमारे वैदिक शास्त्र व् साहित्य हमेसा मदिरा-मांसाहार का निंदक रहा हे. और चूँकि सोमरस, मदिरा नहीं थी सो उसके नाम पर मदिरा सेवन करना एक गलत बात हे..बंद करे मदिरा सेवन ..
!वैदिक शब्दों के आद्योपांत और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण पर आधारित है, जिस संदर्भ में वे वैदिक शब्दकोष, शब्दशास्त्र, व्याकरण तथा वैदिक मंत्रों के यथार्थ निरूपण के लिए अति आवश्यक अन्य साधनों में प्रयुक्त हुए हैं |  अतः यह शोध श्रृंखला मैक्समूलर, ग्रिफ़िथ, विल्सन, विलियम्स् तथा अन्य भारतीय विचारकों के वेद और वैदिक भाषा के कार्य  का अन्धानुकरण नहीं है | यद्यपि, पश्चिम के वर्तमान शिक्षा जगत में वे काफ़ी प्रचलित हैं, किंतु हमारे पास यह प्रमाणित करने  के पर्याप्त कारण हैं कि उनका कार्य सच्चाई से कोसों दूर है | उनके इस पहलू पर हम यहां विस्तार से प्रकाश डालेंगे |  विश्व की प्राचीनतम पुस्तक – वेद के प्रति गलत अवधारणाओं के विस्तृत विवेचन की श्रृंखला में यह प्रथम कड़ी है |
हिंदूओं के प्राथमिक पवित्र धर्म-ग्रंथ वेदों में अपवित्र बातों के भरे होने का लांछन सदियों से लगाया जा रहा है | यदि इन आक्षेपों को सही मान लिया जाए तो सम्पूर्ण हिन्दू संस्कृति, परंपराएं, मान्यताएं सिवाय वहशीपन, जंगलीयत और क्रूरता के और कुछ नहीं रह जाएंगी | वेद पृथ्वी पर ज्ञान के प्रथम स्रोत होने के अतिरिक्त हिन्दू धर्म के मूलाधार भी हैं, जो मानव मात्र के कल्याणमय जीवन जीने के लिए मार्गदर्शक हैं |
वेदों की झूठी निंदा करने की यह मुहीम उन विभिन्न तत्वों ने चला रखी है जिनके निहित स्वार्थ वेदों से कुछ चुनिंदा सन्दर्भों का हवाला देकर हिन्दुओं  को दुनिया के समक्ष नीचा दिखाना चाहते हैं | यह सब गरीब और अशिक्षित भारतियों से अपनी मान्यताओं को छुड़वाने में काफ़ी कारगर साबित होता है कि उनके मूलाधार वेदों में नारी की अवमानना, मांस- भक्षण, बहुविवाह, जातिवाद और यहां तक की गौ- मांस भक्षण जैसे सभी अमानवीय तत्व विद्यमान हैं |
वेदों में आए त्याग या दान के अनुष्ठान के सन्दर्भों में जिसे यज्ञ भी कहा गया है, लोगों ने पशुबलिदान को आरोपित कर दिया है | आश्चर्य की बात है कि भारत में जन्में, पले- बढे बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जो प्राचीन भारत के गहन अध्ययन का दावा करता है, वेदों में इन अपवित्र तत्वों को सिद्ध करने के लिए पाश्चात्य विद्वानों का सहारा लेता है |
वेदों द्वारा गौ हत्या और गौ मांस को स्वीकृत बताना हिन्दुओं की आत्मा पर मर्मान्तक प्रहार है | गाय का सम्मान हिन्दू धर्म का केंद्र बिंदू है | जब कोई हिन्दू को उसकी मान्यताओं और मूल सिद्धांतों में दोष या खोट दिखाने में सफल हो जाए, तो उस में हीन भावना जागृत होती है और फिर वह आसानी से मार्गभ्रष्ट किया जा सकता है |  ऐसे लाखों नादान हिन्दू हैं जो इन बातों से अनजान हैं, इसलिए प्रति उत्तर देने में नाकाम होने के कारण अन्य मतावलंबियों के सामने समर्पण कर देते हैं |
जितने भी स्थापित हित – जो वेदों को बदनाम कर रहे हैं वे केवल पाश्चात्य और भारतीय विशेषज्ञों तक ही सीमित नहीं हैं | हिन्दुओं में एक खास जमात ऐसी है जो जनसंख्या के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ें तबकों का शोषण कर अपनी बात मानने और उस पर अमल करने को बाध्य करती है  अन्यथा दुष्परिणाम भुगतने की धमकी देती है |
वेदों के नाम पर थोपी गई इन सारी मिथ्या बातों का उत्तरदायित्व मुख्यतः मध्यकालीन वेदभाष्यकार महीधर, उव्वट और सायण द्वारा की गई व्याख्याओं पर है तथा वाम मार्गियों या तंत्र मार्गियों द्वारा वेदों के नाम से अपनी पुस्तकों में चलायी गई कुप्रथाओं पर है | एक अवधि के दौरान यह असत्यता सर्वत्र फ़ैल गई और अपनी जड़ें गहराई तक ज़माने में सफल रही, जब पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत की अधकचरी जानकारी से वेदों के अनुवाद के नाम पर सायण और महीधर के वेद- भाष्य की व्याख्याओं का वैसा का वैसा अपनी लिपि में रूपांतरण कर लिया | जबकि वे वेदों के मूल अभिप्राय को समुचित रूप समझने के लिए अति आवश्यक शिक्षा (स्वर विज्ञान), व्याकरण, निरुक्त (शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र), निघण्टु (वैदिक कोष), छंद , ज्योतिष तथा कल्प इत्यादि के ज्ञान से सर्वथा शून्य थे |
अग्निवीर के आन्दोलन का उद्देश्य वेदों के बारे में ऐसी मिथ्या धारणाओं का वास्तविक मूल्यांकन कर उनकी पवित्रता,शुद्धता,महान संकल्पना तथा मान्यता की स्थापना करना है | जो सिर्फ हिन्दुओं के लिए ही नहीं बल्कि मानव मात्र के लिए बिना किसी बंधन,पक्षपात या भेदभाव के समान रूप से उपलब्ध हैं |

.पशु-हिंसा का विरोध
यस्मिन्त्सर्वाणि  भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत:
तत्र  को  मोहः  कः  शोक   एकत्वमनुपश्यत:
यजुर्वेद  ४०। ७
जो सभी भूतों में अपनी ही आत्मा को देखते हैं, उन्हें कहीं पर भी शोक या मोह नहीं रह जाता क्योंकि वे उनके साथ अपनेपन की अनुभूति करते हैं | जो आत्मा के नष्ट न होने में और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हों, वे कैसे यज्ञों में पशुओं का वध करने की सोच भी सकते हैं ? वे तो अपने पिछले दिनों के प्रिय और निकटस्थ लोगों को उन जिन्दा प्राणियों में देखते हैं |

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः
मनुस्मृति ५।५१
मारने की आज्ञा देने वाला, पशु को मारने के लिए लेने वाला, बेचने वाला, पशु को मारने वाला,
मांस को खरीदने और बेचने वाला, मांस को पकाने वाला और मांस खाने वाला यह सभी हत्यारे हैं |

ब्रीहिमत्तं यवमत्तमथो माषमथो तिलम्
एष वां भागो निहितो रत्नधेयाय दान्तौ मा हिंसिष्टं पितरं मातरं च
अथर्ववेद ६।१४०।२
हे दांतों की दोनों पंक्तियों ! चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ |
यह अनाज तुम्हारे लिए ही बनाये गए हैं | उन्हें मत मारो जो माता – पिता बनने की योग्यता रखते हैं |

य आमं मांसमदन्ति पौरुषेयं च ये क्रविः
गर्भान् खादन्ति केशवास्तानितो नाशयामसि
अथर्ववेद ८। ६।२३
वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंड़ों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खातें हैं, हमें उन्हें नष्ट कर देना चाहिए |

अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये
मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः
अथर्ववेद १०।१।२९
निर्दोषों को मारना निश्चित ही महा पाप है | हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार | वेदों में गाय और अन्य पशुओं के वध का स्पष्टतया निषेध होते हुए, इसे वेदों के नाम पर कैसे उचित ठहराया जा सकता है?

अघ्न्या यजमानस्य पशून्पाहि
यजुर्वेद १।१
हे मनुष्यों ! पशु अघ्न्य हैं – कभी न मारने योग्य, पशुओं की रक्षा करो |

पशूंस्त्रायेथां
यजुर्वेद ६।११
पशुओं का पालन करो |

द्विपादव चतुष्पात् पाहि
यजुर्वेद १४।८
हे मनुष्य ! दो पैर वाले की रक्षा कर और चार पैर वाले की भी रक्षा कर |

क्रव्य दा – क्रव्य (वध से प्राप्त मांस ) + अदा (खानेवाला) = मांस भक्षक |
पिशाच — पिशित (मांस) +अस (खानेवाला) = मांस खाने वाला |
असुत्रपा –  असू (प्राण )+त्रपा(पर तृप्त होने वाला) =   अपने भोजन के लिए दूसरों के प्राण हरने वाला |  |
गर्भ दा  और अंड़ दा = भूर्ण और अंड़े खाने वाले |
मांस दा = मांस खाने वाले |
वैदिक साहित्य में मांस भक्षकों को अत्यंत तिरस्कृत किया गया है | उन्हें राक्षस, पिशाच आदि की संज्ञा दी गई है जो दरिन्दे और हैवान माने गए हैं तथा जिन्हें सभ्य मानव समाज से बहिष्कृत समझा गया है |

ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे
यजुर्वेद ११।८३
सभी दो पाए और चौपाए प्राणियों को बल और पोषण प्राप्त हो |  हिन्दुओं द्वारा भोजन ग्रहण करने से पूर्व बोले जाने वाले इस मंत्र में प्रत्येक जीव के लिए पोषण उपलब्ध होने की कामना की गई है | जो दर्शन प्रत्येक प्राणी के लिए जीवन के हर क्षण में कल्याण ही चाहता हो, वह पशुओं के वध को मान्यता कैसे देगा ?

२.यज्ञ में हिंसा का विरोध
जैसी कुछ लोगों की प्रचलित मान्यता है कि यज्ञ में पशु वध किया जाता है, वैसा बिलकुल नहीं है | वेदों में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म या एक ऐसी क्रिया कहा गया है जो वातावरण को अत्यंत शुद्ध करती है |

अध्वर इति यज्ञानाम  – ध्वरतिहिंसा कर्मा तत्प्रतिषेधः
निरुक्त २।७
निरुक्त या वैदिक शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र में यास्काचार्य के अनुसार यज्ञ का एक नाम अध्वर भी है | ध्वर का मतलब है हिंसा सहित किया गया कर्म, अतः अध्वर का अर्थ हिंसा रहित कर्म है | वेदों में अध्वर के ऐसे प्रयोग प्रचुरता से पाए जाते हैं |

महाभारत के परवर्ती काल में वेदों के गलत अर्थ किए गए तथा अन्य कई धर्म – ग्रंथों के विविध तथ्यों को  भी प्रक्षिप्त किया गया | आचार्य शंकर वैदिक मूल्यों की पुनः स्थापना में एक सीमा तक सफल रहे | वर्तमान समय में स्वामी दयानंद सरस्वती – आधुनिक भारत के पितामह ने वेदों की व्याख्या वैदिक भाषा के सही नियमों तथा यथार्थ प्रमाणों के आधार पर की | उन्होंने वेद-भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा अन्य ग्रंथों की रचना की | उनके इस साहित्य से वैदिक मान्यताओं पर आधारित व्यापक सामाजिक सुधारणा हुई तथा वेदों के बारे में फैली हुई भ्रांतियों का निराकरण हुआ |

आइए,यज्ञ के बारे में वेदों के मंतव्य को जानें -
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि

स इद देवेषु गच्छति
ऋग्वेद   १ ।१।४
हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त हिंसा रहित यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है | ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेद भी वर्णित करते हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?

यज्ञों में पशु वध की अवधारणा  उनके (यज्ञों ) के विविध प्रकार के नामों के कारण आई है जैसे अश्वमेध  यज्ञ, गौमेध यज्ञ तथा नरमेध यज्ञ | किसी अतिरंजित कल्पना से भी इस संदर्भ में मेध का अर्थ वध संभव नहीं हो सकता |

यजुर्वेद अश्व का वर्णन करते हुए कहता  है -
इमं मा हिंसीरेकशफं पशुं कनिक्रदं वाजिनं वाजिनेषु
यजुर्वेद  १३।४८
इस एक खुर वाले, हिनहिनाने वाले तथा बहुत से पशुओं में अत्यंत वेगवान प्राणी का वध मत कर |अश्वमेध से अश्व को यज्ञ में बलि देने का तात्पर्य नहीं है इसके विपरीत यजुर्वेद में अश्व को नही मारने का स्पष्ट उल्लेख है | शतपथ में अश्व शब्द राष्ट्र या साम्राज्य के लिए आया है | मेध अर्थ वध नहीं होता | मेध शब्द बुद्धिपूर्वक किये गए कर्म को व्यक्त करता है | प्रकारांतर से उसका अर्थ मनुष्यों में संगतीकरण का भी है |  जैसा कि मेध शब्द के धातु (मूल ) मेधृ -सं -ग -मे के अर्थ से स्पष्ट होता है |

राष्ट्रं  वा  अश्वमेध:
अन्नं  हि  गौ:
अग्निर्वा  अश्व:
आज्यं  मेधा:
(शतपथ १३।१।६।३)
स्वामी  दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं :-
राष्ट्र या साम्राज्य के वैभव, कल्याण और समृद्धि के लिए समर्पित यज्ञ ही अश्वमेध यज्ञ है |  गौ शब्द का अर्थ पृथ्वी भी है | पृथ्वी तथा पर्यावरण की शुद्धता के लिए समर्पित यज्ञ गौमेध कहलाता है | ” अन्न, इन्द्रियाँ,किरण,पृथ्वी, आदि को पवित्र रखना गोमेध |”  ” जब मनुष्य मर जाय, तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है | ”

३. गौ – मांस का निषेध
वेदों  में पशुओं की हत्या का  विरोध तो है ही बल्कि गौ- हत्या पर तो तीव्र आपत्ति करते हुए उसे निषिद्ध माना गया है | यजुर्वेद में गाय को जीवनदायी पोषण दाता मानते हुए गौ हत्या को वर्जित किया गया है |
घृतं दुहानामदितिं जनायाग्ने  मा हिंसी:
यजुर्वेद १३।४९
सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |

आरे  गोहा नृहा  वधो  वो  अस्तु
ऋग्वेद  ७ ।५६।१७
ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |

सूयवसाद  भगवती  हि  भूया  अथो  वयं  भगवन्तः  स्याम
अद्धि  तर्णमघ्न्ये  विश्वदानीं  पिब  शुद्धमुदकमाचरन्ती
ऋग्वेद १।१६४।४०
अघ्न्या गौ- जो किसी भी अवस्था में नहीं मारने योग्य हैं, हरी घास और शुद्ध जल के सेवन से स्वस्थ  रहें जिससे कि हम उत्तम सद् गुण,ज्ञान और ऐश्वर्य से युक्त हों |वैदिक कोष निघण्टु में गौ या गाय के पर्यायवाची शब्दों में अघ्न्या, अहि- और अदिति का भी समावेश है | निघण्टु के भाष्यकार यास्क इनकी व्याख्या में कहते हैं -अघ्न्या – जिसे कभी न मारना चाहिए | अहि – जिसका कदापि वध नहीं होना चाहिए | अदिति – जिसके खंड नहीं करने चाहिए | इन तीन शब्दों से यह भलीभांति विदित होता है कि गाय को किसी भी प्रकार से पीड़ित नहीं करना चाहिए | प्रायवेदों में गाय इन्हीं नामों से पुकारी गई है |

अघ्न्येयं  सा  वर्द्धतां  महते  सौभगाय
ऋग्वेद १ ।१६४।२७
अघ्न्या गौ-  हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |

सुप्रपाणं  भवत्वघ्न्याभ्य:
ऋग्वेद ५।८३।८
अघ्न्या गौ के लिए शुद्ध जल अति उत्तमता से उपलब्ध हो |

यः  पौरुषेयेण  क्रविषा  समङ्क्ते  यो  अश्व्येन  पशुना  यातुधानः
यो  अघ्न्याया  भरति  क्षीरमग्ने  तेषां  शीर्षाणि  हरसापि  वृश्च
ऋग्वेद १०।८७।१६
मनुष्य, अश्व या अन्य पशुओं के मांस से पेट भरने वाले तथा दूध देने वाली अघ्न्या गायों का विनाश करने वालों को कठोरतम दण्ड देना चाहिए |

विमुच्यध्वमघ्न्या देवयाना अगन्म
यजुर्वेद १२।७३
अघ्न्या गाय और बैल तुम्हें समृद्धि प्रदान करते हैं |

मा गामनागामदितिं  वधिष्ट
ऋग्वेद  ८।१०१।१५
गाय को मत मारो | गाय निष्पाप और अदिति – अखंडनीया है  |

अन्तकाय  गोघातं
यजुर्वेद ३०।१८
गौ हत्यारे का संहार किया जाये |

यदि  नो  गां हंसि यद्यश्वम् यदि  पूरुषं
तं  त्वा  सीसेन  विध्यामो  यथा  नो  सो  अवीरहा
अर्थववेद १।१६।४
यदि कोई हमारे गाय,घोड़े और पुरुषों की हत्या करता है, तो उसे सीसे की गोली से उड़ा दो |

वत्सं  जातमिवाघ्न्या
अथर्ववेद ३।३०।१
आपस में उसी प्रकार प्रेम करो, जैसे अघ्न्या – कभी न मारने योग्य गाय – अपने बछड़े से करती है |

धेनुं  सदनं  रयीणाम्
अथर्ववेद ११।१।४
गाय सभी ऐश्वर्यों का उद्गम है |

ऋग्वेद के ६ वें मंडल का सम्पूर्ण २८ वां सूक्त गाय की महिमा बखान रहा है –
१.आ  गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु
प्रत्येक जन यह सुनिश्चित करें कि गौएँ यातनाओं से दूर तथा स्वस्थ रहें |

२.भूयोभूयो  रयिमिदस्य  वर्धयन्नभिन्ने
गाय की  देख-भाल करने वाले को ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है |


३.न ता नशन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति
गाय पर शत्रु भी शस्त्र  का प्रयोग न करें |

४. न ता अर्वा रेनुककाटो अश्नुते न संस्कृत्रमुप यन्ति ता अभि
कोइ भी गाय का वध न करे  |

५.गावो भगो गाव इन्द्रो मे अच्छन्
गाय बल और समृद्धि  लातीं  हैं |

६. यूयं गावो मेदयथा
गाय यदि स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगी  तो पुरुष और स्त्रियाँ भी निरोग और समृद्ध होंगे |

७. मा वः स्तेन ईशत माघशंस:
गाय हरी घास और शुद्ध जल क सेवन करें | वे मारी न जाएं और हमारे लिए समृद्धि लायें |

वेदों में मात्र गाय ही नहीं  बल्कि प्रत्येक प्राणी के लिए प्रद्रर्शित उच्च भावना को समझने  के लिए और  कितने प्रमाण दिएं जाएं ? प्रस्तुत प्रमाणों से सुविज्ञ पाठक स्वयं यह निर्णय कर सकते हैं कि वेद किसी भी प्रकार कि अमानवीयता के सर्वथा ख़िलाफ़ हैं और जिस में गौ – वध तथा गौ- मांस का तो पूर्णत: निषेध है |

वेदों में गौ मांस का कहीं कोई विधान नहीं  है |


संदर्भ ग्रंथ सूची -
१.ऋग्वेद भाष्य – स्वामी दयानंद सरस्वती
२.यजुर्वेद भाष्य -स्वामी दयानंद सरस्वती
३.No Beef in Vedas -B D Ukhul
४.वेदों का यथार्थ स्वरुप – पंडित धर्मदेव विद्यावाचस्पति
५.चारों वेद संहिता – पंडित दामोदर सातवलेकर
६. प्राचीन भारत में गौ मांस – एक समीक्षा – गीता प्रेस,गोरखपुर
७.The Myth of Holy Cow – D N Jha
८. Hymns of Atharvaveda – Griffith
९.Scared Book of the East – Max Muller
१०.Rigved Translations – Williams\ Jones
११.Sanskrit – English Dictionary – Moniar Williams
१२.वेद – भाष्य – दयानंद संस्थान
१३.Western Indologists – A Study of Motives – Pt.Bhagavadutt
१४.सत्यार्थ प्रकाश – स्वामी दयानंद सरस्वती
१५.ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका – स्वामी दयानंद सरस्वती
१६.Cloud over Understanding of Vedas – B D Ukhul
१७.शतपथ ब्राहमण
१८.निरुक्त – यास्काचार्य
१९. धातुपाठ – पाणिनि

परिशिष्ट, १४ अप्रैल २०१०
इस लेख के पश्चात् उन विभिन्न स्रोतों से तीखी प्रतिक्रिया हुई जिनके गले से यह सच्चाई नहीं उतर सकती कि हमारे वेद और राष्ट्र की प्राचीन संस्कृति अधिक आदर्शस्वरूप हैं बनिस्पत उनकी आधुनिक साम्यवादी विचारधारा के | मुझे कई मेल प्राप्त हुए जिनमें इस लेख को झुठलाने के प्रयास में अतिरिक्त हवाले देकर गोमांस का समर्थन दिखाया गया है | जिनमें ऋग्वेद से २ मंत्र ,मनुस्मृति के कुछ श्लोक तथा कुछ अन्य उद्धरण दिए गए हैं | जिसका एक उदाहरण यहाँ अवतार गिल की टिप्पणी है | इस बारे में मैं निम्न बातें कहना चाहूंगा –
a. लेख में प्रस्तुत मनुस्मृति के साक्ष्य में वध की अनुमति देने वाले तक को हत्यारा कहा गया है | अतः यह सभी अतिरिक्त श्लोक मनुस्मृति में प्रक्षेपित ( मिलावट किये गए) हैं या इनके अर्थ को बिगाड़ कर गलत रूप में प्रस्तुत किया गया है | मैं उन्हें डा. सुरेन्द्र कुमार द्वारा भाष्य की गयी मनुस्मृति पढ़ने की सलाह दूंगा | जो http : // vedicbooks.com पर उपलब्ध है |
b. प्राचीन साहित्य में गोमांस को सिद्ध करने के उनके अड़ियल रवैये के कपट का एक प्रतीक यह है कि वह मांस शब्द का अर्थ हमेशा मीट (गोश्त) के संदर्भ में ही लेते हैं | दरअसल, मांस शब्द की परिभाषा किसी भी गूदेदार वस्तु के रूप में की जाती है | मीट को मांस कहा जाता है क्योंकि वह गूदेदार होता है | इसी से, केवल मांस शब्द के प्रयोग को देखकर ही मीट नहीं समझा जा सकता |
c. उनके द्वारा प्रस्तुत अन्य उद्धरण संदेहास्पद एवं लचर हैं जो प्रमाण नहीं माने जा सकते | उनका तरीका बहुत आसान है – संस्कृत में लिखित किसी भी वचन को धर्म के रूप में प्रतिपादित करके मन माफ़िक अर्थ किये जाएं | इसी तरह, वे हमारी पाठ्य पुस्तकों में अनर्गल अपमानजनक दावों को भरकर मूर्ख बनाते आ रहें हैं |
d. वेदों से संबंधित जिन दो मंत्रों को प्रस्तुत कर वे गोमांस भक्षण को सिद्ध मान रहे हैं, आइए उनकी पड़ताल करें -
दावा:- ऋग्वेद (१०/८५/१३) कहता है -” कन्या के विवाह अवसर पर गाय और बैल का वध किया जाए | ”
तथ्य : – मंत्र में बताया गया है कि शीत ऋतु में मद्धिम हो चुकी सूर्य किरणें पुनः वसंत ऋतु में प्रखर हो जाती हैं | यहां सूर्य -किरणों के लिए प्रयुक्त शब्द  ’गो’ है, जिसका एक अर्थ ‘गाय’ भी होता है | और इसीलिए मंत्र का अर्थ करते समय सूर्य – किरणों के बजाये गाय को विषय रूप में लेकर भी किया जा सकता है | ‘मद्धिम’ को सूचित करने के लिए ‘हन्यते’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका मतलब हत्या भी हो सकता है | परन्तु यदि ऐसा मान भी लें, तब भी मंत्र की अगली पंक्ति (जिसका अनुवाद जानबूझ कर छोड़ा गया है)  कहती है कि -वसंत ऋतु में वे अपने वास्तविक स्वरुप को पुनः प्राप्त होती हैं | भला सर्दियों में मारी गई गाय दोबारा वसंत ऋतु में पुष्ट कैसे हो सकती है ? इस से भली प्रकार सिद्ध हो रहा है कि ज्ञान से कोरे कम्युनिस्ट किस प्रकार वेदों के साथ पक्षपात कर कलंकित करते हैं |
दावा :- ऋग्वेद (६/१७/१) का कथन है, ” इन्द्र गाय, बछड़े, घोड़े और भैंस का मांस खाया करते थे |”
तथ्य :- मंत्र में वर्णन है कि प्रतिभाशाली विद्वान, यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित करने वाली समिधा की भांति विश्व को दीप्तिमान कर देते हैं | अवतार गिल और उनके मित्रों को इस में इन्द्र,गाय,बछड़ा, घोड़ा और भैंस कहां से मिल गए,यह मेरी समझ से बाहर है | संक्षेप में, मैं अपनी इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ हूँ कि वेदों में गोमांस भक्षण का समर्थक एक भी मंत्र प्रमाणित करने पर मैं हर उस मार्ग को स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ जो मेरे लिए नियत किया जाएगा अन्यथा वे वेदों की ओर वापिस लौटें
नोट --यह ब्लॉग मैंने मेरे फेसबुक खाते के नोट्स में से लिया है ....
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आस्था के नए दीपक जलाए ..

देश में जागरण के चिह्न दिखाई दे रहे हैं. यह एक अत्यंत शुभ लक्षण है, क्योंकि इसमें एक बड़े परिवर्तन की आहट सुनाई दे रही है. आवश्यकता मात्र इतनी है कि जागृति की यह लहर इतनी ऊंची उठे कि वह हमारी संकीर्णता की चहारदीवारी को छिन्न-भिन्न कर दे. क्योंकि जगे हुए तो हम अभी भी हैं. अपनी देखभाल तो हम बहुत जागरूक होकर कर रहे हैं. अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जितने अंशों में हमें समाजोन्मुख होना पड़ता है, उतनी सामाजिकता तो हम अभी भी रखते हैं. सोये हुए हम नहीं हैं. हम खूब दौड़-धूप रहे हैं. किंतु यह जागरूकता हमारे स्वार्थ-पूर्ति के किये है. इसलिए आज प्रश्न जागने का नहीं, जागृति की दिशा का है. प्रश्न हमारी जागरूकता के भिन्न आयाम का है जिसमें वृहत्तर जीवन-संदर्भ हमारी संवेदना के हिस्से बन जाते है.
एक पशु भी अपनी और अपने बाल-बच्चों की देख-भाल कर ही लेता है. कई पशु तो अपने पूरे समुदाय की सुरक्षा ओद के प्रति भी सचेष्ट देखे जाते हैं. मनुष्य होकर भी यदि हम अपने पर-परिवार की खुशहाली में ही अपने को सीमित कर लें तो इससे पाशविकता ही पुष्ट होगी, मनुष्यता की मंजिल हमसे दूर ही रहेगी.
इसलिए प्रश्न पशुता से मनुष्यता में जागृति का है. हमें सही अर्थो में मनुष्य बनना है, अर्थात हमें समाज के प्रति, समाज की प्रगति के प्रति, सबके मंगल, सबके कल्याण, सबके सुख के प्रति जागरूक होना है. हमें ’मैं‘ से ’हम‘ में जाना है. हमने मैं..मैं बहुत कर ली और इसका परिणाम भी देख लिया. यह अंध भोगपारायणता, यह हृदयहीन बुभुक्षा, यह जघन्य परपीड़न-इन सबके जड़ में यह अत्यंत स्वार्थी ‘मैं’ ही क्रियाशील है. इस परिणाम को देख समझ कर भी इस संकुचित ’मैं‘ के खूंटे से बंधे रहना, हमारी पशुता को ही सिद्ध करेगा. इसलिए प्रश्न हमारी कायिक मनुष्यता से वास्तविक मनुष्यता में आरोहण का है.
हमें समाज के लिए सोचना है. पूरे समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी समझनी है. समाज के लिए कुछ करना है. प्रतिदिन के जीवन का कुछ हिस्सा समाज-सेवा के लिए अर्पित हो, यह जागृति का वास्तविक अर्थ होगा. इस जागृति को हमें पूरी दुनिया में फ़ैलाना है, किंतु पहले इसे अपने घर, अपने समाज में प्रयोग कर साध लें, तो हमारी नींव मजबूत बनेगी. दुनिया की तमाम समस्याओं का समाधान इस एक सूत्र में पाया जा सकता है कि हम इनसान बनें और इनसान बनने का अर्थ है, दूसरों के लिए जीना सीखना. यह काम हम अपने परिवार में करते ही हैं. किंतु उन्हें हम ’दूसरा‘ नहीं मानते अपना मानते हैं. उसी प्रकार, जब हम सबों को अपना मानने लगेंगे, तो हम उनके लिये जीना सहज ही सीख लेंगे. उस दिन हमें अपनी खोई हुई मनुष्यता फ़िर से प्राप्त हो जायेगी. जन-चेतना में सोच का यह बिंदु दाखिल होगा तो जागृति का सही मुकाम हासिल करने में हम कामयाब हो सकेंगे.
यदि हम गौर करें तो पायेंगे कि यह विचार अब कोई नैतिक विचार या धर्म-विचार न रहकर, आज की आत्यंतिक आवश्यकता बन गयी है. यदि हमारी सीमित-संकुचित स्वार्थ-बुद्धि तिरोहित नहीं होती, हम अपने कुनबे को भरने में ही अपना परम पुरुषार्थ मानते रह गये, हमें अपना, अपनी सीमित परिधि का अहं ही घेरता-बांधता रहा तो आज के इस आणविक युग में मानव-समाज का अस्तित्व टिक नहीं सकेगा. आणविक शक्ति की बात छोड़ दीजिए, यह लोभ-लालच, यह गलाकाटू स्पर्धा, यह हिंसा और द्वेष की लपटें जो आज व्यक्ति- व्यक्ति के अंदर धधकती दिखाई देती है, मनुष्य के समाज को मटियामेट कर देने के लिए काफ़ी है. इसका नतीजा है कि आज देश और समाज ही नहीं टूट रहे, परिवार टूट रहे हैं, व्यक्ति तक टूट रहा है.
इस टूट को रोकना है, तो हमें उस शक्ति की खोज और प्रतिष्ठा करनी होगी, जो सबों को जोड़ता हो, जो हमें हमारी संकीर्णताओं से मु कर दे. इस शक्ति को हम परमात्मा नाम दें, विश्व-चेतना, विश्वात्मा नाम दें-जो भी नाम दें किंतु आज उस शक्ति को हमें अपने अंतर में प्रतिष्ठित करना होगा, अपने अनुभव का विषय बनाना होगा, जो बाहर के इस भेद-भावमूलक, सत्ता-प्रतिष्ठानमूलक व्यवस्था का उदभेदन कर एक समतामूलक, प्रेममूलक समाज निर्माण के लिए हमें प्रेरित कर सके. यहां भी हमें यह सावधानी रखनी होगी कि यह एकता-विधायक सत्ता या शक्ति की व्यापकता किसी भी स्तर पर खंडित न होनेवाली हो. जाति, भाषा, धर्म, राष्ट्र - छोटी या बड़ी सभी सीमाओं से ऊपर उठ कर पूरे विश्व को एकता के सूत्र में पिरोनेवाली शक्ति का आह्वान आज हमें अपने अंतर में करना है. इस एकता विधायक शक्ति के अधिष्ठान पर जब हम आरूढ़ होंगे तो सहज रूप में, हम ’मैं’ के तुच्छ घेरे को तोड़ कर ’सर्व‘ की व्यापकता का महान अनुभव ले सकेंगे.पुरानी चीजें टूट रही हैं. हमें आस्था के नये दीये जलाने होंगे.!

क्या आप कामयाब होना चाहते है ?

जीवन में सफलता और सुख वही व्यक्ति प्राप्त करता है जो हमेशा ही चिंतन और मनन करता है। जो निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से कार्य करते रहता है वहीं कुछ उल्लेखनीय कार्य कर पाता है। इस संबंध में आचार्य चाणक्य (चणी पुत्र ) कहते हैं-

हौं केहिको का मित्र को, कौन काल अरु देश।

लाभ खर्च को मित्र को, चिंता करे हमेशा।

अभी समय कैसा है ? मित्र कौन हैं ? यह देश कैसा ह ? मेरी कमाई और खर्च क्या हैं ? मैं किसके अधीन हूं ? और मुझमें कितनी शक्ति ह ? इन छ: बातों को हमेशा ही सोचते रहना चाहिए।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वही व्यक्ति समझदार और सफल है जिसे इन छ: प्रश्नों के उत्तर हमेशा मालुम रहते हो। समझदार व्यक्ति जानता है कि वर्तमान में कैसा समय चल रहा है। अभी सुख के दिन हैं या दुख के। इसी के आधार पर वह कार्य करता हैं। हमें यह भी मालुम होना चाहिए कि हमारे सच्चे मित्र कौन हैं? क्योंकि अधिकांश परिस्थितियों में मित्रों के भेष में शत्रु भी आ जाते हैं। जिनसे बचना चाहिए।

व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि जिस जगह वह रहता है वह कैसी हैं? वहां का वातावरण कैसा हैं? वहां का माहौल कैसा है? इन बातों के अलावा सबसे जरूरी बात हैं व्यक्ति को उसकी आय और व्यय की पूरी जानकारी होना चाहिए। व्यक्ति की आय क्या है उसी के अनुसार उसे व्यय करना चाहिए।

चाणक्य कहते हैं कि समझदार इंसान को मालुम होना चाहिए कि वह कितना योग्य है और वह क्या-क्या कुशलता के साथ कर सकता है। जिन कार्यों में हमें महारत हासिल हो वहीं कार्य हमें सफलता दिला सकते हैं। इसके साथ व्यक्ति को यह भी मालुम होना चाहिए कि उसका गुरु या स्वामी कौन हैं? और वह आपसे चाहता क्या हैं ?

अत: इन बातो को हमेशा ध्यान रखे फिर देखे आप कभी भी नाकामयाब नहीं हो सकते है !

ख्‍वाजा मुइनुद्दीन चिश्‍ती सेना नायक या शंत ???

मैंने अभी तक यही  पढ़ा था की  "ख्‍वाजा मुइनुद्दीन चिश्‍ती " की दरगाह एक मुस्लिम सेना नायक की है जो मुहमद गोरी के सेना का सिपाही था,पर आज मुझे एक नई जानकारी मिली है जिसे आप सभी को प्रेषित कर रहा हु ......

शाहन के शाह : मशहूर दार्शनिक और शायर डॉक्‍टर अल्‍लामा इकबाल का यह शेर भारत में सूफी-संतों के मामले में तो कम से कम पूरी तरह खरा ही उतरता है। और जब सूफी संतों का जिक्र आता है तो वे इंसानियत और रूहानियत के सर्वाधिक करीब, लेकिन ज्‍यादातर मु‍सलमान धर्म-गुरूओं के रूप में अवतरित होते दिखायी पड़ते हैं। वे ऐसी शख्सियतों के मालिक के तौर पर भारतीय परिदृश्‍य पर उभरे जिसने वक्‍त की नब्‍ज को हर बार बिगड़ने से रोका और हिन्‍दू-मुस्लिम समुदायों को गंगा-जमुनी संस्‍कृति अता फरमायी।
लेकिन बात जब उस शख्‍सनुमा देवता की हो, जिसने बादशाही स्‍वागत-सत्‍कार को ठोकर पर रखा, जिसने इस्‍लामी शब्‍दों का इस्‍तेमाल तो किया, लेकिन उन अल्‍फाजों की रूह दूसरे पलडे़ में बैठी भारतीय संस्‍कृति के ही इर्द-गिर्द ही घूमती रही। जिसने अपना आशियानानुमा घरौंदा बनाने के लिए भारतीयों के परम-पूज्‍य स्‍थलों में से एक, यानी पुष्‍कर भूमि को अपनाया। जिसने इस्‍लामी शासकों के कट्टरवाद के खिलाफ बाकायदा जंग छेड़ी और इंसान के तौर पर हर मजहब को बराबरी के तौर पर ही नहीं देखा, बल्कि ईश्‍वर की अनुपम कृति के तौर पर पूजना शुरू कर दिया। जिसने चाहा तो कभी कुछ नहीं, लेकिन वक्‍त के निजाम पर ऐसा असर डाला कि वह नंगे पैर दरगाह तक शुक्रिया अदा करने पहुंच गया।
जी हां, यहां हम बात कर रहे हैं मुइनुद्दीन की, जो चिश्तिया समझ और संस्‍कृति वाले मुइनुद्दीन चिश्‍ती के रूप में भारतीय जनमानस में अजीमुश्‍शान हैसियत रखते हैं और बाद के वक्‍त में तो वे बाकायदा ख्‍वाजा के तौर पर पूजनीय हो गये। लेकिन इस मुकाम तक पहुंचने के लिए उन्‍हें खासी मशक्‍कत भी करनी पड़ी। सबसे पहले तो उन्‍हें भारत के संदर्भ में इस्‍लामी शासन के तौर-तरीकों की सार्वजनिक व्‍याख्‍या तक कर डाली। ख्‍वाजा ने साफ कहा- हिंसा और तलवार की नोंक पर इस्‍लाम की बुनियाद ज्‍यादा दिन जिन्‍दा नहीं रह सकती है।
12 सदी नौंवी रजब की 12वीं तारीख को ईरान में सीस्‍तान के संजर गांव में जन्‍मे मोइनुद्दीन औपचारिक शिक्षा के बाद 23 वें वसंत में गुरू ख्‍वाजा उस्‍मान हसन चिश्‍ती की सेवा में मक्‍का और आसपास के इलाकों में ही रहे। बाद में वे मोहम्‍मद गोरी के साथ भारत चले आये। इंसानियत का पैगाम पहले ही मिल चुका था और क्रूर इस्‍लामी शासन की हैवानियत उन्‍होंने खुद अपनी आंखों से देख ली। इस्‍लाम के नाम पर मंदिरों को ढहाने और मूर्तियों नेस्‍तनाबूत करने की खूंख्‍वार मुहिम छिड़ी थी। जबरिया धर्मपरिवर्तन कराया जा रहा था। हर ओर कत्‍ल-खून। त्राहि-त्राहि और आर्तनाद।
ख्‍वाजा का कलेजा फट गया और इसी के साथ बह निकली भक्ति और कर्म की एक अनोखी धारा, जिसने सर्वधर्म समभाव की अमिट लकीरें खींच दीं। ख्‍वाजा ने सुलतानी आवभगत ठुकराया और जा बसे हिन्‍दुओं के पवित्र तीर्थ कहे जाने वाले पुष्‍कर में। बोले:- ऐसी हुकूमत से कुछ नहीं चाहिए, जो इंसानों में भी फर्क करे। ख्‍वाजा ने उपनिषदों की चिचारधारा अपनाते हुए कहा:- प्रेम करो। बाहरी पहचानों को अगर हटा दिया जाए तो प्रेम, प्रेमिका और प्रियतम एक ही हैं। तो, हर इक से कर मोहब्‍बत। गरीब से खासतौर पर। ताकत, पैसा और दिखावे से ईश्‍वर नहीं मिलता। सच्‍ची मोहब्‍बत करो तो खुदा अपने आप आयेगा। हर चीज में खुदा को खोजना ही प्रेम है। और खुदा ही प्रेम है। कट्टरता तुम्‍हें ईश्‍वर से दूर कर देती है।
और यहीं से प्रबल होने लगी वह धारा जो प्रेम से सीधे जुड़ती है। जाहिर है त्रस्‍त अवाम इस राह पर चल निकला और ख्‍वाजा गरीब-नवाज हो गये। मोहब्‍बत का आलम यह फूटा कि सलीम के पैदा होने पर बादशाह अकबर इस दरगाह पर नंगे पांव जियारत करने पहुंच गया। यह ख्‍वाजा के 400 साल बाद की घटना है और उस विचारधारा की जीत दर्शाती है, जिसके मुताबिक इंसान में नदी जैसी दानशीलता, सूरज जैसी दयालुता और धरती जैसी खातिरदारी का जज्‍बा होना चाहिए। ख्‍वाजा का दर्शन उनके गद्य संकलन गंजुल-असरार और अनीसुल-अरवाह में साफ झलकता है। दीवान-ए-मोइन में 250 के करीब कविताएं भी मौजूद हैं,  जिन्‍होंने अजमेर से दुनिया भर में प्रेम और मानवता का पैगाम पहुंचाया।
ख्‍वाजा की दरगाह में 21 दरवाजे और दो खिडकियां हैं। प्रवेश के लिए सदर दरवाजा है। दूसरे को नक्‍कारखाना शाही कहा जाता है। अकबर ने यहां लाल पत्‍थरों से एक मस्जिद बनवायी थी। बुलंद दरवाजे की ऊंचाई 85 फीट है। बेमिसाल नक्‍काशी और खूबसूरती दरगाह में चार चांद लगाती है। दरगाह में दो हैरतअंगेज देंगे भी हैं, जिन में से एक में 80 और दूसरी में 100 मन चावल पकाया जाता है। उर्स के दौरान तो यहां बेशुमार श्रद्धालु जुटते हैं।
21 मई 1238 को हिजरी की पहली तारीख को वे अपनी कोठरी में चले गये। छठे दिन शिष्‍यों ने जब दरवाजा खोला तो ख्‍वाजा अल्‍लाह को प्‍यारे हो चुके थे। गरीबनवाज तो न जाने कब खुदा के पास चला गया, लेकिन उनके देहांत की तारीख को शिष्‍यों ने तरीके से सुलझाया। तय हुआ कि गरीबनवाज का उर्स लगातार छह दिनों तक मनाया जाए। कहने की जरूरत नहीं कि एक समझदार शख्‍स के समझदार शिष्‍यों की डाली गयी इस परम्‍परा ने भी सूफीवाद को एक बड़ी ऊंचाई दी। ओ ख्‍वाजा,  मेरे ख्‍वाजा। चारों ओर गूंजती यह पुकार, महज यूं ही नहीं है।
लेखक कुमार सौवीर सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. वे कई अखबारों तथा चैनलों में वरिष्‍ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उनका यह लेख लखनऊ से प्रकाशित जनसंदेश टाइम्स अखबार में छप चुका है. वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है

उत्तरप्रदेश में मूर्ति की राजनीत

लाख टके का नहीं दो हजार करोड़ रुपए का सवाल है कि क्या इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ हो सकता है? उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती व्यक्तिपूजा के साथ-साथ स्वपूजा में कितना अधिक विश्वास रखती हैं, इसके प्रमाण विगत वर्षों में कई बार मिल चुके हैं। इस बार आत्मस्तुति का ताजा उदाहरण है अपनी और बसपा के संस्थापक कांशीराम की मूर्तियों सहित पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की कई मूर्तियां लगवाने का। उन पर आरोप है कि 2008-09 व 2009-10 के राज्य बजट से मायावती ने ऐसी परियोजनाओ ंपर करीब दो हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं। इससे क्षुब्ध होकर ही केन्द्रीय गृह मंत्री ने पूछा है कि क्या इससे शर्मनाक कुछ हो सकता है? जब प्रदेश में साक्षरता दर और मानव विकास सूचकांक की दर सबसे कम है, जब पांच करोड़ नब्बे लाख लोग इस प्रदेश में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं, जहां शिशु मृत्यु दर इतनी ज्यादा है, हर ओर गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और अपराध का बोलबाला है, वहां आत्म स्तुति का यह कदम न केवल शर्मनाक है, बल्कि बेहद निंदनीय भी है। शर्म हमको मगर आती नहीं कि तर्ज पर मायावती सरकार और उनके सिपहसालार इस खर्च को सही ठहराने पर तुले हुए हैं। उत्तरप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के बजट का 90 प्रतिशत मायावती ने इन मूर्तियों के लगवान पर खर्च कर दिया है, ऐसा आरोप है। इसमें 2 हजार करोड़ रुपए अंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के निर्माण पर खर्च होंगे। 370 करोड़ रुपए कांशीराम स्मारक, 90 करोड़ कांशीराम सांस्कृतिक स्थल की लागत है। इसी तरह 90 करोड़ रुपए बुध्द स्थल और 65 करोड़ रमाबाई अंबेडकर मैदान पर खर्च होंगे। मुख्यमंत्री और पार्टी के प्रतीक चिन्ह की मूर्ति लगवाना संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन है। यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस विवादास्पद मामले में राज्य सरकार व मुख्यमंत्री को तुरंत कारण बताओ नोटिस जारी किया है। वर्ना मूर्तियों पर खर्च की यह दीवानगी न जाने कहां जाकर रुकती। मायावती के निकट सहयोगी सतीशचंद्र मिश्र इस कदम को सही ठहराते हुए कहते हैं कि दिल्ली में भी तीन मूर्ति चौराहा है, जिसकी कीमत पांच सौ करोड़ के आसपास है। जबकि राज्य सरकार के वकील का तर्क है कि इस खर्च की अनुमति विधानसभा से पहले ही ली जा चुकी है। दिल्ली में सौंदर्यीकरण किया गया इसलिए उत्तरप्रदेश में भी ऐसा हो, यह कतई जरूरी नहीं है। जहां लोगों के पास दो वक्त का भरपेट भोजन और तमाम मूलभूत सुविधाओं का अभाव है, वहां शहरी सौंदर्यीकरण से वीभत्स कार्य कुछ नहीं हो सकता। और विधानसभा में पहुंचे लोगों के सामाजिक सरोकार क्या रह गए हैं, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है। इसलिए इन दोनों तर्कों में कोई दम नहीं है। दरअसल मायावती सत्ता के मद में इस कदर चूर हो गई हैं कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि जनता ने उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया क्यों था। दलित की बेटी होने की भावना अब और वे भुना नहीं सकती। उन्हें अगर यह तथ्य स्थापित करना है कि दलित की मूर्ति लगाने का ध्यान केवल दलित को ही आया तो उन्हें भारत भ्रमण कर देखना चाहिए कि किस तरह हर शहर में संविधान की पुस्तक हाथ में लिए बाबा अंबेडकर की मूर्तियां लगी हुई हैं। जिस संविधान को अपने हाथों में उन्होंने थामे रखा है, उसका अध्ययन भी मायावती को करना चाहिए कि किस तरह उसमें दलितों, वंचितों, शोषितों के कल्याण के रास्ते सुझाए गए हैं। जिस सामंती सत्ता के खिलाफ मोर्चा संभालने के लिए मायावती ने राजनीति में प्रवेश किया था और कांशीराम की उत्तराधिकारी बनने का हक पाया था, आज वे उसी सामंतवाद का हिस्सा बन गई हैं, और उन्हें शायद इसका इल्म भी नहीं है। अगर होता तो अपने मुख्यमंत्रित्व काल का अपव्यय वे सोशल इंजीनियरिंग के दांवपेंच सुलझाने या अपने राजनीतिक विरोधियों से हिसाब चुकता करने में नहीं करती। बल्कि उत्तरप्रदेश की गरीब जनता के उत्थान के लिए, उन्हें 21वीं सदी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार करती। मायावती के धुर विरोधी मुलायम सिंह यादव ने इन मूर्तियों पर बुलडोजर चलवाने की मंशा प्रकट की है। मूर्तियों का खंडन-मंडन राजनीतिक सुविधा के मुताबिक होता रहेगा। लेकिन अपनी मूर्तियां लगवाकर मायावती ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो मारी ही है, बसपा के राजनीतिक भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है।